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10:19, 4 नवम्बर 2014 के समय का अवतरण

पैशाची भाषा वह प्राकृत भाषा है, जो प्राचीन समय में भारतवर्ष के पश्चिमोत्तर प्रदेश में बोली जाती थी। इस भाषा में विरचित गुणाढ्य कृत 'बृहत्कथा' की भारतीय साहित्य में बड़ी ख्याति है।

  • प्राकृत की मध्य कालीन अन्य शौरसेनी आदि प्राकृतों से विशेषता बतलाने वाली प्रवृत्ति यह है कि इसमें क्, ग्, च्, ज् आदि अल्पप्राण वर्णों का लोप नहीं होता और न ख्, घ्, ध्, भ् इन महाप्राण वर्णों के स्थान पर। इस प्रकार पैशाची में वर्ण व्यवस्था अन्य प्राकृतों की अपेक्षा संस्कृत के अधिक निकट है।
  • पैशाची प्राकृत का एक उपभेद 'चूलिका पैशाची' है, जिसमें पैशाची की उक्त प्रवृत्तियों के अतिरिक्त निम्न दो विशेष लक्षण पाए जाते हैं। एक तो यहाँ, सघोष वर्णों, जैसे- ग्, घ्, द्, ध् आदि के स्थान पर क्रमश: अघोष वर्णों क् ख् आदि का आदेश पाया जाता है, जैसे- गंधार = कंधार, गंगा = कंका, भेध: = मेखो, राजा = राचा, निर्झर: = निच्छरो, मधुरं = मथुरं, बालक: = पालको, भगवती = फक्व्ती; दूसरे र् के स्थान पर विकल्प से ल्, जैसे- गोरी = गोली, चरण = चलण, रुद्दं = लुद्दं।
  • अन्य प्राकृतों से मिलान करने पर पैशाची की ज्ञ के स्थान पर 'ञ्ञ' तथा ल् के स्थान पर 'र्' की प्रवृत्तियाँ पालि से मिलती हैं। र् के स्थान पर लू की प्रवृत्ति मागधी प्राकृत का विक्षेप लक्षण ही है। तीनों सकारों के स्थान पर स्, कर्ताकारक एकवचन की विभक्ति ओ, पैशाची को शौरसेनी से मिलाती है। यथार्थत: शौरसेनी से उसका सबसे अधिक साम्य है और इसलिये वैयाकरणों ने उसकी शेष प्रवृत्तियाँ 'शौरसेनीवत्' निर्दिष्ट की है।
  • पैशाची की उक्त प्रवृत्तियों में से कुछ अशोक की पश्चिमोत्तर प्रदेशवर्ती खरोष्ठी लिपि की शहबाजगढ़ी एवं मानसेरा की धर्मलिपियों में तथा इसी लिपि में लिखे गए प्राचीन मध्य एशिया-खोतान तथा पंजाब से प्राप्त हुए लेखों में मिलती हैं।


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