"मागधी भाषा": अवतरणों में अंतर
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'''मागधी''' या मगही [[भारत]] की एक भाषा है। मगही शब्द का विकास मागधी से हुआ है (मागधी > मागही >मगही)। प्राचीन काल में यह [[मगध साम्राज्य]] की भाषा थी। भगवान [[बुद्ध]] अपने उपदेश इसके प्राचीन रुप मागधी प्राकृत में ही देते थे। मगही का [[मैथिली भाषा|मैथिली]] और [[भोजपुरी भाषा|भोजपुरी]] भाषाओं से भी गहरा संबंध है जिन्हें सामूहिक रूप से [[बिहारी भाषाएँ|बिहारी भाषाएं]] कहा जाता है जो इन्डो-आर्यन भाषाएं हैं। मैथिली की पारंपरिक लिपि “कैथी” है पर अब यह सामन्यतः [[देवनागरी लिपि]] में ही लिखी जाती है। मगही [[बिहार]] के मुख्यतः [[पटना]], [[गया]], [[जहानाबाद]], और [[औरंगाबाद ज़िला, बिहार|औरंगाबाद ज़िले]] में बोली जाती है। इसके अलावा यह [[पलामू]], [[गिरिडीह]], हज़ारीबाग, [[मुंगेर]], और [[भागलपुर]], [[झारखंड]] के कुछ ज़िलों तथा [[पश्चिम बंगाल]] के [[मालदा]] में भी बोली जाती है। | '''मागधी''' या मगही [[भारत]] की एक भाषा है। मगही शब्द का विकास मागधी से हुआ है (मागधी > मागही >मगही)। प्राचीन काल में यह [[मगध साम्राज्य]] की भाषा थी। भगवान [[बुद्ध]] अपने उपदेश इसके प्राचीन रुप मागधी प्राकृत में ही देते थे। मगही का [[मैथिली भाषा|मैथिली]] और [[भोजपुरी भाषा|भोजपुरी]] भाषाओं से भी गहरा संबंध है जिन्हें सामूहिक रूप से [[बिहारी भाषाएँ|बिहारी भाषाएं]] कहा जाता है जो इन्डो-आर्यन भाषाएं हैं। मैथिली की पारंपरिक लिपि “कैथी” है पर अब यह सामन्यतः [[देवनागरी लिपि]] में ही लिखी जाती है। मगही [[बिहार]] के मुख्यतः [[पटना]], [[गया]], [[जहानाबाद]], और [[औरंगाबाद ज़िला, बिहार|औरंगाबाद ज़िले]] में बोली जाती है। इसके अलावा यह [[पलामू]], [[गिरिडीह]], हज़ारीबाग, [[मुंगेर]], और [[भागलपुर]], [[झारखंड]] के कुछ ज़िलों तथा [[पश्चिम बंगाल]] के [[मालदा]] में भी बोली जाती है। | ||
[[आधुनिक काल]] में ही मगही के अनेक रुप दृष्टिगत होते हैं। मगही भाषा का क्षेत्र विस्तार अति व्यापक है; अतः स्थान भेद के साथ-साथ इसके रूप बदल जाते हैं। प्रत्येक बोली या भाषा कुछ दूरी पर बदल जाती है। मगही भाषा के निम्नलिखित भेदों का संकेत भाषाविद कृष्णदेव प्रसाद ने किया है :-'सा मागधी मूलभाषा' इस वाक्य से यह बोध होता है कि भगवान गौतम बुद्ध के समय मागधी ही मूल भाषा के रुप में जन सामान्य के बीच बोली जाती थी। कहा जाता है कि भाषा समय पाकर अपना | [[आधुनिक काल]] में ही मगही के अनेक रुप दृष्टिगत होते हैं। मगही भाषा का क्षेत्र विस्तार अति व्यापक है; अतः स्थान भेद के साथ-साथ इसके रूप बदल जाते हैं। प्रत्येक बोली या भाषा कुछ दूरी पर बदल जाती है। मगही भाषा के निम्नलिखित भेदों का संकेत भाषाविद कृष्णदेव प्रसाद ने किया है :-'सा मागधी मूलभाषा' इस वाक्य से यह बोध होता है कि भगवान गौतम बुद्ध के समय मागधी ही मूल भाषा के रुप में जन सामान्य के बीच बोली जाती थी। कहा जाता है कि भाषा समय पाकर अपना स्वरूप बदलती है और विभिन्न रुपों में विकसित होती है। | ||
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सिद्धों की भाषाकार गठनात्मक रुप मगही से पूर्णत: एकनिष्ठ है। किसी भाषा की गठनात्मक | सिद्धों की भाषाकार गठनात्मक रुप मगही से पूर्णत: एकनिष्ठ है। किसी भाषा की गठनात्मक स्वरूप का निरुपण, [[संज्ञा]], [[सर्वनाम]], [[क्रिया]], [[विशेषण]], [[उपसर्ग]] तथा [[प्रत्यय]] आदि से होता है। सिद्धों की भाषा की संज्ञा, सर्वनाम, मगही के समान ही हैं। अत: यह कहा जा सकता है कि सिद्धों की भाषा से ही मगही का भाषिक रुप विकसित है। सिद्धों की भाषा और मगही में पर्याप्त समरुपता है। उदाहरण के लिये यर्यापद की कुछ पंक्तियां देखी जा सकती है: | ||
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आधुनिक काल में मगही भाषा में साहित्य प्रणयन की परम्परा आगे तीव्र गति से बढ़ी है। श्रीकान्त शास्त्री, आधुनिक मगही साहित्य की चेतना का आरम्भ श्रीकृष्णदेव प्रसाद की रचनाओं से मानते हैं। आधुनिक मगही साहित्य की श्रीवृद्धि करने वालों में श्रीकान्त शास्त्री, श्रीकृष्णदेव प्रसाद, रामनरेश, पाठक, जयराम सिंह, रामनन्दन, मृत्युञ्जय मिश्र "करुणेश', योगेश्वर सिंह "योगेश', राम नरेश मिश्र "हंस', बाबूलाल "मधुकर', सतीश मिश्र, रामकृष्ण मिश्र, रामप्रसाद सिंह, रामनरेश प्रसाद वर्मा, रामपुकार सिंह राठौर, गोवर्धन प्रसाद सदय, सूर्यनारायण शर्मा, मथुरा प्रसाद "नवीन', श्रीनन्दन शास्री, सुरेश दूबे "सरस', शेषानन्द मधुकर, रामप्रसाद पुण्डरीक, अनिक विभाकर, मिथिलेश जैतपुरिया, राजेश पाठक, सुरेश आनन्द पाठक, देवनन्दन विकल, रामसिंहासन सिंह विद्यार्थी, श्रीधर प्रसाद शर्मा, कपिलदेव प्रसाद त्रिवेदी, "देव मगहिया', हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी, हरिनन्दन मिश्र "किसलय', रामगोपाल शर्मा "रुद्र', रामसनेही सिंह "सनेही', सिद्धेश्वर पाण्डेय "नलिन', राधाकृष्ण राय आदि के नाम प्रमुक है। जिन कवियों, लेखकों, नाटककारों, कहानीकारों, उपन्यासकारों एवं निबन्धकारों ने साहित्य की विविध विधाओं में रचनाधर्मिता को जिवन्त रखते हुए कलम चलाई है, उनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है : | आधुनिक काल में मगही भाषा में साहित्य प्रणयन की परम्परा आगे तीव्र गति से बढ़ी है। श्रीकान्त शास्त्री, आधुनिक मगही साहित्य की चेतना का आरम्भ श्रीकृष्णदेव प्रसाद की रचनाओं से मानते हैं। आधुनिक मगही साहित्य की श्रीवृद्धि करने वालों में श्रीकान्त शास्त्री, श्रीकृष्णदेव प्रसाद, रामनरेश, पाठक, जयराम सिंह, रामनन्दन, मृत्युञ्जय मिश्र "करुणेश', योगेश्वर सिंह "योगेश', राम नरेश मिश्र "हंस', बाबूलाल "मधुकर', सतीश मिश्र, रामकृष्ण मिश्र, रामप्रसाद सिंह, रामनरेश प्रसाद वर्मा, रामपुकार सिंह राठौर, गोवर्धन प्रसाद सदय, सूर्यनारायण शर्मा, मथुरा प्रसाद "नवीन', श्रीनन्दन शास्री, सुरेश दूबे "सरस', शेषानन्द मधुकर, रामप्रसाद पुण्डरीक, अनिक विभाकर, मिथिलेश जैतपुरिया, राजेश पाठक, सुरेश आनन्द पाठक, देवनन्दन विकल, रामसिंहासन सिंह विद्यार्थी, श्रीधर प्रसाद शर्मा, कपिलदेव प्रसाद त्रिवेदी, "देव मगहिया', हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी, हरिनन्दन मिश्र "किसलय', रामगोपाल शर्मा "रुद्र', रामसनेही सिंह "सनेही', सिद्धेश्वर पाण्डेय "नलिन', राधाकृष्ण राय आदि के नाम प्रमुक है। जिन कवियों, लेखकों, नाटककारों, कहानीकारों, उपन्यासकारों एवं निबन्धकारों ने साहित्य की विविध विधाओं में रचनाधर्मिता को जिवन्त रखते हुए कलम चलाई है, उनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है : | ||
[[आधुनिक काल]] में लोकभाषा और लोकसाहित्य सम्बन्धी अध्ययन के | [[आधुनिक काल]] में लोकभाषा और लोकसाहित्य सम्बन्धी अध्ययन के परिणामस्वरूप मगही के प्राचीन परम्परागत लोकगीतों, लोककथाओं, लोकनाट्यों, मुहावरों, [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|कहावतों]] तथा पहेलियों का संग्रह कार्य बड़ी तीव्रता के साथ किया जा रहा है। साथ ही मगही भाषा में युगोचित साहित्य, अर्थात कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, एकांकी, ललित निबन्ध आदि की रचनाएं, पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन एवं भाषा और साहित्य पर अनुसंधान भी हो रहे हैं। | ||
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*[http://www.ignca.nic.in/coilnet/mg005.htm#top मगही का भाषिक | *[http://www.ignca.nic.in/coilnet/mg005.htm#top मगही का भाषिक स्वरूप और उसका साहित्यिक विकास] | ||
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13:19, 29 अक्टूबर 2017 का अवतरण
मागधी या मगही भारत की एक भाषा है। मगही शब्द का विकास मागधी से हुआ है (मागधी > मागही >मगही)। प्राचीन काल में यह मगध साम्राज्य की भाषा थी। भगवान बुद्ध अपने उपदेश इसके प्राचीन रुप मागधी प्राकृत में ही देते थे। मगही का मैथिली और भोजपुरी भाषाओं से भी गहरा संबंध है जिन्हें सामूहिक रूप से बिहारी भाषाएं कहा जाता है जो इन्डो-आर्यन भाषाएं हैं। मैथिली की पारंपरिक लिपि “कैथी” है पर अब यह सामन्यतः देवनागरी लिपि में ही लिखी जाती है। मगही बिहार के मुख्यतः पटना, गया, जहानाबाद, और औरंगाबाद ज़िले में बोली जाती है। इसके अलावा यह पलामू, गिरिडीह, हज़ारीबाग, मुंगेर, और भागलपुर, झारखंड के कुछ ज़िलों तथा पश्चिम बंगाल के मालदा में भी बोली जाती है।
आधुनिक काल में ही मगही के अनेक रुप दृष्टिगत होते हैं। मगही भाषा का क्षेत्र विस्तार अति व्यापक है; अतः स्थान भेद के साथ-साथ इसके रूप बदल जाते हैं। प्रत्येक बोली या भाषा कुछ दूरी पर बदल जाती है। मगही भाषा के निम्नलिखित भेदों का संकेत भाषाविद कृष्णदेव प्रसाद ने किया है :-'सा मागधी मूलभाषा' इस वाक्य से यह बोध होता है कि भगवान गौतम बुद्ध के समय मागधी ही मूल भाषा के रुप में जन सामान्य के बीच बोली जाती थी। कहा जाता है कि भाषा समय पाकर अपना स्वरूप बदलती है और विभिन्न रुपों में विकसित होती है।
मागधी का विकास
मगही का विकास 'मागधी' शब्द से हुआ है। ध्वनि परिवर्तन के कारण मागधी > मागही > मगही। आद्य अक्षर में स्वर संकोच होने के कारण मा > म के रुप में विकसित हुआ है। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि मगही भाषा का विकास मागधी (पालि) अथवा नाटकों में प्रयुक्त मागधी प्राकृत से हुआ अथवा मगध जनपद में बोली जाने वाली किसी अन्य भाषा से। जहां तक नाटकों में प्रयुक्त होने वाली मागधी प्राकृत का सम्बन्ध है उससे मगही का विकास नहीं माना जा सकता है क्योंकि मागधी में र का ल और स का श हो जाता है। जबकि मगही में र औऱ ल तथा स आदि ध्वनियों का स्वतन्त्र अस्तित्त्व है। मगही में श का प्रयोग ही नहीं होता है। मागधी में ज का य हो जाता है, किन्तु मगही में यह ज के रुप में ही मिलता है, यथा - जन्म > जनम, जल > जल। मागधी में अन्वर्वती च्छ का श्च हो जाता है जबकि मगही में छ का छ ही रहता है, यथा - गच्छ > गाछ, पुच्छ > पूंछ, गुच्छक > गुच्छा। मागधी में क्ष का श्क हो जाता है जबकि मगही में क्ष का ख हो जाता है, यथा - पक्ष > पक्ख > पख, पंख, क्षेत्र > खेत्त > खेत। उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है मागधी प्राकृत से मगही का विकास नहीं माना जा सकता है। पालि जिसे मागधी कहते हैं, उसमें मगही के अनेक शब्द मिलते हैं, यथा - निस्सेनी > निसेनी, गच्छ > गाछ, रुक्ख > रुख, जंखणे > जखने, तंखणे > तखने, कंखणे > कखने, कुहि, कहं > कहां, जहि, जहीं > जहां आदि।
किन्तु पालि और मगही की तुलनात्मक विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि पालि (मागधी) से भी मगही विकसित नहीं हुई है। सुनीति कुमार चटर्जी ने पश्चिमी मागधी अपभ्रंश से बिहारी बोलियों को विकसित माना है। दोहों की भाषा और मगही भाषा की तुलना से यह तथ्य सुनिश्चित होता है कि मगही सिद्धों की भाषा से विकसित हुई है। सर्वनाम में सरहपाद की भाषा में जहां को, जे का प्रयोग होता है, वही मगही के, जे का प्रयोग प्रचलित है। चार, चउदह, दस (दह) आदि संख्यावाचक शब्दों का प्रयोग मगही के समान है। सामयिक परिवर्तन के कारण प्रयोग मगही तथा सिद्धों की मगही में सामयिक परिवर्तन दृष्टिगत होता है किन्तु दोनों की प्रवृत्ति एवं प्रकृति में एकरुपता है।
सिद्धों की शब्दावलियां कुछ परिवर्तन के साथ मगही में प्रयुक्त होती है। यथा - अइसन, अप्पन, कइसे, लेली-लेली, लेलकइ, आइल > आयल, अइलइ, अन्धारि > अंधार, फटिला > फटिलइ, अधराति, अधरतिया, भइली, भेली भइली, आदि। सिद्ध साहित्य की पंक्तियां भी मगही के अत्यन्त निकट मालूम पड़ती है :
भाव न होइ अभाव ण जागइ।
अइस संवाहै को पतिआइ।।
आजि भूसु बंगाली भइली
णिअधरणी चण्डाली लली (चर्यापद 29)।
गठनात्मक रुप
सिद्धों की भाषाकार गठनात्मक रुप मगही से पूर्णत: एकनिष्ठ है। किसी भाषा की गठनात्मक स्वरूप का निरुपण, संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, उपसर्ग तथा प्रत्यय आदि से होता है। सिद्धों की भाषा की संज्ञा, सर्वनाम, मगही के समान ही हैं। अत: यह कहा जा सकता है कि सिद्धों की भाषा से ही मगही का भाषिक रुप विकसित है। सिद्धों की भाषा और मगही में पर्याप्त समरुपता है। उदाहरण के लिये यर्यापद की कुछ पंक्तियां देखी जा सकती है:
सरह भषइ जप उजु भइला
(सरहपा चर्यापद)
नाना तरुवर माउलिल ते गअणत लालेगि डालि।
(सरहपा चर्यापद)
आइल गराहक अपने बहिआ।
(बिरुआ, चर्यापद)
उपर्युक्त पंक्तियों में सिद्धों ने वर्तमान भूतकालिक कृदन्त प्रत्यय "इल' का प्रयोग किया है। ऐसे प्रयोग आधुनिक मगही में भी मिलते हैं। मागधी अपभ्रंश से आधुनिक मगही पूर्णत: सम्बद्ध है। अपभ्रंश में प्रयुक्त विभक्तियुक्त संज्ञापदों के रुप मगही में पाये जाते हैं, यथा - "घरे में दिनरात बइठल ही। बाबू जी घरे न हथुन।" अपभ्रंश काल में विभक्तिबोधक पर सर्गों का प्रयोग होने लगा था, जिनका विकास अन्य भाषाओं के साथ मगही में भी हुआ। इसी प्रकार संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया आदि का विकास मागधी (पश्चिमी) अपभ्रंश से हुआ। अपभ्रंश में तत्सम शब्दों के बहिष्कार की प्रकृति दृष्टिगत होती है, आधुनिक मगही में भी यह प्रवृत्ति वर्तमान है। मगही के तद्भव और देशी शब्द-तन्त्र मुख्यत: प्राकृत और अपभ्रंश के शब्द-तन्त्र के ही विकसित रुप हैं। यहां यह बता देना समीचीन है कि सिद्ध साहित्य के रुप में प्राप्त मगही के प्राचीनकालिक स्वरूप के अनन्तर उसके आधुनिक रुप ही मिलते हैं, मध्यकालीन स्वरूप अप्राप्त है।
विशेषताएँ
- 'मागधी' मगध के आस-पास की मूल भाषा है।
- सामान्यत: कुछ लोग मागधी का सम्बन्ध महाराष्ट्र से मानते हैं।
- मागधी और लास्सन महाराष्ट्री को एक मानते थे।
- इसकी अपनी कोई स्वतंत्र रचना नहीं है।
- निम्न श्रेणी के पात्र जो संस्कृत नाटकों में होते हैं वो इसका प्रयोग करते हैं।
- अश्वघोष को इसका प्राचीनतम रूप मानते हैं।
- मागधी की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- इसमें स्, ष् के स्थान पर 'श्' मिलता है (सप्य>शत, पुरुष>पुलिश)।
- इसमें 'र' का सर्वत्र 'ल' हो जाता है (राजा>लाजा)।
- प्रथमा एकवचन में संस्कृत -अ: के स्थान पर यहाँ -ए मिलता है (देव:>देवे, स:>शे)।
भाषात्त्व
मगही का स्वतन्त्र भाषात्त्व है किन्तु मैथिली भाषा वैज्ञानिकों अर्थात जयकान्त मिश्र ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि मगही का स्वतन्त्र अस्तित्त्व है। जयकान्त मिश्र ने मगही को मैथिली की एक उपबोली के रुप में सिद्ध किया है किन्तु मैथिली और मगही को एक दूसरे से पृथक् करने वाली विशिष्टता दोनों की औच्चारणिक एवं ध्वन्यात्मक परिवर्तन की प्रकिया है। अत: मगही को मैथिली की उपबोली के रुप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इसका स्वतन्त्र भाषात्त्व है।
मगही तथा भोजपुरी में भी कुछ भाषिक एवं व्याकरणिक एकरुपता दृष्टिगत होती है, किन्तु दोनों भाषाओं का पृथक-पृथक् अस्तित्त्व है। बिहारी बोलियों में पायी जाने वाली आन्तरिक एकरुपता अवश्य मिलती है। किन्तु आन्तरिक विषमता भी प्रभूत रुप में मिलती है। मगही तथा भोजपुरी में व्याकरणिक भिन्नता भी है। मगही क्रियाओं में जहां कर्ता के अनुरुप लिंगभेद नहीं होता वहां भोजपुरी में होता हा। संक्षेपत: यह कहा जा सकता है कि मगही की स्वतन्त्र भाषिक सत्ता है।
मगही भाषा की सीमा का विवेचन करने पर पता चलता है कि यह केवल पटना और गया ज़िले में ही नहीं अपितु झारखण्ड प्रदेश के हजारीबाग, गिरिडीह आदि ज़िले में भी बोली जाती है। मगध के पश्चिमी सीमा पर झारखण्ड राज्य के पलामू ज़िले के कुछ भागों में तथा पूर्व में बिहार राज्य के ही मुंगेर तथा भागलपुर के क्षेत्रों में भी मगही बोली जाती है।
मगही क्षेत्र के उत्तर में गंगापार तिरहुत क्षेत्र में मैथिली बोली का क्षेत्र है। पश्चिम में शाहाबाद तथा पलामू का भोजपुरी क्षेत्र है। उत्तर पूर्वी सीमा पर मुंगेर, भागपुर और संथाल परगना (झारखण्ड) में अंगिका (छिकाछिकी) बोली जाती है। मगही की दक्षिण सीमा पर रांची में सदानी भोजपुरी का क्षेत्र है।
मगही के रूप
ग्रियर्सन ने मगही के दो रुपों को स्वीकार किया है:
- पूर्वी मगही
- शुद्ध मगही
- पूर्वी मगही
पूर्वी मगही का कोई शृंखलाबद्ध रुप नहीं है। यह मगही हजारीबाग़ के दक्षिणपूर्व भाग, मानभूम एवं रांची के दक्षिण पूर्व भाग खारासावां तथा दक्षिण में मयूरभंज एवं बामरा तक बोली जाती है। मालदा ज़िले के पश्चिमी भाग में भी पूर्वी मगही का क्षेत्र है।
- शुद्ध मगही
शुद्ध मगही अपने क्षेत्र में बोली जाती है। यह पश्चिमी क्षेत्र में पटना, गया, हजारीबाग, मुंगेर और भागलपुर ज़िले में ही नहीं अपितु पूर्व क्षेत्र में रांची के दक्षिण भाग में, सिंहभूम के उत्तरी क्षेत्र में तथा सरायकेला एवं कारसावां के कुछ क्षेत्रों में मगही बोली जाती है।
- मिश्रित मगही
पूर्वी मगही तथा शुद्ध मगही के साथ ही मिश्रित मगही की भी एक व्यापक संज्ञा हो सकती है। मिश्रित मगही का रुप वहां दिखाई पड़ता है जहां आदर्श मगही अपनी सीमा पर अन्य सहोदर भाषाओं, जैसे मैथिली और भोजपुरी से एक से एक होकर एवं अपने अस्तित्त्व को क्षीरोदकीभूत कर सीमावर्ती बोलियों के रुप में व्यक्त होती है।
आधुनिक काल में मगही
आधुनिक काल में ही मगही के अनेक रुप दृष्टिगत होते हैं। मगही भाषा का क्षेत्र विस्तार अति व्यापक है, परिणामत: स्थान भेद के कारण इसके रुप भेद भी प्रचलित हैं। प्रत्येक बोली या भाषा कुछ दूरी पर बदल जाती है।
- कृष्णदेव प्रसाद के अनुसार
मगही भाषा के निम्नलिखित भेदों का संकेत कृष्णदेव प्रसाद ने किया है :
- आदर्श-मगही
- शुद्ध-मगही
- टलहामगही
- सोनतरियामगही
- जंगलीमगही
- आदर्श- मगही
यह मुख्यत: गया ज़िले में बोली जाती है।
- शुद्ध -मगही
इस प्रकार की मगही राजगृह से लेकर बिहारशरीफ के उत्तर चार कोस बयना स्टेशन (रेलवे) पटना ज़िले के अन्य क्षेत्रों में बोली जाती है
- टलहा -मगही
टलहा मगही मुख्य रुप से मोकामा, बड़हिया, बाढ़ अनुमण्डल के इस पार के कुछ पूर्वी भाग और लक्खीसराय थाना के कुछ उत्तरी भाग गिद्धौर और पूर्व में फतुहां में बोली जाती है।
- सोनतरिया मगही
सोन नदी के तटवर्ती भू-भाग में पट्ना और गया ज़िले में सोनतरिया मगही बोली जाती है।
- जंगली मगही
राजगृह, गया, झारखण्ड प्रदेश के छोटानागपुर (उत्तरी छोटानागपुर मूलत:) और विशेषतौर से हजारीबाग़ के वन्य या जंगली क्षेत्रों में जंगली मगही बोली जाती है।
- ग्रियर्सन महोदय के अनुसार
श्री कृष्णदेव प्रसाद ने पूर्वी मगही का उल्लेख नहीं किया है। ग्रियर्सन महोदय के अनुसार पूर्वी मगही का क्षेत्र हजारीबाग, मानभूम, दक्षिणभूम, दक्षिणपूर्व रांची तथा उड़ीसा में स्थित खारसावां एवं मयुरभंज के कुछ भाग तथा छत्तीसगढ़ के वामड़ा में है। मालदा ज़िले के दक्षिण में भी ग्रियर्सन पूर्वी-मगही की स्थिति स्वीकार करते हैं। भोलानाथ तिवारी ने मगही के चार रुपों का निर्धारण हिन्दी भाषा नामक पुस्तक में किया है :
- आदर्श-मगही
- पूर्वी-मगही
- जंगली-मगही
- सोनतरी मगही
- भोलानाथ तिवारी के अनुसार
भोलानाथ तिवारी की मान्यता है कि मगही का परिनिष्ठित रुप गया ज़िले में बोला जाता है। ग्रियर्सन ने भी गया ज़िले में बोली जाने वाली मगही को विशुद्धतम की संज्ञा[1] दी है। प्राचीन गया जनपद में मगही भाषा के तीन स्पष्ट भेद प्रचलित थे। नवादा अनुमण्डल, औरंगाबाद अनुमण्डल तथा गया के शेष क्षेत्र की मगही में स्पष्ट अन्तर है। किन्तु ज़िले के पुनर्गठन के पश्चात गया ज़िले में एक ही प्रकार की मगही प्रचलित है। पटना ज़िले के दक्षिणी भाग और प्राय: सम्पूर्ण गया ज़िले में विशेष रुप से एकरुपता पायी जाती है। पटना और गया ज़िले की भाषा को ही परिनिष्ठित मगही मानना युक्तिसंगत एवं समीचीन है। अत: ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन' जो कि पालि भाषा के मगध विश्वविद्यालय में विबागाध्यक्ष हैं मगही साहित्यकारों से निवेदन करते हुऐ लिखते हैं; 'मगही साहित्याकारों से अत: मेरा निवेदन है कि वे गया की मगही को ही परिनिष्ठित मानकर अपने रचनात्मक कार्यों का सम्पादन करें।'
मगही भाषा के प्राचीन साहित्कार
मगही भाषा के प्राचीन साहित्येतिहास का प्रारम्भ आठवीं शताब्दी के सिद्ध कवियों की रचनाओं से होता है। सरहपा की रचनाओं का सुव्यवस्थित एवं वैज्ञानिक संस्करण दोहाकोष के नाम से प्रकाशित है जिसके सम्पादक महापणिडत राहुल सांकृत्यायन हैं। सिद्धों की परम्परा में मध्यकाल के अनेक संतकवियों ने मगधी भाषा में रचनायें की। इन कवियों में बाबा करमदास, बाबा सोहंगदास, बाबा हेमनाथ दास आदि अनेक कवियों के नाम उल्लेख हैं।
आधुनिक काल में मगही भाषा
आधुनिक काल में मगही भाषा में साहित्य प्रणयन की परम्परा आगे तीव्र गति से बढ़ी है। श्रीकान्त शास्त्री, आधुनिक मगही साहित्य की चेतना का आरम्भ श्रीकृष्णदेव प्रसाद की रचनाओं से मानते हैं। आधुनिक मगही साहित्य की श्रीवृद्धि करने वालों में श्रीकान्त शास्त्री, श्रीकृष्णदेव प्रसाद, रामनरेश, पाठक, जयराम सिंह, रामनन्दन, मृत्युञ्जय मिश्र "करुणेश', योगेश्वर सिंह "योगेश', राम नरेश मिश्र "हंस', बाबूलाल "मधुकर', सतीश मिश्र, रामकृष्ण मिश्र, रामप्रसाद सिंह, रामनरेश प्रसाद वर्मा, रामपुकार सिंह राठौर, गोवर्धन प्रसाद सदय, सूर्यनारायण शर्मा, मथुरा प्रसाद "नवीन', श्रीनन्दन शास्री, सुरेश दूबे "सरस', शेषानन्द मधुकर, रामप्रसाद पुण्डरीक, अनिक विभाकर, मिथिलेश जैतपुरिया, राजेश पाठक, सुरेश आनन्द पाठक, देवनन्दन विकल, रामसिंहासन सिंह विद्यार्थी, श्रीधर प्रसाद शर्मा, कपिलदेव प्रसाद त्रिवेदी, "देव मगहिया', हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी, हरिनन्दन मिश्र "किसलय', रामगोपाल शर्मा "रुद्र', रामसनेही सिंह "सनेही', सिद्धेश्वर पाण्डेय "नलिन', राधाकृष्ण राय आदि के नाम प्रमुक है। जिन कवियों, लेखकों, नाटककारों, कहानीकारों, उपन्यासकारों एवं निबन्धकारों ने साहित्य की विविध विधाओं में रचनाधर्मिता को जिवन्त रखते हुए कलम चलाई है, उनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है :
आधुनिक काल में लोकभाषा और लोकसाहित्य सम्बन्धी अध्ययन के परिणामस्वरूप मगही के प्राचीन परम्परागत लोकगीतों, लोककथाओं, लोकनाट्यों, मुहावरों, कहावतों तथा पहेलियों का संग्रह कार्य बड़ी तीव्रता के साथ किया जा रहा है। साथ ही मगही भाषा में युगोचित साहित्य, अर्थात कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, एकांकी, ललित निबन्ध आदि की रचनाएं, पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन एवं भाषा और साहित्य पर अनुसंधान भी हो रहे हैं।
प्रबन्ध काव्य एवं महाकाव्य
- हरिनाथ मिश्र - ललित रामायन
- हरिनाथ मिश्र - ललित भागवत
- रामप्रसाद सिंह - लोहा मरद
- योगेश्वर प्रसाद सिंह "योगेश' - गौतम
- योगेश पाठक - जरासंध
खण्ड काव्य
- मिथिलेश प्रसाद मिथिलेश - रधिया
- रामप्रसाद सिंह - सरहपाद
मुक्तक काव्य
- रामनरेश प्रसाद वर्मा - च्यवन
- स्वर्णकिरण - जीवक, सुजाता
- सुरेश दूवे ""सरस - निहोरा
- प्रसाद सिंह - परसपल्लव
- रामविलास रजकण - वासंती
- रामविलास रजकण - दूज के चाँद
- रामविलास रजकण - पनसोखा रजनीगंधा
- रामपुकार सिंह राठौर - औजन
- रामसिंहासन सिंह - जगरना
- योगेश्वर प्रसाद ""योगेश - लोटचुट्टी
गीतिकाव्य और कविता
- रामकृष्ण मिश्र - गीत के जुड़छाँट
- रामकृष्ण मिश्र - बेलपत्तर
- रामदास आर्य - गीत आदमी के
- स्वर्णकिरण - धरती फट गेलई
- श्रीनन्दन शास्री - अप्पनगीत
- महेन्द्र प्रसाद देहाती - पपिहरा
- जय प्रकाश - माटी के दीया
- रामाधार सिंह आधार - मगही कवितावली
- सतीश कुमार मिश्र - टूसा
- स्वर्णकिरण - धरती के पाती
- जयनाथ कवि - पनघट
- रामनगीना सिंह मगहिया - हलफा
- राजेनेद्र सिंह - लुआठी
- योगेश्वर प्रसाद सिंह योगेश - तुलसीदास
- रंजन कुमार मिश्र - ढ़रकित लोर
- मथुरा प्रसाद नवीन - बड़हिया गोली कांड
- राजकुमार प्रसाद - लुत्ती
- मृत्युञ्जय मिश्र करुणेश - गजल हे नाम
- दीनबन्धु - तीत-मीठ-गजलगीत
- सुरेश दत्त मिश्र - उगेन
- रामगोपाल शर्मा रुद्र - उपदेस - गाथा
- श्यामप्यारी कुँअर - वंदना
- रामनगीना सिंह मगहिया - भोर
- स्वर्णकिरण - मुआर
- ब्रजमोहन पाण्डेय नलिन (सं) - अतीत - गाथा
- रामप्रसाद सिंह (सं.) - झरोखा
- रामप्रसाद सिंह (सं.) - मुस्कान
- बाबूलाल मधुकर - लहरा
- रामनगीना सिंह महरिया - विक्रमपुकार
- रामनगीना सिंह महरिया - धरड़या गीत
- रामनगीना सिंह महरिया - विक्रम प्रतिज्ञा
- रामनगीना सिंह महरिया - गवई गीत
- रामनगीना सिंह महरिया - जय मगही
- योगेश्वर प्रसाद सिंह योगेश - इँजोर
- बाबूलाल मधुकर - अंगुरी के दाग
- महेन्द्र प्रसाद शुभांसु - तरस उठल जियरा
- गोविन्द प्यासा - बधवा में भेलड़ बिहान
- गोविन्द प्यासा - सँझउती
- राजेन्द्र पाण्डेय - ढिबरी
कहानी संग्रह
- जितेन्द्र वत्स - किरिया करम
- श्रीकान्त शास्री - मगही कहानी सेंगरन
- राजेश्वर पाठक ""राजेश - नगरबहू
- लक्ष्मण प्रसाद - कथा थउद
- रामनरेश प्रसाद वर्मा - सेजियादान
- अभिमन्यु प्रसाद मौर्य - कथा सरोवर
- अलखदेव प्रसाद अचल - कथाकली
- सुरेश प्रदास निर्द्वेन्द्ध - मुरगा बोल देलक
- तारकेश्वर भारती - नैना काजर
- राधाकृष्ण - ए नेउर तू गंगा जा
- रामनन्दन - लुट गेलिया
- ब्रजमोहन पाण्डेय ""नलिन - एक पर एक
- रामचन्द्र अदीप - गमला में गाछ
- रामचन्द्र अदीप - बिखरइत गुलपासा
नाटक
- बाबूलाल मधुकर - नयका भोर
- हरिनन्दन किसलय - अप्पन गाँव
- बाबूराम सिंह ""लमगोड़ा - गन्धारी के सराप
- बाबूराम सिंह ""लमगोड़ा - बुज्झल दीया क मट्टी
- अलखदेव प्रसाद अचल - बदलाव
- अभिमन्यु प्रसाद मौर्य - प्रेम अइसन होवड हे
- सत्येन्द्र प्रसाद सिंह - अँचरवा के लाज
- केशव प्रसाद वर्मा - कनहइया क दरद
- रानन्दन - कौमुदी महोत्सव
- रामनरेश मिस्त्र ""हंस - सुजाता
- रघुवीर प्रसाद समदर्शी - भस्मासुर
- गोपाल रावत पिपासा - आधी रात के बाद
एकांकी संग्रह
- छोटू नारायण शर्मा - मगही के दू फूल
- केशव प्रसाद वर्मा - सोना के सीता
उपन्यास
- जयनाथ पति - सुनीता
- जयनाथ पति - फूलबहादुर
- जयनाथ पति - गदहनीत
- राजेन्द्र प्रसाद चौधेय - बिसेसरा
- राम नन्दन - आदमी आउ देवता
- श्रीकान्त शास्री - गोदना
- चक्रधर शर्मा - हाय रे उ दिन
- चक्रधर शर्मा - साकल्य
- बाबूलाल मधुकर - रमरतिया
- द्वारिका प्रसाद - मोनाभिन्या
- उपमा दत्त - पियक्कड़
- रामप्रसाद सिंह - नरक-सरग-धरती
- रामविलास रजकण - धूमैल धोती
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारत की भाषा का सर्वेक्षण, खण्ड 5 भाग 2, पृ. 123
बाहरी कड़ियाँ
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