"देवनागरी लिपि": अवतरणों में अंतर
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*इसे नागरी लिपि भी कहा जाता है। | *देवनागरी एक लिपि है जिसमें अनेक भारतीय भाषाएँ तथा कुछ विदेशी भाषाएँ लिखीं जाती हैं। [[संस्कृत]], [[पालि भाषा|पालि]], [[हिन्दी]], [[मराठी भाषा|मराठी]], [[कोंकणी भाषा|कोंकणी]], सिन्धी, कश्मीरी, [[नेपाली भाषा|नेपाली]], गढ़वाली, बोडो, अंगिका, मगही, [[भोजपुरी भाषा|भोजपुरी]], [[मैथिली भाषा|मैथिली]], संथाली आदि भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाती हैं। इसे नागरी लिपि भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में [[गुजराती भाषा|गुजराती]], [[पंजाबी भाषा|पंजाबी]], बिष्णुपुरिया मणिपुरी, रोमानी और [[उर्दू]] भाषाएं भी देवनागरी में लिखी जाती हैं। | ||
*इसमें कुल 52 अक्षर हैं, जिसमें 14 स्वर और 38 व्यंजन हैं। अक्षरों की क्रम व्यवस्था (विन्यास) भी बहुत ही वैज्ञानिक है। स्वर-व्यंजन, कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण, अनुनासिक्य-अन्तस्थ-उष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं। एक मत के अनुसार देवनगर (काशी) मे प्रचलन के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा।<ref name="dev">{{cite web |url=http://vimisahitya.wordpress.com/2008/09/02/dewanaagaree_parichay/ |title=हिन्दी साहित्य |accessmonthday=28 सितंबर |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink= |format=एचटीएमएल |publisher= |language=हिन्दी }}</ref> | |||
*[[भारत]] तथा [[एशिया]] की अनेक लिपियों के संकेत देवनागरी से अलग हैं (उर्दू को छोडकर), पर उच्चारण व वर्ण-क्रम आदि देवनागरी के ही समान हैं — क्योंकि वो सभी [[ब्राह्मी लिपि]] से उत्पन्न हुई हैं। इसलिए इन लिपियों को परस्पर आसानी से लिप्यन्तरित किया जा सकता है। देवनागरी लेखन की दृष्टि से सरल, सौन्दर्य की दृष्टि से सुन्दर और वाचन की दृष्टि से सुपाठ्य है।<ref name="dev">{{cite web |url=http://vimisahitya.wordpress.com/2008/09/02/dewanaagaree_parichay/ |title=हिन्दी साहित्य |accessmonthday=28 सितंबर |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink= |format=एचटीएमएल |publisher= |language=हिन्दी }}</ref> | |||
*इसका विकास उत्तर भारतीय ऐतिहासिक [[गुप्त लिपि]] से हुआ, हालांकि अंतत: इसकी व्युत्पत्ति [[ब्राह्मी लिपि|ब्राह्मी]] वर्णाक्षरों से हुई, जिससे सभी आधुनिक भारतीय लिपियों का जन्म हुआ है। सातवीं शताब्दी से इसका उपयोग हो रहा है, लेकिन इसके परिपक्व स्वरूप का विकास 11वीं शताब्दी में हुआ। | *इसका विकास उत्तर भारतीय ऐतिहासिक [[गुप्त लिपि]] से हुआ, हालांकि अंतत: इसकी व्युत्पत्ति [[ब्राह्मी लिपि|ब्राह्मी]] वर्णाक्षरों से हुई, जिससे सभी आधुनिक भारतीय लिपियों का जन्म हुआ है। सातवीं शताब्दी से इसका उपयोग हो रहा है, लेकिन इसके परिपक्व स्वरूप का विकास 11वीं शताब्दी में हुआ। | ||
*देवनागरी की विशेषता अक्षरों के शीर्ष पर लंबी क्षैतिज रेखा है, जो आधुनिक उपयोग में सामान्य तौर पर जुड़ी हुई होती है, जिससे लेखन के दौरान शब्द के ऊपर अटूट क्षैतिक रेखा का निर्माण होता है। | *देवनागरी की विशेषता अक्षरों के शीर्ष पर लंबी क्षैतिज रेखा है, जो आधुनिक उपयोग में सामान्य तौर पर जुड़ी हुई होती है, जिससे लेखन के दौरान शब्द के ऊपर अटूट क्षैतिक रेखा का निर्माण होता है। | ||
*देवनागरी को बाएं से दाहिनी ओर लिखा जाता | *देवनागरी को बाएं से दाहिनी ओर लिखा जाता है। हालांकि यह लिपि मूलत: वर्णाक्षरीय है, लेकिन उपयोग में यह आक्षरिक है, जिसमें प्रत्येक व्यंजन के अंत में एक लघु ध्वनि को मान लिया जाता है, बशर्ते इससे पहले वैकल्पिक स्वर के चिह्न का उपयोग न किया गया हो। देवनागरी को स्वर चिह्नों के बिना भी लिखा जाता रहा है। | ||
*यह एक ध्वन्यात्मक लिपि है जो प्रचलित लिपियों (रोमन, अरबी, चीनी आदि) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है। इससे वैज्ञानिक और व्यापक लिपि शायद केवल आइपीए लिपि है। <ref name="dev">{{cite web |url=http://vimisahitya.wordpress.com/2008/09/02/dewanaagaree_parichay/ |title=हिन्दी साहित्य |accessmonthday=28 सितंबर |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink= |format=एचटीएमएल |publisher= |language=हिन्दी }}</ref> | |||
==इतिहास== | ==इतिहास== | ||
उत्तर भारत में नागरी लिपि के लेख 8वीं – 9वीं शताब्दी से मिलने लग जाते हैं। दक्षिण भारत में इसके लेख कुछ पहले से मिलते हैं। वहाँ यह ‘नंदिनागरी’ कहलाती थी। ‘नागरी’ नाम की व्युत्पति एवं अर्थ के बारे में पुराविद एकमत नहीं हैं। ‘ललित-विस्तर’ की 64 लिपियों में एक ‘नाग लिपि’ नाम मिलता है। किन्तु ‘ललित-विस्तर’ (दूसरी शताब्दी ई.) की ‘नाग-लिपि’ के आधार पर नागरी लिपि का नामकरण संभव नहीं जान पड़ता । एक अन्य मत के अनुसार, [[गुजरात]] के नागर ब्राह्मणों द्वारा सर्वप्रथम उपयोग किये जाने के कारण इसका नाम नागरी पड़ा। यह मत भी साधार नहीं प्रतीत होता। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि, बाकी नगर तो केवल नगर ही हैं किंतु [[काशी]] देवनगरी है, और वहाँ इसका प्रचार होने के कारण इस लिपि का नाम ‘देवनागरी’ पड़ा। इस मत को स्वीकार करने में अड़चनें हैं। एक अन्य मत के अनुसार, नगरों में प्रचलित होने के कारण यह नागरी कहलाई। इस मत को कुछ हद तक स्वीकार किया जा सकता है। दक्षिण के विजयनगर राजाओं के दानपत्रों की लिपि को नंदिनागरी का नाम दिया गया है। यह भी संभव है कि नंदिनगर (आधुनिक नांदेड़, [[महाराष्ट्र]]) की लिपि होने के कारण इसके लिए नागरी का नाम अस्तित्व में आया। पहले-पहल विजयनगर राज्य के लेखों में नागरी लिपि का व्यवहार देखने को मिलता है। बाद में जब उत्तर भारत में भी इसका प्रचार हुआ, तो ‘नंदि’ की तरह यहाँ ‘देव’ शब्द इसके पहले जोड़ दिया गया होगा। जो भी हो, अब तो यह नागरी या देवनागरी शब्द उत्तर भारत में 8वीं से आज तक लिखे गये प्राय: सभी लेखों की लिपि-शैलियों के लिए प्रयुक्त होता है। दसवीं शताब्दी में [[पंजाब]] और [[कश्मीर]] में प्रयुक्त शारदा लिपि नागरी की बहन थी, और बांग्ला लिपि को हम नागरी की पुत्री नहीं तो बहन मान सकते हैं । आज समस्त उत्तर भारत में ([[नेपाल]] में भी) और संपूर्ण महाराष्ट्र में देवनागरी लिपि का इस्तेमाल होता है।<ref>{{cite book |last=मुळे |first=गुणाकर |authorlink= |coauthors= |title=अक्षर कथा |year= |publisher=सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार |location=नई दिल्ली |id= }}</ref> | उत्तर भारत में नागरी लिपि के लेख 8वीं – 9वीं शताब्दी से मिलने लग जाते हैं। दक्षिण भारत में इसके लेख कुछ पहले से मिलते हैं। वहाँ यह ‘नंदिनागरी’ कहलाती थी। ‘नागरी’ नाम की व्युत्पति एवं अर्थ के बारे में पुराविद एकमत नहीं हैं। ‘ललित-विस्तर’ की 64 लिपियों में एक ‘नाग लिपि’ नाम मिलता है। किन्तु ‘ललित-विस्तर’ (दूसरी शताब्दी ई.) की ‘नाग-लिपि’ के आधार पर नागरी लिपि का नामकरण संभव नहीं जान पड़ता । एक अन्य मत के अनुसार, [[गुजरात]] के नागर ब्राह्मणों द्वारा सर्वप्रथम उपयोग किये जाने के कारण इसका नाम नागरी पड़ा। यह मत भी साधार नहीं प्रतीत होता। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि, बाकी नगर तो केवल नगर ही हैं किंतु [[काशी]] देवनगरी है, और वहाँ इसका प्रचार होने के कारण इस लिपि का नाम ‘देवनागरी’ पड़ा। इस मत को स्वीकार करने में अड़चनें हैं। एक अन्य मत के अनुसार, नगरों में प्रचलित होने के कारण यह नागरी कहलाई। इस मत को कुछ हद तक स्वीकार किया जा सकता है। दक्षिण के विजयनगर राजाओं के दानपत्रों की लिपि को नंदिनागरी का नाम दिया गया है। यह भी संभव है कि नंदिनगर (आधुनिक नांदेड़, [[महाराष्ट्र]]) की लिपि होने के कारण इसके लिए नागरी का नाम अस्तित्व में आया। पहले-पहल विजयनगर राज्य के लेखों में नागरी लिपि का व्यवहार देखने को मिलता है। बाद में जब उत्तर भारत में भी इसका प्रचार हुआ, तो ‘नंदि’ की तरह यहाँ ‘देव’ शब्द इसके पहले जोड़ दिया गया होगा। जो भी हो, अब तो यह नागरी या देवनागरी शब्द उत्तर भारत में 8वीं से आज तक लिखे गये प्राय: सभी लेखों की लिपि-शैलियों के लिए प्रयुक्त होता है। दसवीं शताब्दी में [[पंजाब]] और [[कश्मीर]] में प्रयुक्त शारदा लिपि नागरी की बहन थी, और बांग्ला लिपि को हम नागरी की पुत्री नहीं तो बहन मान सकते हैं । आज समस्त उत्तर भारत में ([[नेपाल]] में भी) और संपूर्ण महाराष्ट्र में देवनागरी लिपि का इस्तेमाल होता है।<ref>{{cite book |last=मुळे |first=गुणाकर |authorlink= |coauthors= |title=अक्षर कथा |year= |publisher=सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार |location=नई दिल्ली |id= }}</ref> | ||
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*[http://dhankedeshme.blogspot.com/2009/05/blog-post_11.html देवनागरी लिपि - पूर्णतः वैज्ञानिक लिपि] | |||
*[http://pratibhaas.blogspot.com/2007/08/blog-post.html देवनागरी लिपि अपनायें] | |||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{भाषा और लिपि}} | {{भाषा और लिपि}} |
14:40, 28 सितम्बर 2010 का अवतरण
- देवनागरी एक लिपि है जिसमें अनेक भारतीय भाषाएँ तथा कुछ विदेशी भाषाएँ लिखीं जाती हैं। संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कोंकणी, सिन्धी, कश्मीरी, नेपाली, गढ़वाली, बोडो, अंगिका, मगही, भोजपुरी, मैथिली, संथाली आदि भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाती हैं। इसे नागरी लिपि भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पंजाबी, बिष्णुपुरिया मणिपुरी, रोमानी और उर्दू भाषाएं भी देवनागरी में लिखी जाती हैं।
- इसमें कुल 52 अक्षर हैं, जिसमें 14 स्वर और 38 व्यंजन हैं। अक्षरों की क्रम व्यवस्था (विन्यास) भी बहुत ही वैज्ञानिक है। स्वर-व्यंजन, कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण, अनुनासिक्य-अन्तस्थ-उष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं। एक मत के अनुसार देवनगर (काशी) मे प्रचलन के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा।[1]
- भारत तथा एशिया की अनेक लिपियों के संकेत देवनागरी से अलग हैं (उर्दू को छोडकर), पर उच्चारण व वर्ण-क्रम आदि देवनागरी के ही समान हैं — क्योंकि वो सभी ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न हुई हैं। इसलिए इन लिपियों को परस्पर आसानी से लिप्यन्तरित किया जा सकता है। देवनागरी लेखन की दृष्टि से सरल, सौन्दर्य की दृष्टि से सुन्दर और वाचन की दृष्टि से सुपाठ्य है।[1]
- इसका विकास उत्तर भारतीय ऐतिहासिक गुप्त लिपि से हुआ, हालांकि अंतत: इसकी व्युत्पत्ति ब्राह्मी वर्णाक्षरों से हुई, जिससे सभी आधुनिक भारतीय लिपियों का जन्म हुआ है। सातवीं शताब्दी से इसका उपयोग हो रहा है, लेकिन इसके परिपक्व स्वरूप का विकास 11वीं शताब्दी में हुआ।
- देवनागरी की विशेषता अक्षरों के शीर्ष पर लंबी क्षैतिज रेखा है, जो आधुनिक उपयोग में सामान्य तौर पर जुड़ी हुई होती है, जिससे लेखन के दौरान शब्द के ऊपर अटूट क्षैतिक रेखा का निर्माण होता है।
- देवनागरी को बाएं से दाहिनी ओर लिखा जाता है। हालांकि यह लिपि मूलत: वर्णाक्षरीय है, लेकिन उपयोग में यह आक्षरिक है, जिसमें प्रत्येक व्यंजन के अंत में एक लघु ध्वनि को मान लिया जाता है, बशर्ते इससे पहले वैकल्पिक स्वर के चिह्न का उपयोग न किया गया हो। देवनागरी को स्वर चिह्नों के बिना भी लिखा जाता रहा है।
- यह एक ध्वन्यात्मक लिपि है जो प्रचलित लिपियों (रोमन, अरबी, चीनी आदि) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है। इससे वैज्ञानिक और व्यापक लिपि शायद केवल आइपीए लिपि है। [1]
इतिहास
उत्तर भारत में नागरी लिपि के लेख 8वीं – 9वीं शताब्दी से मिलने लग जाते हैं। दक्षिण भारत में इसके लेख कुछ पहले से मिलते हैं। वहाँ यह ‘नंदिनागरी’ कहलाती थी। ‘नागरी’ नाम की व्युत्पति एवं अर्थ के बारे में पुराविद एकमत नहीं हैं। ‘ललित-विस्तर’ की 64 लिपियों में एक ‘नाग लिपि’ नाम मिलता है। किन्तु ‘ललित-विस्तर’ (दूसरी शताब्दी ई.) की ‘नाग-लिपि’ के आधार पर नागरी लिपि का नामकरण संभव नहीं जान पड़ता । एक अन्य मत के अनुसार, गुजरात के नागर ब्राह्मणों द्वारा सर्वप्रथम उपयोग किये जाने के कारण इसका नाम नागरी पड़ा। यह मत भी साधार नहीं प्रतीत होता। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि, बाकी नगर तो केवल नगर ही हैं किंतु काशी देवनगरी है, और वहाँ इसका प्रचार होने के कारण इस लिपि का नाम ‘देवनागरी’ पड़ा। इस मत को स्वीकार करने में अड़चनें हैं। एक अन्य मत के अनुसार, नगरों में प्रचलित होने के कारण यह नागरी कहलाई। इस मत को कुछ हद तक स्वीकार किया जा सकता है। दक्षिण के विजयनगर राजाओं के दानपत्रों की लिपि को नंदिनागरी का नाम दिया गया है। यह भी संभव है कि नंदिनगर (आधुनिक नांदेड़, महाराष्ट्र) की लिपि होने के कारण इसके लिए नागरी का नाम अस्तित्व में आया। पहले-पहल विजयनगर राज्य के लेखों में नागरी लिपि का व्यवहार देखने को मिलता है। बाद में जब उत्तर भारत में भी इसका प्रचार हुआ, तो ‘नंदि’ की तरह यहाँ ‘देव’ शब्द इसके पहले जोड़ दिया गया होगा। जो भी हो, अब तो यह नागरी या देवनागरी शब्द उत्तर भारत में 8वीं से आज तक लिखे गये प्राय: सभी लेखों की लिपि-शैलियों के लिए प्रयुक्त होता है। दसवीं शताब्दी में पंजाब और कश्मीर में प्रयुक्त शारदा लिपि नागरी की बहन थी, और बांग्ला लिपि को हम नागरी की पुत्री नहीं तो बहन मान सकते हैं । आज समस्त उत्तर भारत में (नेपाल में भी) और संपूर्ण महाराष्ट्र में देवनागरी लिपि का इस्तेमाल होता है।[2]
लिपि के कुछ प्रमुख लेख
शिवराममूर्ति की राय है कि हर्षवर्धन के समकालीन गौड़देश (पश्चिम बंगाल) के राजा शशांक के ताम्रपत्रों में पूर्वी भारत की नागरी लिपि का स्वरूप पहले-पहल देखने को मिलता है। परंतु इन ताम्रपत्रों की लिपि को हम अभी नागरी नहीं कह सकते। अधिक से अधिक इसे हम ‘प्राक-नागरी’ का नाम दे सकते है, क्योंकि इस लिपि के अक्षर न्यूनकोणीय (तिरछे) और ठोस त्रिकोणी सिरोंवाले हैं। उत्तर भारत में नागरी लिपि का प्रयोग पहले-पहल कन्नौज के प्रतिहारवंशीय राजा महेन्द्रपाल (891-907 ई.) के दानपत्रों में देखने को मिलता है। इनमें ‘आ’ की मात्रा पहले की तरह अक्षर की दाईं ओर आड़ी न होकर, खड़ी और पूरी लंबी हो गई है। ‘क’ का नीचे का मुड़ा हुआ वक्र उसके दंड के साथ मिल जाता है। इस लिपि में अक्षरों के नीचे के सिरे सरल है और सिरों पर, पहले की तरह ठोस त्रिकोण न होकर, अब आड़ी लकीरें हैं। इसके बाद तो उत्तर भारत से नागरी लिपि के ढेरों लेख मिलते हैं। इनमें गुहिलवंशी, चाहमान (चौहान) वंशी, राष्ट्रकूट, चौलुक्य (सोलंकी), परमार, चंदेलवंशी, हैहय (कलचुरि) आदि राजाओं के नागरी लिपि में लिखे हुए दानपत्र तथा शिलालेख प्रसिद्ध हैं। दक्षिण के पल्लव शासकों ने भी अपने लेखों के लिए नागरी लिपि का प्रयोग किया था। इसी लिपि से आगे चलकर ‘ग्रंथ लिपि’ का विकास हुआ। तमिल लिपि की अपूर्णता के कारण उसमें संस्कृत के ग्रन्थ लिखे नहीं जा सकते थे, इसलिए संस्कृत के ग्रंथ जिस नागरी लिपि में लिखे जाने लगे, उसी का बाद में ‘ग्रन्थ लिपि’ नाम पड़ गया। कांचीपुरम के कैलाशनाथ मंदिर में नागरी लिपि में लिखे हुए बहुत से विरुद मिलते हैं। इनमें सरल और कलात्मक दोनों ही प्रकार की लिपियों का प्रयोग देखने को मिलता है। यह लिपि हर्षवर्धन की लिपि से काफ़ी मिलती-जुलती दिखाई देती है।
सुदूर दक्षिण में भी पाड़य शासकों ने 8वीं शताब्दी में नागरी का इस्तेमाल किया था। महाबलिपुरम के अतिरणचंड़ेश्वर नामक गुफामंदिर में जो लेख मिलता है, वह भी नागरी में है। सबसे नीचे दक्षिण में नागरी का जो लेख मिलता है, वह है पाड़य-राजा वरगुण (9वीं शताब्दी) का पलियम दानपत्र्। इस दानपत्र की लिपि में और अतिरणचंड़ेश्वर के गुफालेख की लिपि में काफ़ी साम्य है। दक्षिण के उत्तम, राजराज और राजेन्द्र जैसे चोल राजाओं ने अपने सिक्कों के लेखों के लिए नागरी का इस्तेमाल किया है। श्रीलंका के पराक्रमबाहु, विजयबाहु जैसे राजाओं के सिक्कों पर भी नागरी का उपयोग हुआ है। 13वीं शताब्दी के केरल के शासकों के सिक्कों पर ‘वीरकेरलस्य’ जैसे शब्द नागरी में अंकित मिलते हैं। विजयनगर शासनकाल से तो नागरी (नंदिनागरी) का बहुतायत से उपयोग देखने को मिलता है। इस काल के अधिकांश ताम्रपत्रों पर नागरी लिपि में ही लेख अंकित हैं, हस्ताक्षर ही प्राय: तेलुगु-कन्नड़ लिपि में है। सिक्कों पर भी नागरी का प्रयोग देखने को मिलता है। दक्षिणी शैली की नागरी लिपि (नंदिनागरी लिपि) का प्राचीनतम नमूना हमें राष्ट्रकूट राजा दंतिदुर्ग के समंगड दानपत्रों में , जो 754 ई. के हैं, दिखाई देता है। बाद में बादामी के चालुक्यों के उत्तराधिकारी राष्ट्रकूट शासकों ने तो इस नागरी लिपि का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज प्रथम के नागरी लिपि में लिखे हुए तलेगाँव-दानपत्र प्रसिद्ध हैं। देवगिरि के यादववंशी राजाओं ने भी नागरी लिपि का ही उपयोग किया था। धार नगरी का परमार शासक भोज अपने विद्यानुराग के लिए इतिहास में प्रसिद्ध है। बांसवाड़ा तथा वेतमा से प्राप्त उसके ताम्रपत्र (1020 ई.) उसकी ‘कोंकणविजय’ के उपलक्ष्य में जारी किए गये थे। ये आरंभिक नागरी लिपि में है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 हिन्दी साहित्य (हिन्दी) (एचटीएमएल)। । अभिगमन तिथि: 28 सितंबर, 2010।
- ↑ मुळे, गुणाकर अक्षर कथा। नई दिल्ली: सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार।
बाहरी कड़ियाँ
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