"श्राद्ध की आहुति": अवतरणों में अंतर

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आहुतियों के विषय में भी मत मतान्तर हैं। काठक गृह्यसूत्र<ref>काठक गृह्यसूत्र (61|3</ref>, जैमिनिय गृह्यसूत्र<ref>जैमिनिय गृह्यसूत्र (2|3</ref> एवं शांखायन गृह्यसूत्र<ref>शांखायन गृह्यसूत्र (3|12|2</ref> ने कहा है कि तीन विभिन्न अष्टकाओं में सिद्ध (पके हुए) शाक, मांस एवं अपूप (पूआ या रोटी) की आहुतियाँ दी जाती हैं। किन्तु पार. गृह्यसूत्र<ref>पार. गृह्यसूत्र (3|3</ref> एवं खादिरगृह्यसूत्र<ref>खादिरगृह्यसूत्र (3|3|29-30</ref> ने प्रथम अष्टका के लिए अपूपों (पूओं) की<ref>इसी से गोभिलगृ. 3|10|9 ने इसे अपूपाष्टका कहा है</ref> एवं अन्तिम के लिए सिद्ध शाकों की व्यवस्था दी है। खादिरगृह्यसूत्र<ref>खादिरगृह्यसूत्र (3|4|1</ref> से गाय की बलि होती हैं आश्वलायन गृह्यसूत्र<ref>आश्वलायन गृह्यसूत्र (2|4|7-10</ref>, गोभिलगृह्यसूत्र<ref>गोभिलगृह्यसूत्र (4|1|18-22</ref>, कौशिक<ref>कौशिक (138|2</ref> एवं बौधायन गृह्यसूत्र<ref>बौधायन गृह्यसूत्र (2|11|51|61</ref> के मत से इसके कई विकल्प भी हैं–गाय या भेंड़ या बकरे की बलि देना; सुलभ जंगली मांस या मुध-तिल युक्त मांस या गेंडा, हिरन, भैंसा, सूअर, शशक, चित्ती वाले हिरन, रोहित हिरन, [[कबूतर]] या तीतर, सारंग एवं अन्य पक्षियों का मांस या किसी बूढ़े लाल बकरे का मांस; मछलियाँ; [[दूध]] में पका हुआ चावल (लपसी के समान), या बिना पके हुए अन्न या फल या मूल, या [[स्वर्ण|सोना]] भी दिया जा सकता है, अथवा [[गाय|गायों]] या साँड़ों के लिए केवल घास खिलायी जा सकती है। या वेदज्ञ को पानी रखने के लिए घड़े दिये जा सकते हैं, या 'यह मैं अष्टका का सम्पादन करता हूँ' ऐसा कहकर [[श्राद्ध]] सम्बन्धी मंत्रों का उच्चारण किया जा सकता है। किन्तु अष्टकों के कृत्य को किसी न किसी प्रकार अवश्य करना चाहिए।<ref><poem>अथ यदि गां न लभते मेषमजं वालभते। आरण्येन वा मांसेन यथोपपन्नेन। खड्गमृगमहिषमेषवराहपृषत- शशरोहितशांगतित्तिरकपोतकपिंजल- वार्ध्रीणसानामक्षय्यं तिलमधुसंसृष्टम्।  
तथा मत्स्यस्य शतवलै: (?) क्षीरोदननेन वा।  
तथा मत्स्यस्य शतवलै: (?) क्षीरोदननेन वा।  
यद्वा भवत्यामैर्वा मूलफलै: प्रदानमात्रम्। हिरण्येन वा प्रदानमात्रम्।  
यद्वा भवत्यामैर्वा मूलफलै: प्रदानमात्रम्। हिरण्येन वा प्रदानमात्रम्।  
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कौशिकसूत्र (168-1-2)।</poem></ref>
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यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि उद्धृत वार्तिक एवं काठकगृह्यसूत्र<ref>काठकगृह्यसूत्र (61|1</ref> का कथन है कि 'अष्टका' शब्द उस कृत्य के लिए प्रयुक्त होता है, जिसमें पितर लोग देवताओं (अधिष्ठाताओं) के रूप में पूजित होते हैं, किन्तु अष्टका के [[देवता]] के विषय में मत-मतान्तर हैं। आश्वलायन गृह्यसूत्र<ref>आश्वलायन गृह्यसूत्र (2|4|3 एवं 2|5|3-5</ref> में आया है कि मास के कृष्ण पक्ष की [[सप्तमी]] को तथा [[नवमी]] को पितरों के लिए हवि दी जाती है, किन्तु आश्वलायन गृह्यसूत्र<ref>आश्वलायन गृह्यसूत्र (2|4|12</ref> ने अष्टमी के देवता के विषय में आठ विकल्प दिये हैं, यथा–विश्वे-देव (सभी देव), [[अग्नि देवता|अग्नि]], [[सूर्य देव|सूर्य]], [[प्रजापति]], रात्रि, [[नक्षत्र]], ऋतुएँ, पितर एवं पशु। गोभिल गृह्यसूत्र<ref>गोभिल गृह्यसूत्र (3|10|1</ref> ने यह कहकर आरम्भ किया है कि रात्रि अष्टका की देवता है, किन्तु इतना जोड़ दिया है कि देवता के विषय में अन्य मत भी हैं, यथा–अग्नि, पितर, प्रजापति, ऋतु या विश्वे-देव।


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12:52, 27 जुलाई 2011 का अवतरण

आहुतियों के विषय में भी मत मतान्तर हैं। काठक गृह्यसूत्र[1], जैमिनिय गृह्यसूत्र[2] एवं शांखायन गृह्यसूत्र[3] ने कहा है कि तीन विभिन्न अष्टकाओं में सिद्ध (पके हुए) शाक, मांस एवं अपूप (पूआ या रोटी) की आहुतियाँ दी जाती हैं। किन्तु पार. गृह्यसूत्र[4] एवं खादिरगृह्यसूत्र[5] ने प्रथम अष्टका के लिए अपूपों (पूओं) की[6] एवं अन्तिम के लिए सिद्ध शाकों की व्यवस्था दी है। खादिरगृह्यसूत्र[7] से गाय की बलि होती हैं आश्वलायन गृह्यसूत्र[8], गोभिलगृह्यसूत्र[9], कौशिक[10] एवं बौधायन गृह्यसूत्र[11] के मत से इसके कई विकल्प भी हैं–गाय या भेंड़ या बकरे की बलि देना; सुलभ जंगली मांस या मुध-तिल युक्त मांस या गेंडा, हिरन, भैंसा, सूअर, शशक, चित्ती वाले हिरन, रोहित हिरन, कबूतर या तीतर, सारंग एवं अन्य पक्षियों का मांस या किसी बूढ़े लाल बकरे का मांस; मछलियाँ; दूध में पका हुआ चावल (लपसी के समान), या बिना पके हुए अन्न या फल या मूल, या सोना भी दिया जा सकता है, अथवा गायों या साँड़ों के लिए केवल घास खिलायी जा सकती है। या वेदज्ञ को पानी रखने के लिए घड़े दिये जा सकते हैं, या 'यह मैं अष्टका का सम्पादन करता हूँ' ऐसा कहकर श्राद्ध सम्बन्धी मंत्रों का उच्चारण किया जा सकता है। किन्तु अष्टकों के कृत्य को किसी न किसी प्रकार अवश्य करना चाहिए।[12]

यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि उद्धृत वार्तिक एवं काठकगृह्यसूत्र[13] का कथन है कि 'अष्टका' शब्द उस कृत्य के लिए प्रयुक्त होता है, जिसमें पितर लोग देवताओं (अधिष्ठाताओं) के रूप में पूजित होते हैं, किन्तु अष्टका के देवता के विषय में मत-मतान्तर हैं। आश्वलायन गृह्यसूत्र[14] में आया है कि मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को तथा नवमी को पितरों के लिए हवि दी जाती है, किन्तु आश्वलायन गृह्यसूत्र[15] ने अष्टमी के देवता के विषय में आठ विकल्प दिये हैं, यथा–विश्वे-देव (सभी देव), अग्नि, सूर्य, प्रजापति, रात्रि, नक्षत्र, ऋतुएँ, पितर एवं पशु। गोभिल गृह्यसूत्र[16] ने यह कहकर आरम्भ किया है कि रात्रि अष्टका की देवता है, किन्तु इतना जोड़ दिया है कि देवता के विषय में अन्य मत भी हैं, यथा–अग्नि, पितर, प्रजापति, ऋतु या विश्वे-देव।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. काठक गृह्यसूत्र (61|3
  2. जैमिनिय गृह्यसूत्र (2|3
  3. शांखायन गृह्यसूत्र (3|12|2
  4. पार. गृह्यसूत्र (3|3
  5. खादिरगृह्यसूत्र (3|3|29-30
  6. इसी से गोभिलगृ. 3|10|9 ने इसे अपूपाष्टका कहा है
  7. खादिरगृह्यसूत्र (3|4|1
  8. आश्वलायन गृह्यसूत्र (2|4|7-10
  9. गोभिलगृह्यसूत्र (4|1|18-22
  10. कौशिक (138|2
  11. बौधायन गृह्यसूत्र (2|11|51|61
  12. अथ यदि गां न लभते मेषमजं वालभते। आरण्येन वा मांसेन यथोपपन्नेन। खड्गमृगमहिषमेषवराहपृषत- शशरोहितशांगतित्तिरकपोतकपिंजल- वार्ध्रीणसानामक्षय्यं तिलमधुसंसृष्टम्।
    तथा मत्स्यस्य शतवलै: (?) क्षीरोदननेन वा।
    यद्वा भवत्यामैर्वा मूलफलै: प्रदानमात्रम्। हिरण्येन वा प्रदानमात्रम्।
    अपि वा गोग्रासमाहरेत्।
    अपि वानूचानेभ्य उदकुम्भानाहरेत्।
    अपि वा श्राद्धमन्त्रानधीयीत।
    अपि वारण्येग्निना कक्षमुपोषेदेषा मेंऽष्टकेति।
    न त्वेवानष्टक: स्यात्। बौधायन गृह्यसूत्र (2|11|51-61); अष्टकायामष्टकाहोमाञ्जुहुजात्।
    तस्या हवीषि धाना: करम्भ: शष्कृल्य: पुरोडाश उदौदन: क्षीरौदनस्तिलौदनो यथोपपादिपशु:।
    कौशिकसूत्र (168-1-2)।

  13. काठकगृह्यसूत्र (61|1
  14. आश्वलायन गृह्यसूत्र (2|4|3 एवं 2|5|3-5
  15. आश्वलायन गृह्यसूत्र (2|4|12
  16. गोभिल गृह्यसूत्र (3|10|1

बाहरी कड़ियाँ

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