"उबाल -रांगेय राघव": अवतरणों में अंतर
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उसने सरस्वती के घर में प्रवेश किया। द्वार खुले थे। वह भीतर घुस गया। बाहर के आंगन में पानी भर गया था। सामने के छप्पर पर जो धारासार [[वर्षा]] हो रही थी तो पानी छप-छप करता और बगल की छत पर परनाला तड़-तड़ करता गिर रहा था। सत्यपाल उसके बगल में होकर चबूतरे के पास पहुँचा। वहाँ पहुँचते ही बिजली बहुत जोर से कौंधी। उसकी आंखें मिच गईं। जब कुछ देर बाद आंखें खुलीं तो सत्यपाल ने देखा कि उसके पास ही, दो हाथ की दूरी पर सरस्वती एक खंभा पकड़े खड़ी थी। उसके हाथ पर पानी की बूँदें टपक रही थीं। वह शांत थी, निस्तब्ध, जैसे वह सारा तूफान भी उसे दबाने में असमर्थ था। ‘क्या था इस गांव की लड़की में,’ सत्यपाल ने सोचा, ‘जो यह ऐसी अपराजित है? शिक्षा...’ सत्यपाल ने सोचा, फिर सिर हिलाया। पढ़े-लिखे स्वार्थ के लिए बड़े जघन्य हो जाते हैं। | उसने सरस्वती के घर में प्रवेश किया। द्वार खुले थे। वह भीतर घुस गया। बाहर के आंगन में पानी भर गया था। सामने के छप्पर पर जो धारासार [[वर्षा]] हो रही थी तो पानी छप-छप करता और बगल की छत पर परनाला तड़-तड़ करता गिर रहा था। सत्यपाल उसके बगल में होकर चबूतरे के पास पहुँचा। वहाँ पहुँचते ही बिजली बहुत जोर से कौंधी। उसकी आंखें मिच गईं। जब कुछ देर बाद आंखें खुलीं तो सत्यपाल ने देखा कि उसके पास ही, दो हाथ की दूरी पर सरस्वती एक खंभा पकड़े खड़ी थी। उसके हाथ पर पानी की बूँदें टपक रही थीं। वह शांत थी, निस्तब्ध, जैसे वह सारा तूफान भी उसे दबाने में असमर्थ था। ‘क्या था इस गांव की लड़की में,’ सत्यपाल ने सोचा, ‘जो यह ऐसी अपराजित है? शिक्षा...’ सत्यपाल ने सोचा, फिर सिर हिलाया। पढ़े-लिखे स्वार्थ के लिए बड़े जघन्य हो जाते हैं।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=3309|title=उबाल|accessmonthday=24 जनवरी|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | ||
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07:20, 24 जनवरी 2013 का अवतरण
उबाल -रांगेय राघव
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लेखक | रांगेय राघव |
प्रकाशक | किताबघर प्रकाशन |
प्रकाशन तिथि | 10 फ़रवरी, 2006 |
ISBN | 81-7016-012-X |
देश | भारत |
भाषा | हिन्दी |
प्रकार | उपन्यास |
उबाल भारत के प्रसिद्ध उपन्यासकारों, कहानिकारों और साहित्यकारों में गिने जाने वाले रांगेय राघव द्वारा लिखा गया उपन्यास है। यह उपन्यास 10 फ़रवरी, 2006 को प्रकाशित हुआ था। इसका प्रकाशन 'किताबघर प्रकाशन' द्वारा किया गया था।
उपन्यास का सारांश
उसने सरस्वती के घर में प्रवेश किया। द्वार खुले थे। वह भीतर घुस गया। बाहर के आंगन में पानी भर गया था। सामने के छप्पर पर जो धारासार वर्षा हो रही थी तो पानी छप-छप करता और बगल की छत पर परनाला तड़-तड़ करता गिर रहा था। सत्यपाल उसके बगल में होकर चबूतरे के पास पहुँचा। वहाँ पहुँचते ही बिजली बहुत जोर से कौंधी। उसकी आंखें मिच गईं। जब कुछ देर बाद आंखें खुलीं तो सत्यपाल ने देखा कि उसके पास ही, दो हाथ की दूरी पर सरस्वती एक खंभा पकड़े खड़ी थी। उसके हाथ पर पानी की बूँदें टपक रही थीं। वह शांत थी, निस्तब्ध, जैसे वह सारा तूफान भी उसे दबाने में असमर्थ था। ‘क्या था इस गांव की लड़की में,’ सत्यपाल ने सोचा, ‘जो यह ऐसी अपराजित है? शिक्षा...’ सत्यपाल ने सोचा, फिर सिर हिलाया। पढ़े-लिखे स्वार्थ के लिए बड़े जघन्य हो जाते हैं।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख