"ख़ून फिर ख़ून है -साहिर लुधियानवी": अवतरणों में अंतर
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कोख धरती की बाँझ होती है | कोख धरती की बाँझ होती है | ||
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग | फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग | ||
ज़िंदगी मय्यतों पे रोती है | |||
इसलिए ऐ शरीफ इंसानों | इसलिए ऐ शरीफ इंसानों |
17:09, 30 दिसम्बर 2013 का अवतरण
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ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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