"वसु (निषाद)": अवतरणों में अंतर
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वसु अपनी पत्नी के साथ जब घर पहुँचा, तब देखता है कि वीर ने भात में से कुछ अंश निकालकर खा लिया है। इससे उसे बड़ा दुःख हुआ। "प्रभु के लिये जो भोग तैयार किया गया था, उसे इस नादान बालक ने उच्छिष्ट कर दिया! यह इसका अक्षभ्य अपराध है।" यह सोचकर वसु कुपित हो उठा। उसने तलवार खींच ली और वीर का मस्तक काटने के लिये हाथ ऊँचा किया। | वसु अपनी पत्नी के साथ जब घर पहुँचा, तब देखता है कि वीर ने भात में से कुछ अंश निकालकर खा लिया है। इससे उसे बड़ा दुःख हुआ। "प्रभु के लिये जो भोग तैयार किया गया था, उसे इस नादान बालक ने उच्छिष्ट कर दिया! यह इसका अक्षभ्य अपराध है।" यह सोचकर वसु कुपित हो उठा। उसने तलवार खींच ली और वीर का मस्तक काटने के लिये हाथ ऊँचा किया। | ||
==भगवान का प्राकट्य== | ==भगवान का प्राकट्य== | ||
इतने में ही किसी ने पीछे से आकर वसु का हाथ पकड़ लिया। वसु ने पीछे वृक्ष की ओर घूमकर देखा तो भक्त वत्सल भगवान स्वयं उसका हाथ पकड़े खड़े थे। उनका आधा अंग वृक्ष के सहारे टीका हुआ था। हाथों में [[शंख]], [[चक्र अस्त्र|चक्र]] और [[गदा शस्त्र|गदा]] सुशोभित थी। मस्तक पर किरीट, कानों में मकराकृति कुण्डल, अधरों पर मन्द-मन्द मुस्कान और गले में कौस्तुभ मणि की छटा छा रही थी। चारों ओर दिव्य प्रकाश-सा उमड़ पड़ा था। वसु तलवार फेंक कर भगवान के चरणों में गिर पड़ा और बोला- "देवदेवेश्वर! आप क्यों मुझे रोक रहे हैं? वीर ने अक्षम्य अपराध किया है।" भगवान अपनी मधुर वाणी से कानों में अमृत उड़ेलते हुए बोले- "वसु! तुम उतावली न करो। तुम्हारा पुत्र मेरा अनन्य [[भक्त]] है। यह मुझे तुमसे भी अधिक प्रिय है। इसीलिये मैंने इसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया है। इसकी दृष्टि में मैं सर्वत्र हूँ, किंतु तुम्हारी दृष्टि में केवल स्वामिपुष्करणी के तट पर ही मेरा निवास हैं।" भगवान का यह वचन सुनकर वसु बड़ा प्रसन्न हुआ। वीर और चित्रवती भी प्रभु के चरणों में लोट गये। उनकी दुर्लभ कृपा, प्रसाद पाकर यह निषाद परिवार धन्य हो गया।<ref name="aa"/> | इतने में ही किसी ने पीछे से आकर वसु का हाथ पकड़ लिया। वसु ने पीछे वृक्ष की ओर घूमकर देखा तो भक्त वत्सल भगवान स्वयं उसका हाथ पकड़े खड़े थे। उनका आधा अंग वृक्ष के सहारे टीका हुआ था। हाथों में [[शंख]], [[चक्र अस्त्र|चक्र]] और [[गदा शस्त्र|गदा]] सुशोभित थी। मस्तक पर [[किरीट]], कानों में मकराकृति कुण्डल, अधरों पर मन्द-मन्द मुस्कान और गले में कौस्तुभ मणि की छटा छा रही थी। चारों ओर दिव्य प्रकाश-सा उमड़ पड़ा था। वसु तलवार फेंक कर भगवान के चरणों में गिर पड़ा और बोला- "देवदेवेश्वर! आप क्यों मुझे रोक रहे हैं? वीर ने अक्षम्य अपराध किया है।" भगवान अपनी मधुर वाणी से कानों में अमृत उड़ेलते हुए बोले- "वसु! तुम उतावली न करो। तुम्हारा पुत्र मेरा अनन्य [[भक्त]] है। यह मुझे तुमसे भी अधिक प्रिय है। इसीलिये मैंने इसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया है। इसकी दृष्टि में मैं सर्वत्र हूँ, किंतु तुम्हारी दृष्टि में केवल स्वामिपुष्करणी के तट पर ही मेरा निवास हैं।" भगवान का यह वचन सुनकर वसु बड़ा प्रसन्न हुआ। वीर और चित्रवती भी प्रभु के चरणों में लोट गये। उनकी दुर्लभ कृपा, प्रसाद पाकर यह निषाद परिवार धन्य हो गया।<ref name="aa"/> | ||
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14:02, 19 मई 2014 के समय का अवतरण
वसु | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- वसु (बहुविकल्पी) |
वसु नामक एक निषाद का उल्लेख पुराणों में मिलता है, जो श्यामाकवन (साँवा के जंगल) की रक्षा करता था। वह साँवा के चावलों का भात बनाकर, उसमें मधु मिलाकर श्रीदेवी तथा भूदेवी सहित विष्णु को भोग लगाता था और प्रसाद पाता था। चित्रवती नाम की पत्नी से इसका 'वीर' नामक पुत्र था, जिसके कारण निषाद वसु को भगवान विष्णु का दर्शन हुआ था।[1][2]
भगवान का भक्त
पूर्व काल में वेंकटाचल (दक्षिण भारत) पर एक निषाद रहता था। उसका नाम था- 'वसु'। वह भगवान का बड़ा भक्त था। प्रतिदिन स्वामिपुष्करिणी में स्नान करके श्रीनिवास की पूजा करता और श्यामाक (सावाँ) के भात में मधु मिलाकर वही भूदेवियों सहित उन्हें भोग के लिये निवेदन करता था। भगवान के उस प्रसाद को ही वह पत्नी के साथ स्वयं पाता था। यही उसका नित्य का नियम था। भगवान श्रीनिवास उसे प्रत्यक्ष दर्शन देते और उससे वार्तालाप करते थे। उसके और भगवान के बीच में योगमाया का पर्दा नहीं रह गया था। उस पर्वत के एक भाग में सावाँ का जंगल था। वसु उसकी सदा रखवाली किया करता था, इसलिये कि उसी का चावल उसके प्राणाधार प्रभु के भोग में काम आता था। वसु की पत्नी का नाम 'चित्रवती' था। वह बड़ी पतिव्रता थी। दोनों भगवान की आराधना में संलग्न रहकर उनके सान्निध्य का दिव्य सुख लूट रहे थे।[3]
पुत्र की प्राप्ति
कुछ काल के बाद चित्रवती के गर्भ से एक सुन्दर बालक उत्पन्न हुआ। वसु ने उसका नाम 'वीर' रखा। वीर यथानाम-तथागुणः था। उसके मन पर शैशव काल से ही माता-पिता के भगवच्चिन्तन का गहरा प्रभाव पड़ने लगा। जब वह कुछ बड़ा हुआ, तब प्रत्येक कार्य में पिता का हाथ बँटाने लगा। उसके अन्तःकरण में भगवान के प्रति अनन्य भक्ति का भाव भी जग चुका था।
मधु की खोज
भगवान भक्तों के साथ भाँति-भाँति के खेल खेलते और उनके प्रेम एवं निष्ठा की परीक्षा भी लेते हैं। एक दिन वसु को ज्ञात हुआ कि घर में मधु नहीं हैं। भगवान के भोग के लिये भात बन चुका था। वसु ने सोचा- "मधु के बिना मेरे प्रभु अच्छी तरह भोजन नहीं कर सकेंगे।" अतः वह वीर को सावाँ के जंगल और घर की रखवाली का काम सौंप कर पत्नी के साथ मधु की खोज में चल दिया। बहुत विलम्ब के बाद दूर के जंगल में मधु का छत्ता दिखायी दिया। वसु बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने युक्ति से मधु निकाला और घर की और प्रस्थान किया। इधर निषाद कुमार वीर ने यह सोचकर कि- "भगवान के भोग में विलम्ब हो रहा है", तैयार किये हुए भात को एक पात्र में निकाला। उसमें से कुछ अग्नि में डाल दिया और शेष सब भात वृक्ष की जड़ में स्थापित करके भगवान का आवाहन किया। भगवान ने प्रत्यक्ष प्रकट होकर उसका दिया हुआ भोग स्वीकार किया। तत्पश्चात् प्रभु का प्रसाद पाकर बालक वीर माता-पिता के आने की बाट देखने लगा।[3]
वसु का क्रोध
वसु अपनी पत्नी के साथ जब घर पहुँचा, तब देखता है कि वीर ने भात में से कुछ अंश निकालकर खा लिया है। इससे उसे बड़ा दुःख हुआ। "प्रभु के लिये जो भोग तैयार किया गया था, उसे इस नादान बालक ने उच्छिष्ट कर दिया! यह इसका अक्षभ्य अपराध है।" यह सोचकर वसु कुपित हो उठा। उसने तलवार खींच ली और वीर का मस्तक काटने के लिये हाथ ऊँचा किया।
भगवान का प्राकट्य
इतने में ही किसी ने पीछे से आकर वसु का हाथ पकड़ लिया। वसु ने पीछे वृक्ष की ओर घूमकर देखा तो भक्त वत्सल भगवान स्वयं उसका हाथ पकड़े खड़े थे। उनका आधा अंग वृक्ष के सहारे टीका हुआ था। हाथों में शंख, चक्र और गदा सुशोभित थी। मस्तक पर किरीट, कानों में मकराकृति कुण्डल, अधरों पर मन्द-मन्द मुस्कान और गले में कौस्तुभ मणि की छटा छा रही थी। चारों ओर दिव्य प्रकाश-सा उमड़ पड़ा था। वसु तलवार फेंक कर भगवान के चरणों में गिर पड़ा और बोला- "देवदेवेश्वर! आप क्यों मुझे रोक रहे हैं? वीर ने अक्षम्य अपराध किया है।" भगवान अपनी मधुर वाणी से कानों में अमृत उड़ेलते हुए बोले- "वसु! तुम उतावली न करो। तुम्हारा पुत्र मेरा अनन्य भक्त है। यह मुझे तुमसे भी अधिक प्रिय है। इसीलिये मैंने इसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया है। इसकी दृष्टि में मैं सर्वत्र हूँ, किंतु तुम्हारी दृष्टि में केवल स्वामिपुष्करणी के तट पर ही मेरा निवास हैं।" भगवान का यह वचन सुनकर वसु बड़ा प्रसन्न हुआ। वीर और चित्रवती भी प्रभु के चरणों में लोट गये। उनकी दुर्लभ कृपा, प्रसाद पाकर यह निषाद परिवार धन्य हो गया।[3]
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