"पृथ्वीराज रासो": अवतरणों में अंतर
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जयचंद को यह बात अच्छी न लगी। उसने एक दिन [[राजसूय यज्ञ]] करके सब राजाओं को [[यज्ञ]] के भिन्न-भिन्न कार्य करने के लिए निमंत्रित किया और इस यज्ञ के साथ ही अपनी कन्या संयोगिता का स्वयंवर रचा। राजसूय यज्ञ में सब राजा आए पर पृथ्वीराज नहीं आए। इसपर जयचंद ने चिढ़कर पृथ्वीराज की एक स्वर्णमूर्ति द्वारपाल के रूप में द्वार पर रखवा दी। संयोगिता का अनुराग पहले से ही पृथ्वीराज पर था, अत: जब वह जयमाल लेकर रंगभूमि में आई तब उसने पृथ्वीराज की मूर्ति को ही माला पहना दी। इस पर जयचंद ने उसे घर से निकालकर [[गंगा]] किनारे के महल में भेज दिया। इधर पृथ्वीराज के सामंतों ने आकर यज्ञ विध्वंस किया। फिर पृथ्वीराज ने चुपचाप आकर संयोगिता से गंधर्व विवाह किया और अंत में वे उसे हर ले गए। रास्ते में जयचंद की सेना से बहुत युद्ध हुआ, पर संयोगिता को लेकर पृथ्वीराज कुशलतापूर्वक दिल्ली पहुँच गए। वहाँ भोगविलास में ही उनका समय बीतने लगा, राज्य की रक्षा का ध्यान न रह गया। | जयचंद को यह बात अच्छी न लगी। उसने एक दिन [[राजसूय यज्ञ]] करके सब राजाओं को [[यज्ञ]] के भिन्न-भिन्न कार्य करने के लिए निमंत्रित किया और इस यज्ञ के साथ ही अपनी कन्या संयोगिता का स्वयंवर रचा। राजसूय यज्ञ में सब राजा आए पर पृथ्वीराज नहीं आए। इसपर जयचंद ने चिढ़कर पृथ्वीराज की एक स्वर्णमूर्ति द्वारपाल के रूप में द्वार पर रखवा दी। संयोगिता का अनुराग पहले से ही पृथ्वीराज पर था, अत: जब वह जयमाल लेकर रंगभूमि में आई तब उसने पृथ्वीराज की मूर्ति को ही माला पहना दी। इस पर जयचंद ने उसे घर से निकालकर [[गंगा]] किनारे के महल में भेज दिया। इधर पृथ्वीराज के सामंतों ने आकर यज्ञ विध्वंस किया। फिर पृथ्वीराज ने चुपचाप आकर संयोगिता से गंधर्व विवाह किया और अंत में वे उसे हर ले गए। रास्ते में जयचंद की सेना से बहुत युद्ध हुआ, पर संयोगिता को लेकर पृथ्वीराज कुशलतापूर्वक दिल्ली पहुँच गए। वहाँ भोगविलास में ही उनका समय बीतने लगा, राज्य की रक्षा का ध्यान न रह गया। | ||
;ऐतिहासिकता का अभाव | ;ऐतिहासिकता का अभाव | ||
बल का बहुत कुछ ह्रास तो जयचंद तथा और राजाओं के साथ लड़ते-लड़ते हो चुका था और बड़े-बड़े सामंत मारे जा चुके थे। अच्छा अवसर देख शहाबुद्दीन चढ़ आया, पर हार गया और पकड़ा गया। पृथ्वीराज ने उसे छोड़ दिया। वह बार-बार चढ़ाई करता रहा और अंत में पृथ्वीराज पकड़कर गजनी भेज दिए गए। कुछ काल के पीछे कवि चंद भी गजनी पहुँचे। एक दिन चंद के इशारे पर पृथ्वीराज ने शब्दबेधी बाण द्वारा शहाबुद्दीन को मारा और फिर दोनों एक-दूसरे को मारकर मर गए। शहाबुद्दीन पृथ्वीराज के बैर का कारण यह लिखा गया है कि शहाबुद्दीन अपने यहाँ की एक सुंदरी पर आसक्त था, जो एक-दूसरे पठान सरदार हुसैनशाह को चाहती थी। जब ये दोनों शहाबुद्दीन से तंग हुए तब हारकर पृथ्वीराज के पास भाग आए। शहाबुद्दीन ने पृथ्वीराज के यहाँ कहला भेजा कि उन दोनों को अपने यहाँ से निकाल दो। पृथ्वीराज ने उत्तर दिया कि शरणागत की रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म है, अत: इन दोनों की हम बराबर रक्षा करेंगे। इसी बैर से शहाबुद्दीन ने दिल्ली पर चढ़ाइयाँ कीं। यह तो पृथ्वीराज का मुख्य चरित्र हुआ। इसके अतिरिक्त बीच-बीच में बहुत-से राजाओं के साथ पृथ्वीराज के युद्ध और अनेक राजकन्याओं के साथ विवाह की कथाएँ रासो में भरी पड़ी हैं। ऊपर लिखे वृत्तांत और रासो में दिए हुए संवतों का ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बिल्कुल मेल न खाने के कारण अनेक विद्वानों ने पृथ्वीराज रासो को पृथ्वीराज के समसामयिक किसी कवि की रचना होने में पूरा संदेह किया है और उसे सोलहवीं शताब्दी में लिखा हुआ एक जाली ग्रंथ ठहराया है। रासो में [[चंगेज खाँ|चंगेज]], [[तैमूर]] आदि कुछ पीछे के नाम आने से यह संदेह और भी पुष्ट होता है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा रासो में वर्णित घटनाओं तथा संवतों को बिल्कुल भाटों की कल्पना मानते हैं।<ref>हिन्दी साहित्य का इतिहास, वीरगाथा काल (संवत् 1050 - 1375) अध्याय 3, लेखक - रामचन्द्र शुक्ल</ref> | बल का बहुत कुछ ह्रास तो जयचंद तथा और राजाओं के साथ लड़ते-लड़ते हो चुका था और बड़े-बड़े सामंत मारे जा चुके थे। अच्छा अवसर देख शहाबुद्दीन चढ़ आया, पर हार गया और पकड़ा गया। पृथ्वीराज ने उसे छोड़ दिया। वह बार-बार चढ़ाई करता रहा और अंत में पृथ्वीराज पकड़कर गजनी भेज दिए गए। कुछ काल के पीछे कवि चंद भी गजनी पहुँचे। एक दिन चंद के इशारे पर पृथ्वीराज ने शब्दबेधी बाण द्वारा शहाबुद्दीन को मारा और फिर दोनों एक-दूसरे को मारकर मर गए। शहाबुद्दीन पृथ्वीराज के बैर का कारण यह लिखा गया है कि शहाबुद्दीन अपने यहाँ की एक सुंदरी पर आसक्त था, जो एक-दूसरे पठान सरदार हुसैनशाह को चाहती थी। जब ये दोनों शहाबुद्दीन से तंग हुए तब हारकर पृथ्वीराज के पास भाग आए। शहाबुद्दीन ने पृथ्वीराज के यहाँ कहला भेजा कि उन दोनों को अपने यहाँ से निकाल दो। पृथ्वीराज ने उत्तर दिया कि शरणागत की रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म है, अत: इन दोनों की हम बराबर रक्षा करेंगे। इसी बैर से शहाबुद्दीन ने दिल्ली पर चढ़ाइयाँ कीं। यह तो पृथ्वीराज का मुख्य चरित्र हुआ। इसके अतिरिक्त बीच-बीच में बहुत-से राजाओं के साथ पृथ्वीराज के युद्ध और अनेक राजकन्याओं के साथ विवाह की कथाएँ रासो में भरी पड़ी हैं। ऊपर लिखे वृत्तांत और रासो में दिए हुए संवतों का ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बिल्कुल मेल न खाने के कारण अनेक विद्वानों ने पृथ्वीराज रासो को पृथ्वीराज के समसामयिक किसी कवि की रचना होने में पूरा संदेह किया है और उसे सोलहवीं शताब्दी में लिखा हुआ एक जाली ग्रंथ ठहराया है। रासो में [[चंगेज खाँ|चंगेज]], [[तैमूर]] आदि कुछ पीछे के नाम आने से यह संदेह और भी पुष्ट होता है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ [[गौरीशंकर हीराचंद ओझा|रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा]] 'रासो' में वर्णित घटनाओं तथा संवतों को बिल्कुल भाटों की कल्पना मानते हैं।<ref>हिन्दी साहित्य का इतिहास, वीरगाथा काल (संवत् 1050 - 1375) अध्याय 3, लेखक - रामचन्द्र शुक्ल</ref> | ||
==काव्य विशेषताएँ== | ==काव्य विशेषताएँ== | ||
'पृथ्वीराज रासो' [[वीर रस]] का [[हिंदी]] का सर्वश्रेष्ठ [[काव्य]] है। [[हिंदी साहित्य]] में वीर चरित्रों की जैसी विशद कल्पना इस काव्य में मिली वैसी बाद में कभी नहीं दिखाई पड़ी। पाठक रचना भर में उत्साह की एक उमड़ती हुई सरिता में बहता चलता है। कन्नौज युद्ध के पूर्व संयोगिता के अनुराग और विरह तथा उक्त युद्ध के अनंतर पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता के मिलन और केलि विलास के जो चित्र रचना में मिलते हैं, वे अत्यंत आकर्षक हैं। अन्य [[रस|रसों]] का भी काव्य में अभाव नहीं है। रचना का वर्णनवैभव असाधारण है; नायक नायिका के संभोग समय का षड्ऋतु वर्णन कहीं कहीं पर संश्लिष्ट प्रकृति चित्रण के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। भाषा-शैली सर्वत्र प्रभावपूर्ण है और वर्ण्य विषय के अनुरूप काव्य भर में बदलती रहती है। रचना के इन समस्त गुणों पर दृष्टिपात किया जाए तो वह एक सुंदर महाकाव्य प्रमाणित होता है और नि:संदेह आधुनिक भारतीय आर्यभाषा साहित्य के आदि युग की विशिष्ट कृति ठहरती है। | 'पृथ्वीराज रासो' [[वीर रस]] का [[हिंदी]] का सर्वश्रेष्ठ [[काव्य]] है। [[हिंदी साहित्य]] में वीर चरित्रों की जैसी विशद कल्पना इस काव्य में मिली वैसी बाद में कभी नहीं दिखाई पड़ी। पाठक रचना भर में उत्साह की एक उमड़ती हुई सरिता में बहता चलता है। कन्नौज युद्ध के पूर्व संयोगिता के अनुराग और विरह तथा उक्त युद्ध के अनंतर पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता के मिलन और केलि विलास के जो चित्र रचना में मिलते हैं, वे अत्यंत आकर्षक हैं। अन्य [[रस|रसों]] का भी काव्य में अभाव नहीं है। रचना का वर्णनवैभव असाधारण है; नायक नायिका के संभोग समय का षड्ऋतु वर्णन कहीं कहीं पर संश्लिष्ट प्रकृति चित्रण के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। भाषा-शैली सर्वत्र प्रभावपूर्ण है और वर्ण्य विषय के अनुरूप काव्य भर में बदलती रहती है। रचना के इन समस्त गुणों पर दृष्टिपात किया जाए तो वह एक सुंदर महाकाव्य प्रमाणित होता है और नि:संदेह आधुनिक भारतीय आर्यभाषा साहित्य के आदि युग की विशिष्ट कृति ठहरती है। |
14:02, 26 मई 2014 का अवतरण
पृथ्वीराज रासो
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कवि | चंदबरदाई |
मूल शीर्षक | पृथ्वीराज रासो |
मुख्य पात्र | पृथ्वीराज चौहान |
देश | भारत |
शैली | काव्य |
विषय | जीवन चरित्र का वर्णन |
विधा | महाकाव्य |
विशेष | 'पृथ्वीराज रासो' वीर रस का हिंदी का सर्वश्रेष्ठ काव्य है। |
पृथ्वीराज रासो हिन्दी भाषा में लिखा गया एक महाकाव्य है, जिसमें पृथ्वीराज चौहान के जीवन-चरित्र का वर्णन किया गया है। यह कवि चंदबरदाई की रचना है, जो पृथ्वीराज के अभिन्न मित्र तथा राजकवि थे। इसमें दिल्लीश्वर पृथ्वीराज के जीवन की घटनाओं का विशद वर्णन है। यह एक विशाल महाकाव्य है। यह तेरहवीं शती की रचना है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त इसे 1400 वि. के लगभग की रचना मानते हैं। पृथ्वीराज रासो की ऐतिहासिकता विवादग्रस्त है।[1]
हिन्दी साहित्य का महाकाव्य
इस पुस्तक के बारे में संदेह यह है कि यह रचना 'डिंगल' की है अवथा 'पिंगल' की। यह ग्रंथ एक से अधिक रचयिताओं का हो सकता है। 'पृथ्वीराज रासो' ढाई हज़ार पृष्ठों का संग्रह है। इसमें पृथ्वीराज व उनकी प्रेमिका संयोगिता के परिणय का सुन्दर वर्णन है। यह ग्रंथ ऐतिहासिक कम काल्पनिक अधिक है। 'पृथ्वीराज रासो' तथा 'आल्हाखण्ड' हिन्दी साहित्य के आदि काल के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं। पृथ्वीराज रासो को हम साहित्यिक परम्परा का विकसनशील महाकाव्य और आल्हाखण्ड को लोक-महाकाव्य की संज्ञा दे सकते हैं। रासो का वृहत्तम रूपान्तर जो नागरीप्रचारिणी सभा से प्रकाशित है, 69 समय (सर्ग) का विशाल ग्रन्थ है। इसमें अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के जीवन-वृत्त के साथ सामन्ती वीर-युग की सभ्यता, रहन-सहन, मान-मर्यादा, ख़ान-पान तथा अन्य जीवन-विधियों का इतना क्रमवार और सही वर्णन हुआ है कि इसमें तत्कालीन समग्र युगजीवन अपने समस्त गुण-दोषों के साथ यथार्थ रूप में चित्रित हो उठा है।
विवरण
अध्यात्म, राजनीति, धर्म, योग, कामशास्त्र, मन्त्र-तन्त्र, युद्ध, विवाह, मृगय, मन्त्रणा, दौत्य, मानवीय सौन्दर्य, संगीत-नृत्य, वन उपवन-विहार, यात्रा, पशु-पक्षी, वृक्ष, फल-फूल, पूजा-उपासना, तीर्थ-व्रत, देवता-मुनि, स्वर्ग, राज-दरबार, अन्त:पुर, उद्यान गोष्ठी, शास्त्रार्थ, वसन्तोत्सव तथा सामाजिक तथा सामाजिक रीति-रिवाज – तात्पर्य यह कि तत्कालीन जीवन का कोई पहलू ऐसा नहीं बचा है, जो रासों में न आया हो। किन्तु इन विषयों में भी युगप्रवृत्ति के अनुसार सबसे अधिक उभार मिला है युद्ध, विवाह, भोग विलास तथा मृगया के ही वर्णनों को और यही कारण है कि 'पृथ्वीराज रासो' में चारित्र्य की वह गरिमा नहीं आ पायी है, जो आदर्श महाकाव्य के लिए आवश्यक हैं।
- महाकाव्य का विषय
रासो के 65 वें सर्ग में पृथ्वीराज की रानियों के नाम गिनायें गये हैं, जिनकी संख्या तेरह है। इनमें से केवल चार के विवाह उभय पक्ष की स्वेच्छा से हुए, शेष सबको बलात हरण किया गया था, जिनके लिए युद्ध भी करने पड़े थे। इन विवाहों के वर्णन रासों में अत्यधिक विस्तार से मिलते हैं, जिससे ज्ञात होता है कि ये ही उक्त महाकाव्य के प्रमुख विषय है।
- राजनीतिक स्थिति का वर्णन
शहाबुद्दीन गौरी के आक्रमणों के समय पृथ्वीराज इतना विलासी हो गया था कि संयोगिता के महल से बाहर निकलता ही नहीं था। उसकी सहायता के लिए रावल समर सिंह दिल्ली आकर ठहरते थे, किन्तु पृथ्वीराज को इसकी सूचना लेने की भी फुर्सत नहीं थी। प्रजा में कष्ट और असन्तोष बढ़ता गया। अन्त में वह शहाबुद्दीन द्वारा बन्दी बनाकर गज़नी ले जाया जाता है, जहाँ चंदबरदाई के संकेतों से गौरी को बिंधकर स्वयं भी मर जाता है। इस प्रकार रासो हमारे पतन और गम की कहानी है।
- कथानक की शिथिलता
रासों में कथानक की शिथिलता, विश्रृंखलता तथा असन्तुलित योजना भी अत्यधिक खटकती है। कथानक का जो एक क्षीण तन्तु है, वह भी बीच-बीच में विवाह, मृगया आदि के उबा देने वाले लम्बे वर्णनों के कारण टूट जाता है। कथानक में सुनिश्चित योजना तथा समानुपातिक संघटन के अभाव का कारण कदाचित यह भी है कि उसके वर्तमान रूपान्तर में मूल रचना के अतिरिक्त प्रक्षेप भी अत्याधिक परिमाण में हुए हैं। अत: 'पृथ्वीराज रासो' उत्कृष्ट कोटि के महाकाव्यों की श्रेणी में रखें जाने के योग्य नहीं जान पड़ता।
- रामचंद्र शुक्ल के अनुसार
श्री रामचन्द्र शुक्ल ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में लिखा है - 'पृथ्वीराज रासो ढाई हज़ार पृष्ठों का बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसमें 69 समय (सर्ग या अध्याय) हैं। प्राचीन समय में प्रचलित प्राय: सभी छंदों का व्यवहार हुआ है। मुख्य छंद हैं कवित्त (छप्पय), दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या। जैसे कादंबरी के संबंध में प्रसिद्ध है कि उसका पिछला भाग बाण के पुत्र ने पूरा किया है वैसे ही रासो के पिछले भाग का भी चंद के पुत्र 'जल्हण' द्वारा पूर्ण किया जाना कहा जाता है।' रासो के अनुसार जब शहाबुद्दीन गौरी पृथ्वीराज को कैद करके गजनी ले गया तब कुछ दिनों पीछे चंद भी वहीं गए। जाते समय कवि ने अपने पुत्र जल्हण के हाथ में रासो की पुस्तक देकर उसे पूर्ण करने का संकेत किया। जल्हण के हाथ में रासो को सौंपे जाने और उसके पूरे किए जाने का उल्लेख रासो में है -
पुस्तक जल्हन हत्थ दै चलि गज्जन नृपकाज।
रघुनाथचरित हनुमंतकृत भूप भोज उद्ध रिय जिमि।
पृथिराजसुजस कवि चंद कृत चंदनंद उद्ध रिय तिमि
कथानक
पृथ्वीराज रासो में आबू के यज्ञकुंड से चार क्षत्रिय कुलों की उत्पत्ति तथा चौहानों के अजमेर में राजस्थापन से लेकर पृथ्वीराज के पकड़े जाने तक का सविस्तार वर्णन है। इस ग्रंथ के अनुसार पृथ्वीराज अजमेर के चौहान राजा सोमेश्वर के पुत्र और अर्णोराज के पौत्र थे। सोमेश्वर का विवाह दिल्ली के तुंवर (तोमर) राजा अनंगपाल की कन्या से हुआ। अनंगपाल की दो कन्याएँ थीं सुंदरी और कमला। सुंदरी का विवाह कन्नौज के राजा विजयपाल के साथ हुआ और इस संयोग से जयचंद राठौर की उत्पत्ति हुई। दूसरी कन्या कमला का विवाह अजमेर के चौहान सोमेश्वर के साथ हुआ जिनके पुत्र पृथ्वीराज हुए। अनंगपाल ने अपने नाती पृथ्वीराज को गोद लिया जिससे अजमेर और दिल्ली का राज एक हो गया।
- संयोगिता का स्वयंवर
जयचंद को यह बात अच्छी न लगी। उसने एक दिन राजसूय यज्ञ करके सब राजाओं को यज्ञ के भिन्न-भिन्न कार्य करने के लिए निमंत्रित किया और इस यज्ञ के साथ ही अपनी कन्या संयोगिता का स्वयंवर रचा। राजसूय यज्ञ में सब राजा आए पर पृथ्वीराज नहीं आए। इसपर जयचंद ने चिढ़कर पृथ्वीराज की एक स्वर्णमूर्ति द्वारपाल के रूप में द्वार पर रखवा दी। संयोगिता का अनुराग पहले से ही पृथ्वीराज पर था, अत: जब वह जयमाल लेकर रंगभूमि में आई तब उसने पृथ्वीराज की मूर्ति को ही माला पहना दी। इस पर जयचंद ने उसे घर से निकालकर गंगा किनारे के महल में भेज दिया। इधर पृथ्वीराज के सामंतों ने आकर यज्ञ विध्वंस किया। फिर पृथ्वीराज ने चुपचाप आकर संयोगिता से गंधर्व विवाह किया और अंत में वे उसे हर ले गए। रास्ते में जयचंद की सेना से बहुत युद्ध हुआ, पर संयोगिता को लेकर पृथ्वीराज कुशलतापूर्वक दिल्ली पहुँच गए। वहाँ भोगविलास में ही उनका समय बीतने लगा, राज्य की रक्षा का ध्यान न रह गया।
- ऐतिहासिकता का अभाव
बल का बहुत कुछ ह्रास तो जयचंद तथा और राजाओं के साथ लड़ते-लड़ते हो चुका था और बड़े-बड़े सामंत मारे जा चुके थे। अच्छा अवसर देख शहाबुद्दीन चढ़ आया, पर हार गया और पकड़ा गया। पृथ्वीराज ने उसे छोड़ दिया। वह बार-बार चढ़ाई करता रहा और अंत में पृथ्वीराज पकड़कर गजनी भेज दिए गए। कुछ काल के पीछे कवि चंद भी गजनी पहुँचे। एक दिन चंद के इशारे पर पृथ्वीराज ने शब्दबेधी बाण द्वारा शहाबुद्दीन को मारा और फिर दोनों एक-दूसरे को मारकर मर गए। शहाबुद्दीन पृथ्वीराज के बैर का कारण यह लिखा गया है कि शहाबुद्दीन अपने यहाँ की एक सुंदरी पर आसक्त था, जो एक-दूसरे पठान सरदार हुसैनशाह को चाहती थी। जब ये दोनों शहाबुद्दीन से तंग हुए तब हारकर पृथ्वीराज के पास भाग आए। शहाबुद्दीन ने पृथ्वीराज के यहाँ कहला भेजा कि उन दोनों को अपने यहाँ से निकाल दो। पृथ्वीराज ने उत्तर दिया कि शरणागत की रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म है, अत: इन दोनों की हम बराबर रक्षा करेंगे। इसी बैर से शहाबुद्दीन ने दिल्ली पर चढ़ाइयाँ कीं। यह तो पृथ्वीराज का मुख्य चरित्र हुआ। इसके अतिरिक्त बीच-बीच में बहुत-से राजाओं के साथ पृथ्वीराज के युद्ध और अनेक राजकन्याओं के साथ विवाह की कथाएँ रासो में भरी पड़ी हैं। ऊपर लिखे वृत्तांत और रासो में दिए हुए संवतों का ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बिल्कुल मेल न खाने के कारण अनेक विद्वानों ने पृथ्वीराज रासो को पृथ्वीराज के समसामयिक किसी कवि की रचना होने में पूरा संदेह किया है और उसे सोलहवीं शताब्दी में लिखा हुआ एक जाली ग्रंथ ठहराया है। रासो में चंगेज, तैमूर आदि कुछ पीछे के नाम आने से यह संदेह और भी पुष्ट होता है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा 'रासो' में वर्णित घटनाओं तथा संवतों को बिल्कुल भाटों की कल्पना मानते हैं।[2]
काव्य विशेषताएँ
'पृथ्वीराज रासो' वीर रस का हिंदी का सर्वश्रेष्ठ काव्य है। हिंदी साहित्य में वीर चरित्रों की जैसी विशद कल्पना इस काव्य में मिली वैसी बाद में कभी नहीं दिखाई पड़ी। पाठक रचना भर में उत्साह की एक उमड़ती हुई सरिता में बहता चलता है। कन्नौज युद्ध के पूर्व संयोगिता के अनुराग और विरह तथा उक्त युद्ध के अनंतर पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता के मिलन और केलि विलास के जो चित्र रचना में मिलते हैं, वे अत्यंत आकर्षक हैं। अन्य रसों का भी काव्य में अभाव नहीं है। रचना का वर्णनवैभव असाधारण है; नायक नायिका के संभोग समय का षड्ऋतु वर्णन कहीं कहीं पर संश्लिष्ट प्रकृति चित्रण के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। भाषा-शैली सर्वत्र प्रभावपूर्ण है और वर्ण्य विषय के अनुरूप काव्य भर में बदलती रहती है। रचना के इन समस्त गुणों पर दृष्टिपात किया जाए तो वह एक सुंदर महाकाव्य प्रमाणित होता है और नि:संदेह आधुनिक भारतीय आर्यभाषा साहित्य के आदि युग की विशिष्ट कृति ठहरती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रासो काव्य : वीरगाथायें (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 15 मई, 2011।
- ↑ हिन्दी साहित्य का इतिहास, वीरगाथा काल (संवत् 1050 - 1375) अध्याय 3, लेखक - रामचन्द्र शुक्ल
- संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो: सं. हजारीप्रसाद द्विवेदी तथा नामवर सिंह, साहित्य भवन लि., प्रयाग;
- पृथ्वीराज रासो : सं. कविराय मोहन, साहित्य संस्थान, संस्थान, राजस्थान विश्व विद्यापीठ, उदयपुर।
- पृथ्वीराज-विजय : सं. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, अजमेर ;
- सुर्जन चरित महाकाव्य (चंद्रशेखर कृत) सं. डा. चंद्रधर शर्मा, हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी;
बाहरी कड़ियाँ
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