योगवाशिष्ठ महारामायण
योगवाशिष्ठ महारामायण के रचयिता आदिकवि वाल्मीकि माने जाते हैं। यह संस्कृत सहित्य में अद्वैत वेदान्त का अति महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें ऋषि वसिष्ठ भगवान राम को निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान देते हैं। महाभारत के बाद संस्कृत का यह दूसरा सबसे बड़ा ग्रन्थ है। यह योग का भी महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। 'महारामायण', 'योगवासिष्ठ रामायण', 'आर्ष रामायण', 'वासिष्ठ रामायण' तथा 'ज्ञानवासिष्ठ' आदि नामों से भी इसे जाना जाता है।
परिचय
भगवान श्रीराम का विवेक मात्र 16 वर्ष की उम्र में जग गया और वे विवेक-विचार में खोये रहने लगे। उन्हीं दिनों यज्ञों का ध्वंस करने वाले मारीच आदि राक्षस महर्षि विश्वामित्र के भी यज्ञ में विघ्न डालकर उन्हें तंग कर रहे थे। विश्वामित्र ने सोचा कि 'राजा दशरथ धर्मात्मा हैं। मैं उनसे मदद लूँ।' वे अयोध्या गये। राजा दशरथ को जैसे ही खबर मिली कि विश्वामित्र जी आये हैं, वे सिंहासन से तुरंत उठ खड़े हुए और स्वयं उनके पास जाकर उनके चरणों में दंडवत् प्रणाम किया।
राजा दशरथ ने विश्वामित्र को तिलक किया, उनकी आरती उतारी, फिर पूछा- "मुनिशार्दूल ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ?"
विश्वामित्र बोले- "जो माँगूगा, वह दोगे?"
"महाराज! मैं और मेरा राज्य आपके चरणों में अर्पित है।"
"यह नहीं चाहिए। आपके सुपुत्र राम और लक्ष्मण मुझे दे दो।"
यह सुनकर राजा दशरथ मूर्च्छित हो गये, फिर होश में आने पर बोले- "महाराज! यह मत माँगो, कुछ और माँग लो।"
विश्वामित्र क्रोधित होकर बोले- "अच्छा, खाली घर से साधु खाली ही जाता है। अभागा आदमी क्या जाने साधु की सेवा? कौन अभागा मनुष्य साधु के दैवी कार्य में सहभागी हो सकता है? हम यह चले।"
दशरथ घबराये कि संत रूठकर, नाराज होकर चले जायें यह ठीक नहीं है। वसिष्ठ ने भी दशरथ को समझाया कि "विश्वामित्र जी के पास वज्र जैसा तपोबल है। ये स्वयं समर्थ हैं राक्षसों को शाप देने में, लेकिन संत लोहे से लोहा काटना चाहते हैं, सोने से नहीं। विश्वामित्र जी आपके राजकुमारों द्वारा ताड़का आदि का वध करायेंगे और उन्हें प्रसिद्ध करेंगे। इसलिए राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र को अर्पण करने में ही आपकी शोभा है।"
राजा दशरथ ने कहा- "श्रीराम तो विवेक करके संसार से उपराम हो गये हैं।"
वसिष्ठ ने कहा- "साधो-साधो! जब श्रीराम का विवेक जगा है तो हम उन्हें ज्ञानी बना कर भेज देंगे, कर्मबंधन से पार करके भेज देंगे। वे ब्रह्म ज्ञानी होकर राज्य करें।"
प्रकरण
- भगवान श्रीराम को आदर के साथ राजसभा में लाया गया और वहाँ उन्होंने अपने हृदय के विचार प्रकट किये। इन्हीं विचारों का वर्णन 'श्री योगवासिष्ठ महारामायण' के पहले प्रकरण 'वैराग्य प्रकरण' में किया गया है।
- फिर वसिष्ठ और विश्वामित्र ने राम के वैराग्य की सराहना की और जैसे बीज बोकर सिंचाई की जाती है, वैसे ही उनको उपदेश कर उनमें संस्कार सींचे। इन उपदेशों का वर्णन दूसरे प्रकरण 'मुमुक्षु व्यवहार प्रकरण' में किया गया है।
- 'सृष्टि का मूल क्या है और जगत की उत्पत्ति कैसे हुई?' इसका उपदेश दिया गया है, जिसका वर्णन तीसरे प्रकरण 'उत्पत्ति प्रकरण' में किया गया है।
- अनात्मा से उपराम होकर आत्मा में स्थिति करने का उपदेश दिया गया है, जिसका वर्णन चौथे प्रकरण 'स्थिति प्रकरण' में किया गया है।
- फिर उपदेश का सिलसिला बढ़ता गया, सुख-दुःख में समता का अभ्यास करने और परमात्मा में विश्रांति पाने का उपदेश दिया गया है, जिसका वर्णन पाँचवें प्रकरण 'उपशम प्रकरण' में किया गया है।
- जैसे तेल खत्म होने पर दीया बुझ जाता है, निर्वाण हो जाता है, वैसे ही मन को हमारी सत्ता न मिलने से उसकी दौड़, भटकान खत्म हो जाती है अर्थात् मन का निर्वाण हो जाता है। इसी का उपदेश आखिरी छठे प्रकरण 'निर्वाण प्रकरण' में दिया गया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
Valmiki Ramayan (संस्कृत)। । अभिगमन तिथि: 9 जुलाई, 2010।
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