"समर्थ रामदास": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
No edit summary
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
[[चित्र:Samarth-Guru-Ramdas.jpg|समर्थ गुरु रामदास<br />Samarth-Guru-Ramdas|thumb|250px]]
{{सूचना बक्सा ऐतिहासिक पात्र
|चित्र=Samarth-Guru-Ramdas.jpg
|चित्र का नाम=समर्थ गुरु रामदास
|पूरा नाम=नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी
|अन्य नाम=
|जन्म=[[शक संवत|शके]] 1530 (सन 1608)
|जन्म भूमि=[[औरंगाबाद ज़िला, महाराष्ट्र|औरंगाबाद ज़िला]], [[महाराष्ट्र]]
|मृत्यु तिथि=शालिवाहन शक 1603 (सन 1682)
|मृत्यु स्थान=[[सज्जनगढ़ क़िला|सज्जनगढ़]], [[महाराष्ट्र]]
|पिता/माता=राणुबाई ([[माता]])
|पति/पत्नी=
|संतान=
|उपाधि=समर्थ
|शासन=
|धार्मिक मान्यता=
|राज्याभिषेक=
|युद्ध=
|प्रसिद्धि=[[संत]]
|निर्माण=
|सुधार-परिवर्तन=
|राजधानी=
|पूर्वाधिकारी=
|राजघराना=
|वंश=
|शासन काल=
|स्मारक=
|मक़बरा=
|संबंधित लेख=[[महाराष्ट्र]], [[शिवाजी]], [[मराठा]], [[मराठा साम्राज्य]]
|शीर्षक 1=
|पाठ 1=
|शीर्षक 2=
|पाठ 2=
|अन्य जानकारी=
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
 
'''समर्थ रामदास''' [[महाराष्ट्र]] के प्रसिद्ध [[सन्त]] थे। वे [[शिवाजी|छत्रपति शिवाजी]] के गुरु थे। उन्होंने 'दासबोध' नामक एक [[ग्रन्थ]] की रचना भी की थी, जो [[मराठी भाषा]] में है। '[[हिन्दू पद पादशाही]]' के संस्थापक शिवाजी के गुरु रामदासजी का नाम [[भारत]] के साधु-संतों व विद्वत समाज में सुविख्यात है। महाराष्ट्र तथा सम्पूर्ण [[दक्षिण भारत]] में तो प्रत्यक्ष [[हनुमान|भगवान हनुमान]] के [[अवतार]] के रूप में उनकी [[पूजा]] की जाती है।
'''समर्थ रामदास''' [[महाराष्ट्र]] के प्रसिद्ध [[सन्त]] थे। वे [[शिवाजी|छत्रपति शिवाजी]] के गुरु थे। उन्होंने 'दासबोध' नामक एक [[ग्रन्थ]] की रचना भी की थी, जो [[मराठी भाषा]] में है। '[[हिन्दू पद पादशाही]]' के संस्थापक शिवाजी के गुरु रामदासजी का नाम [[भारत]] के साधु-संतों व विद्वत समाज में सुविख्यात है। महाराष्ट्र तथा सम्पूर्ण [[दक्षिण भारत]] में तो प्रत्यक्ष [[हनुमान|भगवान हनुमान]] के [[अवतार]] के रूप में उनकी [[पूजा]] की जाती है।
==जन्म==
==जन्म==
पंक्ति 20: पंक्ति 56:
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{भारत के संत}}
{{भारत के संत}}
[[Category:हिन्दू धर्म प्रवर्तक और संत]][[Category:हिन्दू धर्म]] [[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]]
[[Category:हिन्दू धर्म प्रवर्तक और संत]][[Category:मराठा साम्राज्य]] [[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:चरित कोश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

12:32, 10 मई 2015 का अवतरण

समर्थ रामदास
समर्थ गुरु रामदास
समर्थ गुरु रामदास
पूरा नाम नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी
जन्म शके 1530 (सन 1608)
जन्म भूमि औरंगाबाद ज़िला, महाराष्ट्र
मृत्यु तिथि शालिवाहन शक 1603 (सन 1682)
मृत्यु स्थान सज्जनगढ़, महाराष्ट्र
पिता/माता राणुबाई (माता)
उपाधि समर्थ
प्रसिद्धि संत
संबंधित लेख महाराष्ट्र, शिवाजी, मराठा, मराठा साम्राज्य

समर्थ रामदास महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त थे। वे छत्रपति शिवाजी के गुरु थे। उन्होंने 'दासबोध' नामक एक ग्रन्थ की रचना भी की थी, जो मराठी भाषा में है। 'हिन्दू पद पादशाही' के संस्थापक शिवाजी के गुरु रामदासजी का नाम भारत के साधु-संतों व विद्वत समाज में सुविख्यात है। महाराष्ट्र तथा सम्पूर्ण दक्षिण भारत में तो प्रत्यक्ष भगवान हनुमान के अवतार के रूप में उनकी पूजा की जाती है।

जन्म

समर्थ रामदास का जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद ज़िले के जांब नामक स्थान पर शके 1530 (सन 1608) में हुआ था। इनका मूल नाम 'नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी' था।

बाल्यकाल

अपने बाल्यकाल में समर्थ रामदास बहुत शरारती हुआ करते थे। गाँव के लोग रोज़ उनकी शिकायत उनकी माता से आकर किया करते थे। एक दिन माता राणुबाई ने नारायण से कहा- "कुछ काम किया करो, तुम दिनभर शरारत करते हो। तुम्हारे बड़े भाई गंगाधर अपने परिवार की कितनी चिंता करते हैं।" यह बात नारायण के मन में लग गई। दो-तीन दिन बाद इन्होंने अपनी शरारत छोड़कर एक कमरे में ध्यान लगा लिया। दिनभर में नारायण नहीं दिखे तो माता ने बड़े बेटे से नारायण के बारे में पूछा। दोनों उन्हें खोजने निकल पड़े, किंतु उनका कोई पता नहीं चला। शाम के वक़्त माता ने कमरे में उन्हें ध्यान अवस्था में देखा तो उनसे पूछा- "नारायण, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?" तब नारायण ने जवाब दिया- "मैं पूरे विश्व की चिंता कर रहा हूँ।"

युवा वर्ग को प्रेरणा

इस घटना के बाद नारायण की दिनचर्या बदल गई। उन्होंने समाज के युवा वर्ग को यह समझाया कि स्वस्थ एवं सुगठित शरीर के द्वारा ही राष्ट्र की उन्नति संभव है। इसलिए उन्होंने व्यायाम एवं कसरत करने की सलाह दी एवं शक्ति के उपासक भगवान श्रीराम के भक्त हनुमान की मूर्ति की स्थापना की। समस्त भारत का उन्होंने पद-भ्रमण किया। जगह-जगह पर हनुमान जी की मूर्ति स्थापित की, जगह-जगह मठ एवं मठाधीश बनाए, ताकि पूरे राष्ट्र में नव-चेतना का निर्माण हो सके।

जीवन का लक्ष्य

आख्यायिका है कि 12 वर्ष की अवस्था में अपने विवाह के समय "शुभमंगल सावधान" में "सावधान" शब्द सुनकर नारायण विवाह के मंडप से निकल गए और टाकली नामक स्थान पर श्री रामचंद्र की उपासना में संलग्न हो गए। उपासना में 12 वर्ष तक वे लीन रहे। यहीं उनका नाम रामदास पड़ा। इसके बाद 12 वर्ष तक वे भारतवर्ष का भ्रमण करते रहे। इस प्रवास में उन्होंने जनता की जो दुर्दशा देखी, उससे उनका हृदय संतप्त हो उठा। उन्होंने मोक्ष साधना के स्थान पर अपने जीवन का लक्ष्य स्वराज्य की स्थापना द्वारा आततायी शासकों के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाना बनाया। शासन के विरुद्ध जनता को संघटित होने का उपदेश देते हुए वे घूमने लगे।

कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्य स्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। इसी प्रयत्न में उन्हें छत्रपति श्री शिवाजी महाराज जैसे योग्य शिष्य का लाभ हुआ और स्वराज्य स्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य उन्हें अपने जीवनकाल में ही प्राप्त हो सका। उस समय महाराष्ट्र में मराठों का शासन था। शिवाजी महाराज रामदासजी के कार्य से बहुत प्रभावित हुए तथा जब इनका मिलन हुआ, तब शिवाजी महाराज ने अपना राज्य रामदासजी की झोली में डाल दिया। रामदास ने महाराज से कहा- "'यह राज्य न तुम्हारा है न मेरा। यह राज्य भगवान का है, हम सिर्फ़ न्यासी हैं।" शिवाजी समय-समय पर उनसे सलाह-मशविरा किया करते थे।

रामदास स्वामी ने बहुत से ग्रंथ लिखे। इसमें 'दासबोध' प्रमुख है। इसी प्रकार उन्होंने हमारे मन को भी संस्कारित किया 'मनाचे श्लोक' द्वारा।

व्यक्तित्व

समर्थ गुरु रामदास का व्यक्तित्व भक्ति ज्ञान वैराग्य से ओतप्रोत था। मुख मण्डल पर दाढ़ी तथा मस्तक पर जटाएं, भाल प्रदेश पर चन्दन का टीका लगा रहता था। उनके कंधे पर भिक्षा के लिए झोली रहती थी। एक हाथ में जपमाला और कमण्डलु तथा दूसरे हाथ में योगदण्ड रहती थी। पैरों में लकड़ी की पादुकाएँ धारण करते थे। योगशास्त्र के अनुसार उनकी भूचरी मुद्रा थी। मुख में सदैव रामनाम का जाप चलता था और बहुत कम बोलते थे। वे संगीत के उत्तम जानकार थे। उन्होनें अनेकों रागों में गायी जाने वाली रचनाएं की हैं। वे प्रतिदिन 1200 सूर्य नमस्कार लगाते थे। इस कारण शरीर अत्यंत बलवान था। जीवन के अंतिम कुछ वर्ष छोड़कर पूरे जीवम में वे कभी एक जगह पर नहीं रुके। उनका वास्तव्य दुर्गम गुफ़ारँ, पर्वत शिखर, नदी के किनारें तथा घने अरण्य में रहता था। ऐसा समकालीन ग्रंथ में उल्लेख है।

अंतिम समय

अपने जीवन का अंतिम समय समर्थ रामदास ने सतारा के पास परली के क़िले पर व्यतीत किया। बाद में इस क़िले का नाम सज्जनगढ़ पड़ा। तमिलनाडु के तंजावुर ग्राम में रहने वाले अरणिकर नाम के अंध कारीगर ने प्रभु रामचंद्र, माता सीता और लक्ष्मण की मूर्ति बनाकर सज्जनगढ़ को भेज दी। इसी मूर्ति के सामने समर्थ रामदान ने अंतिम पांच दिन निर्जल उपवास किया और पूर्वसूचना देकर माघ वद्य नवमी शालिवाहन शक 1603 (सन 1682) को 74 वर्ष की अवस्था में रामनाम का जाप करते हुए पद्मासन में बैठकर ब्रह्मलीन हो गए। महाराष्ट्र सज्जनगढ़ में उनकी समाधि स्थित है। यह समाधी दिवस 'दासनवमी' के नाम से जाना जाता हैं। प्रतिवर्ष समर्थ रामदास के भक्त भारत के विभिन्न प्रांतों में दो माह का दौरा निकालते हैं और दौरे में मिली भिक्षा से सज्जनगढ़ की व्यवस्था चलती है।

संबंधित लेख