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| ==अकबर का दाम्पत्य जीवन== | | ==अकबर का दाम्पत्य जीवन== |
| [[चित्र:govindev-temple-2.jpg|[[गोविन्द देव मन्दिर वृन्दावन|गोविन्द देव मन्दिर]], [[वृन्दावन]]<br /> Govind Dev Temple, Vrindavan|thumb|250px]]
| | '''जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर''' [[भारत]] का महानतम मुग़ल शंहशाह बादशाह था। जिसने मुग़ल शक्ति का भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्सों में विस्तार किया। [[अकबर]] को अकबर-ऐ-आज़म, शहंशाह अकबर तथा महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है। |
| '''जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर''' [[भारत]] का महानतम मुग़ल शंहशाह बादशाह था। जिसने मुग़ल शक्ति का भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्सों में विस्तार किया। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म, शहंशाह अकबर तथा महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है। | |
| ==पिता हुमायूँ की मुश्किलें==
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| '''हुमायूँ मुश्किल से नौ वर्ष ही शासन''' कर पाया था कि, [[26 जून]], 1539 को [[गंगा]] किनारे 'चौसा' (शाहबाद ज़िले) में उसे शेरख़ाँ ([[शेरशाह]]) के हाथों करारी हार खानी पड़ी। चौसा अपने ऐतिहासिक युद्ध के लिए आज उतना प्रसिद्ध नहीं है, जितना अपने स्वादिष्ट आमों के लिए। चौसा की हार के बाद [[कन्नौज]] में हुमायूँ ने फिर भाग्य-परीक्षा की, लेकिन शेरशाह ने [[17 मई]], 1740 को अपने से कई गुना अधिक सेना को हरा दिया। हुमायूँ इस बार पश्चिम की ओर भागा। कितने ही समय तक वह [[राजस्थान]] के रेगिस्तानों में भटकता रहा, पर कहीं से भी उसे कोई सहायता प्राप्त नहीं हुई। इसी भटकते हुए जीवन में उसका परिचय हमीदा बानू से हुआ। बानू का पिता शेख़ अली अकबर जामी मीर बाबा दोस्त हुमायूँ के छोटे भाई [[हिन्दाल]] का गुरु था। हमीदा की सगाई हो चुकी थी, लेकिन चाहे बेतख्त का ही हो, आखिर हुमायूँ बादशाह था। [[सिंध]] में पात के मुकाम पर 1541 ई. के अन्त या 1452 ई. के प्रारम्भ में 14 वर्ष की हमीदा का विवाह हुमायूँ से हो गया। अपने पिछले जीवन में यही हमीदा बानू 'मरियम मकानी' के नाम से प्रसिद्ध हुई और अपने बेटे से एक ही साल पहले (29 अगस्त, 1604 ई. में) मरी। उस समय क्या पता था कि, हुमायूँ का भाग्य पलटा खायेगा और हमीदा की कोख से अकबर जैसा एक अद्वितीय पुत्र पैदा होगा।
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| ==माता-पिता से बिछुड़ना==
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| '''हुमायूँ अपने खोये हुए राज्य को फिर से प्राप्त''' करने के लिए संघर्षरत था। तभी वह [[ईरान]] के तहमास्प की सहायता प्राप्त करने के ख्याल से कंधार की ओर चला। बड़ी मुश्किल से सेहवान पर उसने [[सिंध]] पार किया, फिर बलोचिस्तान के रास्ते [[क्वेटा]] के दक्षिण मस्तंग स्थान पर पहुँचा, जो कि [[कंधार]] की सीमा पर था। इस समय यहाँ पर उसका छोटा भाई [[अस्करी]] अपने भाई काबुल के शासक कामराँ की ओर से हुकूमत कर रहा था। हुमायूँ को ख़बर मिली कि, अस्करी हमला करके उसको पकड़ना चाहता है। मुकाबला करने के लिए आदमी नहीं थे। जरा-सी भी देर करने से काम बिगड़ने वाला था। उसके पास में घोड़ों की भी कमी थी। उसने तर्दी बेग से माँगा, तो उसने देने से इन्कार कर दिया। हुमायूँ, हमीदा बानू को अपने पीछे घोड़े पर बिठाकर पहाड़ों की ओर भागा। उसके जाते देर नहीं लगी कि अस्करी दो हज़ार सवारों के साथ पहुँच गया। हुमायूँ साल भर के शिशु अकबर को ले जाने में असमर्थ हुआ। वह वहीं डेरे में छूट गया। अस्करी ने भतीजे के ऊपर गुस्सा नहीं उतारा और उसे जौहर आदि के हाथ अच्छी तरह से कंधार ले गया। कंधार में अस्करी की पत्नी सुल्तान बेगम वात्सल्य दिखलाने के लिए तैयार थी।
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| अब अकबर, अस्करी की पत्नी की देख-रेख में रहने लगा। ख़ानदानी प्रथा के अनुसार दूधमाताएँ, अनगा-नियुक्त की गईं। शमशुद्दीन मुहम्मद ने 1540 ई. में [[कन्नौज]] के युद्ध में हुमायूँ को डूबने से बचाया था, उसी की बीबी जीजी अनगा को दूध पिलाने का काम सौंपा गया। [[माहम अनगा]] दूसरी अनगा थी। यद्यपि उसने दूध शायद ही कभी पिलाया हो, पर वही मुख्य अनगा मानी गई और उसके पुत्र-अकबर के दूध भाई (कोका या कोकलताश)-अदहम ख़ान का पीछे बहुत मान बढ़ा।
| | ==बेगमों का प्रभाव== |
| ==सूबेदार का पद== | | '''अकबर ने भले ही बैरम ख़ाँ के हाथ से''' सल्तनत की बागडोर छीन ली, पर अभी वह उसे अपने हाथ में नहीं ले सका। वस्तुत: [[माहम अनगा]] अपनी बेटी और सम्बन्धियों के बल पर बैरम ख़ाँ को पछाड़ने में सफल हुई थी। वह कब चाहती थी कि, अकबर अपने प्रभाव से निकल जाए। पीर मुहम्मद शिरवानी ने षड्यंत्र को सफल बनाने में अपने आका बैरम ख़ाँ से विश्वासघात किया था। तर्दीबेग का भी सर्वनाश करने में उसका बड़ा हाथ था। वह माहम अनगा के अत्यन्त कृपापात्रों में से एक था। शजात ख़ाँ (सहजावल ख़ाँ) सूर [[मांडू]] में पहले सलीमशाह सूर की ओर से, फिर स्वतंत्र शासक रहा। हिजरी 963 (1555-1556 ई.) में उसके मरने पर उसका सबसे बड़ा लड़का बाजबहादुर मालवा की गद्दी पर उसी साल बैठा था, जिस साल अकबर तख्त पर बैठा था। बाजबहादुर (सुल्तान बायजीद) अयोग्य तथा क्रूर आदमी था। उसने अपने छोटे भाई और कितने ही अफ़सरों को मरवाकर अपने को मज़बूत करना चाहा। अपने पड़ोसी गोंड राजाओं की ओर हाथ बढ़ाना चाहा और बुरी तरह से हारा। वह [[संगीत]] का बहुत शौक़ीन था। उसने अदली (आदिलशाह सूर) से संगीत की शिक्षा पाई थी। मदिरा, मदिरेक्षणा और संगीत उसके जीवन का लक्ष्य था। उसके दरबार में [[नृत्य कला|नृत्य]] और संगीत में अत्यन्त कुशल रूपमती गणिका थी, जिसके प्रेम में वह पागल था। इस प्रेम को लेकर कितने ही कवियों ने अपनी कविताएँ लिखी हैं। |
| '''1551 ई. में मात्र 9 वर्ष की अवस्था में''' पहली बार अकबर को गजनी की सूबेदारी सौंपी गई। [[हुमायूँ]] ने हिन्दुस्तान की पुनर्विजय के समय मुनीम ख़ाँ को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया। सिकन्दर सूर से अकबर द्वारा ‘[[सरहिन्द]]’ को छीन लेने के बाद हुमायूँ ने 1555 ई. में उसे अपना ‘युवराज’ घोषित किया। [[दिल्ली]] पर अधिकार कर लेने के बाद हुमायूँ ने अकबर को [[लाहौर]] का गर्वनर नियुक्त किया, साथ ही अकबर के संरक्षक मुनीम ख़ाँ को अपने दूसरे लड़के मिर्ज़ा हकीम का अंगरक्षक नियुक्त कर, तुर्क सेनापति ‘बैरम ख़ाँ’ को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया। | |
| ==हुमायूँ की मृत्यु==
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| '''दिल्ली के तख्त पर बैठने के बाद''' यह हुमायूँ का दुर्भाग्य ही था कि, वह अधिक दिनों तक सत्ताभोग नहीं कर सका। जनवरी, 1556 ई. में ‘दीनपनाह’ भवन में स्थित पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरने के कारण हुमायूँ की मुत्यु हो गयी। हुमायूँ की मृत्यु का समाचार सुनकर [[बैरम ख़ाँ]] ने गुरुदासपुर के निकट ‘कलानौर’ में [[14 फ़रवरी]], 1556 ई. को अकबर का राज्याभिषेक करवा दिया और वह 'जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर बादशाह ग़ाज़ी' की उपाधि से राजसिंहासन पर बैठा। राज्याभिषेक के समय अकबर की आयु मात्र 13 वर्ष 4 महीने की थी।
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| ==नाबालिग बादशाह==
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| '''कलानोर में 14 वर्ष के अकबर को बादशाह घोषित''' कर दिया गया, पर उसे खेल-तमाशे से फुर्सत नहीं थी, ऊपर से बैरम ख़ाँ जैसा आदमी उसका सरपरस्त था। सल्तनत भी अभी [[आगरा]] से [[पंजाब]] तक ही सीमित थी। [[हुमायूँ]] और [[बाबर]] के राज्य के पुराने सूबे हाथ में नहीं आये थे। [[बंगाल]] में [[पठान|पठानों]] का बोलबाला था, [[राजस्थान]] में [[राजपूत]] रजवाड़े स्वच्छन्द थे। [[मालवा]] में [[मांडू]] का सुल्तान और [[गुजरात]] में अलग बादशाह था। गोंडवाना ([[मध्य प्रदेश]]) में रानी [[दुर्गावती]] की तपी थी, कहावत है, ‘ताल में भूपाल ताल और सब तलैया। रानी में दुर्गावती और सब गधैया।’ [[ख़ानदेश]], [[बरार]], [[बीदर]], [[अहमदनगर]], [[गोलकुंडा]], [[बीजापुर]], [[दिल्ली]] से आज़ाद हो अपने-अपने सुल्तानों के अधीन थे। किसी वक़्त [[मलिक काफ़ूर]] ने [[रामेश्वरम]] पर [[अलाउद्दीन ख़िलजी]] का झण्डा गाड़ा था, आज वहाँ [[विजयनगर साम्राज्य]] का हिन्दू राज्य था। [[कश्मीर]], [[सिंध]], [[बलूचिस्तान]] सभी दिल्ली से मुक्त थे।
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| ==हेमू से सामना==
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| '''आदिशाल सूर ने चुनार को अपनी''' राजधानी बनाया तथा [[हेमू]] को [[मुग़ल|मुग़लों]] को हिन्दुस्तान से बाहर निकालने के लिए नियुक्त किया। हेमू, रेवाड़ी का निवासी था, जो धूसर [[वैश्य]] कुल में पैदा हुआ था। आरम्भिक दिनों में वह रेवाड़ी की सड़कों पर [[नमक]] बेचा करता था। राज्य की सेवा में सर्वप्रथम उसे तोल करने वालों के रूप में नौकरी मिल गई। इस्लामशाह ने उसकी योग्यता से प्रभावित होकर दरबार में एक गुप्त पद पर नियुक्त कर दिया। आदिलशाह के शासक बनते ही हेमू प्रधानमंत्री बनाया गया। [[मुसलमान|मुसलमानी]] शासन में मात्र दो [[हिन्दू]], [[टोडरमल]] एवं हेमू को ही प्रधानमंत्री बनाया गया। हेमू ने अपने स्वामी के लिए 24 लड़ाईयाँ लड़ी थीं, जिसमें उसे 22 में सफलता मिली थी। हेमू [[आगरा]] और [[ग्वालियर]] पर अधिकार करता हुआ, [[7 अक्टूबर]], 1556 ई. को [[तुग़लकाबाद]] पहुँचा। यहाँ उसने तर्दी बेग को परास्त कर [[दिल्ली]] पर क़ब्ज़ा कर लिया। हेमू ने राजा 'विक्रमादित्य' की उपाधि के साथ एक स्वतन्त्र शासक बनने का सौभाग्य प्राप्त किया।
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| {{दाँयाबक्सा|पाठ=अकबर आजीवन निरक्षर रहा। प्रथा के अनुसार चार वर्ष, चार महीने, चार दिन पर अकबर का अक्षरारम्भ हुआ और मुल्ला असामुद्दीन इब्राहीम को शिक्षक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ दिनों के बाद जब पाठ सुनने की बारी आई, तो वहाँ कुछ भी नहीं था।|विचारक=}}
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| हेमू की इस सफलता से चिंतित अकबर और उसके कुछ सहयोगियों के मन में काबुल वापस जाने की बात कौंधने लगी। परंतु बैरम ख़ाँ ने अकबर को इस विषम परिस्थति का सामना करने के लिए तैयार कर लिया, जिसका परिणाम था-[[पानीपत युद्ध द्वितीय|पानीपत की द्वितीय लड़ाई]]।
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| ==पानीपत की द्वितीय लड़ाई (5 नवम्बर, 1556 ई.)==
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| यह संघर्ष [[पानीपत]] के मैदान में 5 नवम्बर, 1556 ई. को हेमू के नेतृत्व में अफ़ग़ान सेना एवं बैरम ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना के मध्य लड़ा गया। [[दिल्ली]] और [[आगरा]] के हाथ से चले जाने पर दरबारियों ने सलाह दी कि हेमू इधर भी बढ़ सकता है। इसीलिए बेहतर है कि, यहाँ से काबुल चला जाए। लेकिन बैरम ख़ाँ ने इसे पसन्द नहीं किया। बाद में बैरम ख़ाँ और अकबर अपनी सेना लेकर पानीपत पहुँचे और वहीं जुआ खेला, जिसे तीन साल पहले दादा ने खेला था। हेमू की सेना संख्या और शक्ति, दोनों में बढ़-चढ़कर थी। पोर्तुगीजों से मिली तोपों का उसे बड़ा अभिमान था। 1500 महागजों की काली घटा मैदान में छाई हुई थी। [[5 नवम्बर]] को हेमू ने मुग़ल दल में भगदड़ मचा दी। युद्ध का प्रारम्भिक क्षण हेमू के पक्ष में जा रहा था, लेकिन इसी समय उसकी आँख में एक तीर लगा, जो भेजे के भीतर घुस गया, वह संज्ञा खो बैठा। नेता के बिना सेना में भगदड़ मच गई। हेमू को गिरफ्तार करके बैरम ख़ाँ ने मरवा दिया। कहा जाता है कि, बैरम ख़ाँ ने अकबर से अपने दुश्मन का सिर काटकर ग़ाज़ी बनने की प्रार्थना की थी, लेकिन अकबर ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। अकबर इस समय अभी मुश्किल से 14 वर्ष का हो पाया था। उसमें इतना विवेक था कि, इसे मानने के लिए कुछ इतिहासकार तैयार नहीं हैं। [[हिन्दू]] चूक गए, पर हेमू की जगह उन्होंने अकबर जैसे शासक को पाया, जिसने आधी शताब्दी तक भेद-भाव की खाई को पाटने की कोशिश की।
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| बैरम ख़ाँ की अतालीकी के अन्तिम वर्षों में राज्य सीमा खूब बढ़ी। जनवरी-फ़रवरी, 1559 में [[ग्वालियर]] ने अधीनता स्वीकार कर ली। इसके कारण दक्षिण का रास्ता खुल गया और ग्वालियर जैसा सुदृढ़ दुर्ग तथा सांस्कृतिक केन्द्र अकबर के हाथ में आ गया। इसी साल पूर्व में [[जौनपुर]] तक [[मुग़ल]] झण्डा फहराने लगा। [[रणथम्भौर]] के अजेय [[दुर्ग]] को लेने की कोशिश की गई, पर उसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई। मालवा को भी बैरम ख़ाँ लेने में असफल रहा और इस प्रकार से साबित कर दिया गया कि अब अतालीक से ज़्यादा आशा नहीं की जा सकती।
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| ==विवाह==
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| '''दिल्ली से अकबर दिसम्बर 1556 में''' [[सरहिन्द]] लौट आया, क्योंकि अभी सिकन्दर सूर सर नहीं हुआ था। मई, 1557 में सिकन्दर ने मानकोट (रामकोट, [[जम्मू]]) के पहाड़ी क़िले में कितनी ही देर तक घिरे रहने के बाद आत्म समर्पण किया। उसे ख़रीद और [[बिहार]] के ज़िले जागीर में मिले, जहाँ पर वह दो वर्ष के बाद मर गया। [[काबुल]] से शाही बेगमें भी मानकोट पहुँची। उनके स्वागत के लिए अकबर दो मंज़िल आगे आया। मानकोट से [[लाहौर]] होते [[जालंधर]] पहुँचने पर बैरम ख़ाँ ने हुमायूँ की भाँजी सलीमा बेगम से विवाह किया। लेकिन यह विवाह कुछ ही समय का रहा, क्योंकि 31 जनवरी, 1561 में बैरम ख़ाँ की हत्या के बाद फूफी की लड़की सलीमा से अकबर ने विवाह किया। सलीमा अकबर की बहुत प्रभावशालिनी बीबी बनी और 1621 ई. में मरी। अक्टूबर, 1558 में अकबर दिल्ली से दल-बल सहित [[यमुना नदी]] से नाव द्वारा आगरा पहुँचा। यद्यपि आगरा एक नगण्य नगर नहीं था। बाबर और सूरी ने भी उसकी क़दर की थी, तथापि उसका भाग्य अकबराबाद बनने के बाद ही जागा।
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| ==हिन्दू राजकुमारी से विवाह== | | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=|माध्यमिक=माध्यमिक2|पूर्णता= |शोध=}} |
| '''एक रात अकबर शिकार के लिए''' [[आगरा]] के पास के किसी गाँव से जा रहा था। वहाँ कुछ गवैयों को अजमेरी ख्वाजा का गुणगान गाते सुना। उसने मन में ख्वाजा की भक्ति जगी और 1562 की [[जनवरी]] के मध्य में थोड़े से लोगों को लेकर वह [[अजमेर]] की ओर चल पड़ा। आगरा और [[अजमेर]] के मध्य में देबसा में [[आमेर]] (पीछे [[जयपुर]]) के राजा बिहारीमल मिले और अपनी सबसे बड़ी लड़की के विवाह का प्रस्ताव रखा। अजमेर में थोड़ा ठहरकर लौटते वक़्त सांभर में राजकुमारी से अकबर ने विवाह किया। बिहारीमल के ज्येष्ठ पुत्र भगवानदास को कोई लड़का नहीं था, उन्होंने अपने भतीजे [[मानसिंह]] को गोद लिया था। राजा भगवानदास और कुँवर मानसिंह अब अकबर के सगे सम्बन्धी हो गए। इसी [[कछवाहा वंश|कछवाहा]] राजकुमारी का नाम पीछे ‘मरियम जमानी’ पड़ा, जिससे [[जहाँगीर]] पैदा हुआ। अकबर की अपनी माँ हमीदा बानू को ‘मरियम मकानी’ (सदन की मरियम) कहा जाता था। कछवाहा रानी की क़ब्र सिकन्दरा में अकबर की क़ब्र के पास एक रौजे में है, जिससे स्पष्ट है कि वह पीछे हिन्दू नहीं रही। अब तक सल्तनत के स्तम्भ तूरानी समझे जाते थे, अब [[राजपूत]] भी स्तम्भ बने और वह तूरानियों से अधिक दृढ़ साबित हुए। अकबरी दरबार के इतिहासकार '[[अबुल फ़ज़ल]]' कृत '[[आइना-ए-अकबरी]]' में और [[जहाँगीर]] के लिखे आत्मचरित 'तुजुक जहाँगीर' में उसे मरियम ज़मानी ही कहा गया है। यह उपाधि उसे सलीम के जन्म पर सन् 1569 में दी गई थी। कुछ लोगों ने उसका नाम जोधाबाई लिख दिया है, जो सही नहीं है। जोधाबाई [[जोधपुर]] के [[राणा उदयसिंह|राजा उदयसिंह]] की पुत्री थी, जिसका विवाह सलीम के साथ सन् 1585 में हुआ था।
| | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
| | | <references/> |
| वह सम्राट अकबर की महारानी और जहाँगीर की माता होने से [[मुग़ल]] [[अंत:पुर]] की सर्वाधिक प्रतिष्ठित नारी थी। वह मुस्लिम बादशाह से विवाह होने पर भी [[हिन्दू धर्म]] के प्रति निष्ठावान रही। सम्राट अकबर ने उसे पूरी धार्मिक स्वतंत्रता दी थी। वह हिन्दू धर्म के अनुसार धर्मोपासना, उत्सव−त्योहार एवं रीति−रिवाजों को करती थी। उसकी मृत्यु सम्राट अकबर के देहावसान के 18 वर्ष पश्चात सन् 1623 में [[आगरा]] में हुई थी। उसकी याद में एक भव्य स्मारक आगरा के निकटवर्ती [[सिकंदरा आगरा|सिकंदरा]] नामक स्थान पर सम्राट के मक़बरे के समीप बनाया गया, जो आज भी है।
| | ==संबंधित लेख== |
| ==बेगमों का प्रभाव==
| | {{मुग़ल साम्राज्य}}{{अकबर के नवरत्न}}{{मुग़ल काल}}{{सल्तनतकालीन प्रशासन}} |
| '''अकबर ने भले ही बैरम ख़ाँ के हाथ से''' सल्तनत की बागडोर छीन ली, पर अभी वह उसे अपने हाथ में नहीं ले सका। वस्तुत: [[माहम अनगा]] अपनी बेटी और सम्बन्धियों के बल पर बैरम ख़ाँ को पछाड़ने में सफल हुई थी। वह कब चाहती थी कि, अकबर अपने प्रभाव से निकल जाए। पीर मुहम्मद शिरवानी ने षड्यंत्र को सफल बनाने में अपने आका बैरम ख़ाँ से विश्वासघात किया था। तर्दीबेग का भी सर्वनाश करने में उसका बड़ा हाथ था। वह माहम अनगा के अत्यन्त कृपापात्रों में से एक था। शजात ख़ाँ (सहजावल ख़ाँ) सूर [[मांडू]] में पहले सलीमशाह सूर की ओर से, फिर स्वतंत्र शासक रहा। हिजरी 963 (1555-1556 ई.) में उसके मरने पर उसका सबसे बड़ा लड़का बाजबहादुर मालवा की गद्दी पर उसी साल बैठा था, जिस साल अकबर तख्त पर बैठा था। बाजबहादुर (सुल्तान बायजीद) अयोग्य तथा क्रूर आदमी था। उसने अपने छोटे भाई और कितने ही अफ़सरों को मरवाकर अपने को मज़बूत करना चाहा। अपने पड़ोसी गोंड राजाओं की ओर हाथ बढ़ाना चाहा और बुरी तरह से हारा। वह [[संगीत]] का बहुत शौक़ीन था। उसने अदली (आदिलशाह सूर) से संगीत की शिक्षा पाई थी। मदिरा, मदिरेक्षणा और संगीत उसके जीवन का लक्ष्य था। उसके दरबार में [[नृत्य कला|नृत्य]] और संगीत में अत्यन्त कुशल रूपमती गणिका थी, जिसके प्रेम में वह पागल था। इस प्रेम को लेकर कितने ही कवियों ने अपनी कविताएँ लिखी हैं।
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