"छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-1 खण्ड-10": अवतरणों में अंतर

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*[[छान्दोग्य उपनिषद]] के [[छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-1|अध्याय प्रथम]] का यह दसवाँ खण्ड है।
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एक समय की बात है, ओलों की वृष्टि से कुरुदेश की खेती नष्ट हो गयी। उस समय इम्य ग्राम में चक्र ऋषि के पुत्र उषस्ति अपनी कम उम्र पत्नी के साथ बड़ी दीन अवस्था में रहने लगे थे। एक दिन उषस्ति ने अत्यन्त घुने उड़द खाने वाले एक निर्धन महावत से भिक्षा मांगी। तब उसने कहा- 'ऋषिवर! इन जूठे उड़द के अलावा मेरे पास कुछ भी नहीं है।'
 
:उषस्ति ने कहा- 'इन्हीं में से मुझे दे दो।'
 
:महावत ने उड़द दे दिये और [[जल]] पीने को दिया। उस पर उषस्ति ने कहा कि 'जल पीने से उन्हें जूठा जल पीने का दोष लग जायेगा।'
:महावत ने कहा- 'क्या ये उड़द जूठे नहीं है?'
 
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उषस्ति ऋषि ने उन उड़द  का एक भाग खाकर, दूसरा भाग अपनी पत्नी को ले जाकर दिया, परन्तु वह पहले ही बहुत-सी भिक्षा प्राप्त कर चुकी थी। अत: उसने उड़द लेकर रख लिये। दूसरे दिन प्राप्त:काल उषस्ति ऋषि ने अपनी पत्नी से थोड़ा-सा अन्न मांगा। उषस्ति ऋषि की पत्नी ने उनके दिये उड़द उन्हें सौंप दिये। ऋषि उषस्ति उन्हें खाकर समीप के राजा के यहाँ होने वाले [[यज्ञ]] में गये। वहां जाकर उन्होंने प्रस्तोता से कहा- 'जिस [[देवता]] की आप स्तुति करते हो, यदि उसे जाने बिना स्तुति करोगे, तो आपका सिर गिर जायेगा।' यही बात उन्होंने उद्गाता के पास जाकर कही और प्रतिहर्ता से भी कही। उनकी बात सुनकर प्रस्तोता, उद्गाता और प्रतिहर्ता अपने-अपने कर्मों से विरत होकर बैठ गये।


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छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-1 खण्ड-10
छान्दोग्य उपनिषद का आवरण पृष्ठ
छान्दोग्य उपनिषद का आवरण पृष्ठ
विवरण 'छान्दोग्य उपनिषद' प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। नाम के अनुसार इस उपनिषद का आधार छन्द है।
अध्याय प्रथम
कुल खण्ड 13 (तेरह)
सम्बंधित वेद सामवेद
संबंधित लेख उपनिषद, वेद, वेदांग, वैदिक काल, संस्कृत साहित्य
अन्य जानकारी सामवेद की तलवकार शाखा में छान्दोग्य उपनिषद को मान्यता प्राप्त है। इसमें दस अध्याय हैं। इसके अन्तिम आठ अध्याय ही छान्दोग्य उपनिषद में लिये गये हैं।

छान्दोग्य उपनिषद के अध्याय प्रथम का यह दसवाँ खण्ड है।

एक समय की बात है, ओलों की वृष्टि से कुरुदेश की खेती नष्ट हो गयी। उस समय इम्य ग्राम में चक्र ऋषि के पुत्र उषस्ति अपनी कम उम्र पत्नी के साथ बड़ी दीन अवस्था में रहने लगे थे। एक दिन उषस्ति ने अत्यन्त घुने उड़द खाने वाले एक निर्धन महावत से भिक्षा मांगी। तब उसने कहा- 'ऋषिवर! इन जूठे उड़द के अलावा मेरे पास कुछ भी नहीं है।'

उषस्ति ने कहा- 'इन्हीं में से मुझे दे दो।'
महावत ने उड़द दे दिये और जल पीने को दिया। उस पर उषस्ति ने कहा कि 'जल पीने से उन्हें जूठा जल पीने का दोष लग जायेगा।'
महावत ने कहा- 'क्या ये उड़द जूठे नहीं है?'
उषस्ति- 'इन्हें खाये बिना मैं जीवित नहीं रह सकता था, परन्तु जल तो मुझे कहीं भी मिल जायेगा।'

उषस्ति ऋषि ने उन उड़द का एक भाग खाकर, दूसरा भाग अपनी पत्नी को ले जाकर दिया, परन्तु वह पहले ही बहुत-सी भिक्षा प्राप्त कर चुकी थी। अत: उसने उड़द लेकर रख लिये। दूसरे दिन प्राप्त:काल उषस्ति ऋषि ने अपनी पत्नी से थोड़ा-सा अन्न मांगा। उषस्ति ऋषि की पत्नी ने उनके दिये उड़द उन्हें सौंप दिये। ऋषि उषस्ति उन्हें खाकर समीप के राजा के यहाँ होने वाले यज्ञ में गये। वहां जाकर उन्होंने प्रस्तोता से कहा- 'जिस देवता की आप स्तुति करते हो, यदि उसे जाने बिना स्तुति करोगे, तो आपका सिर गिर जायेगा।' यही बात उन्होंने उद्गाता के पास जाकर कही और प्रतिहर्ता से भी कही। उनकी बात सुनकर प्रस्तोता, उद्गाता और प्रतिहर्ता अपने-अपने कर्मों से विरत होकर बैठ गये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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