"भंगास्वन": अवतरणों में अंतर
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07:33, 2 मार्च 2017 का अवतरण
भंगास्वन का उल्लेख हिन्दू पौराणिक महाकाव्य 'महाभारत' में हुआ है, जिसके अनुसार यह एक राजा का नाम था, जिसने पुत्र की कामना से 'अग्निष्टुत यज्ञ' किया था; किंतु भंगास्वन ने यज्ञ में देवराज इन्द्र को आमंत्रित नहीं किया, जिस कारण इन्द्र के विरोध के फलस्वरूप वह स्त्री हो गया।
इन्द्र का द्वेष
भंगास्वन पुत्रहीन होने के कारण पुत्र-प्राप्ति के लिय यज्ञ करते थे। उन महाबली राजर्षि ने अग्निष्टुत नामक यज्ञ का आयोजन किया था। उसमें इन्द्र की प्रधानता न होने के कारण इन्द्र उस यज्ञ में द्वेष रखते हैं। वह यज्ञ मनुष्यों के प्रायश्चित के अवसर पर अथवा पुत्र की कामना होने पर अभीष्ट मानकर किया जाता है। देवराज इन्द्र को जब उस यज्ञ की बात मालूम हुई, तब वे मन को वश में रखने वाले राजर्षि भंगास्वन का छिद्र ढूंढने लगे। बहुत ढूंढने पर भी वे उस महामना नरेश का कोई छिद्र न देख सके।
भंगास्वन को स्त्री भाव की प्राप्ति
कुछ काल के अनन्तर राजा भंगास्वन शिकार खेलने के लिये वन में गये। "यही बदला लेने का अवसर है", ऐसा निश्चय करके इन्द्र ने राजा को मोह में डाल दिया। इन्द्र द्वारा मोहित एवं भ्रान्त हुए राजर्षि भंगास्वन एकमात्र घोड़े के साथ इधर-उधर भटकने लगे। उन्हें दिशाओं का भी पता नहीं चलता था। वे भूख-प्यास से पीड़ित तथा परिश्रम और तृष्णा से विकल हो इधर-उधर घूमते रहे। घूमते-घूमते उन्होंने उत्तम जल से भरा हुआ एक सुन्दर सरोवर देखा। उन्होंने घोड़े को उस सरोवर में स्नान कराकर पानी पिलाया। जब घोड़ा पानी पी चुका, तब उसे एक वृक्ष में बांधकर वे श्रेष्ठ नरेश स्वयं भी जल से उतरे। उसमें स्नान करते ही वे राजा स्त्री भाव को प्राप्त हो गये। अपने को स्त्री रूप में देखकर राजा को बड़ी लज्जा हुई। उनके सारे अन्त: करण में भारी चिन्ता व्याप्त हो गयी। उनकी इन्द्रियां और चेतना व्याकुल हो उठीं।
वे स्त्री रूप में इस प्रकार सोचने लगे- "अब मैं कैसे घोड़े पर चढूंगी? मेरे अग्निष्टुत यज्ञ के अनुष्ठान से मुझे सौ महाबलवान औरस पुत्र प्राप्त हुए हैं। उन सबसे क्या कहूंगी? अपनी स्त्रियों तथा नगर और जनपद के लोगों में कैसे जाऊँगी? धर्म के तत्वों को देखने और जानने वाले ऋषियों ने मृदुता, कुशलता और व्याकुलता– ये स्त्री के गुण बताये हैं। परिश्रम करने में कठोरता और बल पराक्रम– ये पुरुष के गुण हैं। मेरा पौरूष नष्ट हो गया और किसी अज्ञात कारण से मुझ में स्त्रीत्व प्रकट हो गया। अब स्त्रीभाव आ जाने से उस अश्व पर कैसे चढ़ सकूंगी?" किसी तरह प्रयत्न करके वे स्त्रीरूप धारी नरेश घोड़े पर चढ़कर अपने नगर में आये। राजा के पुत्र, स्त्रियां, सेवक तथा नगर और जनपद के लोग, "यह क्या हुआ?" ऐसी जिज्ञासा करते हुए बड़े आश्चर्य में पड़ गये। तब स्त्रीरूपधारी, वक्ताओं में श्रेष्ठ राजर्षि भंगास्वन बोले– "मैं अपनी सेना में घिरकर शिकार खेलन के लिए निकला था, परंतु दैव प्रेरणा से भ्रान्तचित होकर एक भयानक वन में जा घुसा। उस घोर वन में प्यास से पीड़ित एवं अचेत-सा होकर मैंने एक सरोवर देखा, जो पक्षियों से घिरा हुआ और मनोहर शोभा से सम्पन्न था। उस सरोवर में उतरकर स्नान करते ही दैव ने मुझे स्त्री बना दिया।" अपनी स्त्रियों ओर मंत्रियों के नाम-गोत्र बताकर उन स्त्रीरूपधारी श्रेष्ठ नरेश ने अपने पुत्रों से कहा– "पुत्रों! तुम लोग आपस में प्रेमपूर्वक रहकर राज्य का उपभोग करो। अब मैं वन को चला जाउंगा।"[1]
इन्द्र द्वारा भंगास्वन पुत्रों में फूट
अपने सौ पुत्रों से ऐसा कहकर राजा वन को चले गये। वह स्त्री किसी आश्रम में जाकर एक तापस के आश्रय में रहने लगी। उस तपस्वी से आश्रम में उसके सौ पुत्र हुए। तब वह रानी अपने उन पुत्रों को लेकर पहले वाले पुत्रों के पास गयी और उनसे इस प्रकार बोली– "पुत्रों! मैंने स्त्री रूप से इन पुत्रों को जन्म दिया है, तुम सब लोग एकत्र होकर साथ-साथ भ्रातृभाव से इस राज्य का उपभोग करो।" तब वे सब भाई एक साथ होकर उस राज्य का उपभोग करने लगे। उन सबको भ्रातृभाव से एक साथ रहकर उस उत्तम राज्य का उपभोग करते देख क्रोध में भरे हुए देवराज इन्द्र ने सोचा कि- "मैंने तो इस राजर्षि का उपकार ही कर दिया, अपकार तो कुछ किया ही नहीं।" तब देवराज इन्द्र ने ब्राह्मण का रूप धारण करके उस नगर में जाकर उन राजकुमारों में फूट डाल दी। वे बोले– "राजकुमारो! जो एक पिता के पुत्र हैं, ऐसे भाइयों में भी प्राय: उत्तम भ्रातृप्रेम नहीं रहता। देवता और असुर दोनों ही कश्यप के पुत्र हैं तथापि राज्य के लिये परस्पर विवाद करते रहते हैं। तुम लोग तो भंगास्वन के पुत्र हो और दूसरे सौ भाई एक तापस के लड़के हैं। फिर तुममें प्रेम कैसे रह सकता है? तुम लोगों का जो पैतृक राज्य है, उसे तापस के लड़के आकर भोग रहे हैं।" इस प्रकार इन्द्र के द्वारा फूट डालने पर वे आपस में लड़ पड़े। उन्होंने युद्ध में एक-दूसरे को मार गिराया।
अपने पुत्रों के मारे जाने का समाचार सुनकर तापसी को बड़ा दु:ख हुआ। वह फूट-फूटकर रोने लगी। उस समय ब्राह्मण का वेश धारण करके इन्द्र उसके पास आये और पूछने लगे– "सुमुखि! तुम किसी दु:ख से संतप्त होकर रो रही हो?" उस ब्राह्मण को देखकर वह स्त्री करूण स्वर में बोली- "ब्रहान! मेरे दो सौ पुत्र काल के द्वारा मारे गये। विप्रवर! मैं पहले राजा था। तब मेरे सौ पुत्र हुए थे। द्विज श्रेष्ठ! वे सभी मेरे अनुरूप थे। एक दिन मैं शिकार खेलने के लिये गहन वन में गया और वहां अकारण भ्रमित-सा होकर इधर-उधर भटकने लगा। ‘ब्राह्माणशिरोमणे! वहां एक सरोवर में स्नान करते ही मैं पुरुष से स्त्री हो गया और पुत्रों को राज्य पर बिठाकर वन में चला आया। स्त्री रूप में आने पर महामना ताप से इस आश्रम में मुझसे सौ पुत्र उत्पन्न किये। ब्रह्मन! मैं उन सब पुत्रों को नगर में ले गयी और उन्हें भी राज्य पर प्रतिष्ठित कराया। विप्रवर! काल की प्रेरणा से उन सब पुत्रों में वैर उत्पन्न हो गया और वे आपस में ही लड़-भिड़कर नष्ट हो गये। इस प्रकार दैव की मारी हुई मैं शोक में डूब रही हूं।"
भंगास्वन को इन्द्र का वरदान
इन्द्र ने उसे दु:खी देख कठोर वाणी में कहा- "भद्रे! जब पहले तुम राजा थीं, तब तुमने भी मुझे दु:सह दु:ख दिया था।[2] तुमने उस यज्ञ का अनुष्ठान किया, जिसका मुझसे वैर है। मेरा आवाहन न करने पर भी तुमने वह यज्ञ पूरा कर लिया। खोटी बुद्धि वाली स्त्री! मैं वही इन्द्र हूं और तुमसे मैंने ही अपने वैर का बदला लिया है।" इन्द्र को देखकर वे स्त्रीरूपधारी राजर्षि उनके चरणों में सिर रखकर बोले- "सुरश्रेष्ठ! आप प्रसन्न हों। मैंने पुत्र की इच्छा से वह यज्ञ किया था। देवेश्वर! उसके लिये आप मुझे क्षमा करें।" उनके इस प्रकार प्रणाम करने पर इन्द्र संतुष्ट हो गये और वर देने के लिये उद्यत होकर बोले- "राजन! तुम्हारें कौन-से पुत्र जीवित हो जायें? तुमने स्त्री होकर जिन्हें उत्पन्न किया था वे अथवा पुरुषावस्था में जो तुमसे उत्पन्न हुए थे वे?" तब तापसी ने इन्द्र से हाथ जोड़कर कहा- "देवेन्द्र! स्त्री रूप हो जाने पर मुझसे जो पुत्र उत्पन्न हुए हैं, वे ही जीवित हो जायं।" तब इन्द्र ने विस्मित होकर उस स्त्री से पूछा- "तुमने पुरुष रूप से जिन्हें उत्पन्न किया था, वे पुत्र तुम्हारे द्वेष के पात्र क्यों हो गये? तथा स्त्री रूप होकर तुमने जिनको जन्म दिया है, उन पर तुम्हारा अधिक स्नेह क्यों है? मैं इसका कारण सुनना चाहता हूं। तुम्हें मुझसे यह बताना चाहिये।"
स्त्री ने कहा- "हे इन्द्र! स्त्री का अपने पुत्रों पर अधिक स्नेह होता है, वैसा स्नेह पुरुष का नहीं होता है। अत: हे इन्द्र! स्त्री रूप में आने पर मुझसे जिनका जन्म हुआ है, वे ही जीवित हो जायं।" तापसी के यों कहने पर इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले- "सत्यवादिनि! तुम्हारे सभी पुत्र जीवित हो जायें। उतम व्रत का पालन करने वाले राजेन्द्र! तुम मुझसे अपनी इच्छा के अनुसार दूसरा वर भी मांग लो। बोलो, फिर से पुरुष होना चाहते हो या स्त्री ही रहने की इच्छा है? जो चाहो वह मुझसे ले लो।" स्त्री ने कहा- "हे इन्द्र! मैं स्त्रीत्व ही वरण करती हूं। अब मैं पुरुष होना नहीं चाहती।" उसके ऐसा कहने पर देवराज ने उस स्त्री से पूछा- "प्रभो! तुम्हें पुरुषत्व का त्याग करके स्त्री बने रहने की इच्छा क्यों होती है?" इन्द्र के यों पूछने पर उन स्त्री रूपधारी नृपश्रेष्ठ ने इस प्रकार उत्तर दिया- "देवेन्द्र! स्त्री का पुरुष के साथ संयोग होन पर स्त्री को ही पुरुष की अपेक्षा अधिक विषयसुख प्राप्त होता है, इसी कारण से मैं स्त्रीत्व का ही वरण करती हूं। देवश्रेष्ठ! सुरेश्वर! मैं सच कहती हूं, स्त्री रूप में मैंने अधिक रति-सुख का अनुभव किया है, अत: स्त्री रूप से ही संतुष्ट हूं। आप पधारिये।"[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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