"अर्ध मागधी": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
No edit summary
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
'''अर्द्ध मागधी''' [[मागधी भाषा|मागधी]] और [[शौरसेनी भाषा|शौरसेनी]] प्राकृतों का वह मिश्रित रूप, जो [[कौशल]] में प्रचलित था। [[महावीर]] और [[बुद्ध]] के समय में यही कौशल की लोक-भाषा थी, अतः इसी में उनके धर्मोपदेश भी हुए थे। [[मौर्य]] [[सम्राट अशोक]] के पूर्वी [[शिलालेख]] भी इसी भाषा में अंकित हुए थे। आजकल की पूर्वी [[हिन्दी]] अर्थात् [[अवधी भाषा|अवधी]], [[बघेली बोली|बघेली]], [[छत्तीसगढ़ी बोली|छत्तीसगढ़ी]] आदि बोलियाँ इसी से निकली है।<ref>{{cite web |url= http://pustak.org/home.php?mean=6946|title= अर्द्ध मागधी|accessmonthday= 22 जुलाई|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= भारतीय साहित्य संग्रह|language= हिन्दी}}</ref>
'''अर्धमागधी''' प्राचीन काल में [[मगध]] की भाषा थी। [[मागधी भाषा|मागधी]] और [[शौरसेनी भाषा|शौरसेनी]] प्राकृतों का वह मिश्रित रूप, जो [[कौशल]] में प्रचलित था। [[महावीर]] और [[बुद्ध]] के समय में यही कौशल की लोक-भाषा थी, अतः इसी में उनके धर्मोपदेश भी हुए थे। लोकभाषा होने के कारण यह आसानी से स्त्री, बालक, वृद्ध और अनपढ़ लोगों की समझ में आ सकती थी। आगे चलकर महावीर के शिष्यों ने अर्धमागधी में [[महावीर]] के उपदेशों का संग्रह किया जो [[आगम]] नाम से प्रसिद्ध हुए। समय-समय पर [[जैन]] आगमों की तीन वाचनाएँ हुईं। अंतिम वाचना महावीरनिर्वाण के 1,000 वर्ष बाद, ईसवी सन्‌ की छठी शताब्दी के आरंभ में, देवर्धिगणि क्षमाक्षमण के अधिनायकत्व में [[वल्लभी|वलभी]] (वला, काठियावाड़) में हुई जब जैन आगम वर्तमान रूप में लिपिबद्ध किए गए। इसी बीच जैन आगमों में भाषा और विषय की दृष्टि से अनेक परिवर्तन हुए, जो स्वाभाविक था। इन परिवर्तनों के होने पर भी [[आचारांग]], सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशैवकालिक आदि [[जैन |जैन]] आगम पर्याप्त प्राचीन और महत्वपूर्ण हैं। ये आगम [[श्वेतांबर संप्रदाय|श्वेतांबर]] जैन परंपरा द्वारा ही मान्य हैं, [[दिगंबर संप्रदाय|दिगंबर]] जैनों के अनुसार ये लुप्त हो गए हैं। [[मौर्य]] [[सम्राट अशोक]] के पूर्वी [[शिलालेख]] भी इसी भाषा में अंकित हुए थे। आजकल की पूर्वी [[हिन्दी]] अर्थात् [[अवधी भाषा|अवधी]], [[बघेली बोली|बघेली]], [[छत्तीसगढ़ी बोली|छत्तीसगढ़ी]] आदि बोलियाँ इसी से निकली है।<ref>{{cite web |url= http://pustak.org/home.php?mean=6946|title= अर्द्ध मागधी|accessmonthday= 22 जुलाई|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= भारतीय साहित्य संग्रह|language= हिन्दी}}</ref>


*अर्द्ध मागधी की स्थिति मागधी और शौरसेनी प्राकृतों के बीच है। इसलिए उसमें दोनों की विशेषताएँ पायी जाती हैं।
*अर्धमागधी शब्द का कई तरह से अर्थ किया जाता है:-
*इस भाषा का महत्व जैन साहित्य के कारण अधिक है।
#जो भाषा मगध के आधे भाग में बोली जाती हो,
# जिसमें [[मागधी भाषा]] के कुछ लक्षण पाए जाते हों, जैसे [[पुल्लिंग]] में प्रथमा के एकवचन में एकारांत रूप का होना (जैसे धम्मे)।
*हेमचंद्र आचार्य ने अर्धमागधी को आर्ष [[प्राकृत]] कहा है।
*अर्द्ध मागधी की स्थिति मागधी और [[शौरसेनी]] प्राकृतों के बीच है। इसलिए उसमें दोनों की विशेषताएँ पायी जाती हैं।
*इस भाषा का महत्व [[जैन साहित्य]] के कारण अधिक है।
*आगमों के उत्तरकालीन जैन साहित्य की भाषा को अर्धमागधी न कहकर [[प्राकृत]] कहा गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि उस समय [[मगध]] के बाहर भी जैन धर्म का प्रचार हो गया था।
*भाषाविज्ञान की परिभाषा में अर्धमागधी मध्य भारतीय [[आर्य]] परिवार की भाषा है, इस परिवार की भाषाएँ प्राकृत कही जाती हैं।
*अर्ध मागधी में ‘र्’ एवं ‘ल्’ दोनों का प्रयोग होता है। इसमें दन्त्य का मूर्धन्य हो जाता है- स्थित > ठिप।
*अर्ध मागधी में ‘र्’ एवं ‘ल्’ दोनों का प्रयोग होता है। इसमें दन्त्य का मूर्धन्य हो जाता है- स्थित > ठिप।
*इस भाषा में ष्, श्, स् में केवल स् का प्रयोग होता है तथा अनेक स्थानों पर स्पर्श व्यंजनों का लोप होने पर ‘य’ श्रुति का आगम हो जाता है। सागर > सायर / कृत > कयं । इस नियम का अपवाद है कि ‘ग्’ व्यंजन का सामान्यतः लोप नहीं होता।
*इस भाषा में ष्, श्, स् में से केवल स् का प्रयोग होता है तथा अनेक स्थानों पर स्पर्श व्यंजनों का लोप होने पर ‘य’ श्रुति का आगम हो जाता है। सागर > सायर / कृत > कयं । इस नियम का अपवाद है कि ‘ग्’ व्यंजन का सामान्यतः लोप नहीं होता।
*अर्ध-मागधी में कर्ता कारक एक वचन के रूपों की सिद्धि [[मागधी भाषा|मागधी]] के समान एकारान्त तथा [[शौरसेनी भाषा|शौरसेनी]] के समान ओकारान्त दोनों प्रकार से होती है।
*अर्ध-मागधी में कर्ता कारक एक वचन के रूपों की सिद्धि [[मागधी भाषा|मागधी]] के समान एकारान्त तथा [[शौरसेनी भाषा|शौरसेनी]] के समान ओकारान्त दोनों प्रकार से होती है।
*मध्य भारतीय आर्य परिवार की भाषा होने के कारण अर्धमागधी [[संस्कृत]] और आधुनिक भारतीय भाषाओं के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=244 |url=}}</ref>


{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
पंक्ति 12: पंक्ति 19:
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{भाषा और लिपि}}
{{भाषा और लिपि}}
[[Category:भाषा और लिपि]][[Category:साहित्य कोश]][[Category:भाषा कोश]]
[[Category:भाषा और लिपि]][[Category:साहित्य कोश]][[Category:भाषा कोश]][[Category:हिन्दी विश्वकोश]]
__INDEX__
__INDEX__

07:36, 2 जून 2018 का अवतरण

अर्धमागधी प्राचीन काल में मगध की भाषा थी। मागधी और शौरसेनी प्राकृतों का वह मिश्रित रूप, जो कौशल में प्रचलित था। महावीर और बुद्ध के समय में यही कौशल की लोक-भाषा थी, अतः इसी में उनके धर्मोपदेश भी हुए थे। लोकभाषा होने के कारण यह आसानी से स्त्री, बालक, वृद्ध और अनपढ़ लोगों की समझ में आ सकती थी। आगे चलकर महावीर के शिष्यों ने अर्धमागधी में महावीर के उपदेशों का संग्रह किया जो आगम नाम से प्रसिद्ध हुए। समय-समय पर जैन आगमों की तीन वाचनाएँ हुईं। अंतिम वाचना महावीरनिर्वाण के 1,000 वर्ष बाद, ईसवी सन्‌ की छठी शताब्दी के आरंभ में, देवर्धिगणि क्षमाक्षमण के अधिनायकत्व में वलभी (वला, काठियावाड़) में हुई जब जैन आगम वर्तमान रूप में लिपिबद्ध किए गए। इसी बीच जैन आगमों में भाषा और विषय की दृष्टि से अनेक परिवर्तन हुए, जो स्वाभाविक था। इन परिवर्तनों के होने पर भी आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशैवकालिक आदि जैन आगम पर्याप्त प्राचीन और महत्वपूर्ण हैं। ये आगम श्वेतांबर जैन परंपरा द्वारा ही मान्य हैं, दिगंबर जैनों के अनुसार ये लुप्त हो गए हैं। मौर्य सम्राट अशोक के पूर्वी शिलालेख भी इसी भाषा में अंकित हुए थे। आजकल की पूर्वी हिन्दी अर्थात् अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी आदि बोलियाँ इसी से निकली है।[1]

  • अर्धमागधी शब्द का कई तरह से अर्थ किया जाता है:-
  1. जो भाषा मगध के आधे भाग में बोली जाती हो,
  2. जिसमें मागधी भाषा के कुछ लक्षण पाए जाते हों, जैसे पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में एकारांत रूप का होना (जैसे धम्मे)।
  • हेमचंद्र आचार्य ने अर्धमागधी को आर्ष प्राकृत कहा है।
  • अर्द्ध मागधी की स्थिति मागधी और शौरसेनी प्राकृतों के बीच है। इसलिए उसमें दोनों की विशेषताएँ पायी जाती हैं।
  • इस भाषा का महत्व जैन साहित्य के कारण अधिक है।
  • आगमों के उत्तरकालीन जैन साहित्य की भाषा को अर्धमागधी न कहकर प्राकृत कहा गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि उस समय मगध के बाहर भी जैन धर्म का प्रचार हो गया था।
  • भाषाविज्ञान की परिभाषा में अर्धमागधी मध्य भारतीय आर्य परिवार की भाषा है, इस परिवार की भाषाएँ प्राकृत कही जाती हैं।
  • अर्ध मागधी में ‘र्’ एवं ‘ल्’ दोनों का प्रयोग होता है। इसमें दन्त्य का मूर्धन्य हो जाता है- स्थित > ठिप।
  • इस भाषा में ष्, श्, स् में से केवल स् का प्रयोग होता है तथा अनेक स्थानों पर स्पर्श व्यंजनों का लोप होने पर ‘य’ श्रुति का आगम हो जाता है। सागर > सायर / कृत > कयं । इस नियम का अपवाद है कि ‘ग्’ व्यंजन का सामान्यतः लोप नहीं होता।
  • अर्ध-मागधी में कर्ता कारक एक वचन के रूपों की सिद्धि मागधी के समान एकारान्त तथा शौरसेनी के समान ओकारान्त दोनों प्रकार से होती है।
  • मध्य भारतीय आर्य परिवार की भाषा होने के कारण अर्धमागधी संस्कृत और आधुनिक भारतीय भाषाओं के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी है।[2]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्द्ध मागधी (हिन्दी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 22 जुलाई, 2014।
  2. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 244 |

संबंधित लेख