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==ऐतिहासिक तथ्य==
==ऐतिहासिक तथ्य==
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==संबंधित लेख==
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06:28, 30 जून 2018 का अवतरण

हूल क्रान्ति दिवस
सिद्धू तथा कान्हू की प्रतिमाएँ
सिद्धू तथा कान्हू की प्रतिमाएँ
विवरण झारखण्ड राज्य के आदिवासियों द्वारा अंग्रेज़ों के विरुद्ध किये गए विद्रोह को 'हूल क्रान्ति दिवस' के रूप में जाना जाता है। अंग्रेज़ों से लड़ते हुए लगभग 20 हज़ार आदिवासियों ने अपनी जान दी।
राज्य झारखण्ड
स्थान भगनाडीह ग्राम, साहेबगंज ज़िला
क्रांति की शुरुआत 30 जून
नायक सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव
संबंधित लेख संथाल, आन्दोलन विप्लव सैनिक विद्रोह, औपनिवेशिक काल, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
अन्य जानकारी इतिहासकार हंटर की पुस्तक में लिखा है कि अंग्रेज़ों का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था, जो आदिवासियों के बलिदान को लेकर शर्मिदा न हुआ हो। इसमें करीब 20 हज़ार वनवासियों ने अपनी जान दी थी।

हूल क्रान्ति दिवस प्रत्येक वर्ष 30 जून को मनाया जाता है। भारतीय इतिहास में स्वाधीनता संग्राम की पहली लड़ाई वैसे तो सन 1857 में मानी जाती है, किन्तु इसके पहले ही वर्तमान झारखंड राज्य के संथाल परगना में 'संथाल हूल' और 'संथाल विद्रोह' के द्वारा अंग्रेज़ों को भारी क्षति उठानी पड़ी थी। सिद्धू तथा कान्हू दो भाइयों के नेतृत्व में 30 जून, 1855 ई. को वर्तमान साहेबगंज ज़िले के भगनाडीह गांव से प्रारंभ हुए इस विद्रोह के मौके पर सिद्धू ने घोषणा की थी- करो या मरो, अंग्रेज़ों हमारी माटी छोड़ो

ऐतिहासिक तथ्य

इतिहासकारों के अनुसार संथाल परगना के लोग प्रारंभ से ही वनवासी स्वभाव से धर्म और प्रकृति के प्रेमी और सरल होते हैं। इसका ज़मींदारों और बाद में अंग्रेज़ों ने खूब लाभ उठाया। इतिहासकारों का कहना है कि इस क्षेत्र में अंग्रेज़ों ने राजस्व के लिए संथाल, पहाड़ियों तथा अन्य निवासियों पर मालगुज़ारी लगा दी थी। इसके बाद न केवल यहाँ के लोगों का शोषण होने लगा, बल्कि उन्हें मालगुज़ारी भी देनी पड़ रही थी। इस कारण यहाँ के लोगों में विद्रोह पनप रहा था।[1]

इतिहासकार कथन

नागपुरी साहित्य और इतिहासकार वी. पी. केशरी के अनुसार- "यह विद्रोह भले ही 'संथाल हूल' हो, परंतु संथाल परगना के समस्त ग़रीबों और शोषितों द्वारा शोषकों, अंग्रेज़ों एवं उसके कर्मचारियों के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन था। इस जन आंदोलन के नायक भगनाडीह निवासी भूमिहीन किंतु ग्राम प्रधान चुन्नी मांडी के चार पुत्र सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव थे।"

केशरी जी आगे कहते हैं कि इन चारों भाइयों ने लगातार लोगों के असंतोष को एक आंदोलन का रूप दिया। उस समय संथालों को बताया गया कि सिद्धू को स्वप्न में बोंगा, जिनके हाथों में बीस अंगुलियां थीं, ने बताया है कि "जुमीदार, महाजन, पुलिस राजदेन आमला को गुजुकमाड़", अर्थात "जमींदार, महाजन, पुलिस और सरकारी अमलों का नाश हो।" 'बोंगा' की ही संथाल लोग पूजा-अर्चना किया करते थे। इस संदेश को डुगडुगी पिटवाकर स्थानीय मोहल्लों तथा ग्रामों तक पहुंचाया गया। इस दौरान लोगों ने साल वृक्ष की टहनी को लेकर गाँव-गाँव की यात्राएँ की।[1]

आंदोलन की शुरुआत

आंदोलन को कार्यरूप देने के लिए परंपरागत शास्त्रों से लैस होकर 30 जून, सन 1855 ई. को 400 गाँवों के लगभग 50,000 आदिवासी लोग भगनाडीह पहुंचे और आंदोलन का सूत्रपात हुआ। इसी सभा में यह घोषणा कर दी गई कि वे अब मालगुज़ारी नहीं देंगे। इसके बाद अंग्रेज़ों ने, सिद्धू, कान्हू, चांद तथा भैरव- इन चारों भाइयों को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया; परंतु जिस पुलिस दरोगा को वहाँ भेजा गया था, संथालियों ने उसकी गर्दन काट कर हत्या कर दी। इस दौरान सरकारी अधिकारियों में भी इस आंदोलन को लेकर भय प्राप्त हो गया था।

गिरफ़्तारियाँ

भागलपुर की सुरक्षा कड़ी कर दी गई थी। इस क्रांति के संदेश के कारण संथाल में अंग्रेज़ों का शासन लगभग समाप्त हो गया था। अंग्रेज़ों द्वारा इस आंदोलन को दबाने के लिए इस क्षेत्र में सेना भेज दी गई और जमकर आदिवासियों की गिरफ़्तारियाँ की गईं और विद्रोहियों पर गोलियां बरसने लगीं। आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मार्शल लॉ लगा दिया गया। आंदोलनकारियों की गिरफ़्तारी के लिए अंग्रेज़ सरकार द्वारा पुरस्कारों की भी घोषणा की गई। बहराइच में अंग्रेज़ों और आंदोलनकारियों की लड़ाई में चांद और भैरव शहीद हो गए। प्रसिद्ध अंग्रेज़ इतिहासकार हंटर ने अपनी पुस्तक 'एनल्स ऑफ़ रूलर बंगाल' में लिखा है कि "संथालों को आत्मसमर्पण की जानकारी नहीं थी, जिस कारण डुगडुगी बजती रही और लोग लड़ते रहे।"

आदिवासियों का बलिदान

जब तक एक भी आंदोलनकारी जिंदा रहा, वह लड़ता रहा। इतिहासकार हंटर की पुस्तक में लिखा गया है कि अंग्रेज़ों का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था, जो इस बलिदान को लेकर शर्मिदा न हुआ हो। इस युद्ध में करीब 20 हज़ार वनवासियों ने अपनी जान दी थी। विश्वस्त साथियों को पैसे का लालच देकर सिद्धू और कान्हू को भी गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भगनाडीह ग्राम में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फ़ाँसी की सज़ा दे दी गई। इस प्रकार सिद्धू, कान्हू, चांद तथा भैरव, ये चारों भाई सदा के लिए भारतीय इतिहास में अपना अमिट स्थान बना गए।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 सिद्धू-कान्हू ने फूँका था अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ पहला बिगुल (हिन्दी) पर्दाफाश। अभिगमन तिथि: 28 मई, 2015।

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