ऑटिज़्म

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ऑटिज्म से ग्रसित व्यक्ति

ऑटिज़्म (Autism) या आत्मविमोह / स्वलीनता, एक मानसिक रोग या मस्तिष्क के विकास के दौरान होने वाला विकार है जो विकास संबंधी एक गंभीर विकार है, जिसके लक्षण जन्म से या बाल्यावस्था (प्रथम तीन वर्षों में) में ही नज़र आने लगते है और व्यक्ति की सामाजिक कुशलता और संप्रेषण क्षमता पर विपरीत प्रभाव डालता है। जिन बच्चो में यह रोग होता है उनका विकास अन्य बच्चो से असामान्य होता है, साथ ही इसकी वजह से उनके न्यूरोसिस्टम पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इससे प्रभावित व्यक्ति, सीमित और दोहराव युक्त व्यवहार करता है जैसे एक ही काम को बार-बार दोहराना। यह जीवनपर्यंत बना रहने वाला विकार है। ऑटिज्मग्रस्त व्यक्ति संवेदनों के प्रति असामान्य व्यवहार दर्शाते हैं, क्योंकि उनके एक या अधिक संवेदन प्रभावित होते हैं। इन सब समस्याओं का प्रभाव व्यक्ति के व्यवहार में दिखाई देता है, जैसे व्यक्तियों, वस्तुओं और घटनाओं से असामान्य तरीके से जुड़ना। ऑटिज्म का विस्तृत दायरा है। इसके लक्षणों की गंभीरता सीखने और सामाजिक अनुकूलता के क्षेत्र में साधारण कमी से लेकर गंभीर क्षति तक हो सकती है, क्योंकि एक या अनेक समस्याएँ और अत्यधिक असामान्य व्यवहार स्थिति को गंभीर बना सकता है। ऑटिज्म के साथ अन्य समस्या भी हो सकती है, जैसे- मानसिक विकलांगता, मिर्गी, बोलने व सुनने में कठिनाई आदि। यह बहुत कम होने वाली समस्या नहीं है, बल्कि विकास संबंधी विकारों में इसका तीसरा स्थान है। यह अमीर या ग़रीब किसी भी तबके में पाई जा सकती है।[1]

इतिहास

आटिज्म को हिन्दी में स्वलीनता, स्वपरायणता अथवा स्वत: प्रेम कहते हैं। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, ' आटिज्म ' यानि स्वलीनता से ग्रसित व्यक्ति बाहरी दुनिया से बेखबर अपने आप में ही लीन रहता है। सुनने के लिए कान स्वस्थ है, देखने के लिए ऑंखें ठीक हैं फिर भी वह अपने आस पास के वातावरण से अनजान रहता है। पहली बार सन् 1938 में वियना युनिवर्सिटी के हास्पिटल में कार्यरत हैंस एस्परजर ने आटिज्म शब्द का इस्तेमाल किया था। एस्परजर उन दिनों आटिज्म स्प्रेक्ट्रम (ए.एस.डी.) के एक प्रकार पर खोज कर रहे थे । बाद में 1943 में जॉन हापकिन हास्पिटल के कॉनर लियो ने सर्वप्रथम 'आटिज्म ' को अपनी रिपोर्ट में वर्णित किया था । कॉनर ने ग्यारह बच्चों में पाई गई एक जैसी व्यवहारिक समानताओं पर आधारित रिर्पोट तैयार की थी।[2]

ऑटिज़्म और ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (ASD)

जब व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार और संपर्क को प्रभावित करता है। इससे प्रभावित व्यक्ति, सीमित और दोहराव युक्त व्यवहार करता है जैसे एक ही काम को बार-बार दोहराना। यह सब बच्चे के तीन साल होने से पहले ही शुरू हो जाता है। इन लक्षणों के हल्के (कम प्रभावी) को ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (ASD) कहते है (जैसे एस्पर्जर सिंड्रोम) तथा इसके गंभीर रूप को ऑटिज़्म (ऑटिस्टिक डिसऑर्डर) कहते हैं। ऑटिज़्म का एक मजबूत आनुवंशिक आधार होता है, हालांकि ऑटिज़्म की आनुवंशिकी जटिल है और यह स्पष्ट नहीं है कि ASD का कारण बहुजीन संवाद (multigene interactions) है या दुर्लभ उत्परिवर्तन (म्यूटेशन)। हाल की एक समीक्षा के अनुमान के मुताबिक प्रति 1000 लोगों के पीछे दो मामले ऑटिज़्म के होते हैं, जबकि से संख्या ASD के लिये 6/1000 के क़रीब है। औसतन ASD का पुरुष:महिला अनुपात 4,3:1 है। ऑटिज़्म से ग्रसित बच्चे आम बच्चो के मुक़ाबले कम संलग्न सुरक्षा का प्रदर्शन करते हैं (जैसे आम बच्चे माता पिता की मौजूदगी में सुरक्षित महसूस करते हैं) यद्यपि यह लक्षण उच्च मस्तिष्क विकास वाले या जिनका ए एस डी कम होता है वाले बच्चों में गायब हो जाता है। ASD से ग्रसित बडे बच्चे और व्यस्क चेहरों और भावनाओं को पहचानने के परीक्षण में बहुत बुरा प्रदर्शन करते हैं। ASD से पीडित लोगों के गुस्से और हिंसा के बारे में काफ़ी किस्से हैं लेकिन वैज्ञानिक अध्ययन बहुत कम हैं। यह सीमित आँकडे बताते हैं कि ऑटिज़्म के शिकार मंद बुद्धि बच्चे ही अक्सर आक्रामक या उग्र होते हैं। डोमिनिक एट अल, ने 67 ASD से ग्रस्त बच्चों के माता-पिता का साक्षात्कार लिया और निष्कर्ष निकाला कि, दो तिहाई बच्चों के जीवन में ऐसे दौर आते हैं जब उनका व्यवहार बहुत बुरा (नखरे वाला) हो जाता है जबकि एक तिहाई बच्चे आक्रामक हो जाते हैं, अक्सर भाषा को ठीक से न जानने वाले बच्चे नखरैल होते हैं।

ऑटिज़्म का प्रभाव

वर्ष 2010 तक दुनिया की लगभग 7 करोड़ आबादी आटिज्म से प्रभावित हैं। विश्व में आटिज्म प्रभावितों की संख्या एड्स, मधुमेह और कैंसर से पीड़ित रोगियों की मिली जुली संख्या से भी अधिक होने की सम्भावना है। यहाँ तक कि इससे प्रभावित होने वाले व्यक्तियों की संख्या डाउन सिन्ड्रोम की अपेक्षा अधिक है। विश्व भर में प्रति 10,000 में से 20 व्यक्ति इससे प्रभावित होते हैं और इससे प्रभावित व्यक्तियों में से 80 प्रतिशत मरीज पुरुष और मात्र 20 प्रतिशत महिलाएँ हैं। इसका मतलब आटिज्म की समस्या लड़कियों की अपेक्षा लड़कों में 4 से 5 गुना ज़्यादा है। जिसका अनुपात 1: 4.3 है। पुरुषों में ऑटिज्म अधिक होने का कोई ठोस कारण अब तक सामने नहीं आया है। यह समस्या विश्वभर में सभी वर्गों के लोगों में पाई जाती है। भारत में ऑटिज्म से ग्रस्त व्यक्तियों की संख्या लगभग 1 करोड़ 70 लाख (तकरीबन 1.5 मिलियन) है। वर्ष 1980 से अब तक किए गए विभिन्न सर्वेक्षणों के ऑंकड़ों पर नज़र डालें तो ज्ञात होगा कि इस बीच आटिज्म समस्या में आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ोत्तरी हुई है। सम्भवत: इसका कारण लोगों में इसके प्रति बढ़ती जागरूकता, डायग्नोसिस के तरीकों में बदलाव तथा सम्बन्धित सेवाओं की सुलभता रही है।[2]

ऑटिज्म के लक्षण

ऑटिज्म के लक्षण

ऑटिज़्म परवेसिव डेवलॅपमेंटल डिसआर्डर (पी.डी.डी.) के पाँच प्रकारों में से एक है। आटिज्म को केवल एक लक्षण के आधार पर पहचाना नहीं जा सकता, बल्कि लक्षणों के पैटर्न के आधार पर ही आटिज्म की पहचान की जा सकती है। सामाजिक कुशलता व संप्रेषण का अभाव, किसी कार्य को बार-बार दोहराने की प्रवृत्ति तथा सीमित रुझान इसके प्रमुख लक्षण हैं। एक आम आदमी के लिए आटिज्म की पहचान करना काफ़ी मुश्किल है। इसके मूल में दो कारण हो सकते हैं। एक तो आटिस्टिक व्यक्ति की शारीरिक संरचना में प्रत्यक्ष तौर पर कोई कभी नहीं होती। अन्य सामान्य व्यक्तियों जैसी ही होती है। दूसरा बच्चे की तीन वर्ष की उम्र में ही आटिज्म के लक्षण दिखाई देते हैं, इससे पहले नहीं। गौर करने वाली बात यह है कि ऑटिज्म से पीड़ित दो बच्चों के लक्षण समान नहीं होते हैं। जहाँ कुछ बच्चों में यह बीमारी सामान्य रूप में होती है, तो कुछ में इसका प्रभाव ज़्यादा देखने को मिलता है। ऑटिज़्म मस्तिष्क के कई भागों को प्रभावित करता है, पर इसके कारणों को ढंग से नहीं समझा जाता। आमतौर पर माता पिता अपने बच्चे के जीवन के पहले दो वर्षों में ही इसके लक्षणों को भाँप लेते हैं। ऑटिज़्म को एक लक्षण के बजाय एक विशिष्ट लक्षणों के समूह द्वारा बेहतर समझा जा सकता है। मुख्य लक्षणों में शामिल हैं-

सामाजिक संपर्क में असमर्थता

ऑटिज्म से ग्रस्त व्यक्ति परस्पर संबंध स्थापित नहीं कर पाते हैं तथा सामाजिक व्यवहार में असमर्थ होने के साथ ही दूसरे लोगों के मंतव्यों को समझने में भी असमर्थ होते हैं इस कारण लोग अक्सर इन्हें गंभीरता से नहीं लेते। सामाजिक असमर्थतायें बचपन से शुरू हो कर व्यस्क होने तक चलती हैं। ऑटिस्टिक बच्चे सामाजिक गतिविधियों के प्रति उदासीन होते हैं, वो लोगो की ओर ना देखते हैं, ना मुस्कुराते हैं और ज़्यादातर अपना नाम पुकारे जाने पर भी सामान्य: कोई प्रतिक्रिया नहीं करते हैं। ऑटिस्टिक शिशुओं का व्यवहार तो और चौंकाने वाला होता है, वो आँख नहीं मिलाते हैं, और अपनी बात कहने के लिये वो अक्सर दूसरे व्यक्ति का हाथ छूते और हिलाते हैं। तीन से पाँच साल के बच्चे आमतौर पर सामाजिक समझ नहीं प्रदर्शित करते हैं, बुलाने पर एकदम से प्रतिकिया नहीं देते, भावनाओं के प्रति असंवेदनशील, मूक व्यवहारी और दूसरों के साथ मुड़ जाते हैं। इसके बावजूद वो अपनी प्राथमिक देखभाल करने वाले व्यक्ति से जुडे होते हैं। ऑटिज़्म से ग्रसित बच्चे आम बच्चो के मुक़ाबले कम संलग्न सुरक्षा का प्रदर्शन करते हैं (जैसे आम बच्चे माता पिता की मौजूदगी में सुरक्षित महसूस करते हैं)। आम धारणा के विपरीत, आटिस्टिक बच्चे अकेले रहना पसंद नहीं करते। दोस्त बनाना और दोस्ती बनाए रखना आटिस्टिक बच्चे के लिये अक्सर मुश्किल साबित होता है। इनके लिये मित्रों की संख्या नहीं बल्कि दोस्ती की गुणवत्ता मायने रखती है।

बातचीत करने में असमर्थता

आटिज्म प्रभावित बच्चों की सबसे बड़ी समस्या भाषागत होती है। ऐसे बच्चों में मस्तिष्क में आए स्नायु विकार के कारण संप्रेषण की डीकोडिंग न हो पाने के कारण बोलने में दिक्कत का सामना करना पड़ता है। लगभग 50% बच्चों में भाषा का विकास नहीं हो पाता है। एक तिहाई से लेकर आधे ऑटिस्टिक व्यक्तियों में अपने दैनिक जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लायक भाषा बोध तथा बोलने की क्षमता विकसित नहीं हो पाती। संचार में कमियाँ जीवन के पहले वर्ष में ही दृष्टिगोचर हो जाती हैं जिनमे शामिल है, देर से बोलना, असामान्य भाव, मंद प्रतिक्रिया, और अपने पालक के साथ हुये वार्तालाप में सामंजस्य का नितांत आभाव। दूसरे और तीसरे साल में, ऑटिस्टिक बच्चे कम बोलते हैं, साथ ही उनका शब्द संचय और शब्द संयोजन भी विस्तृत नहीं होता। उनके भाव अक्सर उनके बोले शब्दों से मेल नहीं खाते। आटिस्टिक बच्चों में अनुरोध करने या अनुभवों को बाँटने की संभावना कम होती है, और उनमें बस दूसरों की बातें को दोहराने की संभावना अधिक होती है।

सीमित शौक़ और दोहराव युक्त व्यवहार
  1. वे एक ही क्रिया, व्यवहार को दोहराते हैं, जैसे- हाथ हिलाना, शरीर हिलाना और बिना मतलब की आवाजें करना आदि। जिसे स्टीरेओटाईपी कहते है यह एक निरर्थक प्रतिक्रिया है।
  2. प्रतिबंधित व्यवहार ध्यान, शौक़ या गतिविधि को सीमित रखने से संबधित है, जैसे एक ही टीवी कार्यक्रम को बार बार देखना।
  3. बाध्यकारी व्यवहार का उद्देश्य नियमों का पालन करना होता है, जैसे कि वस्तुओं को एक निश्चित तरह की व्यवस्था में रखना।
  4. अनुष्ठानिक व्यवहार के प्रदर्शन में शामिल हैं दैनिक गतिविधियों को हर बार एक ही तरह से करना, जैसे- एक सा खाना, एक सी पोशाक आदि। यह समानता के साथ निकटता से जुड़ा है, और एक स्वतंत्र सत्यापन दोनो के संयोजन की सलाह देता है।
  5. समानता का अर्थ परिवर्तन का प्रतिरोध है, उदाहरण के लिए, फर्नीचर के स्थानांतरण से इंकार।
  6. आत्मघात (स्वयं को चोट पहुँचाना) से अभिप्राय है कि कोई भी ऐसी क्रिया जिससे व्यक्ति खुद को आहत कर सकता हो, जैसे- खुद को काट लेना। डोमिनिक एट अल के अनुसार लगभग ASD से प्रभावित 30% बच्चे स्वयं को चोट पहँचा सकते हैं।
  7. वे प्रकाश, ध्वनि, स्पर्श और दर्द जैसे संवेदनों के प्रति असामान्य प्रतिक्रिया दर्शाते हैं। उदाहरण के तौर पर वह प्रकाश में अपनी आंखों को बंद कर लेते हैं, कुछ विशेष ध्वनियां होने पर वह अपने कानों को बंद कर लेते हैं।
खेलने का उनका अपना असामान्य तरीका

ऑटिज्म से पीड़ित बच्चे अलग तरीके के खेल खेलते हैं, जैसे कई कारों को क्रमबद्ध करने का खेल। ये बच्चे खिलौने को आम बच्चों की तुलना में अधिक घुमाते हैं। ऐसे बच्चे समूह में रहना पसंद नहीं करते, उनकी अपनी अलग ही दुनिया होती है। वह बिना किसी बात के रोने और चिल्लाने लगते हैं। इस तरह के बच्चे अपने गुस्से, हताशा आदि का इजहार बोल कर नहीं कर पाते। कार्यात्मक संभाषण के लिए संयुक्त ध्यान आवश्यक होता है, और इस संयुक्त ध्यान में कमी, ASD शिशुओं को अन्यों से अलग करता है। [3]

बाल्यावस्था में ऑटिज्म को कैसे पहचाने

बाल्यावस्था में सामान्य बच्चो एवं ऑटिस्टिक बच्चो में कुछ प्रमुख अन्तर होते है जिनके आधार पर इस अवस्था की पहचान की जा सकती है जैसे:- 1.सामान्य बच्चें माँ का चेहरा देखते है और उसके हाव-भाव समझने की कोशिश करते है परन्तु ऑटिज्म से ग्रसित बच्चे किसी से नज़र मिलाने से कतराते हैं। 2.सामान्य बच्चे आवाजे सुनने के बाद खुश हो जाते है परन्तु ऑटिस्टिक बच्चे आवाजों पर ध्यान नहीं देते। 3.सामान्य बच्चे रे-धीरे भाषा ज्ञान में वृद्धि करते है परन्तु ऑटिस्टिक बच्चे बोलने के कुछ समय बाद अचानक ही बोलना बंद कर देते है तथा अजीब आवाजें निकलतें है। 4.सामान्य बच्चे माँ के दूर होने पर या अनजाने लोगो से मिलने पर परेशान हो जाते है परन्तु ऑटिस्टिक बच्चे किसी के आने-जाने पर परेशान नहीं होते। 5.ऑटिस्टिक बच्चे तकलीफ के प्रति कोई क्रिया नहीं करते और बचने की भी कोशिश नहीं करते। 6.सामान्य बच्चे करीबी लोगो को पहचानते है तथा उनके मिलने पर मुस्कुराते है लेकिन ऑटिस्टिक बच्चे कोशिश करने पर भी किसी से बात नहीं करते वो अपने ही दुनिया में खोये रहते हैं। 7.ऑटिस्टिक बच्चे एक ही वस्तु या कार्य में मग्न रहते है तथा अजीब क्रियाओं को बार-बार दुहराते है जैसे: आगे-पीछे हिलना, हाथ को हिलाते रहना। 8.ऑटिस्टिक बच्चे अन्य बच्चों की तरह काल्पनिक खेल नहीं खेल पाते वह खेलने के वजाय खिलौनों को सूंघते या चाटते हैं। 9.ऑटिस्टिक बच्चे बदलाव को बर्दास्त नहीं कर पाते एवं अपने क्रियाकलापों को नियमानुसार ही करना चाहते हैं। 10.ऑटिस्टिक बच्चे बहुत चंचल या बहुत सुस्त होते हैं। 11.इन बच्चो में कुछ विशेष बातें होती है जैसे एक इन्द्री का अतितीव्र होना जैसे: श्रवण शक्ति।

कब करें विशेषज्ञ से संपर्क

यहाँ कुछ ऐसे संकेत दिए जा रहे हैं, जिनके दिखाई देने पर बच्चे में ऑटिज्म होने की संभावना हो सकती है। ऐसी स्थिति में शीघ्र से शीघ्र विशेषज्ञ से संपर्क किया जाना चाहिए।

  • यदि बच्चा लोगों से संबंध स्थापित नहीं करता हो। अधिकांशतः ऐसी स्थिति जन्म बाद से ही पहचानी जा सकती है, जैसे सामाजिक मुस्कान विलंब से देना अथवा बिलकुल न देना, उठाने के लिए हाथ आगे न बढ़ाना, भावनात्मक लगाव का अभाव।
  • भाषा के विकास में विलंब या अधूरा विकास, बिलकुल नहीं बोलना या सुनी हुई बात को बार-बार दोहराना।
  • संवेदनों की स्पष्ट क्रियाहीनता, जैसे- वातावरण की वस्तुओं, घटनाओं आदि को बिलकुल भी देखना-सुनना नहीं, अल्प अथवा अधिक प्रतिक्रिया (ध्वनि, प्रकाश, स्पर्श, दर्द के प्रति)।
  • मन में असामान्य भाव या भावहीनता, जैसे- खतरे की स्थिति में भय का अभाव, साधारण-सी बात पर अनियंत्रित प्रतिक्रिया, बिना कारण या अनियंत्रित ढंग से हँसना या रोना।
  • घंटों तक एक ही क्रिया-व्यवहार दोहराते रहना, जिसका कोई स्पष्ट कारण न हो, जैसे आँखों के सामने बार-बार हाथ ले जाना, आँखों का भेंगापन, निरर्थक आवाजें करना, आँखों के सामने वस्तुओं को लटकाना या घुमाना, शरीर को हिलाते रहना आदि।
  • सामान्य तरीके से खेल नहीं पाना, खिलौनों से न खेलकर अन्य वस्तुओं से असामान्य तरीके से खेलना।
  • क्रियाओं एवं व्यवहार को दोहराते रहने के स्वभाव के कारण वातावरण में किसी भी प्रकार का परिवर्तन पसंद नहीं करना और उसका विरोध करना। जैसे- सोने का समय, भोजन का प्रकार, फर्नीचर की जमावट, आने-जाने का रास्ता, दिनचर्या आदि में उनकी जो आदत या पसंद होती है, उससे अलग कुछ करने पर उसका विरोध करना।

ऑटिज्म और भ्रांतियाँ

  • ये बच्चे अल्पबुद्धि वाले हों, ऐसा जरूरी नहीं है। ऐसा देखा गया है कि कुछ बच्चों का बौद्धिक स्तर सामान्य बच्चों जैसा या उनसे भी अधिक होता है। कुछ ऑटिस्टिक बच्चे तो बहुत कलात्मक गुण वाले भी होते हैं। चूँकि ये बच्चे समाज में मान्य तरीकों को सीखने में असमर्थ होते हैं और ज़्यादातर इन बच्चों में भाषा संबंधी दोष होते हैं, इसलिए इनका अभिव्यक्ति का तरीका सामान्य बच्चों से हटकर होता है।
  • इन बच्चों को समाज में सहभागिता से रहने, खेलने, उठने-बैठने की बहुत ज़्यादा आवश्यकता है। अतः इनसे भागने की बजाय हम सबको मिलकर इन्हें अपनाना चाहिए। हम जितना इन बच्चों से बातें करेंगे, उतना ही ये समाज से जुड़ेंगे। यदि हम अपने सामान्य बच्चों को इनसे दूर न ले जाकर, इनका तिरस्कार न करके सामान्य बच्चों को इन बच्चों की समस्याओं से अवगत कराएँ तो हम सामान्य बच्चों के मन में इन बच्चों के प्रति सम्मान एवं सहयोग की भावना तो जगा ही सकते हैं, साथ ही सामान्य बच्चों को ऑटिस्टिक बच्चों के समस्यात्मक व्यवहार को अपनाने से भी रोक सकते हैं।
  • ये बच्चे आक्रामक नहीं होते। इनका व्यवहार एवं अपनी बात को प्रकट करने का तरीका कुछ अलग होता है। उनके अनोखे तरीकों को देखकर अक्सर हमें गलत- फहमी हो जाती है। 1 या 2 प्रतिशत केस में बच्चे के आक्रामक होने की संभावना हो सकती है यदि ऑटिज्म के साथ-साथ बच्चे को कई बड़ी समस्या भी हो तो। इसके लिए हमें ऐसे बच्चों के साथ बातें करते समय सावधान रहने की आवश्यकता है, उनसे भागने की नहीं।
  • यह सोचना कि ये बच्चे कुछ नहीं कर सकते, बिलकुल ग़लत है। चूँकि इन बच्चों में बौद्धिक क्षमता अलग-अलग होती है, इसलिए ये सभी प्रकार के क्षेत्रों में आगे बढ़ सकते हैं। इनको सिर्फ सही मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। ये बच्चे किसी एक क्षेत्र में बहुत अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं जैसे संगीत, नृत्य या कलात्मक कौशल में।
  • ऑटिज्म एक अवस्था है, न कि बीमारी। इसके प्रभावों को दवाइयों से कुछ हद तक नियंत्रण में रखा जा सकता है, लेकिन ऑटिज्म को खत्म नहीं किया जा सकता। यह अवस्था जन्मजात भी हो सकती है और जन्म के कुछ सालों बाद भी हो सकती है।
  • यह अवस्था जीवनपर्यंत व्यक्ति में रहती है। बच्चे के बड़े हो जाने या शादी कर देने से इसमें अपने आप कोई कमी नहीं आती। हाँ, सही समय पर सही मार्गदर्शन में इसके प्रभावों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। [4]

ऑटिज्म होने के कारण

ऑटिज्म होने के किसी एक वजह को नहीं खोजी जा सकी है। यह समस्या वंशानुगत है, हालाँकि कौन सा जीन इस समस्या का कारक है? अज्ञात है। अनुशोधो के अनुसार ऑटिज्म होने के कई कारण हो सकते है जैसे :----- 1.मस्तिष्क की गतिविधियों में असामान्यता होना। 2.मस्तिष्क के रसायनों में असामान्यता होना। 3.जन्म से पहले बच्चे का विकास सामान्य रूप से न हो पाना।[5]

दुर्लभ मामलों में, ऑटिज़्म को उन कारकों से भी जोडा गया है जो जन्म संबंधी दोषों के लिये उत्तरदायी है। अन्य प्रस्तावित कारणों मे, बचपन के टीके, विवादास्पद हैं और इसके कोई वैज्ञानिक सबूत भी नहीं है।

ऑटिज्म का इलाज़

ऑटिज्म की शीघ्र की गई पहचान, मनोरोग विशेषज्ञ से तुंरत परामर्श ही इसका सबसे पहला इलाज़ है। अगर माता-पिता इसके शुरुआती लक्षणों के आधार पर इसकी पहचान करें सके। तो बच्चे को किसी मनोचिकित्सक को दिखाएं। जितनी जल्दी आप बच्चे का इलाज शुरू करवा देंगे, उतनी ज़्यादा इस बात की संभावना है कि बच्चा स्वस्थ हो सके। ऑटिज्म एक आजीवन रहने वाली अवस्था है जिसके पूर्ण इलाज़ के लिए यहाँ-वहां भटक कर समय बरबाद ना करे बल्कि इसके बारे में जानकारी जुटाए तथा मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक से संपर्क करे। ऑटिज्म एक प्रकार की विकास सम्बन्धी बिमारी है जिसे पुरी तरह से ठीक नहीं किया जा सकता लेकिन सही प्रशिक्षण व परामर्श से रोगी को बहुत कुछ सिखाया जा सकता है जो उसे रोज़ के कामो में उसकी देख-रेख में मदद करता है तथा शुरुआती संज्ञानात्मक या व्यवहारी हस्तक्षेप, बच्चों को स्वयं की देखभाल, सामाजिक, और बातचीत कौशल के विकास में सहायता कर सकते हैं। बहुत कम आटिस्टिक बच्चे ही वयस्क होने पर आत्मनिर्भर होने में सफल हो पाते हैं। आजकल एक आत्मविमोही संस्कृति विकसित हो गयी है, जिसमे कुछ लोगों को इलाज पर विश्वास है और कुछ लोगों के लिये ऑटिज़्म एक विकार होने के बजाय एक स्थिति है। ऑटिज्म से ग्रसित 70% व्यक्तियों में मानसिक मंदता पायी जाती है जिसके कारण वह एक सामान्य जीवन जीने में पुरी तरह समर्थ नहीं हो पाते परन्तु अगर मानसिक मंदता अधिक न हो तो ऑटिज्म से ग्रसित व्यक्ति बहुत कुछ सिख पाता है। कभी-कभी बच्चो में ऐसी काबिलियत भी देखी जाती है जो सामान्य व्यक्तियों के समझ और पहुँच से दूर होता है।

विभिन्न थेरैपी

आटिज्म से प्रभावित बच्चे / व्यक्ति के जीवन में गुणात्मक सुधार लाना तथा उसे आत्म निर्भर बनाना ही इलाज का मुख्य ध्येय होना चाहिए। इसके लिए शीघ्र हस्तक्षेप यानि अर्ली इंटरवेंशन के ज़रिये समस्या की शीघ्र अतिशीघ्र पहचान कर उसका निदान करना होगा। बिहेवियरल ऐनेलिसिस, स्ट्रक्चर्ड टीचिंग सिस्टम, डेवलपमेंटल मॉडल, स्पीच लैंग्वेज थेरैपी, सामाजिक दक्षता थैरेपी एवं आक्यूपेशनल थेरैपी की मदद से आटिज्म से प्रभावित बच्चे के जीवन को काफ़ी हद तक सुधार कर उसे समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जा सकता है। विभिन्न थेरैपी, एक्सपर्ट का मानना है कि आटिज्म से प्रभावित बच्चों को थेरैपी देना केवल थेरैपिस्ट का ही दायित्व नहीं है, अपितु माता पिता की सक्रिय भागीदारी ही ऐसे बच्चों के पुनर्वास में सहायक होती है। स्ट्रक्चर्ड टीचिंग प्रोग्राम के तहत थिरैपिस्ट द्वारा दिये गए थेरैपी प्लान को अगर बच्चे के माता पिता या अभिभावक घर पर भी उसी क्रम से दोहराएं तो आशातीत परिणाम अर्जित किये जा सकते हैं।

नेशनल रिहेब्लिटेशन काउंसिल के अनुसार स्पीच थैरेपी तभी लाभकारी होगी जब बचपन से ही स्पीच थैरेपी का प्रारंभ, उसकी स्वाभाविक संप्रेषण कला को बढ़ावा मिले, बच्चे द्वारा संप्रेषण कला सीख लेने के पश्चात सीखे गये ज्ञान का सामान्यीकरण हो। साथ ही बच्चे के भाषागत् अथवा व्यवहारगत समस्या को दूर कर गुणात्मक सुधार लाने के बड़े लक्ष्य तय कर लिए जाएं। फिर उन बड़े लक्ष्यों में एक लक्ष्य को चुनकर उसे छोटे-छोटे पड़ाव में निर्धारित कर देना चाहिए। तत्पश्चात थिरैपिस्ट की मदद से योजनाबध्द तरीके से वांछित परिणाम प्राप्त होने तक थेरैपी जारी रखनी चाहिए। थेरैपी देते वक़्त कुछ बातों का ध्यान रखना अत्यावश्यक है। थेरैपी दौरान जब बच्चा आशा के अनुरूप कार्य कर लेता है तो उसका उत्साहवर्धन करने के उद्देश्य से तुरन्त उसे कोई टोकन, टॉफी या शाबासी अवश्य देना चाहिए । दूसरी बात बच्चे को स्पीच थेरैपी देते वक़्त टीचर एवं बच्चे का अनुपात 1:1 होना चाहिए। क्योंकि कई बार देखने में आता है कि आटिज्म से प्रभावित बच्चे को अन्य समस्याओं जैसे बधिरता अंधत्व, सेरेब्रल पालसी (प्रमस्तिष्क पक्षापात) या फिर मानसिक मंदता जैसे एक या एक से अधिक समस्याओं से भी जूझना पड़ता है। ऐसे में आटिज्म के साथ जुड़ी अन्य समस्याओं को भी ध्यान में रखकर स्पीच थेरैपी दिया जाना चाहिए। सीखने की यह प्रक्रिया दीर्घ कालिक है। संयम, समर्पण व सतत प्रयास पर ही सफलता का दारोमदार टिका है। आटिज्म से प्रभावित बच्चों में मानसिक मंदता से ग्रसित बच्चों के उलट इनका आई.क्यू. लेवल आमतौर पर सामान्य या उससे अधिक ही होता है। ऐसे बच्चे नृत्य, कला, संगीत अथवा तकनीक के क्षेत्र में काफ़ी कुशल भी हो सकते हैं।[2]

आटिज्म को इंडिविजुअल विथ डिस्एबिलिटी एजुकेशन एक्ट (आई.डी.ई.ए.) के अंतर्गत लिया गया है। इस अधिनियम में आटिज्म प्रभावितों की शीघ्र पहचान, परीक्षण तथा स्पीच थेरैपी की सेवाएं सम्मिलित हैं। आई.डी.ई.ए. अधिनियम 21 वर्ष तक के आटिज्म प्रभावितों के शिक्षा हेतु मार्गदर्शी की भूमिका का निर्वहन करता है व साथ ही उनका हित संरक्षण भी। दिल्ली स्थित रिहैबिलिटेशन काउंसिल ऑफ इंडिया (आर.सी.आई.) ऑटिज्म सहित अन्य विकलांगताओं से ग्रसित व्यक्तियों के पुनर्वास एवं संरक्षण कार्य का दायित्व निभाती है ।

ऑटिज्म से ग्रसित बच्चो को मदद

ऑटिज्म से ग्रसित बच्चो को निम्नलिखित तरीको से मदद की जा सकती है -- 1.शरीर पर दवाव बनाने के लिए बड़ी गेंद का इस्तेमाल करना। 2.सुनने की अतिशक्ति कम करने के लिए कान पर थोडी देर के लिए हलकी मालिश करना। 3.खेल-खेल में नए शब्दों का प्रयोग करे। 4.खिलौनों के साथ खेलने का सही तरीका दिखाए। 5.बारी-बारी से खेलने की आदत डाले। 6.धीरे-धीरे खेल में लोगो की संख्या को बढ़ते जाए। 7.छोटे-छोटे वाक्यों में बात करे। 8.साधारण वाक्यों का प्रयोग करे। 9.रोजमर्रा में इस्तेमाल होने वाले शब्दों को जोड़कर बोलना सिखाए । 10.पहले समझना फिर बोलना सिखाए। 11.यदि बच्चा बोल पा रहा है तो उसे शाबाशी दे और बार-बार बोलने के लिए प्रेरित करे। 12.बच्चो को अपनी जरूरतों को बोलने का मौक़ा दे। 13.यदि बच्चा बिल्कुल बोल नहीं पाए तो उसे तस्वीर की तरफ इशारा करके अपनी जरूरतों के बारे में बोलना सिखाये। 14.बच्चो को घर के अलावा अन्य लोगो से नियमित रूप से मिलने का मौक़ा दे। 15.बच्चे को तनाव मुक्त स्थानों जैसे पार्क आदि में ले जाए 16.अन्य लोगो को बच्चो से बात करने के लिए प्रेरित करे। 17.यदि बच्चा कोई एक व्यवहार बार-बार करता है तो उसे रोकने के लिए उसे किसी दुसरे काम में व्यस्त रखे। 18.ग़लत व्यवहार दोहराने पर बच्चो से कुछ ऐसा करवाए जो उसे पसंद ना हो। 19.यदि बच्चा कुछ देर ग़लत व्यवहार न करे तो उसे तुंरत प्रोत्साहित करे। 20.प्रोत्साहन के लिए रंग-बिरंगी , चमकीली तथा ध्यान खींचने वाली चीजो का इस्तेमाल करे। 21.बच्चो को अपनी शक्ति को इस्तेमाल करने के लिए उसे शारिरीक खेल के लिए प्रोत्साहित करे। 22.अगर परेशानी ज़्यादा हो तो मनोचिकित्सक द्वारा दी गई दवाओ को प्रयोग करे।[5]

विश्व ऑटिज्म जागरूकता दिवस

विश्व ऑटिज्म जागरूकता दिवस (World Autism Awareness Day) हर साल 2 अप्रैल को पूरे विश्व भर में मनाया जाता है। जिसका मकसद है, लोगों को ऑटिज्म के बारे में जागरूक करना। ऑटिज्म एक ऐसी आजीवन रहने वाली जटिल विकासात्मक असमर्थता है, जिससे आज भारत में लगभग 20 लाख लोग प्रभावित है।

ऑटिज़्म से जुङे शोध और प्रयोग

आज कई रिसर्च इंस्टीटयूट द्वारा आटिज्म के कारणों व निदान पर निरन्तर शोध कार्य जारी है। ये शोध आटिज्म प्रभावितों के लिए कितने लाभकारी हैं भविष्य में तय होगा।

सिर्फ 15 मिनट में पहचाना जाएगा ऑटिज्म

लंदन के किंग्स कॉलेज के वैज्ञानिकों की एक टीम ने युवाओं में ऑटिज्म की पहचान करने के लिए ब्रेन स्कैन का तरीका ढूंढा है, जो मात्र 15 मिनट में ही इस बीमारी की पहचान कर लेगा। हालांकि अभी तक ऑटिज्म की पहचान करने के लिए पीडित व्यक्ति के परिवार वालों और दोस्तों से ली गई व्यक्तिगत जानकारियों को ही आधार बनाया जाता है। सबसे बडी बात है कि इस स्कैन की प्रामाणिकता 90 प्रतिशत से भी ज़्यादा होगी। अपने इस प्रयोग में किंग्स कॉलेज के मनोचिकित्सा संस्थान के वैज्ञानिकों ने पहले एमआरआई स्कैनर के ज़रिये मस्तिष्क के कुछ भागों का चित्र लिया। इसके बाद एक भिन्न प्रकार की इमेजिंग तकनीक के सहयोग से इन स्कैन किए हुए चित्रों को त्रिआयामी (थ्रीडी) चित्रों में पुनर्निर्मित किया गया, जिसके आकार, प्रकार और बनावट का कंप्यूटर के ज़रिये आंकलन किया गया। इन जटिल प्रक्रियाओं के द्वारा ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर को स्पष्ट किया गया। हालांकि इस बारे में आलोचकों का कहना है कि इस प्रक्रिया को उपयोग में लाने के लिए विशेषज्ञों के समूह की जरूरत होगी, जो प्राप्त जानकारी की व्याख्या कर उसकी पहचान कर सकें।

5 मिनट में ब्रेन स्कैन से जल्द पता चल जाएगा ऑटिज्म का

बच्चों को होने वाली बीमारी ऑटिज्म का पता आम तौर पर काफ़ी देर बाद चलता है। इसकी वजह से इलाज का ज़्यादा असर नहीं हो पाता। लेकिन वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिसिन के वैज्ञानिकों ने मस्तिष्क की स्कैनिंग की एक ऐसी विधि खोज निकाली है जिससे बच्चों के दिमाग की परिपक्वता का पता लगाया जा सकता है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से बच्चों की मस्तिष्क की विकृतियों (अटेंशन डेफिशीट) और ऑटिज्म संबंधी गड़बडि़यों का समय रहते पता लगाया जा सकेगा। पांच मिनट की अवधि वाली स्कैनिंग में एमआरआई आंकड़ों का गणितीय रूप में ट्रांसफर करना शामिल है। यह न केवल मस्तिष्क की संरचना की तस्वीरें, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों के साथ मिलकर काम करने के इसके तरीकों को भी जाहिर करता है। वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिसिन में मुख्य अनुसंधानकर्ता ब्रेडले श्लेगर ने कहा कि यह विधि ऑटिज्म पीड़ित बच्चों तथा सामान्य बच्चों की तंत्रिकाओं के विकास के संबंध में जानकारी देगी। इस विधि से बाल्यावस्था में ही मस्तिष्क की तरंगों की स्कैनिंग कर जांच की जा सकती है। शोधकर्ताओं के अनुसार, ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर से पीड़ित बच्चे अप्रभावित बच्चों की तुलना में आवाज को 11 मिलीसेकंड बाद पहचान पाते हैं। यही देरी ब्रेन स्कैन में पकड़ी जा सकती है।

खून की एक बूंद पकड़ेगी ऑटिज्म

दुनियाभर के 50 विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों और डाक्टरों की मदद से एक ऎसी किट तैयार की गई है जो रक्त की जांच कर यह बता सकेगी कि बच्चे को आर्टिज्म रोग है या नहीं। यह किट 2013 तक बाज़ार में आ जाने की संभावना है। ब्रिटेन के प्रसिद्ध आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं के मुताबिक, विशेष किट की मदद से डॉक्टर बच्चे के खून की चंद बूदों की एक साधारण सी जांच कर बता सकेगें कि बच्चे को आर्टिज्म रोग है जिसके बाद उसके उपचार में भी तेजी लाई जा सकेगी। अब तक इस सबसे बडे अध्ययन के दौरान विश्व के 50 से अधिक विश्वविद्यालयों के 120 से अधिक वैज्ञानिकों और डॉक्टरों ने 2300 से अधिक बच्चों को शामिल किया था। इन बच्चों में से 1000 से ज़्यादा बच्चे रोग ग्रस्त तथा 1300 सामान्य थे। अध्ययन के दौरान पता चला कि आर्टिज्म से ग्रस्त बच्चों के डीएनए बदल जाते हैं और उनके सामान्य कामकाज को प्रभावित करने लगते हैं।

लंदन से प्रकाशित पत्रिका "नेचर" में इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अध्ययन में शामिल बच्चों के "इन्सर्शन्स" और "डिलीशन्स" जिसे काफ़ी नम्बर वेरिएटस भी कहते हैं, में भिन्नता दिखी लेकिन सभी के निष्कर्ष समान पाए गए। इस रोग से ग्रस्त बच्चे के जो जीन्स क्षतिग्रस्त होते हैं वही जीन्स उसके मस्तिष्क के विकास और सूचनायें भेजने में मुख्य रूप से जिम्मेदार होते हैं। अध्ययन के दौरान पहली बार यह पता चला कि कुछ जीन्स का सीधा संबंध आर्टिज्म रोग से होता है। कारण पता न होने की वजह से इस रोग का पता लगाने की प्रक्रिया भी काफ़ी लंबी होती है। इस अध्ययन के आधार पर न केवल आर्टिज्म रोग की कारगर दवायें तैयार करने में मदद मिल सकेगी, बल्कि रक्त जांच से रोग की जल्द पहचान भी की जा सकेगी।

यूरिन टेस्ट से ऑटिज्म का पता लगाएं

लंदन इंपीरियल कॉलेज (आईसी) के प्रोफेसर जर्मी निकोलस ने कहा कि ऑटिज्म रोगी की सामाजिक कुशलता पर आघात पहुंचाता है। ऑटिज्म शरीर के कई अंगों को प्रभावित करता है। इसे आसानी से देखा भी जा सकता है कि यह किस तरह संबंधित रोगी के मेटाबोलिज्म और साहस को कैसे ठेस पहुंचाता है। निकोलस ने बताया कि ऐसे तो ऑटिज्म कई अंगों को प्रभावित करता है, पर इसका सीधा असर मानव की सामाजिक कुशलता और समझ पर होता है। अन्य व्यक्तियों से वार्तालाप करने तथा उनकी समझदारी को भी समझने में परेशानी आती है। उन्होंने बताया कि अध्ययन में यह पाया गया कि यूरिन टेस्ट से ऑटिज्म का पहले पता लगाया जा सकता है। निकोलस ने अपने अध्ययन के बारे में बताया कि वर्तमान में बच्चों में ऑटिज्म को आंकने की प्रक्रिया काफ़ी लंबी है। इसके लिए सामाजिक वार्तालाप, सोचन की क्षमता आदि-आदि कई प्रकार के टेस्ट किए जाते हैं। इसके बाद ऑटिज्म का पता लगाया जाता है, पर यूरिन टेस्ट के जरिए इसे पहले ही आंका जा सकता है।

उन्होंने बताया कि वर्तमान में 18 महीने से कम उम्र के बच्चों में ऑटिज्म का पता लगाया जाना काफ़ी मुश्किल का काम है। शोधकर्ताओं ने तीन से नौ वर्ष के बच्चों को तीन वर्ग में बांटकर अपना शोध किया। इन सभी बच्चों का यूरिन टेस्ट किया गया। इनमें 39 बच्चे ऐसे थे, जिनका पहले ही ऑटिज्म का निदान कर दिया गया, 28 ऐसे बच्चे थे, जो ऑटिज्म से ग्रसित थे और 34 ऐसे बच्चे थे, जो ऑटिज्म के कभी भी शिकार नहीं हुए।

पारे के उत्सर्जन से जुड़ी है ऑटिज्म की समस्या (संशोधित)

मनुष्यों में एकांत रहने अथवा समाज से कट के रहने की प्रवृत्ति या बीमारी (ऑटिज्म) का सीधा संबंध पारे के उत्सर्जन से हो सकता है। यह बात एक नए अध्ययन में सामने आई है। टेक्सास विश्वविद्यालय के शोधकर्ता रेमंड एफ. पाल्मर और लेक विश्वविद्यालय के स्टीफेन बलानचार्ड और रॉबर्ट वुड ने पाया कि दूषित स्थल से प्रत्येक दस माइल की दूरी पर ऑटिज्म की समस्या में एक से दो फीसदी की कमी आ जाती है। पार्मर ने कहा, "यह कोई व्यापक शोध नहीं है बल्कि एक अध्ययन है जो वातावरण के प्रदूषण का ऑटिज्म से संबंध बताता है। हम जानना चाहते हैं कि वातावरण में भारी धातु के प्रदूषण से सबसे ज़्यादा खतरा किसको हो सकता है।" यह अध्ययन टेक्सास के कोयला आधारित 39 विद्युत संयंत्रों और 56 अन्य उद्योगों पर किया गया। जबकि ऑटिज्म का अध्ययन टेक्सास के ही 1040 स्कूलों में किया गया। इस अध्ययन के निष्कर्ष 'हेल्थ एंड प्लेस' नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई है।

जेनेटिक मिसफोल्डिंग और ऑटिज्म में है गहरा संबंध

वाशिंगटन। वैज्ञानिकों ने ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (एएसडी) यानी स्वलीनता से संबंधी मस्तिष्क में पाए जाने वाले एक मुख्य प्रोटीन में जेनेटिक मिसफोल्डिंग की पहचान की है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने पाया कि न्यूरोलिगिन-3 नामक प्रोटीन में आनुवांशिक परिवर्तन की वजह से जेनेटिक मिसफोल्डिंग हो जाती है और दूसरी अन्य विसंगतियां आ जाती हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक जेनेटिक मिसफोल्डिंग की वजह से तंत्रिकाओं के बीच असामान्य संचार होता है। ऑटिज्म के मरीजों में इस प्रोटीन में आनुवांशिक परिवर्तन पाया गया है। यह शोध ‘बायोलॅजिकल केमिस्ट्री’ में प्रकाशित हुआ है।

अपने में लीन रहने के पीछे डीएनए जिम्मेदार

पत्रिका ‘नेचर’ में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक जो बच्चे स्वलीन होते हैं, उनके डीएनए में दुर्लभ प्रकार का उत्परिवर्तन होता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक ऐसे बच्चों के माता-पिता के डीएनए सामान्य होते हैं और इसलिए कोई समस्या नहीं होती लेकिन वे डीएनए के कुछ हिस्से की अधिकता और कुछ की कमी के साथ जन्म लेते हैं। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि एक दिन उनका अध्ययन साधारण डीएनए टेस्ट में मदद करेगा, जिससे पहले ही बच्चों के इस गुण को पहचाना जा सकेगा। लेकिन यह कई बार ऑटिज्म (स्वलीनता) वाले प्रत्येक बच्चे की पहचान नहीं भी कर पाएगा क्योंकि इसके लिए अन्य कारक भी जिम्मेदार हैं। अध्ययन बताता है कि अपने आप में लीन रहने वाले बच्चों में आनुवांशिक उत्परिवर्तन क़रीब 20 प्रतिशत सामान्य होते हैं।

ऑटिज्म / स्वलीनता पीड़ितों के आहार में बदलाव से सुधार नहीं

वेबसाइट 'टेलीग्राफ डॉट को डॉट यूके' के मुताबिक न्यूयार्क के रोचेस्टर विश्वविद्यालय में हुए इस शोध में 22 युवाओं पर अध्ययन किया गया था। शोधकर्ताओं ने देखा कि स्वलीनता पीड़ितों के आहार से डेयरी उत्पाद निकाल देने के बावजूद उनके स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ। अध्ययनकर्ता सुजान हेमैन कहती हैं, "यदि आहार में बदलाव से मदद मिलती तो स्वलीनता पीड़ित बच्चों और उनके परिवारों के लिए यह बहुत अच्छा हो सकता था लेकिन इस छोटे से अध्ययन में इसके कोई महत्त्वपूर्ण फायदे नज़र नहीं आए हैं।"

चीन में डॉल्फिन से ऑटिज्म पीड़ित बच्चों का इलाज

चीन के एक समुद्री मनोरंजन पार्क ने चार डॉल्फिनें ख़रीदी हैं लेकिन इन्हें मनोरंजन की दृष्टि से नहीं बल्कि ऑटिज्म (स्वलीनता) से पीड़ित बच्चों के इलाज के लिए ख़रीदा गया है। समाचार एजेंसी शिन्हुआ के मुताबिक लियाओनिंग प्रांत के फुशहुन शहर के ‘रॉयल ओशन वर्ल्ड’ में जानवरों की देख-रेख करने वाले चेन रुजुन ने बताया कि इन डॉल्फिनों को जापान से 738,000 डॉलर में ख़रीदा गया है। एक महीने के अनुकूलन और प्रशिक्षण के बाद युवा मरीजों के इलाज के लिए इनका इस्तेमाल शुरू कर दिया गया है। चेन कहते हैं कि, " ‘रॉयल ओशन वर्ल्ड’ 2007 से ही ऑटिज्म पीड़ित बच्चों का इलाज कर रहा है। जब हमारे पास चिकित्सकों के रूप में तीन डॉल्फिनें थीं तब हम 2 से 10 वर्ष उम्र तक के 20 से ज़्यादा बच्चों का इलाज कर लेते थे।" उन्होंने बताया कि प्रत्येक बच्चा महीने में कम से कम 12 बार पार्क में आता है और इलाज के तहत डॉल्फिन के साथ खेलता है। इस इलाज का असर इस पर निर्भर करता है कि बच्चे ने डॉल्फिन के साथ कितना समय बिताया। पहले बच्चों का इलाज निशुल्क किया जाता था लेकिन इस इलाज की मांग बढ़ने के साथ अब इसके लिए प्रत्येक परिवार से प्रति माह 2000 युआन लिए जाते हैं। ग़रीब परिवारों से कम शुल्क लिया जाता है। चीन के शैनडोंग और गुआंगडोंग सहित अन्य प्रांतों के समुद्री पार्को में भी डॉल्फिन इलाज होता है।

ऑटिज्म / स्वलीनता के इलाज में मददगार हो सकती हैं सांगबर्ड

लंदन। एक नए अध्ययन से पता चला है कि एक नन्ही सांगबर्ड स्वलीनता सहित अन्य विसंगतियों को दूर करने में मददगार हो सकती है। वेबसाइट "डेलीमेल डॉट को डॉट यूके" के मुताबिक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के अध्ययनकर्ता क्रिस पोंटिंग कहते हैं, ""गाना सीखना हर प्रकार के सीखने का एक उत्कृष्ट प्रतिमान है।"" यह नन्ही सी चिड़िया मनुष्य के सीखने और स्मृति की प्रक्रिया को समझने में महत्त्वपूर्ण हो सकती है। सांगबर्ड के नर बच्चो मानव शिशुओं की तरह ही अपने पिता के गाने की नकल सीखने से पहले तुतलाहट के साथ बोलना शुरू करते हैं। इस चिड़िया के सीखने की यह प्रक्रिया मनुष्यों में स्वलीनता, सदमे, हकलाहट और परकिंसंस जैसे विकारों को समझने में सहायक हो सकती है।

बच्चों की आवाज से पकड़ में आएगा ‘ऑटिज्’

लंदन। ऑटिज्म का जल्द पता लगाने और इसके इलाज का मार्ग प्रशस्त करने का दावा करते हुए वैज्ञानिकों ने पहली स्वचालित स्वर विश्लेषण व्यवस्था विकसित की है। इस पद्धति में बच्चों की आवाज का विश्लेषण कर उनमें रोग को शुरूआती अवस्था में पकडऩा संभव होगा। वैज्ञानिकों ने लैंग्वेज इनवार्यनमेंट एनालिसिस (लेना) उपकरण का विकास किया है। उन्होंने कहा कि ऑटिज्म से पीडि़त बच्चे अपने हम उम्र स्वस्थ बच्चों की तुलना में अलग प्रकार से उच्चारण करते हैं। यह उपकरण बच्चों की आवाज को पकड़ लेता है। इस मशीन में पहले से अन्य बच्चों की आवाजें दर्ज होती है। पहले यह मशीन दिन भर बच्चों के आवाज को रिकार्ड करती है और संबंधित आंकड़े एक विशेष कंप्यूटर में दर्ज करती है जो अन्य बच्चों की ध्वनियों से इसकी तुलना करता है।

ऑटिज्म के शिकार लोग आलिंगन से क्यों बचते हैं

वैज्ञानिकों ने मस्तिष्क में कुछ ऐसे सबूत ढूंढे हैं जिनसे यह पता चल सकेगा कि ऑटिज्म से जुड़े नाज़ुक एक्स सिंड्रोम से ग्रसित लोग अपने माता पिता से भी गले मिलना क्यों नापसंद करते हैं। नार्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के फेनबर्ग स्कूल ऑफ मेडिसीन के शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि उन्होंने नाज़ुक एक्स सिंड्रोम वाली चुहिया के मस्तिष्क में संवेदी कोर्टेक्स के विकास में देरी का पता लगाया है। न्यूरोन जर्नल में उन्होंने अपनी इस कामयाबी के बारे में बताया है कि उनका अध्ययन इस बात की व्याख्या करने में मदद कर सकता है कि इससे ग्रसित लोग शारीरिक संपर्क को लेकर अत्यंत संवेदनशील क्यों होते हैं। गौरतलब है कि नाज़ुक एक्स सिंड्रोम एक्स क्रोमोजोम में जीन से पैदा होता है, जो नाज़ुक एक्स मानसिक मंदता यानी एफएमआरपी नाम के प्रोटीन बनाता है।

नवजात में पीलिया होने पर ऑटिज्म का भी खतरा

लंदन, जिन नवजात शिशुओं को पीलिया होता है उन्हें आगे चलकर ऑटिज्म बीमारी हो सकती है। यह बात एक अध्ययन में सामने आई है। डेनमार्क की अरहस यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने 1994 से 2004 के बीच देश में जन्मे बच्चों के बारे में अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि जिन बच्चों का पीलिया के लिए इलाज किया गया था उनमें से 2.37 फीसदी बच्चे बाद में ऑटिज्म के शिकार हुए। जबकि जिन बच्चों को पीलिया नहीं था उनमें से केवल 1.4 प्रतिशत बच्चों को ऑटिज्म की शिकायत हुई। शोधकर्ताओं का मानना है कि पीलिया के दौरान जमा हुआ जहरीला बिलिरुबिन दिमाग की कोशिकाओं को क्षतिग्रस्त कर देता है।

सोशल नेटवर्किंग से ऑटिज्म

सोशल नेटवर्किंग से जहां विश्व एक छोटे गांव में तब्दील हो गया है वहीं इससे लोगों का समय भी कटता है। लेकिन यही सोशल नेटवर्किंग अगर लत में तब्दील हो जाए तो घातक साबित हो सकती है। यहां तक कि सोशल नेटवर्किंग से ऑटिज्म का खतरा हो सकता है। मैरीलैंड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने 200 छात्रों पर किए गए अध्ययन के दौरान यह पाया है कि सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट पर ज़्यादा समय बितानेवाले युवा नकारात्मक व्यवहार के शिकार हो जाते हैं। अगर एक दिन के लिए भी वे इन वेबसाइटों से दूर रहे तो वे अत्यधिक उन्मत्त हो उठते हैं, उनमें व्यग्रता और घबराहट होने लगती है। ठीक यही लक्षण ड्रग और अल्कोहल के आदी लोगों में भी व्यसन से दूर रहने पर पाया जाता है। इन नतीजों के आधार पर लोगों का ध्यान एक बार फिर सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट के खतरों की तरफ दिलाया गया है। इस शोध से जुड़ी न्यूरोसाइंटिस्ट सूसन ग्रीनफील्ड ने बताया कि 2009 में कुछ ऐसी खबरें आई थी कि सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट हमारे शरीर और दिमाग को बुरी तरह प्रभावित करती है और हमारी एकाग्रता की क्षमता को काफ़ी कम कर देती है। इसके अलावा इससे प्रतिरोधक क्षमता भी काफ़ी कमज़ोर हो जातू है और ऑटिज्म नाम के मनोरोग के होने की संभावना बढ़ जाती है। उनका कहना है कि सोशल नेटवर्किंग साइट की लत हमारे युवाओं में मस्तिष्क के विकसित होने की प्रक्रिया को बिगाड़ देती है। इसके अलावा मेलजोल के लिए सोशल साइट्स पर ज़्यादा वक़्त बिताने वाले युवाओं का स्वास्थ्य आमने-सामने संपर्क करनेवाले युवाओं की तुलना में ज़्यादा खराब होता है। लेकिन इस स्टडी के आधार पर अभी तक वैज्ञानिकों ने कोई ठोस राय नहीं बनाई है।

योग से ‘ऑटिज्म’ का इलाज सम्भव

ऑस्ट्रेलिया में आत्मविमोह (ऑटिज्म) की समस्या से निपटने के लिए योग का इस्तेमाल बढ़ रहा है। इस प्राचीन भारतीय विज्ञान की उपयोगिता में विश्वास रखने वाले विशेषज्ञ का मानना है कि योग की बदौलत ऑटिज्म के शिकार बच्चों की मानसिक सक्रियता में बदलाव लाया जा सकता है।

एक गैर-लाभकारी संगठन ‘योगा इन कम्युनिटी’ (वाईआईटीसी) भी इस उद्देश्य से योग का इस्तेमाल कर रहा है। इस संगठन के मुताबिक बच्चों की मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक सेहत को सुधार कर आत्मविमोह यानी ऑटिज्म से निपटा जा सकता है। योग को यह संगठन इन तीनों तरह की सेहत के लिए उपयोगी मानता है। सिडनी स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी द्वारा प्रकाशित एक जर्नल प्रेसिंक्ट के मुताबिक यह संगठन योग की उपयोगिता की वैज्ञानिक पुष्टि कर चुका है।

हाल ही में 33 वर्षीय स्यू व्हाइट और 28 वर्षीया केटी स्पीयर्स ने इस संगठन की स्थापना की। आस्ट्रेलिया में वैकल्पिक इलाज पद्घतियों की बढ़ती उपयोगिता से लोगों को योग की ओर मुड़ने की प्रेरणा मिली है। इस संगठन के योग स्टूडियो में हर रोज़ मोमबत्ती जलाई जाती है और फूलों और खुशबू से योग कक्ष के माहौल को खुशनुमा बनाया जाता है। फिर इस खुशनुमा माहौल में बच्चों से योग करवाया जाता है। स्पीयर्स ने कहा, “यह योग केंद्र मानसिक शांति की तलाश कर रहे लोगों के लिए बेहद उपयुक्त जगह है। लोग जब यहां विभिन्न मुद्राओं को आजमा लेते हैं, तब उनकी मानसिक और शारीरिक ताजगी देखते ही बनती है। खासकर बच्चों के लिए योग को अधिक उपयोगी माना जा रहा है। यहाँ कई छात्र ऑटिज्म के इलाज में योग की उपयोगिता का अध्ययन भी कर रहे हैं।”

सूर्य नमस्कार जैसी योग मुद्राओं का ख़ास तौर पर अध्ययन किया जा रहा है। वैसे बचपन में आत्मविमोह का शिकार रहे युवकों पर भी योग का उत्साहवर्धक असर देखा जा रहा है। स्पीयर्स ने कहा कि योग पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो रहा है। फिर हम विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए इस पद्घति को क्यों न आजमाएं।

कुछ अन्य शोध
  • बी.एम.सी. पीडियाट्रिक्स की रिर्पोट के मुताबिक प्रेशराइज्ड आक्सीजन चैम्बर में आटिस्टिक बच्चों को दिन में दो बार, चार हफ्ते तक रखने से 80 प्रतिशत बच्चों में सुधार के लक्षण दिखाई दिए। उनकी अतिक्रियाशीलता (हाइपर एक्टिविटी), तुनक मिजाजी, एवं बोलने की क्षमता का विकास हुआ । समझा जाता है कि मस्तिष्क में आक्सीजन का स्तर बढ़ने से बच्चों को फ़ायदा हुआ होगा। फ्लोरिडा, इन्टरनेशनल चाइल्ड डेवलॅपमेंट रिर्पोट ने इस पर शोध किए जाने की जरूरत है ।
  • जापान के एक शोधर् कत्ता के अनुसार कम उम्र में पिता बनने वाले पुरूषों के बच्चों की तुलना में अधिक उम्र में पिता बनने वाले पुरूषों के बच्चों को स्वलीनता यानि आटिज्म का खतरा बढ़ जाता है।
  • संगीत भी आटिस्टिक बच्चों में मददगार साबित हो सकता है । एवर्स्टन में नार्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी की प्रयोगशाला में किए गए शोध के अनुसार वाद्ययन्त्र बजाने से ब्रेनस्टेम (मस्तिष्क का निचला हिस्सा) में स्वचालित प्रक्रिया पर असर पड़ता है । कई वर्षो का संगीत प्रशिक्षण ध्वनियों से भाषा और भावनाओं को व्यक्त करने में भी सुधार हो सकता है।[2]

ऑटिज्म पर बनी फिल्में और टी. वी. प्रोग्राम

  • कोई मिल गया
  • तारे जमीन पर
  • माई नेम इज खान
  • अंजलि


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जानें क्या है ऑटिज्म? (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) वेब दुनिया हिन्दी। अभिगमन तिथि: 19 फ़रवरी, 2011
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 अरोरा, श्रीमती राजबाला। आटिज्म: शीघ्र हस्तक्षेप जरूरी (हिन्दी) (पी.एच.पी) ग्वालियर टाइम्स। अभिगमन तिथि: 5 दिसंबर, 2010।
  3. ऑटिज़्म (आत्मविमोह) (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल)। । अभिगमन तिथि: 5 दिसंबर, 2010।
  4. ऑटिज्म और भ्रांतियाँ (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) वेब दुनिया हिन्दी। अभिगमन तिथि: 19 फ़रवरी, 2011
  5. 5.0 5.1 ऑटिज्म होने के क्या कारण है? (हिन्दी) (पी.एच.पी) ऑटिज्म। अभिगमन तिथि: 19 फ़रवरी, 2011

बाहरी कड़ियाँ

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