इहि उदर कै कारणे, जग जाच्यों निस जाम ।
स्वामीं-पणो जो सिरि चढ्यो, सर्यो न एको काम ॥1॥
स्वामी हूवा सीतका, पैकाकार पचास ।
रामनाम कांठै रह्या, करै सिषां की आस ॥2॥
कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी खटाइ ।
राज-दुबारां यौ फिरै, ज्यूँ हरिहाई गाइ ॥3॥
कलि का स्वामी लोभिया, मनसा धरी बधाइ ।
दैंहि पईसा ब्याज कौं, लेखां करतां जाइ ॥4॥
`कबीर' कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ ॥5॥
ब्राह्मण गुरु जगत का, साधू का गुरु नाहिं ।
उरझि-पुरझि करि मरि रह्या, चारिउँ बेदां माहिं ॥6॥
चतुराई सूवै पढ़ी, सोई पंजर माहिं ।
फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझै नाहिं ॥7॥
तीरथ करि करि जग मुवा, डूँघै पाणीं न्हाइ ।
रामहि राम जपंतडां, काल घसीट्यां जाइ ॥8॥
`कबीर' इस संसार कौं, समझाऊँ कै बार ।
पूँछ जो पकड़ै भेड़ की, उतर्या चाहै पार ॥9॥
`कबीर' मन फूल्या फिरैं, करता हूँ मैं ध्रंम ।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥10॥