मराठा साम्राज्य
मराठा लोगों को 'महरट्टा' या 'महरट्टी' भी कहा जाता है, भारत के वे प्रमुख लोग, जो इतिहास में क्षेत्र रक्षक योद्धा और हिन्दू धर्म के समर्थक के रूप में विख्यात हैं, इनका गृहक्षेत्र, आज का मराठी भाषी क्षेत्र महाराष्ट्र राज्य है, जिसका पश्चिमी क्षेत्र समुद्र तट के किनारे मुंबई (भूतपूर्व बंबई) से गोवा तक और आंतरिक क्षेत्र पूर्व में लगभग 160 किमी. नागपुर तक फैला हुआ था।
मराठा जाति
मराठा शब्द का तीन मिलते-जुलते अर्थों में उपयोग होता है-मराठी भाषी क्षेत्र में इससे एकमात्र प्रभुत्वशाली मराठा जाति या मराठों और कुंभी जाति के एक समूह का बोध होता है, महाराष्ट्र के बाहर मोटे तौर पर इससे समूची क्षेत्रीय मराठी भाषी आबादी का बोध होता है, जिसकी संख्या लगभग 6.5 करोड़ है। ऐतिहासिक रूप में यह शब्द मराठा शासक शिवाजी द्वारा 17वीं शताब्दी में स्थापित राज्य और उनके उत्तराधिकारियों द्वारा 18वीं शताब्दी में विस्तारित क्षेत्रीय राज्य के लिए प्रयुक्त होता है।
मराठा जाति के लोग मुख्यतः ग्रामीण किसान, ज़मींदार और सैनिक थे, कुछ मराठों और कुंभियों ने कभी-कभी क्षत्रिय होने का दावा भी किया और इसकी पुष्टि वे अपने कुल-नाम व वंशावली को महाकाव्यों के नायकों, उत्तर के राजपूत वंशों या पूर्व मध्यकाल के ऐतिहासिक राजवंशों से जोड़कर करते हैं, मराठा और कुंभी समूह की जातियाँ तटीय, पश्चिमी पहाड़ियों और दक्कन के मैदान के उपसमूहों में बँटी हुई हैं और उनके बीच आपस में वैवाहिक संबंध कम ही होते हैं। प्रत्येक उप क्षेत्र में इन जातियों के गोत्रों को विभिन्न समाज मंडलों में क्रमशः घटते हुए क्रम में वर्गीकृत किया गया है। सबसे बड़े सामाजिक मंडल में 96 गोत्र शामिल हैं। जिनमें सभी असली मराठा बताए जाते हैं। लेकिन इन 96 गोत्रों की सूचियों में काफ़ी विविधता और विवाद हैं।
साम्राज्य विस्तार
जब मुग़ल दक्कन की ओर बढ़ रहे थे, तब अहमदनगर तथा बीजापुर में मराठे प्रशासन तथा सैनिक सेवाओं में महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त थे तथा राज्य के काम-काज में उनका प्रभाव और उनकी शक्ति बढ़ती जा रही थी। दक्कन के सुल्तानों तथा मुग़लों, दोनों ने मराठों का समर्थन प्राप्त करने की चेष्टा की। मलिक अम्बर ने अपनी सेना में बड़ी संख्या में मराठों की भर्ती की। यद्यपि मोरे, घटघे तथा निबालकर जैसे कुछ प्रभाशाली मराठा परिवारों ने कुछ क्षेत्रों में प्रभाव क़ायम कर लिया था तथापि मराठे राजपूतों की तरह बड़े तथा सुसंगठित राज्य स्थापित करने में सफल नहीं हुए थे। साम्राज्य की स्थापना का श्रेय 'शाहजी भोंसले' तथा पुत्र 'शिवाजी' को है। जैसा कि पता चलता है कि कुछ समय तक शाहजी ने मुग़लों को चुनौती दी। अहमदनगर में उसका इतना प्रभाव था कि शासकों कि नियुक्ति में भी उसका ही हाथ होता था। लेकिन 1636 की संधि के अंतर्गत शाहजी को उन क्षेत्रों को छोड़ना पड़ा, जिन पर उसका प्रभाव था। उसने बीजापुर के शासक की सेवा में प्रवेश किया और अपना ध्यान कर्नाटक की ओर लगाया। उस समय की अशांत स्थिति का लाभ उठाकर शाहजी ने बंगलौर में अर्द्ध-स्वायत्त राज्य की स्थापना का प्रयत्न किया। इसके पहले गोलकुण्डा का एक प्रमुख सरदार मीर जुमला कोरोमंडल तट के एक क्षेत्र पर अपना अधिकार क़ायम करने में सफल हो गया था। इसके अलावा कुछ अबीसीनियाई सरदार पश्चिम तट पर अपना शासन क़ायम करने में सफल हो गये थे। पूना के आस-पास के क्षेत्रों में अपना शासन स्थापित करने के शिवाजी के प्रयासों की यही पृष्ठभूमि थी।
मराठा महासंघ
इसका सूत्रपात दूसरे पेशवा बाजीराव प्रथम (1720-40 ई.) के शासनकाल में हुआ। एक ओर सेनापति दाभाड़े के नेतृत्व में मराठा क्षत्रिय सरदारों के विरोध तथा दूसरी ओर उत्तर तथा दक्षिण में मराठा साम्राज्य का शीघ्रता से विस्तार होने के कारण पेशवा बाजीराव प्रथम को अपने उन स्वामीभक्त समर्थकों पर अधिक निर्भर रहना पड़ा, जिनकी सैनिक योग्यता युद्ध भूमि में प्रमाणित हो चुकी थी। फलस्वरूप उसने अपने बड़े-बड़े क्षेत्र इन समर्थकों के अधीन कर दिये।
मुग़लों का दबाव
मुग़लों के दबाव के कारण महाराष्ट्र, पश्चिम भारत में शिवाजी के राज्य के पतन के बाद 18वीं शताब्दी में बना गठबंधन, मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की मृत्यु (1707) के बाद शिवाजी के पौत्र शाहू के नेतृत्व में मराठा शक्ति का पुररुत्थान हुआ, उन्होंने ब्रह्मण भट परिवार को शक्ति प्रदान की, जो ख़ानदानी तौर पर पेशवा (प्रमुख मंत्री) बने, उन्होंने पेशवाओं की सेनाओं के साथ उत्तर में अपने राज्य का विस्तार करने का निश्चय किया। शाहू के जीवन काल के उत्तरार्द्ध में पेशवा और शक्तिशाली हो गए। शाहू की मृत्यु (1749) के बाद पेशवा प्रभावशाली शासक हो गए। प्रमुख मराठा परिवार सिंधिया, होल्कर, भोंसले व गायकवाड़ ने उत्तर तथा मध्य भारत में विजय यात्रा जारी रखी और वे अधिक स्वतंत्र व अनियंत्रित हो गए।
पानीपत
पानीपत (1761) में अफ़ग़ानों के हाथों पराजय और 1772 में युवा पेशवा माधवराव प्रथम की मृत्यु के बाद पेशवाओं का प्रभावशाली नियंत्रण समाप्त हो गया। इसके बाद मराठा राज्य पश्चिमी भारत के पूना (वर्तमान पुणे) में पेशवा के नाममात्र के नेतृत्व में पाँच प्रमुखों का महासंघ रहा। हालाँकि वे मौके पर संगठित हो जाते थे। जैसे अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ (1775-82), लेकिन अधिकांश समय वे आपस में लड़ते रहते थे। पेशवा बाजीराव द्वितीय ने 1802 में होल्कर से पराजित होने के बाद ब्रिटिश साम्राज्य से सुरक्षा माँगी और उनकी घुसपैठ ने 1818 तक महासंघ को छिन्न-भिन्न कर दिया। यह महासंघ मराठा राष्ट्रीयता की भावनाओं का परिचायक था। लेकिन अपने प्रमुखों की आपसी ईर्ष्या के कारण वह कड़वाहट भरे माहौल में खंडित हो गया।
मराठा युद्ध
1775-82, 1803-05, 1817-18
ब्रिटिश सेनाओं और मराठा महासंघ के बीच हुए तीन युद्ध, जिनका परिणाम था महासंघ का विनाश। पहला युद्ध(1775-82) रघुनाथ द्वारा महासंघ के पेशवा (मुख्यमंत्री) के दावे को लेकर ब्रिटिश समर्थन से प्रारम्भ हुआ। जनवरी 1779 में बडगांव में अंग्रेज़ पराजित हो गए, लेकिन उन्होंने मराठों के साथ सालबाई की संधि (मई 1782) होने तक युद्ध जारी रखा; इसमें अंग्रेज़ों को बंबई (वर्तमान मुंबई) के पास सालसेत द्वीप पर कब्जे क रूप में एकमात्र लाभ मिला।
दूसरा युद्ध (1803-05)
पेशवा बाजीराव द्वितीय के होल्करों (एक प्रमुख मराठा कुल) से हारने और दिसम्बर, 1802 में बेसीन की संधि के तहत अंग्रेज़ों का संरक्षण स्वीकार करने से प्रारम्भ हुआ। सिंधिया तथा भोंसले परिवारों ने इस समझौते का विरोध किया, लेकन वे क्रमशः लसपाड़ी व दिल्ली में लॉर्ड लेक और असाय व अरगांव में सर आर्थर वेलेज़ली (जो बाद में वैलिंगटन के ड्यूक बने) के हाथों पराजित हुए। उसके बाद होल्कर परिवार भी इसमें शामिल हो गया और मध्य भारत व राजस्थान के क्षेत्र में मराठा बिल्कुल आज़ाद हो गए।
तीसरा युद्ध (1817-18)
ब्रिटिश गवर्नर-जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स द्वारा पिंडारी दस्युओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के क्रम में मराठा क्षेत्र के अतिक्रमण से प्रारम्भ हुआ। पेशवा की सेनाओं ने भोंसले और होल्कर के सहयोग से अंग्रेज़ों का मुक़ाबला किया (नवम्बर 1817), लेकिन सिंधिया ने इसमें कोई भूमिका नहीं निभाई। बहुत जल्दी मराठे हार गए, जिसके बाद पेशवा को पेंशन देकर उनके क्षेत्र का ब्रिटिश राज्य में विलय कर लिया गया। इस तरह भारत में ब्रिटिश राज्य का आधिपत्य पूर्णरूप से स्थापित हो गया।
राघोबा
भारत में अंग्रेज़ों के साथ 1775-82 ई., 1803-05 ई. तथा 1817-19 ई. में हुए। पहला मराठा युद्ध (1775-82 ई.) पेशवा नारायणराव के चाचा राघोवा के फलस्वरूप हुआ। राघोवा नारायणराव की मृत्यु के बाद उत्पन्न उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी माधवराव नारायण को पेशवा गद्दी से हटाना चाहता था। इसके लिए उसने ईस्टइंडिया कम्पनी को साष्टी तथा बसई देने का वायदा करके अंग्रेज़ों का समर्थन प्राप्त करने की कोशिश की। कम्पनी ने भी साम्राज्य-लिप्सा के वशीभूत हो मराठों के उत्तराधिकार युद्ध से लाभ उठाने की चेष्टा की। पहला मराठा-युद्ध लम्बा चला और अंग्रेज़ों के लिए अगौरवपूर्ण सिद्ध हुआ।
कर्नल कैमक के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने बड़गाँव (1779 ई.) में आत्मसमर्पण कर दिया और अंग्रेज़ों ने बड़गाँव समझौता करके राघोवा को सौंप देने का वचन दे दिया। परन्तु वारेन हेस्टिग्स ने, जो उस समय गवर्नर-जनरल था, इस समझौते को नामंजूर कर दिया और युद्ध पुनः शुरू हो गया। यद्यपि लेस्ली तथा गोडर्ड के नेतृत्व में एक हिन्दुस्तानी एवं अंग्रेज़ सेना 1779 ई. में बंगाल से मध्य भारत होकर सूरत तक पहुँचने में सफल हो गयी तथा 1780 ई. में मेजर पौफम ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया, फिर भी अंग्रेज़ कोई निर्णायात्मक विजय नहीं प्राप्त कर सके और न मराठा सेना अंग्रेज़ों को निर्णायात्मक रूप से हरा सकी। ऐसी परिस्थिति में अंग्रेज़ों ने महादजी शिन्दे को मध्यस्थ बनाकर सालबाई की संधि (1782 ई.) के द्वारा युद्ध समाप्त कर दिया। इसके द्वारा अंग्रेज़ों ने अपने कठपुतली राघोवा की पेन्शन नियत करा दी और दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए इलाके लौटा दिये। मराठों ने साष्टी कम्पनी को सौंप दिया।
मराठा सरदारों में आपसी दुश्मनी और प्रतिद्वन्द्विता
इस प्रकार मराठों और अंग्रेज़ों, दोनों को अपनी-अपनी शक्ति और कमज़ोरी का पता चल गया और अगले बीस वर्षों तक उनके बीच शांति रही। मराठा सरदारों में आपसी दुश्मनी और प्रतिद्वन्द्विता चलती रही और 25 अक्टूबर 1802 ई. को तत्कालीन पेशवा बाजीराव द्वितीय को अपने चंगुल में करने के लिए शिन्दे और होल्कर में पूना के बाहर युद्ध हुआ। बाजीराव द्वितीय कायर और षड़यंत्रकारी था और उसे राज्य के हित की कोई चिन्ता नहीं थी। जिस समय पूना का युद्ध चल ही रहा था, वह प्रतिद्वन्द्वी मराठा सरदारों के चंगुल से अपने को बचाने के लिए पूना से भागकर बसई अंग्रेज़ों की शरण में चला गया। वहाँ उसने 31 दिसम्बर 1802 ई. को बसई की लज्जाजनक संधि कर ली, जिसके द्वारा उसने पेशवा पद फिर से प्राप्त करने का मनोरथ बनाया था। इस प्रकार बाजीराव द्वितीय ने मराठा राज्य की स्वतंत्रता बेच दी और वह अंग्रेज़ों के द्वारा पुनः पूना की गद्दी पर आसीन कर दिया गया। परन्तु मराठा सरदारों, विशेष रूप से शिन्दे, भोंसले और होल्कर ने इस व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया और फलस्वरूप दूसरा मराठा-युद्ध (1803-05 ई.) छिड़ गया।
मराठा सरदारों में पुनः एकता स्थापित नहीं हो सकी। गायकवाड़ अंग्रेज़ों से मिल गया। यद्यपि शिन्दे और होल्कर संयुक्त हो गये, तथापि होल्कर ने उनका साथ नहीं दिया। यद्यपि वह भी बसई की संधि का उतना ही विरोधी था जितना शिन्दे और भोंसले। परिणाम यह हुआ कि इस संकटकाल में भी मराठे अपनी सम्पूर्ण शक्ति से अंग्रेज़ों का मुक़ाबला करने में असमर्थ रहे। फिर उनके पास कोई महान् सेनापति तथा रणविद्या-विशारद नहीं था। फलतः दक्खिन में सर आर्थर वेल्जली (भावी ड्यूक आफ वेलिंग्टन) के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने सितंबर 1803 ई. में असई की लड़ाई में शिन्दे और भोंसले की संयुक्त सेना को हरा दिया। इसके बाद नवम्बर में उसने आरगाँव की लड़ाई में भोंसले को इस प्रकार निर्णायात्मक रीति से परास्त कर दिया कि अगले महीने उसने अंग्रेज़ों से देवगाँव की संधि कर ली। इस संधि के द्वारा उसने कटक अंग्रेज़ों को दे दिया और एक प्रकार से उनका आश्रित हो गया।
अंग्रेज़ों का आश्रित मुग़ल बादशाह
इस बीच उत्तरी भारत में लॉर्ड लेक के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने अलीगढ़ और दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया और अंत में लासवाड़ी की लड़ाई में शिन्दे को इस प्रकार निर्णयात्मक रीति से पराजित किया कि वह 30 दिसम्बर 1803 ई. को सुर्जी अर्जुनगाँव की सन्धि करने के लिए विवश हुआ। इससे पूर्व आरगाँव की लड़ाई में भी शिन्दे हारा था। सुर्जी अर्जुन गाँव की संधि के द्वारा शिन्दे ने गंगा नदी और यमुना नदी के बीच का सारा प्रदेश अंग्रेज़ों को सौंप दिया, मुग़ल बादशाह, पेशवा तथा निजाम के ऊपर नियंत्रण करने का अपना सारा दावा त्याग दिया, अंग्रेज़ों की स्वीकृति के बिना किसी फिरंगी को नौकर न रखने के लिए राजी हो गया तथा एक प्रकार से अंग्रेज़ों का आश्रित हो गया।
होल्कर
होल्कर अभी तक युद्ध से अलग रहा था। जब उसके प्रतिद्वन्द्वी शिन्दे की शक्ति अंग्रेज़ों ने नष्ट कर दी, तब वह मूर्खतावश 1804 ई. में अकेले अंग्रेज़ों के विरुद्ध युद्ध में उतर पड़ा। प्रारम्भ में राजपूताना में उसे अंग्रेज़ों के विरुद्ध कुछ सफलता मिली, परन्तु अक्टूबर में वह दिल्ली को न ले सका और नवम्बर 1804 ई. में दीग की लड़ाई में हार गया। भरतपुर का राजा होल्कर की ओर से युद्ध कर रहा था। लॉर्ड लेक ने ग्वालियर का क़िला छीनने की कोशिश की, परन्तु सफल न हो सका। उसकी इस विफलता के फलस्वरूप इंग्लैंड में युद्ध को जारी रखने के विरुद्ध भावना ज़ोर पकड़ती गई और 1805 ई. में लॉर्ड वेलेज़ली को वापस बुला लिया गया। उसके उत्तराधिकारी ने होल्कर से जिन अनुकूल शर्तों पर संधि कर ली, उनकी वह पहले आशा नहीं कर सकता था। होल्कर ने चम्बल नदी के उत्तर में सारे प्रदेश पर अपना दावा छोड़ दिया और अपने राज्य का अधिकांश पुनः प्राप्त कर लिया (1806 ई.)।
दूसरे युद्ध के परिणाम
दूसरे अंग्रेज़ मराठा-युद्ध के परिणाम से ने तो किसी मराठा सरदार को संतोष हुआ, न पेशवा को। उन सबको अपनी सत्ता और प्रतिष्ठा छिन जाने से खेद हुआ। पेशवा बाजीराव द्वितीय षड्यंत्रकारी मनोवृत्तिका तो था ही, उसने अविचारपूर्ण रीति से अंग्रेज़ों को जो सत्ता सौंप दी थी, उसे फिर प्राप्त करने की आशा से 1817 ई. में अंग्रेज़ों के विरुद्ध मराठा सरदारों का संगठन बनाने में नेतृत्व किया और इस प्रकार तीसरे मराठा युद्ध (1817-19 ई.) का सूत्रपात किया। परन्तु इस बार गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स के नेतृत्व में भारत की ब्रिटिश सेनाएं बहुत शक्तिशाली सिद्ध हुई। युद्ध के आरंभ में ही उन्होंने सामरिक कौशल का परिचय देते हुए शिन्दे को इस तरह अलग कर दिया कि वह युद्ध में कोई भाग न ले सका। भोंसले को 1817 ई. में सीताबल्डी और नागपुर की लड़ाईयों में और होल्कर को उसी वर्ष महीदपुर की लड़ाई में परास्त किया था। पेशवा को, जिसने युद्ध का सूत्रपात किया था, पहले 1817 ई. में खड़की की लड़ाई में परास्त किया गया। इसके बाद जनवरी 1818 ई. में कोरेगाँव की लड़ाइयों में और एक महीने के बाद आष्टी की लड़ाई में पुनः हराया गया। इस अन्तिम हार के फलस्वरूप पेशवा ने जून 1818 ई. में अंग्रेज़ों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। इस प्रकार तीसरे मराठा युद्ध में अंग्रेज़ों की पूर्ण विजय हुई। उन्होंने अब पेशवा का पद तोड़ दिया और बाजीराव द्वितीय को कानपुर के निकट बिठूर में जाकर रहने की इजाजत दे दी। उन्होंने उसकी पेन्शन बाँध दी और उसका सारा साम्राज्य अब अंग्रेज़ों के नियंत्रण में आ गया। भोंसले का नर्मदा नदी से उत्तर का सारा इलाका अंग्रेज़ों ने ले लिया और शेष इलाका रघुजी भोंसले द्वितीय के एक नाबालिग पौत्र के हवाले कर दिया और उसे आश्रित राजा बना लिया गया। इसी प्रकार होल्कर ने नर्मदा के दक्षिण के समस्त ज़िले अंग्रेज़ों को सौंप दिये, राजपूत राज्यों पर अपना समस्त आधिपत्य त्याग दिया, अपने क्षेत्र में एक आश्रित सेना रखना स्वीकार कर लिया और अंग्रेज़ों की कृपा पर राज्य करने लगा। इस प्रकार पंजाब तथा सिंध को छोड़कर समस्त भारत में अंग्रेज़ों की सार्वभौम सत्ता स्थापित हो गयी।
मराठा शासन और सैन्य व्यवस्था
- हिन्दू तथा मुसलमान शासन एवं सैन्य व्यवस्था का मिश्रित रूप। इसका सूत्रपात शिवाजी ने किया, इसमें समस्त राज्यशक्ति राजा के हाथ में रहती थी। वह अष्टप्रधानों की सहायता से शासन करता था, जिनकी नियुक्ति वह स्वयं करता था।
- अष्टप्रधानों के नायबों की नियुक्ति भी राजा करता था। मालगुजारी की वसूली का कार्य पटेलों के हाथों में था। भूमि की उपज का एक तिहाई भाग मालगुजारी के रूप में वसूल किया जाता था।
- शिवाजी ने शासन व्यवस्था के साथ-साथ सेना की भी व्यवस्था की। सेना में मुख्य रूप से पैदल सैनिक तथा घुड़सवार होते थे। यह सेना छापामार युद्ध तथा पर्वतीय क्षेत्रों में लड़ने के लिए बहुत उपयुक्त थी। राजा स्वयं सैनिक का चुनाव करता था।
|
|
|
|
|
संबंधित लेख