हिन्दी की अखिल भारतीयता का इतिहास

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हिन्दी 'शब्द' का प्रयोग हरियाणा से लेकर बिहार तक प्रचलित बाँगरु, कौरवी, ब्रजभाषा, कनौजी, राजस्थानी, अवधी, भोजपुरी, मैथिली आदि कई भाषाओं के लिए किया जाता है, किंतु वर्तमान शताब्दी में व्यवहार की दृष्टि से इसका अर्थ खड़ीबोली हो गया है। हिन्दी के रूप में यही खड़ीबोली भारतीय संविधान द्वारा स्वीकृत संपर्क भाषा है तथा हिन्दी भाषी राज्यों में राजभाषा है। भौगोलिक दृष्टि से विचार करने पर यह दिल्ली, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ आदि थोड़े से ज़िलों तक सीमित भाषा है, जो शताब्दियों तक ब्रजभाषा और अवधी की तुलना में उपेक्षितप्राय रही है और ऐतिहासिक कारणों के प्रसाद से ही यह न केवल आधुनिक युग में भारत से बाहर के कई देशों में फैल गई है, वरन सुदूर अतीत से ही अंतर्राष्ट्रीय यात्रा करती रही है।

इतिहास

प्राचीन काल में इस क्षेत्र से समय-समय पर पश्चिम की ओर जनसमुदायों का आव्रजन हुआ है, जिनके दो सबसे बड़े साक्ष्य आज भी मौजूद हैं। वे हैं यूरोप के रोमनी या जिप्सी तथा सोवियत संघ के इंकी या इन्दुस्तानी, जो ताज़िकस्तान और उज़बेकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्र में निवास करते हैं।

हिन्दी के रूप में खड़ीबोली भारतीय संविधान द्वारा स्वीकृत संपर्क भाषा है तथा हिन्दी भाषी राज्यों में राजभाषा।

जिप्सी या रोमनी भाषा के अध्ययन से यह संकेत मिलता है कि इसे बोलने वाले समुदाय संभवतः हरियाणा से गए होंगे। पिछली शताब्दी से सर लॉरेस ग्रुप ने अपने 'जिप्सी फ़ोकटेल्स' (1899 ई.) नामक ग्रंथ की भूमिका में इस भाषा के जो नमूने दिए हैं, वे आज की खड़ी बोली के बहुत समीप हैं। जैसे:- 'जा, दिक, कोन छल वेल वुदर' (जाओ, देखों तो, कौन लड़का उधर है) और 'जा देख कोन छल आया द्वार को' (जाओं, देखो कौन लड़का दरवाज़े पर आया है)। उन्होंने यह संभावना व्यक्त की है कि जिप्सी-भाषी ईसवी सन् की दसवीं सदी से बहुत पहले भारत से बाहर गए होंगे। इंकी या इन्दुस्तानी नामक भाषा की खोज डॉ. भोलानाथ तिवारी ने की है। वह इसे 'ताजुज़्बेकी' कहते हैं। 'ताजुज़्बेकी' (1970 ई.) में उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि यह भाषा जिसमें एक, दो, तिन (तीन), में (मैं), हम, तुम, ओ, (वह) जैसे शब्दों का प्रयोग होता है तथा जिसकी व्याकरणिक संरचना खड़ीबोली के बहुत समीप है, मूलतः हिन्दी है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि आव्रजनों के कारण हिन्दी आधुनिक युग में देशांतरव्यापी हुई, तो आज से बहुत पहले भी इन्हीं कारणों से इसका अंतर्राष्ट्रीय प्रसार हुआ है।

प्रसार

हिन्दी के भारतव्यापी प्रसार का इतिहास कम रोचक नहीं है। यद्यपि प्रायः सभी भाषावैज्ञानिकों ने खड़ीबोली का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश से माना है, किंतु 'हिन्दी शब्दानुशासन' (1958 ई.) में किशोरीदास वाजपेयी ने इस विचार-परंपरा का सप्रमाण खंडन किया है। उन्होंने अपेक्षित साक्ष्य प्रस्तुत कर यह बतलाया है कि प्राचीन कुरु जनपद की इस भाषा की पूर्ववर्ती अपभ्रंश अर्थात् दूसरी प्राकृत के उदाहरण प्राप्त नहीं है।

प्राकृत

'प्राकृत' की दूसरी तीसरी अवस्था में कोई न कोई रूप ऐसा होगा, जो हमारे सामने नहीं है। जिस प्राकृत का विकास हिन्दी है, उसका साहित्यिक रूप हमारे सामने नहीं है। किंतु यदि इस प्राकृत का रूप प्राप्त नहीं होता, तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसका अस्तित्व नहीं होगा। जैसे आज भी बहुत-सी भाषाओं में साहित्य-रचना नहीं होती, वैसे पहले भी बहुत-सी प्राकृत-अपभ्रंश भाषाओं में साहित्य नहीं लिखा गया। कुरु जनपद की प्राकृत ऐसी ही थी। वाजपेयी जी इस प्राकृत या अपभ्रंश को 'कौरवी' कहते हैं। निश्चय ही प्राचीन कौरवी से विकसित आधुनिक भारतीया कौरवी या खड़ीबोली दसवीं शताब्दी से पहले की है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि पड़ोस की ब्रजभाषा और राजस्थानी के बाद ही इसमें साहित्य-लेखन प्रारंभ हुआ और वह भी उस समय, जब दिल्ली में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हुई। इसके आरंभिक साहित्यिक नमूने या तो मुसलमान कवियों और लेखकों की रचनाओं में या देश के विभिन्न भागों के साधु-संन्यासियों द्वारा रचित वाणियों में मिलते हैं।

पौराणिक मतावलंबी

पौराणिक मतावलंबी भक्त कवियों ने साहित्यिक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में इसे महत्त्व नहीं दिया। इसके कारणों की परीक्षा के लिए हमें उस धार्मिक परिदृश्य पर विचार करना होगा, जिसका निर्माण पुराणों पर आधारित सगुण भक्ति द्वारा हुआ था। चौबीस अवतारों में क्रमशः दस अवतारों को अधिक महत्त्व मिला, जिसका एक उदाहरण क्षेमेंद्रकृत दशावतार-चरित है। किंतु इन दस अवतारों में भी राम और कृष्ण अधिक महत्त्व प्राप्त करते गए और अंततः समस्त उत्तर भारत की दैवत भावना इन्हीं में केंद्रीभूत हो गई। हिन्दीभाषी क्षेत्र में राम का आवलंबन लेने वाले काव्य की रचना मुख्यतः अवधी में हुई और कृष्ण से संबंधित काव्य मुख्यतः ब्रजभाषा में लिखा गया। अवध के साथ राम और ब्रज के साथ कृष्ण के संबंध के कारण ही क्रमशः अवधी और ब्रजभाषा को इतना महत्त्व मिला, यद्यपि अवध के सूफी कवियों ने भी अवधी का प्रयोग किया। अपने विशिष्ट धार्मिक आसंगों के कारण ही हिन्दी प्रदेश में ये भाषाएँ इतनी महत्त्वपूर्ण हो गईं कि इनके सामने इस क्षेत्र की अन्य भाषाएँ उपेक्षितप्राय रहीं। इन्हें भी देखें: अवधी भाषा एवं ब्रजभाषा

खड़ीबोली

खड़ीबोली ऐसी ही उपेक्षितप्राय भाषा थी, जिसके व्यवहार का कोई औचित्य या प्रेरकता तत्कालीन पौराणिक मतावलंबी हिन्दू कवियों के लिए नहीं थी। किंतु, जिस समय उत्तर भारत में विभिन्न भक्ति- संप्रदायों का प्रवेश हुआ था, उससे पूर्व ही दिल्ली में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी। इस साम्राज्य की स्थापना के समय दिल्ली में जो मुसलमान आकर बस गए, उनमें सबसे बड़ी संख्या अविभाजित पंजाब के नव- मुस्लिमों की थीं, जिनकी बोली का राजधानी और उसके आस-पास की बोली पर प्रभाव पड़ना स्वाभविक था। राजधानी और उसके आस-पास की जनभाषा से परिचय दिल्ली के स्वदेशी और विदेशी मुस्लिम प्रशासकों और सैनिकों के लिए न केवल स्वाभाविक था, वरन आवश्यक भी। स्थानीय स्त्रियों से विवाह तथा प्रशासनिक आवश्यकताओं के कारण स्थानीय भाषा से परिचय की विवशता इन दो बातों के प्रभाव-स्वरूप दो-तीन पीढ़ियों में ही दिल्ली के शासकों के घर की बोली खड़ीबोली हो गई और शासक जाति के साहित्यकारों ने फ़ारसी के अतिरिक्त खड़ीबोली में भी काव्य-रचना की। अमीर खुसरो (1255-1324) ने हिन्दवी (हिन्दी) को अपनी मातृभाषा कहा और इसमें न केवल कविता की, वरन इसके माधुर्य और गंभीरता पर गर्व भी प्रकट किया। अमीर खुसरो द्वारा प्रयुक्त होने के बाद खड़ीबोली मुख्यत मुसलमान कवियों और लेखकों द्वारा ही साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त होती रही।

खड़ीबोली का प्रचार

खड़ीबोली के भारतव्यापी प्रचार में दिल्ली के मुस्लिम साम्राज्य की राजधानी होने की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण रही है, क्योंकि भारत में मुस्लिम साम्राज्य के विस्तार के साथ इसका भी प्रसार हुआ है। ख़िलज़ी वंश के राजत्व काल में उत्तर भारत के बंगाल तक का क्षेत्र इस साम्राज्य का अंग बन गया और उत्तर भारतीय नगरों और कस्बों की, सैनिक छावनियों और छोटे-बड़े प्रशासन केंद्रों की, संपर्क भाषा खड़ीबोली हो गई। इन केंद्रों में दिल्ली और उसके आसपास के खड़ीबोली-भाषी मुस्लिम और हिन्दू राजकर्मचारी, सैनिक और व्यापारी बस गए। उनके आवागमन का क्रम कई शताब्दियों तक चलता रहा। इससे उत्तर भारतीय नगरों और कस्बों की शिष्ट संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी की जड़े मज़बूत होती चली गईं।

मुस्लिम साम्राज्य

मुस्लिम साम्राज्य के दक्षिण भारत में विस्तार के साथ हिन्दी का प्रसार आंध्र, कर्नाटक आदि प्रदेशों में भी हुआ। अलाउद्दीन ने 1296 ई. में दक्षिण भारत के देवगिरी पर आक्रमण किया। बाद के आक्रमणों द्वारा उसके राजत्व काल में विंध्या पर्वत क्षेत्र से लेकर दक्षिण के समुद्र तट तक की भूमि दिल्ली साम्राज्य के अधीन हो गई। मुहम्मद तुग़लक़ के समय दक्षिण का अधिकांश भाग इस साम्राज्य के अधीन हो गया, जिसे उसने पाँच भागों में विभाजित किया। उसने देवगिरी या दौलताबाद में अपनी राजधानी बनाई, जो मध्यकालीन इतिहास की बहुचर्चित घटनाओं में है। यद्यपि उसने परिस्थितियों के दबाव के कारण पुनः दिल्ली को राजधानी बनाया, किंतु उसके साथ बहुत बड़ी संख्या में दिल्ली के मुसलमानों और हिन्दुओं का आव्रजन दक्षिण भारत में हुआ। उनका एक बड़ा समुदाय दक्षिण में स्थायी रूप में बस गया, किंतु उनके आव्रजन से पूर्व ही, अलाउद्दीन ख़िलज़ी के राजत्वकाल में खड़ीबोली बोलने वाले हिन्दू और मुस्लिम राजकर्मचारियों, सैनिकों और व्यापारियों के दल दक्षिण भारत में फैल चुके थे। बाद में अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा और बीदर में निज़ामशाही, क़ुतुबशाही और बरीदशाही वंशों ने स्वतंत्र राज्यों की स्थापना की, जिनमें बरीदशाही वंश का अस्तित्व शीघ्र ही समाप्त हो गया। दक्षिण के साथ मुग़लों के युग में भी दिल्ली की राजनीतिक प्रतियोगिताएँ चलती रहीं तथा आकमणों का क्रम अटूट जैसा रहा। परिणाम यह हुआ कि दक्षिण में खड़ीबोली न केवल जड़ पकड़ती गई, बल्कि यह वहाँ के साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य का स्वाभाविक अंग बन गई। वहाँ दकनी या दक्खिनी के नाम से खड़ीबोली का विपुल साहित्य रचा गया। इसमें न सिर्फ़ साहित्य लेखन का कार्य हुआ, वरन बीजापुर, गोलकुंडा आदि मुस्लिम रियासतों में राजकाज की भाषा के रूप में इसे प्रतिष्ठा मिली। उल्लेख्य है कि जिस खड़ीबोली को भारतीय संविधान द्वारा स्वतंत्रता के बाद प्रशासनिक महत्त्व मिला है, उसे लगभग प्राय छह सौ वर्ष पूर्व ही दक्षिण में यह महत्त्व प्राप्त हो चुका था।

दक्खिनी हिन्दी

दकनी या दक्खिनी हिन्दी के रचनाकारों की संख्या बहुत बड़ी है। खड़ीबोली गद्य की पहली प्राप्य पुस्तक ख्वाजा बंदेनवाज़ गेसूदराज़ की 'मिराजुल आशिकीन' है, जो सूफ़ी विचारधारा से संबंधित है। इसकी रचना पंद्रहवीं शताब्दी के आरंभ में हुई है। गेसूदराज़ की अन्य कई गद्य रचनाओं का भी उल्लेख मिलता है। मुल्ला वजही की 'सबरस' (1636 ई.) शायद दक्खिनी गद्य परंपरा की सर्वोत्तम रचना है। दक्खिनी में मीराँजी, निज़ामी, मुहम्मदकुली क़ुतुबशाह आदि ने उत्कृष्ट कोटि की कविता की है। दक्खिनी कोई कृत्रिम भाषा नहीं थी, बल्कि यह वहाँ आव्रजन कर बस गए समुदायों की सहज, स्वाभाविक मातृभाषा थी। इसका प्रमाण मीराँजी या शाह मीरन की निम्नलिखित पंक्तियों में मौजूद है।

हमीं बोल अरबी करे,
और फारसी बहुतेरे,
यों हिन्दवी बोले तब,
इस अर्थ भावे सब।
यह भाखा भले सो बोले,
पुन इसका भाव खोले,
वो अरबी बोल न जाने,
न फारसी पछाने॥

इन पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि अरबी और फ़ारसी इन लोगों के लिए पराई भाषा जैसी थी। हिन्दवी (हिन्दी) बोलकर ही इन्हें अपना आशय समझाया जा सकता था।

महत्त्व

आज की खड़ीबोली के इतिहास और इसके वर्तमान स्वरूप के अध्ययन के लिए दक्खिनी का बहुत महत्त्व है। व्याकरणिक संरचना की दृष्टि से यह बाँगरू के बहुत समीप है। बाँगरू की तरह इसमें भी अकारांत पुल्लिंग और स्त्रीलिंग संज्ञा शब्दों का बहुवचन रूप आँ लगाकर बनाया जाता है, जैसे:- घर से घराँ, किताब से किताबाँ आदि। इसमें और के लिए होर का प्रयोग होता है तथा ने का प्रयोग कर्ता कारक के ही प्रसंग में नहीं, वरन कर्म और संप्रदान कारकों के प्रसंग में भी होता है। ये प्रवृत्तियाँ बाँगरू (और पंजाबी) में आज भी जीवित हैं। इसमें के लिए सूँ, स्यों और स्यौं, को के बदले कूं, कभी के लिए कभू आदि रूप मिलते हैं, जैसे:-

(1) अरे ऊधौ सुनौ यह दुख हमन सूं। कहौ टुक जाय परदेसी सजन सूं।

(2) अक्ल अच्छे तो अपस कूं होर दूसरे कूं पछाने।

उत्तर भारत में सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी में खड़ीबोली गद्य की जो रचनाएँ प्रस्तुत हुईं, उनमें भी ये भाषिक विशेषताएँ मिलती हैं, जैसे:- क़ुतुबशतक (1613 ई.) गणेश गोसठ (1658 ई.), भोगलुपुरान (1705 ई.) आदि में दक्खिनी के प्रसंग में यह बात विशेष रूप से रेखांकित करने योग्य है कि उत्तर भारत में लिखित इन गद्य रचनाओं की तरह पंजाबी, राजस्थानी, ब्रज और कनौजी आदि के प्रभावों से युक्त होने के बावज़ूद इसका गद्य आज के खड़ीबोली गद्य से जितनी समीपता रखता है, उतनी समीपता इन रचनाओं के गद्य की भी नहीं। कारण यह है की इनकी भाषा पर ब्रजभाषा का बहुत गहरा प्रभाव है।

दक्खिनी का साहित्य

यद्यपि दक्खिनी का साहित्य अरबी-फ़ारसी लिपि में लिखा गया है कि इसमें अरबी और फ़ारसी के शब्दों की संख्या बहुत है, फिर भी इसमें संस्कृत की शब्द -संख्या कम विस्तृत नहीं है। दक्षिण में बस गए हिन्दुओं और मुसलमानों की सम्मिलित जनभाषा होने के कारण दक्खिनी आज की हिन्दी और उर्दू का सम्मिलित पूर्व रूप है। किंतु, मिलाजुला कर देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी शब्दावली आधुनिक हिन्दी की शब्दावली से अधिक समीपता रखती है। निज़ामी के आख्यान काव्य 'मसनवी कदमराव वो पदमराव' की पंक्तियाँ हैं।

अकास ऊँचा, पाताल धरती धई।
जहाँ कुछ न कोई, वहाँ है तुहीं॥

गोलकुंडा के बादशाह मुहम्मदकुली क़ुतुबशाह की पंक्तियाँ हैं।

बिखरे है कुंतल पेशानी ऊपर।
के बादल पड़े फट पानी ऊपर॥

कुली क़ुतुबशाह की रचनाओं में रोमावली, नयन, जल, रतन आदि सैंकड़ों शब्दों का बड़े मुक्त रूप से प्रयोग हुआ है। इसलिए यह सोचना स्वाभाविक है कि यदि उत्तर भारत में उर्दू और हिन्दी के नाम से खड़ीबोली की दो भिन्न शैलियों का विकास नहीं होता, तो एक सामासिक भाषा के रूप में इसका स्वरूप बहुत कुछ दक्खिनी-जैसा होता।

प्रसार का दूसरा माध्यम

खड़ीबोली के अखिल भारतीय प्रसार का दूसरा माध्यम विभिन्न मध्यकालीन संत संप्रदायों का प्रचारक समुदाय है। उत्तर और दक्षिण के विभिन्न भाषाभाषी साधु-संन्यासियों की संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। इनकी हिन्दी न केवल हिन्दी प्रदेश की विभिन्न बोलियों, बल्कि हिन्दीतर क्षेत्र की बोलियों के रंगों से इंद्रधनुषित खड़ीबोली थी, जिसे 'सधुक्कड़ी' भी कहा गया है। कबीर की रचनाओं में इस सधुक्कड़ी का प्रचुर प्रयोग हुआ है। लेकिन, कबीर से बहुत पहले, लगभग दिल्ली में ग़ुलाम वंश की स्थापना के समांतर, महाराष्ट्र के महानुभाव पंथ के कवियों द्वारा इसके प्रयोग के उदाहरण मिलने लग जाते हैं। महानुभाव पंथ के दामोदर पंडित (बारहवीं शताब्दी) और कवयित्री महदायिसा (तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी) की कुछ रचनाओं की भाषा हिन्दी है। इस पंथ के चक्रपाणि नीलंबकर ने दक्खिनी में 'तीसा' साहित्य रचा, जो देवनागरी लिपि में उपलब्ध हुआ है। नाथपंथ से संबंधित वारकरी संप्रदाय के नामदेव (1271-1351 ई.) एकनाथ (1528-1599 ई.) आदि मराठी कवियों की हिन्दी रचनाएँ तो प्रसिद्ध हैं ही। एकनाथ की हिन्दी गद्य रचनाएँ खड़ीबोली गद्य के सबसे पुराने और साफ़ सुथरे उदाहरणों में हैं। महाराष्ट्र उत्तर और दक्षिण का संधि-प्रदेश है और इसने हिन्दी के अखिल भारतीय प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका संपन्न की है। डॉ. विनयमोहन शर्मा ने 'हिन्दी को मराठी संतों की देन' नामक ग्रंथ में सबसे पहले मराठी संतों की हिन्दी रचनाओं का परिचय दिया था और हाल में डॉ. यू. म.पठान ने 'महाराष्ट्र के महानुभाव साहित्यकारों का हिन्दी साहित्य को योगदान' में इन विषय से संबंधित प्रभूत नई सामग्री दी है। भारत के अन्य प्रदेशों में भी ऐसे भक्त कवि हुए हैं, जिन्होंने साधुसमाज में प्रचलित मिश्रित खड़ीबोली या ब्रजभाषा में कुछ- न कुछ कविता की है।

तीर्थयात्रियों की भूमिका

विभिन्न संप्रदायों के प्रचारक संत और भक्त कवियों की तरह ही खड़ीबोली के प्रसार में देश के तीर्थयात्रियों की भूमिका भी उल्लेख्य रही है। उत्तर के तीर्थयात्री दक्षिण तथा दक्षिण के तीर्थयात्री उत्तर के विभिन्न धामों और तीर्थों की यात्रा शताब्दियों से करते रहे हैं। पिछली शताब्दी के आरंभिक दशकों तक तीर्थयात्राएँ पैदल ही संपन्न होती थीं और देश के विभिन्न भागों के धर्मप्राण लोगों को काशी, प्रयाग, अयोध्या, वृंदावन और बदरिकाश्रम वाले हिन्दी क्षेत्र में बहुत लंबे समय तक, कई महीने यात्रा करते हुए रहना पड़ता था। फलतः उनका संपर्क हिन्दी से हो जाता था और जैसे-जैसे मुस्लिम साम्राज्य के दृढ़ीकरण के साथ उत्तर भारतीय नगरों की संपर्क भाषा खड़ीबोली होती गई, हिन्दी के रूप में वे उत्तर भारत के यात्रा क्षेत्र के विभिन्न नगरों और कस्बों में बारंबार खड़ीबोली ही सुनने लगे तथा उसका एक व्यावहारिक रूप लेकर अपने-अपने प्रदेश लौटने लगे।

हिन्दी से किसी भी भारतीय भाषा को भय नहीं है। यह सबकी सहोदर है।-- महादेवी वर्मा

दक्षिण के तीर्थयात्रियों को, जिनमें से बहुत से लोग दक्खिनी के संपर्क में पहले ही आ चुके होते, महाराष्ट्र से ही एक प्रकार की व्यावहारिक खड़ीबोली सुनाई देने लगती। उनके द्वारा अर्जित इसकी शब्द-संपदा सीमित होने के बावज़ूद उत्तर भारत की यात्रा की अवधि में उनके लिए अत्यंत उपादेय प्रमाणित होती। तीर्थयात्रियों की यह संपर्क भाषा, जो हिन्दीतर क्षेत्र के पंडे-पुरोहितों की सामान्य आजीविका भाषा बनती गई तथा वहाँ की वैकल्पिक बाज़ार भाषा भी बन गई, न केवल उत्तर भारत की यात्रा करने वाले दक्षिण के तीर्थयात्रियों, वरन दक्षिण भारत की यात्रा करने वाली उत्तर के तीर्थायात्रियों के लिए भी उपयोगी बन गई। दक्षिण के विभिन्न तीर्थस्थानों तक जाने वाले विभिन्न मार्गों पर निर्मित धर्मशालाएँ, जहाँ यात्री रात में ठहरते थे, स्थानीय लोगों के साथ हिन्दी के माध्यम से होने वाले संपर्क का केन्द्र बन जाती थी। इन धर्मशालाओं में पास -पड़ोस के गाँवों के ऐसे लोग एकत्र हुआ करते जो इन यात्रियों के प्रदेश, संस्कृति आदि के विषय में जानकारी लेना चाहते थे और इनकी सेवा कर उस पुण्य के भागी बनना चाहते थे जिसकी वासना धर्मप्राण व्यक्तियों में विद्यमान रहा करती है। ऐसे अवसरों पर उनके बीच वे लोग दुभाषिये का काम करते थे, जो उत्तर भारत की यात्रा कर चुके होते और हिन्दी का किसी न किसी रूप में व्यवहार कर सकते थे।

सत्रहवीं शताब्दी

उपर्युक्त राजनीतिक और धार्मिक कारणों से खड़ीबोली सत्रहवीं शताब्दी तक भारतव्यापी हो चुकी थी। इसके साक्षी सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम और अठारहवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशकों में यूरोपीय धर्म प्रचारकों के लिए लिखित हिन्दी व्याकरण है।

  • पहला व्याकरण जॉन जोशुआ कैटलर कृत 'हिन्दुस्तानी भाषा' है, जिसकी रचना 1698 ई. में आगरा में हुई।
  • दूसरा व्याकरण बेंजमिन शूल्ज़ का 'हिन्दुस्तानी व्याकरण' है, जो 1745 ई. में दक्षिण के हैदराबाद में लिखा गया।
  • तीसरे व्याकरण का नाम 'अल्फाबेतुम ब्रम्हानिकुम' है, जिसके लेखक कैसियानो बेलिगत्ती हैं। इसकी रचना 1771 ई. में पटना में हुई।

देश के तीन सुदूरवर्ती केंद्रों में लिखे गए इन व्याकरणों में एक ही बात बार-बार कही गई है। वह यह है कि हिन्दी या हिन्दुस्तानी इनके रचना-स्थलों-आगरा, हैदराबाद और पटना के पार्श्ववर्ती क्षेत्रों की सबसे महत्त्वपूर्ण संपर्क भाषा है। बेंजामिन शूल्ज़ ने लिखा है, कि इस हिन्दुस्तानी भाषा को देवनागरम भी कहा जाता है।

जब से मुसलमान लोग सारे भारत को जीतकर यहाँ रहने लगे तब से उन्होंने यहाँ की हिन्दुस्तानी को अपनी मातृभाषा के रूप में स्वीकार किया। मुग़लों के विस्तृत राज्य में इस भाषा का प्रचार-प्रसार है।

हिन्दी के तीन प्रारंभिक व्याकरण मैथ्यु बेच्चुर, बेलिगत्ती ने इसे न केवल पटना के आस-पास प्रचलित तथा विदेशी यात्रियों द्वारा प्रयुक्त भाषा कहा है, बल्कि इसे तत्कालीन भारत की राष्ट्रभाषा कहा है।

भारतीय पुनर्जागरण

यही कारण है कि अब जब पिछली सदी में भारतीय पुनर्जागरण आरंभ हुआ, तो पूरे देश को जोड़नेवाली भाषा के रूप में खड़ीबोली के महत्त्व की ओर राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन और महर्षि दयानंद जैसे महान नेताओं का ध्यान गया। ब्रह्मसमाज के प्रवर्तक राजा राममोहन राय ने अपने विचारों के प्रचार के लिए 'उदंतमार्त्तण्ड' नामक हिन्दी पत्र प्रकाशित किया। आर्यसमाज के जन्मदाता महर्षि दयानंद ने इसमें अपने विख्यात 'सत्यार्थप्रकाश' तथा अन्य कई पुस्तकों की रचना की और इसे अखिल भारतीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का सबसे पहला सुव्यवस्थित प्रयत्न किया। राजा राममोहन राय के जीवनकाल में ही कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई, जहाँ विदेशियों को हिन्दी सिखलाने के उद्देश्य से गद्य की कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी गईं। विदेशी ईसाई धर्मप्रचारकों ने अपने मत के प्रचार के लिए हिन्दी में जो पुस्तकें तैयार की या कराई, हिन्दी के प्रसार में उनकी भूमिका कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।

हिन्दी का प्रसार

अखिल भारतीय भाषा के रूप में हिन्दी के प्रसार और प्रतिष्ठा की प्रस्तावना सबसे पहले उन महापुरुषों ने की, जो हिन्दीतर प्रदेशों के थे। यह बात भी कम उल्लेख्य नहीं है कि लिखित भाषा के रूप में अपने विकास के आरंभिक युग से ही हिन्दी धर्मनिरपेक्ष भाषा रही है। इसके आरंभिक कवि और लेखक मुसलमान हैं और मुख्यत उन्होंने ही इसके दक्खिनी साहित्य की रचना की है। सबसे पहले उन्होंने ही इसे राजकीय व्यवहार की भाषा के रूप में प्रयुक्त किया है। पिछली सदी से लेकर आज तक ईसाई मिशनरियों से साहित्य और शिक्षा की भाषा के रूप में इसकी प्रतिष्ठा के लिए चिरस्मरणीय कार्य किया है। इसलिए धर्मविशेष के साथ इसको जोड़ना सही नहीं है।

हिन्दी के लिए पिछली सदी कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इस सदी में हिन्दी गद्य का न केवल विकास हुआ, वरन् भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उसे मानक रूप प्रदान किया। इसी सदी में ऐसे महापुरुष उत्पन्न हुए जिन्होंने हिन्दी की पहचान अखिल भारतीय संपर्क सूत्र के रूप में इतिहास द्वारा प्रदत्त भाषा के रूप में की और इसके लिए प्रयत्न आरंभ किया। यह अकारण नहीं है कि महात्मा गाँधी ने हिन्दी के प्रश्न को स्वराज्य का प्रश्न माना, कांग्रेस को इसके प्रचार का एक शक्तिशाली माध्यम बनाया और हिन्दी प्रचार सभाओं की स्थापना की। पिछले छह सौ वर्षों से भारतीय इतिहास ने जिस भाषा को अखिल भारतीय भाषा बनाने की साधना की, उसे सिद्धि तक ले जाने का सबसे बड़ा श्रेय गाँधी जी को है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मूल लेख:- प्रसाद, प्रो. दिनेश्वर (अक्टूबर, 1983) हिन्दी की अखिल भारतीयता का इतिहास। नई दिल्ली: विश्व हिन्दी।

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