हृदयाकाश का धु्रवतारा -अलख भाई
हृदयाकाश का धु्रवतारा -अलख भाई
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लेखक | अशोक कुमार शुक्ला |
प्रकाशक | गद्य कोश पर संकलित |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 80 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | रमेश भाई से जुडे आलेख |
मुखपृष्ठ रचना | ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया (संकलित आलेख) |
<poem style="background:#fbf8df; padding:15px; font-size:14px; border:1px solid #003333; border-radius:5px"> हृदयाकाश का धु्रवतारा: आलेख -अलख भाई
संयोजक, गोरक्षा सत्याग्रह संचालन समिति , सर्वोदय तीर्थ, घाटकोपर (प0)
देश समाज में कुछ ऐसे लोग भी जन्म लेते हैं जिन से समकालीन लोग न केवल सीखते हैं बल्कि प्रेरित भी होते हैं। यह लोग दूसरों के लिए एक ऐसे पथ का निर्माण करते हैं जिससे बहुत समय तक लोग प्रेरणा पाते रहते हैं। इनके प्रकाश से लोग लम्बे समय तक आलोकित रहते हैं।
यह उक्ति चरितार्थ होती है अद्भुत प्रतिभा के धनी, नवनीत हृदय, गांधी - विनोबा के आदर्शों पर जीवन जीने वाले, दीन-हीन लोगों के लिए समर्पित श्री रमेश भाई जी के बारे में । सेवा साधना के इस व्रती को कितने भी संकट में सदैव-सदैव मुस्कराते हुए देखा जा सकता था । कृशगात होने पर भी चेहरे पर दैदीप्यमान तेज उनकी आंतरिक शक्ति, विचारनिष्ठा एवं सेवा का परिचायक था। एक सामान्य व्यक्ति की भांति आपका जीवन संघर्षमय रहा क्योंकि सेवा-साधना के ब्रती व्यक्ति विलास से दूर रहते ही हैं। वैसे भी विचारों को कम उम्र में ही धरती पर उतार कर संस्थाओं को जन्म देना उनको सुदृढ़ करना एवं उनके माध्यम से स्वस्थ परंपराओं को जन्म देना आसान नही होता।
एक शिक्षक परिवार में जन्म लेकर उनको यह तो पता चल ही गया था कि समाज का जो स्वरूप आस-पास दिखाई देता है वह प्रयासपूर्वक बदला भी जा सकता है। पिता बहुत सामाजिक थे एवं शिक्षक होने के नाते बताया करते थे कि बहुत सी इस समाज की प्रचलित बातें अन्धविश्वास की उपज हैं जो आधारहीन हैं एवं मां एक वर्ष की उम्र के बालक को गोद में बिठा कर स्तुतियां सिखाती थीं। शिक्षक, कर्तव्यनिष्ठ ईश्वर पर भरोसा रखने वाली मां की धार्मिकता ही उनकी आध्यात्मिक अभिरूचियों में बदली। किशोरवय में ही वह गीता के प्रति आकर्षित हो गये एवं उसका कई बार परायण किया और गीता पर कई लोगों की टीकाएं पढ़ी। उस समय की लिखी हुयीं कवितायें बहुत आध्यात्मिक जीवन दर्शन से युक्त थीं। रमेश भाई के हृदय में व्याप्त आधात्मिकता ने गांधी-विनोबा विचार के जरिए सही दिशा पायी।
अपने गांव में उन्होंने देखा कि धार्मिक कामों में जैसे रामायण, कथा, भागवत आदि में अनुसूचित जातियों एवं महिलाओं को मुख्य गद्दी नही मिलती उस पर सवंर्ण पुरूषों का ही वर्चस्व रहता है। उन्होंने ऐसे आयोजन कराये जिनमें इन लोगों को स्थान दिया।
धर्मपत्नी उर्मिला जी के साथ स्व0 रमेश भाई एक गांव में ऐसा हो यह बात उच्च जाति के लोगों को बर्दाश्त नही हुयी और वह मारने के लिए लाठी-डन्डे लेकर आ गये परन्तु जिन अनुसूचित जाति के लोगों को धार्मिक अनुष्ठानों में मौका मिला था वह पड़ोस के गांव के लोग भी दूसरी ओर से लाठी-डन्डे लेकर आ गये। कई लोगों ने मिलकर बीच-बचाव किया। उस समय तो यह बात आयी-गई हो गयी परन्तु इसके दो परिणाम हुये एक तो धार्मिक क्रिया-कलापों में हरिजनों और महिलाओं का प्रवेश शुरू हो गया एवं दूसरों को इस बदलती हुयी सामाजिक स्थिति को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
उनको अपने आस-पास परिवारों में यह दिखाई देता था कि लड़कियां-लड़के आगे पढ़ ही नही पाते क्योंकि गांव में स्कूल ही कक्षा पांच तक था। वह स्वयं कक्षा पांच के बाद पांच किलोमीटर पर स्थित गोपामऊ कस्बे में पढ़ने जाते थे। बरसात में जब आडी, स्थानीय नदी, भर जाती तब साथ के लम्बे कद के बडी कक्षाओं के लड़के दोनो तरफ हाथ पकडकर उनको नदी पार कराते। वस्तुतः यह एक सामान्य ग्रामीण बालक की समस्या थी जिसमें शायद अब कुछ परिवर्तन आ सका है। इन सब स्थितियों से गुजरकर उन्होंने गांव में विद्यालय खोलने को निर्णय लिया था जिसको बहुत संघर्ष करके, साधनहीनता में संचालित किया। आज यह शासकीय सहायता से संचालित एक पुराना इन्टर कालेज है जो सर्वोदय आश्रम बनने के पूर्व यहां के संचालकों का एक सामाजिक मंच था। इस स्थान से भूमिहीन किसानों को जमीन आवंटित कराने उनको संगठित करने, उत्कठ महत्वाकांक्षी श्रमदान करने एवं विशाल रैलियों को आयोजित करने के बहुत महत्वांकाक्षी कार्यक्रम संचालित किये गये। यह स्थान सर्वोदय कार्यकर्ताओं, किसानों, मजदूरों, शासन-प्रशासन के लिए जनपद, प्रदेश एवं देश में एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा। यह स्थान कई संस्थाओं का जनक भी बना जहां पर साथियों के साथ बैठकर संस्थाओं के निर्माण एवं संचालन की रूपरेखा बनी एवं धरती पर उतरी।
1983 में सर्वोदय आश्रम की नींव रखने के दिवस का दृष्य
वास्तव में रमेश भाई की कहानी उन संस्थाओं के विकास की भी कहानी है जो उन्होंने अपने कर्मठ साथियों के साथ शून्य से प्रारम्भ की।
विनोबा जी के निर्वाण के बाद किये जाने वाले पदयात्रा कार्यक्रम में ग्रामवासियों के आग्रह एवं साथियों के सुझाव द्वारा टड़ियावां के सिकन्दरपुर गांव में सर्वोदय आश्रम की स्थापना हुयी। सर्वोदय आंदोलन के कई साथी बहुत समय से यह अनुभव कर रहे थे कि इस तरह बिखरकर काम करने की अपेक्षा एक जगह माडल तैयार किया जाये जहॉ से लोग प्रेरणा लेकर अपने को तैयार करें और गरीबों के विकास के लिए काम किया जा सके। वास्तव में यह आश्रम एक सामुदायिक सहजीवन की कल्पना करके बना जिसमें सामाजिक कार्य करने वाले लोग अपने अनुसार कार्य कर सकें।
आश्रम में विद्यालय से शुरूआत हुयी और बाद में किसानों की ऊसर भूमि को सुधारने का भगीरथ प्रयास किया गया। यह प्रयास न केवल एक सफल माडल बना बल्कि इसके जरिये प्रदेश में ऊसर जमीन सुधरने के एक विश्वास का आन्दोलन स्थापित हुआ जिसके परिप्रेक्ष्य में शासन की मदद से कई चरण में प्रदेश की आधी ऊसर जमीन उपजाऊ बनी। आश्चर्य होता है कि एक पुरानी गाड़ी के जरिये कैसे सर्वोदय आश्रम संस्था ने पच्चीस जिलों में एक समय में ऊसर सुधारने के साथ-साथ फसलें उगाने का कार्य किया। वास्तव में सर्वोदय आश्रम की कहानी रमेश भाई के नेतृत्व में समर्पित समर्थ कार्यकर्ताओं के समर्पण की कहानी है जिसने प्रदेश के शीर्ष नेतृत्व को आश्रम में आकर यह देखने को मजबूर किया कि वैज्ञानिकों द्वारा उपजाऊ बनाई जाने वाली भूमि सामान्य लोगों द्वारा कैसे उपचारित की गयी।
आश्रम की दीवार पर अंकित महात्मा गांधी के सुप्रसिद्ध वक्तव्य से श्री मोतीलाल बोरा को परिचित कराते रमेश भाई ऊसर सुधार कार्यक्रम की शुरूआत के अवसर पर तत्कालीन राज्यपाल श्री मोतीलाल बोरा के साथ रमेश भाई
.........और प्रारम्भ हो गया आपका भगीरथ प्रयास । इस कार्यक्रम के माध्यम से प्रदेश में ऊसर जमीनों का परिदृश्य ही बदल गया है। जहॉ कल तक केवल सफेद धूल उड रही थी वहॉ धान और गेहॅू की बालों की पायले बज रहीं हैं। आम आंवला के पेड बौराये नजर आते हैं। केले और नीबू की सुगन्ध लोगों को तरोताजा करती हैं। मेंहदी, मीठा नीम तरह-तरह के फूल अब इस धरती पर उगते हैं। अब किसानों के बच्चे स्कूल जाते हैं। समूहों के माध्यम से अनेक तरह के रोजगार सृजन की नीव पड चुकी है एवं वह ऊसर का किसान अब किसी से कर्ज न लेकर खुद भूस्वामी बनकर स्वाभिमान का अनुभव कर रहा है।
आश्रम के जरिये अनेक माडल स्थापित किये गये हैं एवं अनेक प्रकार के कार्यक्रम संचालित करती हुयी यह संस्था प्रदेश में एक स्थापित नाम है। अनगिनत बच्चों विशेषतौर से वंचित वर्ग की बालिकाओं के लिए यहां आशा का संदेश है। शिक्षा में किए जा रहे प्रयोगों के लिए यह संस्था जानी जाती है।
राष्ट््रीय मंचों पर भी रमेश भाई को निरंतर देखा गया एवं उनकी संगठन कुशलता एवं संवेदनशील प्रशासन ने उन्हें बहुत अधिक लोकप्रिय बनाया। परमश्रद्धेय दीदी निर्मला देशपाण्डेय जी को उनके अन्दर नेतृत्व क्षमता के दर्शन बहुत पहले हो गये थे। जब-जब दीदी से जुडे किसी राष्ट्रीय सम्मेलन का नेतृत्व उनको मिला तब-तब उनके धीर-गम्भीर संतुलित एवं सार्थक वक्तव्य कौशल को लोगों ने सराहा। अनेक मोर्चों पर रमेश भाई उनके विश्वस्ततम् साथी थे। दीदी को रमेश भाई में आन्दोलन को आगे ले जाने की क्षमता दिखाई देती थी। रमेश भाई की बीमारी ने उनको लगभग तोड़ दिया था। उनसे जुड़े कार्यकर्ताओं ने उनसे हमेशा बड़े भाई का प्यार पाया कितने लोगों के पास कितने-कितने संस्मरण हैं उनसे जुडे़ हुये जहां उनकी विशाल हृदयता ने लोगों को सम्मोहित किया एवं उनके नेतृत्व में कार्य करने को अपना सौभाग्य माना। आश्चर्य होता है कि एक व्यक्ति कितने लोगों से जुडे़ होते हुए भी कितना लोगों के करीब हो सकता है। कार्यकर्ताओं से हृदय के अन्तरतम् तक जुड़े रहना शायद उनका सबसे बड़ा कौशल था।
सर्वोदय आश्रम टडियांवा द्वारा बलिकाओं के लिये संचालित विद्यालय अपने प्रारंभिक दौर में जन जागरण के मार्फत मुझे भी सर्वोदय आश्रम सिकन्दरपुर जाने का मौका मिला । मैने हरदोई के विभिन्न गॉवों की पदयात्रा की। जिसका संयोजन स्वंय रमेश भाई ने किया । मैने देखा गॉव - गॉव में बने महिलाओ के समूह, भाइयों के बचत समूह, युवा टोली, सुधारी हुयी जमीने आश्रम से पढे़ हुए बच्चे, बालिकाओं के स्कूल गॉव के स्वावलम्बन की ओर बढ़ने की कहानी कह रहे थे। इस तरह की समुदाय की भागीदारी मुझे कहीं भी देखने को नहीं मिली। मैने महसूस किया कि लोगों का भाई जी के प्रति और भाई जी का लोगों के प्रति जो सहज स्नेह है वह शब्दों से व्यक्त करने की नहीं केवल महसूस करने की चीज है। मेरे साथ जो उनका सम्बन्ध था वह अद्भुत था। उनके साथ मिलकर जो प्रसन्नता मैने अनुभव की वह गूंगे के गुण की तरह शब्दों से प्रकट नही की जा सकती। वह मुझसे कहते थे तुम्हारे साथ रहकर मैं बहुत ऊर्जावान महसूस करता हँू। कवि हृदय, कलम के धनी भाई जी की कविताओं में गॉव के अन्तिम व्यक्ति के दर्द के दर्शन होते हैं।
अनकही व्यथा का बोझा ढोया है बहुत बेचारे ने सो रीढ़ की हड्डी धनुष हो गयी।
इसी स्थायी भाव ने शायद उनको सब कुछ करने की प्रेरणा दी होगी। अपने पीछे करने के लिए बहुत कुछ रमेश भाई छोड़ गये हैं। हम साथियों का भी यही दायित्व है कि भाईजी के द्वारा छोडे गये कार्यों कों निरन्तर आगे बढ़ाते रहें। यही उस विरागी सत्पुरूष को सच्ची श्रृद्धांजलि होगी ।
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