वर्गा
वर्गा का उल्लेख हिन्दू पौराणिक महाकाव्य महाभारत में हुआ है। यह एक अप्सरा थी, जो शापवश मकरी-रूप से सौभद्र तीर्थ में रहती थी तथा अर्जुन द्वारा इसका उद्धार हुआ था।
पौराणिक प्रसंग
दक्षिण समुद्र के तट पर कुछ परम पुण्यमय तीर्थ थे। ये तीर्थ तपस्वी जनों से सुशोभित थे। इनमें से पाँच तीर्थ ऐसे थे, जिन्हें तपस्वियों ने त्याग दिया था। उन तीर्थों के नाम थे- 'अगस्त्यतीर्थ', 'सौभद्रतीर्थ', परमपावन 'पौलोतीर्थ', अश्वमेघ का फल देने वाला स्वच्छ 'कारन्धमतीर्थ' तथा पापनाशक महान 'भारद्वाज तीर्थ'। कुरुश्रेष्ठ अर्जुन भी इन तीर्थों का दर्शन करने गए थे। उन्होंने देखा कि वहाँ आने वाले तपस्वी सभी तीर्थो का दर्शन तो करते हैं, किंतु उनमें से पाँच तीर्थों का दर्शन नहीं करते। कुरुनन्दन धनंजय ने दोनों हाथ जोड़कर तपस्वी मुनियों से पूछा- "वेदवक्ता ऋषिगण इन तीर्थों का परित्याग किसलिये कर रहे हैं?" तपस्वी बोले- "कुरुनन्दन! उन तीर्थों में पांच घड़ियाल रहते हैं, जो नहाने वाले तपोधन ऋषियों को जल के भीतर खींच ले जाते हैं; इसीलिये ये तीर्थ मुनियों द्वारा त्याग दिये गये हैं।"[1]
उनकी बातें सुनकर अर्जुन भी उन तीर्थों का दर्शन करने के लिये लिये गये। शूरवीर अर्जुन महर्षि सुभद्र के उत्तम सौभद्र तीर्थ में सहसा उतरकर स्नान करने लगे। इतने में ही जल के भीतर विचरने वाले एक महान ग्राह ने कुन्तीकुमार धनजंय का एक पैर पकड़ लिया। परंतु बलवानों में श्रेष्ठ महाबाहु कुन्तीकुमार बहुत उछल कूद मचाते हुए उस जलचर जीव को लिये जल से बाहर निकाल लाये। अर्जुन द्वारा जल के बाहर खींच लाने पर वह ग्राह समस्त आभूषणों से विभूषित एक परम सुन्दरी नारी के रूप में परिणत हो गया। अर्जुन उस स्त्री से बोले- "कल्याणी! तुम कौन हो और कैसे जलचर योनि को प्राप्त हुई थी?" उस नारी ने कहा- "महाबाहो! मैं नन्दन वन में विहार करने वाली एक अप्सरा हूँ। मेरा नाम वर्गा है। मैं कुबेर की नित्यप्रेयसी रही हूँ। मेरी चार दूसरी सखियाँ भी हैं। वे सब इच्छानुसार गमन करने वाली और सुन्दरी हैं। उन सब के साथ एक दिन मैं लोकपाल कुबेर के घर पर जा रही थी। मार्ग में हमने उत्तम व्रत का पालन करने वाले एक ब्राह्मण को देखा। हम सभी अप्सराएं उनके तप भंग में डालने की इच्छा से उस स्थान में उतर पड़ीं। उस ब्राह्मण ने हम सब अप्सराओं को शाप दे दिया। उस ब्राह्मण का शाप सुनकर हम सब अप्सराओं को बड़ा दु:ख हुआ। हम सब अत्यन्त दुःखी हो उस स्थान से अन्य स्थान पर चली आयीं और इस चिन्ता में पड़ गयी कि कहाँ जाकर हम सब लोग रहें, जिससे थोड़े ही समय में हमें वह मनुष्य मिल जाय, जो हमें पुनः हमारे पूर्व स्वरूप की प्राप्ति करायेगा। भरतश्रेष्ठ ! हम लोग दो घड़ी से इस प्रकार सोच-विचार कर ही रही थीं कि हम को महाभाग देवर्षि नारद जी का दर्शन प्राप्त हुआ। उन्होनें हमारे दुःख का कारण पूछा और हमने उनसे सब कुछ बता दिया। सारा हाल सुनकर वे इस प्रकार बोले- "दक्षिण समुद्र के तट के समीप पाँच तीर्थ हैं, जो परम पुण्यजनक तथा अत्यन्त रमणीय है। तुम सब उन्हीं में चली जाओ, देर न करो। वहाँ पुरूषों में श्रेष्ठ धनंजय शीघ्र ही पहुँचकर तुम्हें इस दुःख से छुडायेंगे। वीर अर्जुन नारद जी का वचन सुनकर हम सब सखियाँ यहीं चली आयीं और आपके द्वारा अब हम शापमुक्त हुई हैं।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
महाभारत शब्दकोश |लेखक: एस. पी. परमहंस |प्रकाशक: दिल्ली पुस्तक सदन, दिल्ली |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 95 |
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 215 श्लोक 1-19 (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 19 जून, 2016।
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