पुंजिकस्थली
पुंजिकस्थली देवराज इन्द्र की सभा में एक अप्सरा थी। एक बार जब दुर्वासा ऋषि इन्द्र की सभा में उपस्थित थे, तब अप्सरा पुंजिकस्थली बार-बार भीतर आ-जा रही थी। इससे रुष्ट होकर दुर्वासा ऋषि ने उसे वानरी हो जाने का शाप दे डाला। जब उसने बहुत अनुनय-विनय की, तो उसे इच्छानुसार रूप धारण करने का वर मिल गया। इसके बाद गिरज नामक वानर की पत्नी के गर्भ से इसका जन्म हुआ और 'अंजना' नाम पड़ा। केसरी नाम के वानर से इनका विवाह हुआ और इनके ही गर्भ से वीर हनुमान का जन्म हुआ।
दुर्वासा का शाप
पुंजिकस्थली देवताओं के राजा इंद्र की प्रमुख अप्सराओं में से एक थी। एक दिन महर्षि दुर्वासा स्वर्ग में पधारे। सब के सब महर्षि के सम्मुख शांत खड़े थे, किंतु अप्सरा पुंजिकस्थली किसी कार्य से बार-बार सभा भवन से बाहर आ-जा रही थी। महर्षि को इसमें अपना कुछ निरादर प्रतीत हुआ और उन्होंने उसे शाप दे दिया- 'तू बंदरिया के समान चंचल है, अत: वानरी हो जा। अप्सरा पुंजिकस्थली ने महर्षि से क्षमा मांगी और अपने उद्धार की प्रार्थना की। वहाँ पर उपस्थित अन्य लोगों ने भी महर्षि की वंदना की और उनसे पुंजिकस्थली को क्षमादान देने की प्रार्थना की। अंतत: महर्षि ने शाप का परिहार किया कि- "तू स्वेछारूप धारण कर सकेगी और तीनों लोकों में तेरी गति होगी।"
वानरी रूप में जन्म
बाद के समय में पुंजिकस्थली ने वानर श्रेष्ठ विरज की पत्नी के गर्भ से वानरी रूप में जन्म लिया। बड़ी होने पर पिता ने अपनी सुंदरी शीलवती पुत्री का विवाह महान् पराक्रमी कपि शिरोमणी वानरराज केसरी से कर दिया।[1]
एक बार घूमते हुए केसरी प्रभास तीर्थ के निकट पहुँचे। उन्होंने देखा कि बहुत-से ऋषि वहाँ एकत्र हैं। कोर्इ स्नान कर रहा है, कोर्इ तर्पण कर रहा है। कोर्इ सूर्य को को अर्ध्य दे रहा है और कोर्इ जल में खड़े-खड़े जप कर रहा है। कुछ साधु किनारे पर आसन लगाकर पूजा अर्चना कर रहे थे। उसी समय वहाँ एक विशाल हाथी आ गया और उसने ऋषियों को मारना प्रारंभ कर दिया। ऋषि भारद्वाज आसन पर शांत होकर बैठे थे, वह दुष्ट हाथी उनकी ओर झपटा। पास के पर्वत शिखर से केसरी ने हाथी को यूँ उत्पात मचाते देखा तो वे भयंकर गर्जना करते हुए हाथी पर कूद पड़े। ठीक हाथी के उपर ही वे गिरे। बलपूर्वक उसके बड़े-बड़े दांत उन्होंने उखाड़ दिये और उसे मार डाला। हाथी के मारे जाने पर प्रसन्न होकर मुनी ने कहा- "पुत्र वर मांगो"। केसरी ने वरदान माँगा- "इच्छानुसार रूप धारण करने वाला, पवन के समान पराक्रमी तथा रुद्र के समान शत्रु के लिये काल पुत्र आप मुझे प्रदान करें।" ऋषियों ने 'एवमस्तु' कह दिया।
हनुमान की माता
एक दिन अंजना मानव रूप धारण कर सुदर वस्त्रालंकार से सुसज्जित होकर पर्वत के शिखर पर विचरण कर रही थी। वे डूबते हुए सूरज की खूबसूरती को देखकर प्रसन्न हो रहीं थी। सहसा वायु वेग उनके समीप ही बढ़ गया। उनका वस्त्र कुछ उड़-सा गया। उन्होंने चारों तरफ गौर से देखा आस-पास के पृक्षों के पत्ते तक नहीं हिल रहे थे। उनके मन में विचार आया कि कोर्इ राक्षस अदृश्य होकर कोर्इ धृष्टता तो नहीं कर रहा। अत: वे जोर से बोलीं- "कौन दुष्ट मुझ पतिपरायणा का अपमान करने की चेष्टा करता है?" सहसा सामने पवन देव प्रकट हो गये और बोले- "देवी, क्रोध न करें और मुझे क्षमा करें। जगत् का श्वास रूप मैं पवन हूँ। अपके पति को ऋषियों ने मेरे समान पराक्रमी पुत्र होने का वरदान दिया है। उन्हीं महात्माओं के वचनों से विवश होकर मैंने आपके शरीर का स्पर्श किया है। मेरे अंश से आपको एक महातेजस्वी बालक प्राप्त होगा। उन्होंने आगे कहा- "भगवान रुद्र मेरे स्पर्श द्वारा आप में प्रविस्ट हुए हैं। वही आपके पुत्र रूप में प्रकट होंगे।" वानरराज केसरी के क्षेत्र में भगवान रुद्र ने स्वयं अवतार धारण किया। रामदूत हनुमान ने माता अंजना की कोख से जन्म लिया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ माता अंजना (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 18 अक्टूबर, 2013।