भारतीय संस्कृति का अर्थ
मनुष्य की अमूल्य निधि उसकी संस्कृति है। संस्कृति एक ऐसा पर्यावरण है, जिसमें रहकर व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी बनता है, और प्राकृतिक पर्यावरण को अपने अनुकूल बनाने की क्षमता अर्जित करता है। 'होबेल' का मत है, ‘वह संस्कृति ही है, जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्तियों से, एक समूह को दूसरे समूहों से और एक समाज को दूसरे समाजों से अलग करती है।’
संस्कृति का अर्थ
- सामान्य अर्थ में, संस्कृति सीखे हुए व्यवहारों की सम्पूर्णता है। लेकिन संस्कृति की अवधारणा इतनी विस्तृत है कि उसे एक वाक्य में परिभाषित करना सम्भव नहीं है। वास्तव में मानव द्वारा अप्रभावित प्राकृतिक शक्तियों को छोड़कर जितनी भी मानवीय परिस्थितियाँ हमें चारों ओर से प्रभावित करती हैं, उन सभी की सम्पूर्णता को हम संस्कृति कहते हैं, और इस प्रकार संस्कृति के इस घेरे का नाम ही ‘सांस्कृतिक पर्यावरण’ है।
- दूसरे शब्दों में, ‘संस्कृति एक व्यवस्था है, जिसमें हम जीवन के प्रतिमानों, व्यवहार के तरीकों, अनेकानेक भौतिक एवं अभौतिक प्रतीकों, परम्पराओं, विचारों, सामाजिक मूल्यों, मानवीय क्रियाओं और आविष्कारों को शामिल करते हैं।’
- सर्वप्रथम वायुपुराण में ‘धर्म’, ‘अर्थ’, ‘काम’, तथा ‘मोक्ष’ विषयक मानवीय घटनाओं को ‘संस्कृति’ के अन्तर्गत समाहित किया गया। इसका तात्पर्य यह हुआ कि मानव जीवन के दिन-प्रतिदिन के आचार-विचार, जीवन शैली तथा कार्य-व्यवहार ही संस्कृति कहलाती है।
- मानव समाज के धार्मिक, दार्शनिक, कलात्मक, नीतिगत विषयक कार्य-कलापों, परम्परागत प्रथाओं, खान-पान, संस्कार इत्यादि के समन्वय को संस्कृति कहा जाता है। अनेक विद्वानों ने संस्कार के परिवर्तित रूप को ही संस्कृति स्वीकार किया है।
संस्कृति की व्यापकता
नृविज्ञान में 'संस्कृति' शब्द का प्रयोग अत्यन्त व्यापक अर्थ में होता है। प्रसिद्ध मानव विज्ञानी 'मैलिनोव्स्की' के अनुसार, ‘मानव जाति की समस्त सामाजिक विरासत या मानव की समस्त संचित सृष्टि का ही नाम संस्कृति है।’ इस अर्थ में संस्कृति में शामिल है, मानव निर्मित वह स्थूल वातावरण, जिसे मानव ने अपने उद्यम, कल्पना ज्ञान-विज्ञान और कौशल द्वारा रचकर प्राकृतिक जगत के ऊपर एक स्वनिर्मित कृत्रिम जगत स्थापित किया। नृविज्ञान इस मानव द्वारा निर्मित कृत्रिम जगत को ही संस्कृति की संज्ञा देता है। इस कृत्रिम जगत को रचने की प्रक्रिया में संस्कृति के अन्तर्गत विचार, भावना, मूल्य, विश्वास, मान्यता, चेतना, भाषा, ज्ञान, कर्म, धर्म इत्यादि जैसे सभी अमूर्त तत्त्व स्वयमेव शामिल हैं, जबकि दूसरी ओर संस्कृति में विज्ञान और प्रौद्यागिकी एवं श्रम और उद्यम से सृजित भोजन, वस्त्र, आवास और भौतिक जीवन को सुविधाजनक बनाने वाले सभी मूर्त और अमूर्त स्वरूप भी शामिल हैं। मानवविज्ञान संस्कृति के अमूर्त स्वरूपों को आध्यात्मिक संस्कृति कहता है और मूर्त रूपों को भौतिक संस्कृति की संज्ञा देता है। इस प्रकार इन दोनों संस्कृतियों के संयुक्त विकास से परिष्कार पाकर मनुष्य सुसंस्कृत बनता है।
संस्कृति का शाब्दिक अर्थ
‘संस्कृति’ शब्द संस्कृत के ‘कृ’ धातु से ‘क्तिन’ प्रत्यय और ‘सम’ उपसर्ग को जोड़कर बना है। सम+कृ+क्ति = संस्कृति। वास्तव में संस्कृति शब्द का अर्थ अत्यन्त ही व्यापक है, कुछ विद्वान संस्कृति को संस्कार का रूपान्तरित शब्द मानते हैं। विभिन्न विद्वानों ने संस्कृति की परिभाषाएँ कुछ इस प्रकार दी हैं-
- रेडफ़ील्ड के अनुसार -
‘संस्कृति, कला और वास्तुकला में स्पष्ट होने वाले परम्परागत ज्ञान का वह संगठित रूप है, जो परम्परा के द्वारा संरक्षित होकर मानव समूह की विशेषता बन जाता है।’
- ह्वाइट के अनुसार -
‘संस्कृति एक प्रतीकात्मक, निरन्तर, संचयी एवं प्रतिशील प्रक्रिया है।’
- ई.बी.टेलर के अनुसार -
‘उन सभी वस्तुओं के समूह को, जिनमें ज्ञान, धार्मिक विश्वास, कला, नैतिक क़ानून, परम्पराएँ तथा वे अन्य सभी योग्यताएँ सम्मिलित होती हैं, जिन्हें कोई मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते सीखता है, संस्कृति कहते हैं।’
- कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी के शब्दों में -
‘संस्कृति जीवन की उन अवस्थाओं का नाम है, जो मनुष्य के अन्दर व्यवहार, लगन और विवेक पैदा करती है। यह मनुष्यों के व्यवहारों को निश्चित करती है, उनके जीवन के आदर्श और सिद्धान्तों को प्रकाश प्रदान करती है।’
- पं. जवाहरलाल नेहरू ने संस्कृति के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा है कि -
‘संस्कृति का अर्थ मनुष्य का आन्तरिक विकास और उसकी नैतिक उन्नति है, पारम्परिक सदव्यवहार है और एक-दूसरे को समझने की शक्ति है।’
- वस्तुत: संस्कृति से आशय मानव की मानसिक, नैतिक, भौतिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं कलात्मक जीवन की समस्त उपलब्धियों की समग्रता से है।
- टी.एस.इलियट के अनुसार -
‘शिष्ट व्यवहार, ज्ञानार्जन, कलाओं के आस्वादन इत्यादि के अतिरिक्त किसी जाति की अथवा वे समस्त राष्ट्रीय क्रियाएँ एवं कार्य-कलाप, जो उसे विशिष्टता प्रदान करते हैं, संस्कृति के अंग है।’
- ओसवाल्ड स्पेनलर के अनुसार -
‘सभ्यता संस्कृति की अनिवार्य परिणति है। सभ्यता से किसी संस्कृति की बाहरी चरम एवं कृत्रिम अवस्था का बोध होता है। संस्कृति विस्तार है, तो सभ्यता कठोर स्थिरता।’
- बीरस्टीड के अनुसार -
‘संस्कृति एक जटिल सम्पूर्णता है, जिसमें वे सभी बातें सम्मिलित हैं, जिन पर हम विचार करते हैं, कार्य करते हैं और एक समाज के एक सदस्य के रूप में अपने पास रखते हैं।’
- ब्रानिस्ला मैलिनोव्स्की के अनुसार -
‘संस्कृति एक सामाजिक विरासत है, जिसमें परम्परागत कला-कौशल, वस्तु सामग्री, यान्त्रिक कार्य-कलाप, आचार-विचार, प्रवृत्तियाँ तथा मूल्य समावेशित होते हैं।’
- सत्यकेतु विद्यालंकर ने लिखा है -
‘मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग कर कर्म के क्षेत्र में जो सृजन करता है, उसको संस्कृति कहते हैं।’
- रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार -
‘संस्कृति मानव जीवन में उसी तरह व्यापत है, जिस प्रकार फूलों में सुगन्ध और दूध में मक्खन। इसका निर्माण एक या दो दिन में नहीं होता, युग-युगान्तर में संस्कृति निर्मित होती है।’
- हर्सकोविट्स -
हर्सकोविट्स ने संस्कृति को मनुष्य का समस्त सीखा हुआ वयवहार कहा है, अर्थात् वे चीजें जो मनुष्य के पास हैं, वे चीजें जो वे करते हैं और वह सब जो वे सोचते हैं, संस्कृति है।
- वस्तुत: भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृति है। अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती रही हैं, किन्तु भारतीय संस्कृति आदि काल से ही अपने परम्परागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। इसकी उदारता तथा समन्यवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों को समाहित तो किया है, किन्तु अपने अस्तित्व के मूल को सुरक्षित रखा है। तभी तो पाश्चात्य विद्वान अपने देश की संस्कृति को समझने हेतु भारतीय संस्कृति को पहले समझने का परामर्श देते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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