ज्वार
ज्वार विश्व की एक मोटे अनाज वाली महत्वपूर्ण फ़सल है। वर्षा आधारित कृषि के लिये ज्वार सबसे उपयुक्त फ़सल है। ज्वार फ़सल का दोहरा लाभ मिलता है। मानव आहार के साथ-साथ पशु आहार के रूप में इसकी अच्छी खपत होती है। ज्वार की फ़सल कम वर्षा में भी अच्छा उपज दे सकती है। एक ओर जहाँ ज्वार सूखे का सक्षमता से सामना कर सकती है, वहीं कुछ समय के लिये भूमि में जलमग्नता को भी सहन कर सकती है। ज्वार का पौधा अन्य अनाज वाली फ़सलों की अपेक्षा कम प्रकाश संश्लेशण एवं प्रति इकाई समय में अधिक शुष्क पदार्थ का निर्माण करता है। ज्वार की पानी उपयोग करने की क्षमता भी अन्य अनाज वाली फ़सलों की तुलना में अधिक है। वर्तमान समय में भारत में ज्वार की खेती मध्य प्रदेश, उडीसा, उत्तर प्रदेश तथा पंजाब राज्यों में बहुतायत में की जाती है। ज्वार के दाने का उपयोग उच्च गुणवत्ता वाला एल्कोहल बनाने में भी किया जाता हैं।
जलवायु
ज्वार ऊष्ण जलवायु की फसल है, परन्तु शीघ्र पकने वाली जातियाँ ठन्डे प्रदेशों में भी गर्मी के दिनों में उगाई जा सकती है । ज्वार की फ़सल में बाली निकलते समय 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापक्रम फ़सल के लिए हानिकारक हो सकता है।[1]
भूमि का चुनाव
मटियार, दोमट या मध्यम गहरी भूमि, पर्याप्त जीवाश्म तथा भूमि का 6.0 से 8.0 पी.एच. ज्वार के लिये सर्वाधिक उपयुक्त पाया गया है। खेत में पानी का निकास अच्छा होना चाहिये। गर्मी के समय खेत की गहरी जुताई भूमि उर्वरकता, खरपतवार, रोग एवं कीट नियंत्रण की दृष्टि से आवश्यक है। खेत को ट्रैक्टर से चलने वाले कल्टीवेटर या बैल जोड़ी से चलने वाले बखर से जुताई कर ज़मीन को अच्छी तरह भुरभुरी कर पाटा चलाकर बोनी हेतु तैयार करना चाहिए।
किस्म व बीज
ज्वार की खेती के लिए उपयुक्त अनुशंसित किस्मों का चुनाव करना चाहिए। किसी भी क्षेत्र के लिए अनुमोदित किस्मों का बीज ही बोया जाना चाहिए। जहाँ तक संभव हो प्रमाणित संस्थाओं के ही बीज का उपयोग करना उचित रहता है, या उन्नत किस्मों का स्वयं का बनाया हुआ बीज ही प्रयोग में लाना चाहिए। ज्वार की संकर किस्म वह होती है, जिसका बीज दो अंत:प्रजात किस्मों के संकरण से बनाया जाता है। बोने के लिये प्रति वर्ष नया संकर बीज उपयोग में लाना आवश्यक होता है। संकर जातियॉं सी.एस.एच.14, सी.एस.एच.16, सी.एस.एच.17 तथा सी.एस.एच.18 किसानों के बोने के लिये उपयुक्त हैं। विपुल उत्पादन देने वाली किस्मों का विकास दो अथवा अधिक किस्मों से संकरण के बाद ही पीढि़यों से चयनित श्रेष्ठ पौधों से किया जाता है। इन किस्मों के खेतों से किसान स्वयं सही लक्षण वाले 3000-4000 भूट्टो को छांटकर रखें और अगले वर्ष बीज के रूप में उपयोग में ला सकते हैं। प्रति वर्ष नया बीज खरीदना आवश्यक नहीं है।
बीज उपचार
बीजोपचार के दौरान फफूँद नाशक दवा 'थायरम' 3 ग्राम, प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करना चाहिये। फफूँद नाशक दवा से उपचार के उपरांत एवं बोनी के पूर्व 10 ग्राम 'एजोस्प्रिलियम' एवं 'पी.एस.बी.' कल्चर का उपयोग प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से अच्छी तरह मिलाकर किया जाता है। कल्चर के उपयोग से ज्वार की उपज में आंशिक वृद्धि पाई गई है। उपचारित बीज को धूप से बचाकर रखें तथा बुवाई शीघ्रता से कर देनी चाहिए। अधिक उत्पादन प्राप्त करने हेतु ज्वार की विपुल उत्पादन देने वाली जातियों तथा संकर जातियों में पौध संख्या 1,80,000 (एक लाख अस्सी हज़ार) प्रति हेक्टेयर रखी जाती है। बीज को कतारों में 45 सेमी. दूरी पर बोया जाता है। पौधों से पौधों का अंतर 12 सेमी. रखें। द्विउद्द्धेशीय (दाना एवं कड़बी) वाली नई किस्मों जैसे 'जवाहर ज्वार 1022', 'जवाहर ज्वार 1041' एवं 'सी.एच.एस. 18' की पौध संख्या दो लाख दस हज़ार प्रति हेक्टेयर रखना चाहिए। यह पौध संख्या फ़सल को कतारों से कतारों की दूरी 45 सेमी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी. पर रखकर प्राप्त की जा सकती है।[1]
- अंकुरण के बाद पौधे जब 8 से 10 दिन के हो तब विरलन करते समय कतारों में 10 से 12 सेमी. की दूरी पर एक स्वस्थ पौधा रखा जाता है। शेष सभी पौधे निकाल दिये जाते हैं। उसके पश्चात यदि हल्की वर्षा हो रही हो, तो इस समय जहाँ पौध नहीं हो, वहाँ पर दूसरा पौधा रोपा जा सकता है। सही जातियों का चुनाव, सही समय पर बोनी, उचित समय पर पौध विरलन तथा सही पौध संख्या रखना कम लागत ख़र्च से अधिक उत्पादन प्राप्त करने की तकनीक है।
खाद एवं उर्वरक
ज्वार भूमि से 130-150 किलोग्राम नत्रजन, 50-55 किलोग्राम स्फुर तथा 100-130 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर लेती है। ज्वार की फ़सल में एक किलोग्राम नत्रजन (नाइट्रेट्स) देने से नई उन्नत जातियों में 15 से 16 किलोग्राम दाना मिलता है। अच्छी उपज के लिये 80 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम स्फुर तथा 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिये। बोनी के समय नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर और पोटाश की पूरी मात्रा बीज के नीचे दी जाती है। नत्रजन की शेष मात्रा जब फ़सल 30-35 दिनों की हो जाये, यानि पौधे जब घुटनों की ऊंचाई के हो, तब पौधों से लगभग 10-12 सेमी. की दूरी पर साईड ड्रेसिंग के रूप में देकर डोरा चलाकर भूमि में मिला देना चाहिए। जहाँ गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट खाद उपलब्ध हो, वहाँ 5 से 10 टन प्रति हेक्टेयर देना लाभदायक होता है तथा इससे ज्वार से अधिक उत्पादन प्राप्त होता है।
खरपतवार नियंत्रण
ज्वार फ़सल में खरपतवार नियंत्रण हेतु कतारों के बीच 'व्हील हो' या 'डोरा', बोनी के 15-20 दिन बाद एवं 30-35 दिन बाद चलायें। इसके पश्चात कतारों के अंदर हाथों द्वारा निराई करें। संभव हो तो कुल्पे के दांते में रस्सी बांधकर पौधों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए। रासायनिक नियंत्रण में 'एट्राजीन' 0.5-1.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर सक्रिय तत्त्व अथवा 'एलाक्लोर' 1.5 किलोग्राम सक्रिय तत्व को 500 लीटर जल में मिलाकर बोनी के पश्चात एवं अंकुरण के पूर्व छिड़कना चाहिए। अंगिया ग्रस्त खेत में ज्वार के अनुकूल मौसम होने पर भी भुट्टे में दाने नहीं भरते हैं। निंदानाशक दवाओं के छिड़काव से अंगिया की रोकथाम की जा सकती है। जब अंगिया की संख्या सीमित होती है तब अगिया को उखाड़कर नष्ट किया जा सकता है।[1] == औद्यौगिक फ़सल== सफ़ेद ज्वार के आटे से ब्रेड, बिस्किट एवं केक बनाये जा सकते हैं। ज्वार के आटे के स्वाभाविक रूप से मीठा होने के कारण चीनी की मात्रा कम रखकर मधुमेह रोगियों के लिए अच्छा स्नैक तैयार किया जा सकता है। ब्रेड बनाने के लिए ज्वार और गेहूँ के आटे की मात्रा 60 प्रतिशत + 40 प्रतिशत रखी जाती है। इसके अतिरिक्त सामान्य रूप से बीयर, जौ, मकई अथवा धान से तैयार की जाती है, परन्तु ज्वार के अनाज से भी स्वादिष्ट एवं सुगंधित बीयर बनाई जा सकती है, जो अन्य धान्य से बनाई बीयर से सस्ती पड़ती है। ज्वार से बनाये जाने वाली बीयर के उपयोग में बढ़ोतरी से ज्वार की औद्यौगिक माँग बढ जायेगी।
फ़सल के प्रमुख कीट
ज्वार की फ़सल में अनेक प्रकार के कीट पाए जाते हैं। इनमें प्रमुख है, तना छेदक मक्खी, तना छेदक इल्ली और भुट्टों के कीट। मुख्यत: मिज मक्खी अधिक हानि पहुँचाती है।
तना छेदक मक्खी
यह कीट वयस्क घरेलू मक्खी की तुलना में आकार में छोटी होती है। इसकी मादा पत्तों के नीचे सफ़ेद अंडे देती हैं। इन अंडे से 2 से 3 दिनों में इल्लियाँ निकलकर पत्तों के पोंगलों से होते हुए तनों के अंदर प्रवेश करती हैं और तनों के बढ़ने वाले भाग को नष्ट करती हैं। ऐसे पौधों में भुट्टे नहीं बन पाते हैं।
- नियंत्रण - यदि बोनी वर्षा के आगमन के पूर्व अथवा वर्षा के आरंभ के एक सप्ताह में कर ली जाये, तो इस कीट से हानि कम होती है। बीजोत्पादन क्षेत्र में बोनी के समय बीज के नीचे 'फोरेट' 10 प्रतिशत अथवा 'कार्बोफयुरान' 3 प्रतिशत दानेदार कीट नाशक 12 से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से दें।
तना छेदक इल्ली
इस कीट की वयस्क मादा मक्खी पत्तों की निचली सतह पर 10 से लेकर 80 के गुच्छों में अंडे देती है, जिससे 4 से 5 दिनों में इल्लियाँ निकलकर पत्तों के पोंगलों में प्रवेश करती हैं। तनों के अंदर में सुरंग बनाती हैं और अंतत: नाड़ा बनाती हैं। इस कीट की पहचान पत्तों में बने छेदों से की जा सकती है, जो इल्लियाँ पोंगलों में प्रवेश के समय बनाती हैं।[1]
- नियंत्रण - पौधे जब 25-35 दिनों की अवस्था के हों, तब पत्तों के पोंगलों में 'कार्बोफ्युरान' 3 प्रतिशत दानेदार कीट नाशक के 5 से 6 दाने प्रति पौधे की मात्रा में डालें। लगभग 8 से 10 किलोग्राम कीटनाशक एक हेक्टेयर के लिये लगता है। दानेदार कीट नाशक महंगे हैं, अत: इस कीट की संतोषजनक रोकथाम 'इंडोसल्फान' 4 प्रतिशत अथवा 'क्यूनालफास' 1.5 प्रतिशत चूर्ण का देना पोंगलों में भुरकाव द्वारा देना संभव है। यदि तना छेदक इल्ली का नियंत्रण फ़सल की प्रारंभिक अवस्था में न किया जाये, तो भुट्टो के डंठलों में इल्लियाँ प्रवेश कर सुरंग बनाती हैं। परिणामस्वरूप भुट्टो में बढ़ते हुये दानों को पर्याप्त मात्रा में जल तथा पोषक तत्व उपलब्ध नहीं हो पाता है। ऐसे भुट्टो में दाने आकार में छोटे रह जाते हैं अथवा अनेक बार दाने नहीं बन पाते हैं।
भुट्टो के कीट
मीज मक्खी कीट का प्रकोप महाराष्ट्र से लगे ज़िलों में अधिक देखा जाता है। सामान्यत: तापमान जब गिरने लगता है, तब कीट दिखाई देता है। इस कीट की वयस्क मादा मक्खी नारंगी रंग या लाल रंग की होती है, जो फूलों के अंदर अंडे देती है। अंडों से 2 से 3 दिन में इल्लियाँ निकलकर फूलों के अंडकोषों को खाकर नष्ट करती हैं। परिणामस्वरूप भुट्टो में कई जगह दाने नहीं बन पाते। अन्य कीटों की इल्लियाँ भुट्टों में जाले बनाती हैं अथवा बढ़ते हुये दाने खाकर नष्ट करती हैं। कुछ रस चूसक कीट दानों से रस चूस लेते हैं।
- नियंत्रण - खेत में जब 90 प्रतिशत पौधों में भुट्टे पोटों से बाहर निकल आयें, तब भुट्टों पर 'इण्डोसल्फ़ान' 35 ई.सी. (1 लीटर प्रति हेक्टेयर) अथवा 'मेलाथियान' 50 ई.सी. (1 लीटर प्रति हेक्टेयर) तरल कीट नाशक को 500-600 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। आवश्यकता होने पर 10-15 दिनों बाद छिड़काव दोहराया जाना चाहिए। यदि तरल कीटनाशक उपलब्ध न हो, तो 'इण्डोसल्फ़ान' 4 प्रतिशत अथवा 'मेलाथियान' 5 प्रतिशत चूर्ण का भुरकाव 12 से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग किया जाता है।
रोग
ज्वार की देसी किस्मों के पत्तों पर अनेक प्रकार के चित्तिदार पर्ण रोग देखे जा सकते हैं, परंतु संकर किस्मों और नई उन्नत किस्मों के पत्तों पर पर्ण चित्ती रोग कम दिखाई देते हैं, क्योंकि उनमें इन रोगों के लिए प्रतिरोधिक क्षमता या आनुवाशिक गुण होता है। 'कंडवा रोग' भी नई किस्मों में नहीं दिखाई देता है। पौध सड़न अथवा कंडवा का नियंत्रण बीज को कवक को नाश करने वाली दवा से उपचारित करने से संभव है। चूंकि ज्वार की नई किस्में लगभग 95 से 110 दिनों में पकती है, दाने पकने की अवस्था में वर्षा होने से दानों पर काली अथवा गुलाबी रंग की फफूंद की बढ़वार दिखाई देती है। दाने बेकार हो जाते हैं, उनकी अंकुरण क्षमता कम हो जाती है और मानव आहार के लिये ऐसे दाने उपयुक्त नहीं होते हैं।[1]
- नियंत्रण - इस रोग के सफल नियंत्रण के लिये यदि ज्वार फूलने के समय वर्षा होने से वातावरण में अधिक नमी हो, तो 'केप्टान' (0.3 प्रतिशत) और 'डाईथेन-एम' (0.3 प्रतिशत) के मिश्रण के घोल का छिड़काव तीन बार भुट्टो पर, फूल अवस्था के समय, दानों में दूध की अवस्था के समय और दाने पकने की अवस्था के समय करना चाहिए।
ज्वार की कटाई
फ़सल की कटाई कार्यकीय परिपक्वता पर करनी चाहिए। हर किस्म में भुट्टों के पकने का समय अलग-अलग होता है। ज्वार के पौधों की कटाई करके ढेर लगा देते हैं। बाद में पौध से भुट्टो को अलग कर लेते हैं तथा कड़बी को सुखाकर अलग ढेर लगा देते हैं। यह बाद में जानवरों को खिलाने में काम आता है। दानों को सुखाकर जब नमी 10 से 12 प्रतिशत हो तब भंडारण करना चाहिए।
ध्यान देने योग्य बातें
ज्वार की फ़सल का अत्यधिक उत्पादन करने के लिये कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए। जैसे-स्थानीय जातियॉं को ही बोना जाना चाहिए। समय पर बुआई करना चाहिए, असंतुलित उर्वरकों का प्रयोग नहीं होना चाहिए। पौध संख्या कम होनी चाहिए, पौधों का उचित संरक्षण होना चाहिए।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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