मुमताज़ (अभिनेत्री)
मुमताज़ (अभिनेत्री)
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जन्म | 31 जुलाई, 1947 |
जन्म भूमि | मुम्बई, भारत |
पति/पत्नी | मयूर वाधवानी |
संतान | दो (पुत्रियाँ) |
कर्म भूमि | मुम्बई |
कर्म-क्षेत्र | अभिनेत्री |
मुख्य फ़िल्में | ‘आपकी कसम’, ‘रोटी’, ‘अपना देश’, 'खिलौना', ‘सच्चा झूठा’, राम और श्याम, मेला, तेरे मेरे सपने आदि |
पुरस्कार-उपाधि | फ़िल्मफेयर पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री- खिलौना (1970), फ़िल्मफेयर लाइफ़टाइम अचीवमेंट पुरस्कार (1996) |
नागरिकता | भारतीय |
अद्यतन | 14:38, 17 नवम्बर 2012 (IST)
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मुमताज़ (अंग्रेज़ी: Mumtaz, जन्म: 31 जुलाई, 1947) हिन्दी फ़िल्मों की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं। ‘आपकी कसम’, ‘रोटी’, ‘अपना देश’, 'खिलौना' और ‘सच्चा झूठा’ मुमताज़ की यादगार फ़िल्में हैं। मुमताज़ ने 12 साल की उम्र में बॉलीवुड में कदम रख दिया था।
जीवन परिचय
मुमताज़ का जन्म 31 जुलाई, 1947 को मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार में हुआ। अपनी छोटी बहन मलिका के साथ वे रोजाना स्टुडियो-दर-स्टुडियो भटकती और जैसा चाहे वैसा छोटा-मोटा रोल माँगती थी। उनकी माँ नाज और चाची नीलोफर पहले से फ़िल्मों में मौजूद थीं। लेकिन दोनों जूनियर आर्टिस्ट होने के नाते अपनी बेटियों की सिफारिश करने की पोजीशन में नहीं थीं। लेकिन मुमताज़ हर हाल में फ़िल्म अभिनेत्री बनना चाहती थीं। जूनियर आर्टिस्ट के बतौर एक बार कैमरे से सामना हो जाए, तो बाद में वे सब देख लेगी, जैसे उसके तेवर थे। जब वे निर्माता-निर्देशक से काम माँगती, तो बदले में जवाब मिलता- 'आईने में अपनी सूरत देखी है। पकोड़े जैसी नाक है।' ऐसी कठोर बातें सुनकर मुमताज़ मन मसोसकर रह जाती, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।[1]
प्रमुख फ़िल्में
- दो रास्ते
- बंधन
- ब्रह्मचारी
- दुश्मन
- सच्चा झूठा
- हिम्मत
- खिलौना
- राम और श्याम
- आपकी कसम
- अपना देश
- भाई-भाई
- चोर मचाए शोर
- लोफर
- प्रेम पुजारी
- हरे रामा हरे कृष्णा
- आप आए बहार आई
- मेला
- तेरे मेरे सपने
मुमताज़ के नायक
जूनियर आर्टिस्ट से स्टार बनने का सपना अपने मन में संजोकर रखा था, जिसे उन्होंने सच कर दिखाया। सत्तर के दशक में उन्होंने स्टार हैसियत प्राप्त कर ली। उस दौर के नामी सितारे जो कभी मुमताज़ के साथ काम नहीं करना चाहते थे वे भी उनके साथ काम करने के लिए लालायित रहने लगे थे। ऐसे सितारों में शम्मी कपूर, देवानंद, संजीव कुमार, जितेन्द्र और शशि कपूर के नाम उल्लेखनीय हैं।
मुमताज़ और दारासिंह
साठ के दशक में हिन्दी सिनेमा में दो ट्रेंड एक साथ चले थे। पहला ट्रेंड था चम्बल की घाटी में जितने भी दस्यु सम्राट और दस्यु सुंदरियाँ हुईं, उनके जीवन को आधार बनानकर फ़िल्में बनाना। डाकुओं को लेकल धड़ाधड़ पटकथाएँ लिखी गईं। फ़िल्मों का नायक जब डकैत हो, तो फ़िल्मों में तीन सफल फार्मूले एक साथ शामिल हो जाते हैं। जैसे सुरा-सुंदरी-वायलेंस विद एक्शन। दर्शक को और क्या चाहिए. सेंसर बोर्ड भी पटकथा के तानेबाने को देखकर आँख मींच लिया करता था।
दूसरा ट्रेंड चला कुश्ती और अखाड़े का। रंधावा और दारासिंह जैसे पहलवानों को लेकर अनेक फ़िल्म निर्माताओं ने ढेरों कुश्ती आधारित फ़िल्में बनाई। इन फ़िल्मों में हीरोइन तो बस शो-पीस की तरह रखी जाती थीं। नामी हीरोइन भला ऐसी फ़िल्म में क्यों काम करने लगीं। बिल्ली के भाग्य से कई छींके एक साथ टूटे और मुमताज़ के आँचल में आ गिरे।
मुमताज़ ने दारासिंह जैसे पहलवान के साथ 16 फ़िल्में की और ज्यादातर बॉक्स ऑफिस पर सफल भी रही। भारी भरकम, ऊँचे पूरे कद्दावार कद काठी के दारासिंह अपने सामने बौने आकार वाली मुमताज़ से जब प्यार कोई डॉयलाग बोलते थे, तो दर्शक हँस-हँसकर लोटपोट हो जाया करते थे। वे रोमांटिक सीन ठेठ कॉमेडी में बदल जाता था। इस बेमेले जोड़ी ने गीत-संगीत से सजी सँवरी फ़िल्मों से दस साल तक दर्शकों का मनोरजंन किया।[1]
मुमताज़ और राजेश खन्ना
दारासिंह के अखाड़े से बाहर निकलकर मुमताज़ की जोड़ी राजेश खन्ना के साथ जमीं। उन दिनों राजेश भी सफलता की राह पर आगे बढ़ रहे थे। फ़िल्म 'दो रास्ते' में बिंदिया ऐसी चमकी और मुमताज़ के हाथों की चूड़ियाँ ऐसी खनकी कि बॉक्स ऑफिस पर सफलता के नये रिकार्ड बनाए। 1969 से 74 तक इन दो कलाकारों ने सच्चा झूठा, अपना देश, दुश्मन, बंधन और रोटी जैसी सफल फ़िल्में दी। सुपरस्टार राजेश खन्ना के लगातार मुमताज़ के साथ काम करने के बाद मुमताज़ की माँग बहुत बढ़ गई। शशि कपूर ने एक बार मुमताज़ का नाम सुनकर फ़िल्म छोड़ दी थी, वे ही अपनी फ़िल्म 'चोर मचाए शोर' (1974) में मुमताज़ को नायिका बनाने पर जोर देने लगे। ऐसा ही कुछ दिलीप कुमार ने किया। उन्होंने 'राम और श्याम' (1967) फ़िल्म में अनेक नायिकाओं में से एक का चयन मुमताज़ को लेकर किया। वी. शांताराम की फ़िल्म 'बूँद जो बन गई मोती' में अपनी बेटी की जगह मुमताज़ को प्राथमिकता दी।[1]
मुमताज़ की लोकप्रियता
मुमताज़ की सफलता का ग्राफ दिनों दिन बढ़ने लगा। फ़िल्मकार विजय आनंद ने फ़िल्म 'तेरे मेरे सपने', राज खोसला ने 'प्रेम कहानी' और जे.ओमप्रकाश ने 'आपकी कसम' में मुमताज़ को हीरोइन बनाया। सफलता के पीछे सब भागते हैं। यही हाल मुमताज़ का हुआ। उसक पल्लू पक्रडने के लिए संजय खान (धड़कन), राजेंद्र कुमार (तांगे वाला), विश्वजीत (परदेसी, शरारत) और सुनील दत्त ने 'भाई-भाई' में नामक फ़िल्में बनाई। दस साल तक मुमताज़ ने बॉलीवुड के सितारों पर शासन किया। वे शर्मिला टैगोर के समकक्ष मानी गईं और उतना पैसा भी उन्हें दिया गया। देव आनंद की फ़िल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' मुमताज़ के करियर की चमकदार फ़िल्म है।
विवाह
सत्तर के दशक में अचानक कई नई हीरोइनों की बाढ़ आ गई। मुमताज़ का भी स्टार बनने का सपना सच हो गया था। गुजरात मूल के लंदनवासी मयूर वाधवानी नामक व्यापारी से शादी कर ब्रिटेन जा बसी। शादी के पहले उनका नाम संजय खान, फ़िरोज़ खान, देव आनंद जैसे कुछ सितारों के साथ जोड़ा गया था, लेकिन अंत में मयूर पर उनका दिल आ गया।
कैंसर की बीमारी
53 वर्ष की उम्र में मुमताज़ को कैंसर हो गया। इस बीमारी से उन्होंने निजात पा ली है, मगर थायराइड की जकडन अभी मौजूद है। उनकी दो बेटियाँ हैं। अपनी बीमारी के दौरान उनके नजदीकी लोग उनसे दूर हो गए थे। जिंदगी का यह कडुआ घूँट उन्होंने धीरज रखकर पीया और जिंदगी का एक हिस्सा मानकर स्वीकार किया। एक साक्षात्कार में उनकी व्यथा कथा इस एक वाक्य से प्रकट होती है- 'कहने को उसके पास दस मकान है, मगर उनमें से घर एक भी नहीं है।'[1]
दूसरी पारी में असफल
सन् 1990 में फ़िल्मों में किस्मत आजमाने मुमताज़ अपनी दूसरी पारी में आई थीं। शत्रुघ्न सिन्हा के साथ फ़िल्म 'आँधियाँ' की मगर नाकामयाबी मिली। मुमताज़ समझ गईं कि नई नायिकाओं से मुकाबला करना उनके लिए आसान नहीं है और उन्होंने अभिनय को अलविदा कहने में ही भलाई समझी। दूसरी पारी में असफलता के बावजूद मुमताज़ की सफलता चौंकाने वाली है। साधारण सूरत और बगैर गॉड फादर के उन्होंने सफलता का नमक अपने बल पर चखा और दूसरों को भी चखाया।
सम्मान और पुरस्कार
- फ़िल्मफेयर पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री- खिलौना (1970)
- फ़िल्मफेयर लाइफ़टाइम अचीवमेंट पुरस्कार (1996)
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 मुमताज़ : हजारों शाहजहाँ वाली! (हिन्दी) वेबदुनिया हिन्दी। अभिगमन तिथि: 17 नवम्बर, 2012।
बाहरी कड़ियाँ
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