शर्मिला टैगोर
शर्मिला टैगोर
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पूरा नाम | शर्मिला टैगोर |
अन्य नाम | आयशा सुल्ताना |
जन्म | 8 दिसम्बर, 1946 |
जन्म भूमि | हैदराबाद, आन्ध्र प्रदेश |
पति/पत्नी | मंसूर अली खान पटौदी (स्वर्गीय) |
संतान | सैफ़अली ख़ान, सबाअली ख़ान और सोहाअली ख़ान |
कर्म भूमि | मुंबई, महाराष्ट्र |
कर्म-क्षेत्र | अभिनेत्री |
मुख्य फ़िल्में | 'अनुपमा', 'एन इवनिंग इन पेरिस', 'आराधना', 'सत्यकाम', 'तलाश', 'सफर', 'अमर प्रेम', 'छोटी बहू', 'अमानुष', 'चुपके चुपके', 'मौसम', 'नमकीन', 'एकलव्य' आदि। |
पुरस्कार-उपाधि | 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार', 'राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार' |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | 1975 में शर्मिला जी की फ़िल्म 'मौसम' आई। फ़िल्म की कहानी और सफल संगीत ने उन्हें सफलता की नई दिशाएँ दीं। फ़िल्म 'मौसम' में शर्मिला की प्रतिभा का भरपूर उपयोग गुलज़ार ने किया। |
अद्यतन | 12:51, 2 अक्टूबर-2012 (IST) |
शर्मिला टैगोर (अंग्रेज़ी: Sharmila Tagore; जन्म- 8 दिसम्बर, 1946, हैदराबाद, ब्रिटिश भारत) की गणना अभिजात्य-वर्ग की नायिकाओं में की जाती है। हिन्दी फ़िल्मों की श्रेष्ठ अभिनेत्रियों में उनकी गिनती होती है। अभिनय की शालीनता तथा मर्यादाओं की लक्ष्मण-रेखा को लांघने का प्रयास शर्मिला टैगोर ने कभी नहीं किया। कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के परिवार की समृद्ध परम्पराओं का सफल निर्वाह उन्होंने अपने किरदारों के माध्यम से कर अपने दर्शकों के समक्ष 'लार्जर देन लाइफ़' की छवि प्रस्तुत की। यही कारण था कि रवि बाबू के शांति निकेतन में शिक्षित सत्यजित राय ने शर्मिला की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें अपनी फ़िल्म 'अपुर संसार' (1959) में सर्वप्रथम अवसर दिया। सत्यजित राय के पारस-स्पर्श से शर्मिला का फ़िल्मी कैरियर हमेशा शिखर को स्पर्श करता चला गया।
जन्म तथा परिवार
शर्मिला टैगोर का जन्म 8 दिसम्बर, 1946 को एक हिन्दू बंगाली परिवार में हैदराबाद में हुआ था। उनके पिता गितेन्द्रनाथ टैगोर उस समय एल्गिन मिल्स की ईस्ट इंडिया कंपनी के मालिक, उप-महाप्रबंधक थे। भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान नवाब पटौदी से शर्मिला का विवाह 1968 में हुआ। बारात शर्मिला के कोलकाता के आवास पर आई थी। शादी के लिए छत पर शामियाना तान कर विशेष व्यवस्था की गई थी। शादी से पहले नवाब की अम्मी की इच्छा के अनुसार शर्मिला को कलमा पढ़ाकर मुस्लिम बनाया गया। उनका नाम रखा गया 'आयशा सुल्ताना'। यह नाम या तो निकाहनामे पर इस्तेमाल हुआ या जमीन-जायदाद के काग़ज़ातों में। हालांकि नवाब पटौदी के लिए और पूरी दुनिया के लिए वे अब तक शर्मिला टैगोर ही बनी रहीं। विवाह के बाद वे सैफ़अली ख़ान, सबाअली ख़ान और सोहाअली ख़ान की माँ बनी।
फ़िल्मों में प्रवेश
जब शर्मिला टैगोर की उम्र तेरह साल थी, तब सत्यजित राय ने अपनी फ़िल्म 'अपू-त्रयी' की तीसरी फ़िल्म 'अपूर संसार' में शर्मिला को मौका दिया। अपने श्रेष्ठ अभिनय से शीघ्र ही वह दुनिया भर में लोकप्रिय हो गईं। शर्मिला की श्रेष्ठता के कारण सत्यजित राय ने उनके बॉलीवुड पदार्पण के बावजूद अपनी अगली फ़िल्मों में उन्हें अवसर दिए। इन फ़िल्मों में 'देवी', 'नायक', 'सीमाबद्ध' तथा 'अरण्येर दिने-रात्रि' आदि प्रमुख थीं। सत्यजित राय के अलावा बांग्ला-फ़िल्मकार तपन सिन्हा, अजॉय कार और पार्थ चौधुरी ने भी शर्मिला की प्रतिभा का उपयोग अपनी फ़िल्मों में किया। बॉलीवुड में भी बांग्ला फ़िल्मकार शक्ति सामंत ने अपनी रोमांटिक फ़िल्म 'कश्मीर की कली' (1964) में शर्मिला को विद्रोही कलाकार शम्मी कपूर के साथ पेश किया। शक्ति सामंत स्वयं अपराध फ़िल्मों की केटेगरी से अपनी इमेज बदलना चाहते थे।[1]
ग्लैमर की शुरुआत
शर्मिला की ताजगी और गालों में गहरे पड़ने वाले डिम्पलों का हिन्दी दर्शकों ने खुले मन से स्वागत किया। इसके बाद की 'सावन की घटा' फ़िल्म में शर्मिला ने छोटे कपड़े पहन कर सेंसेशन मचा दिया। एक अंग्रेज़ी फ़िल्म पत्रिका के कवर पर बिकनी में छपी उनकी तस्वीर अनेक लोगों को ख़ासकर बंगाल के 'भद्रलोक' को नागवार गुजरा। सेक्स-सिम्बल के रूप में शर्मिला का बॉलीवुड में प्रवेश सफल रहा। उस दौर के दर्शक निम्मी, मीना कुमारी, माला सिन्हा, वहीदा रहमान के परिचित चेहरों से बाहर आकर कुछ नया महसूस करना चाहते थे। शर्मिला ने सिर पर पल्लू धारण करने वाली और ललाट पर बड़ा-सा लाल टीका लगाने वाली नायिकाओं की परम्परा से हटकर कुछ नया किया था। इसके साथ ही फ़िल्मों में ग्लैमर का प्रवेश हो गया।
सफलता
मुम्बइया माहौल में शर्मिला भाग्यशाली रही हैं। उन्हें ऋषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य, शक्ति सामंत, गुलजार तथा यश चोपड़ा जैसे निर्देशकों ने हाथों-हाथ लिया। इसके साथ ही शम्मी कपूर, शशि कपूर, संजीव कुमार, धर्मेन्द्र और राजेश खन्ना जैसे अभिनय के मंजे हुए कलाकार मिले। उन्हें कुछ फ़िल्में अमिताभ बच्चन के साथ भी करने का मौका मिला। अच्छे डायरेक्टर, अच्छे विषय और अच्छे को-स्टार के कारण वह बॉक्स ऑफिस की पहली मांग बन गईं।[1]
फ़िल्म आराधना
उस समय के सुपर स्टार राजेश खन्ना के साथ शर्मिला की जोड़ी काफ़ी लोकप्रिय हुई। फ़िल्म 'आराधना', 'अमर प्रेम' तथा 'सफर' के ज़रिये रजतपट पर प्रेम-प्यार को नए तरीके से परिभाषित किया गया। राजेश खन्ना की सफलता के पीछे, गायक और अभिनेता किशोर कुमार की जादू भरी आवाज़ का बहुत बड़ा हाथ था। वह लाखों दिलों की धड़कन बन गए थे। 'आराधना' का गीत- 'मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू...' सुनकर देश का युवा दर्शक दीवाना हो गया। राजेश खन्ना का बगैर बटन का गुरु-कुर्ता और सुर्ख लाल कम्बल में लिपटी शर्मिला टैगोर। रोमांटिक माहौल में फ़िल्माया गया यह गीत- "रूप तेरा मस्ताना..." सुनकर तमाम वर्जनाएँ टूटने लगी थीं। 1969 में बनी फ़िल्म 'आराधना' अपने समय की सुपरहिट फ़िल्म थी।
संजीदा स्वरूप
फ़िल्म 'अनुपमा' और 'सत्यकाम' ने भी शर्मिला को नई ऊँचाइयाँ प्रदान की। धर्मेन्द्र और ऋषिकेश मुखर्जी के साथ शर्मिला टैगोर की इन दो फ़िल्मों ने उनका हिन्दी में संजीदा रूप प्रस्तुत किया। इन फ़िल्मों को देखकर लगता है कि ये बंगाल में बनी हैं और हिन्दी में डब होकर आई हैं। पिता के दुलार से वंचित नायिका को नायक धर्मेन्द्र अपने शब्दों के माध्यम से सांत्वना देकर आत्मीय स्नेह की बौछार करते हैं। नायिका अपनी चुप्पी के ज़रिये मन की व्यथा-कथा आँखों के द्वारा प्रकट करती है। इसी तरह फ़िल्म 'सत्यकाम' स्वतंत्र भारत के ईमानदार सपनों के बिखरने और टूटने की कहानी है। शर्मिला अपने पति का हर कदम पर साथ देती हैं। ऋषि दा की कॉमेडी फ़िल्म 'चुपके-चुपके' शेक्सपीअर के नाटकों के अंदाज वाली फ़िल्म है। आज तक इस कॉमेडी से आगे निकलने का साहस अनेक कॉमेडी फ़िल्में नहीं कर पाई हैं।[1]
गुलजार के साथ कार्य
सन 1975 में शर्मिला की एक फ़िल्म 'मौसम' आई। इस फ़िल्म की कहानी और सफल संगीत ने उन्हें सफलता की नई दिशाएँ दीं। फ़िल्म 'मौसम' में शर्मिला की प्रतिभा का भरपूर उपयोग गुलजार ने किया। कमलेश्वर के उपन्यास 'आगामी अतीत' पर आधारित इस फ़िल्म के नायक संजीव कुमार के जीवन में तब भूचाल आ जाता है, जब पहले प्रेम की बेटी अचानक नए घर में प्रवेश करती है। परिवार की सुख-शांति के तमाम समीकरण उलट-पुलट हो जाते हैं। गजल गायक भूपिंदर द्वारा गाई गजल- "दिल ढूंढता है फिर वही..." और आशा भोंसले की नशीली आवाज़ में "मेरे इश्क में लाखों लटके..." तथा मदन मोहन का संगीत फ़िल्म को यादगार बनाता है। बासु भट्टाचार्य ने पति-पत्नी के जीवन पर तीन फ़िल्मों की ट्रायोलॉजी बनाई थी- 'अनुभव', 'आविष्कार' तथा 'गृह प्रवेश'। इन फ़िल्मों में विवाह की राजनीति तथा मनोविज्ञान की तलाश है। इस त्रिकोण के चौथे कोण में 'आस्था' फ़िल्म भी बाद में आकर जुड़ी। लेकिन सिनेमा पटरी से उतर चुका था। 'आविष्कार' में शर्मिला अपने पति को यह समझाने में सफल रहती हैं कि विवाह के बंधन जब बिखरने लगे, तो साथ रहना बेमानी है।
समकालीन नायिकाएँ
बंगला फ़िल्मों के महानायक उत्तम कुमार के साथ भी शर्मिला ने हिन्दी में 'अमानुष' फ़िल्म की। शर्मिला टैगोर की अपनी समकालीन नायिकाओं रेखा, हेमा मालिनी, सायरा बानो, वहीदा रहमान और राखी से किसी प्रकार स्पर्धा कभी नहीं रही। क्रिकेटर नवाब पटौदी से शादी के बाद वे ग्लैमर वर्ल्ड में ज़्यादा सक्रिय नहीं रही।
प्रमुख फ़िल्में
शर्मिला टैगोर की कुछ प्रमुख फ़िल्मों के नाम इस प्रकार हैं-
- अनुपमा (1966)
- देवर (1966)
- एन इवनिंग इन पेरिस (1967)
- आराधना (1969)
- सत्यकाम (1969)
- तलाश (1969)
- सफर (1970)
- अमर प्रेम (1971)
- बंधन (1971)
- छोटी बहू (1971)
- आविष्कार (1973)
- दाग (1973)
- अमानुष (1974)
- चुपके चुपके
- मौसम (1975)
- नमकीन (1982)
- दूसरी दुल्हन (1983)
- न्यू दिल्ली टाइम्स (1985)
- विरुद्ध (2005)
- ज्वैलरी बॉक्स (2006)
- एकलव्य (2007)
- तस्वीर 8 बाय 10 (2009)
- मार्निंग वॉक (2009)
चारित्रिक भूमिका
अपने बच्चों के बड़े होने के बाद शर्मिला टैगोर ने कुछ परिपक्व चरित्र भूमिकाएँ निभाईं। शर्मिला 'फ़िल्म सेंसर बोर्ड' की अध्यक्ष भी रही हैं। उनके कार्यकाल में फ़िल्म सेंसरशिप को उदारता मिली। अपने पति नवाब पटौदी के निधन के बाद शर्मिला अकेली ज़रूर हो गई हैं, किंतु उनके पुत्र और फ़िल्म स्टार सैफ़ अली ख़ान और दो पुत्रियाँ इनके साथ हैं।[1]
पुरस्कार व सम्मान
- 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार'- 1969, 1970
- 'राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार' - 1976, 2004
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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