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पशु पक्षी
वन्य जीवन प्रकृति की अमूल्य देन है । भविष्य में वन्य प्राणियों की समाप्ति की आशंका के कारण भारत में सर्वप्रथम 7 जुलाई, 1955 को वन्य प्राणी दिवस मनाया गया । यह भी निर्णय लिया गया कि प्रत्येक वर्ष दो अक्तूबर से पूरे सप्ताह तक वन्य प्राणी सप्ताह मनाया जाएगा। वर्ष 1956 से वन्य प्राणी सप्ताह मनाया जा रहा है । भारत के संरक्षण कार्यक्रम की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक मजबूत संस्थागत ढांचे की रचना की गयी है । जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, बोटेनिकल सर्वे आफ इण्डिया जैसी प्रमुख संस्थाओं तथा भारतीय वन्य जीवन संस्थान, भारतीय वन्य अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वन अकादमी तथा सलीम अली स्कूल ऑफ आरिन्थोलॉजी जैसे संस्थान वन्य जीवन संबंधी शिक्षा और अनुसंधान कार्य में लगे हैं । भारत कई प्रकार के जंगलों जीवों का, अनेक पेड़ पौधों और पशु-पक्षियों का घर है। शानदार हाथी, मोर का नाच, ऊँट की सैर, शेरों के पहाड़ सभी एक अनोखे अनुभव है। यहाँ के पशु पक्षियों को अपने प्राकृतिक निवासस्थान में देखना आनन्दायक है। भारत में जंगली जीवों को देखने पर्यटक आते हैं। यहाँ जंगली जीवों की बहुत बड़ी संख्या है। भारत में 70 से अधिक राष्ट्रीय उद्यान और 400 जंगली जीवों के अभ्यारण्य है और पक्षी अभ्यारण्य भी हैं।
प्रकृति प्रेमियों के लिए यह जंगल स्वर्ग है परन्तु अब यहाँ के कुछ जीव जैसे चीते, शेर, हाथी, बंगाल के शेर और साइबेरियन सारस अब खतरे में है। भारत की लम्बाई और चौडाई में फैला यह जंगल क्षेत्र, रणथम्भोर राष्ट्रीय उद्यान, राजस्थान से हज़ारी बाघ जंगली जीव अभ्यारण्य, बिहार से, हिमालय के जिम कोर्बेट राष्ट्रीय उद्यान, अन्डमान के छह राष्ट्रीय उद्यानों तक एक शानदार जंगल की सैर कर सकते है। हाथी, चीते, जंगली भैंस, हिरन, जंगली गधे एक सींध वाला गेंड़ा, साही, हिम चीते आदि जन्तु हिमालय में दिखने को मिलते है।
भारत में, विश्व के अस्सी, प्रतिशत एक सींग वाले गेंड़ों का निवास है। काज़ीरंगा खेल अभ्यारण्य गेंड़ों के लिए उपयुक्त निवास है और प्राकृतिक संस्थाओं के लिए और जंगली सैर करने वाले के लिए भी अच्छी जगह है। भारत के सोन चिड़िया और ब्लैक बक, करेश अभ्यारण्य में होते है। माधव राष्ट्रीय उद्यान में, जो शिवपुरी राष्ट्रीय उद्यान कहलाता था,जीवों का एक निवास है। कोर्बोट राष्ट्रीय उद्यान सबसे प्रसिद्ध है्। उत्तर भारत में जंगली जानवरों के पर्यटकों के लिए अच्छी जगह है। ऐसे अभ्यारण्य और राष्ट्रीय उद्यान, पर्यटन को भारत में काफ़ी संख्या में हैं। भारत में शेरों की संख्या बहुत है। भारत का राष्ट्रीय पशु, शेर, तेजी और ताकत का चिन्ह है। भारत में बारह शेर निवास है। शाही बंगाल के शेर, सबसे शानदार जाति के पशुओं में से है। विश्व के साठ प्रतिशत शेरों की संख्या भारत में है। मध्य प्रदेश, शेरों के निवास की सबसे प्रसिद्ध जगह है। यहाँ बंगाल के शेर, चीतल, चीते, गौर, साम्भर और कई जीव देखने को मिलते है। भारत में जंगली जीवों के साथ-साथ, पक्षियों की भी संख्या अच्छी है। कई सौ जातियों के पक्षी भारत में मिलते है। घना राष्ट्रीय उद्यान या भरतपुर पक्षी अभ्यारण्य जो राजस्थान में है, यहाँ पर घरेलू पक्षी और जमीन पर जीने वाले पक्षी भी है। पर्यटक कई देशों से आते है। दुधवा जंगली जीव अभ्यारण में बंदर, गिद्ध और चील पक्षी भी है। अंडमान के निकोबर में कबूतर पाये जाते हैं।
भारत का वन्य जीवन
- संसार में पौधों की 2,50,000 ज्ञात प्रजातियों में से 15,000 प्रजातियां भारत में मिलती हैं।
- इस प्रकार संसार में जीव-जन्तुओं की कुल 15 लाख प्रजातियों में से 75,000 प्रजातियां भारत में पाई जाती हैं।
- भारत में पक्षियों की 1,200 प्रजातियां और 900 उप-प्रजातियां पाई जाती हैं।
- भारत के सुविख्यात पक्षियों में बहुरंगी राष्ट्रीय पक्षी मोर उल्लेखनीय है।
- पांच फुट की ऊंचाई वाला भव्य सारस तथा संसार का दूसरा सबसे भारी पक्षी हुकना (सोहनचिड़िया) महत्त्वपूर्ण पक्षी हैं।
- संसार में प्रसिद्ध केवलादेव (भरतपुर) के राष्ट्रीय उद्यान में ढाई लाख पक्षियों का घर है।
baasham
हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि भारत ने जितना ॠण ग्रहण किया है, उतना ही अथवा उससे भी अधिक उसने प्रदान किया है। भारत के प्रति विश्व के ॠण का सारांश इस प्रकार है-
सम्पूर्ण दक्षिण-पूर्व एशिया को अपनी अधिकांश संस्कृति भारत से प्राप्त हुई। ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी के प्रारम्भ में पश्चिमी भारत के उपनिवेशी लंका में बस गये, जिन्होंने अशोक के राज्यकाल में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। इस समय तक कुछ भारतीय व्यापारी सम्भवतया मलाया, सुमात्रा तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य भागों में आने जाने लगे थे। धीरे धीरे उन्होंने स्थायी अपनिवेश स्थापित कर लिए। इसमें संदेह नहीं कि प्राय: उन्होंने स्थानीय स्त्रियों से विवाह किये। व्यापारियों के पश्चात वहाँ ब्राह्मण तथा बौद्ध भिक्षुक पहुँचे और भारतीय प्रभाव ने शनै: शनै: वहाँ की स्वदेशी संस्कृति को जाग्रत किया। यहाँ तक कि चौथी शताब्दी में संस्कृत उस क्षेत्र की राजभाषा हो गयी और वहाँ ऐसी महान सभ्यताएँ विकसित हुईं जो विशाल समुद्रतटीय साम्राज्यों का संगठन करने तथा जावा में बरोबदूर का बुद्ध स्तूप अथवा कम्बोडिया में अंगकोर के शैव मंदिर जैसे आश्चर्यजनक स्मारक निर्मित करने में समर्थ हुई। सक्षिण-पूर्व एशिया में अन्य सांस्कृतिक प्रभाव चीन एवं इस्लामी संसार द्वारा अनुभव किए गये परन्तु सभ्यता की प्रारम्भिक प्रेरणा भारत से ही प्राप्त हुई
भारतीय इतिहासकार जो अपने देश के अतीत पर गर्व करते हैं प्राय: इस क्षेत्र को 'वृहत्तर भारत' का नाम देते हैं तथा भारतीय उपनिवेशों का वर्णन करते हैं। अपने सामान्य अर्थ में 'उपनिवेश' शब्द युक्तिसंगत नहीं जान पड़ता है फिर भी यह कहा जाता है कि पौराणिक आर्य विजेता विजय ने तलवार के बल से लंका द्वीप पर विजय प्राप्त की थी। इसके अतिरिक्त भारत की सीमा के बाहर किसी स्थायी भारतीय विजय का कोई वास्तविक प्रमाण उप्लब्ध नहीं है। भारतीय उपनिवेश शान्तिप्रिय थे और उन क्षेत्रों के भारतीय नृपति स्वदेशी सेनापति थे। जिन्होंने भारत से ही सारी शिक्षा ग्रहण की थी।
भारतीय संविधान सभा
भारतीय संविधान सभा की कार्यवाही 13 दिसम्बर, सन 1946 ई. को जवाहर लाल नेहरू द्वारा पेश किये गए उद्देश्य प्रस्ताव के साथ प्रारम्भ हुई।
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त्योहार और मेले
त्योहार और मेले भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। यह भी कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति अपने हृदय के माधुर्य को त्योहार और मेलों में व्यक्त करती है, तो अधिक सार्थक होगा। भारतीय संस्कृति प्रेम, सौहार्द्र, करुणा, मैत्री, दया और उदारता जैसे मानवीय गुणों से परिपूर्ण है। यह उल्लास, उत्साह और विकास को एक साथ समेटे हुए है। आनन्द और माधुर्य तो जैसे इसके प्राण हैं। यहाँ हर कार्य आनन्द के साथ शुरू होता है और माधुर्य के साथ सम्पन्न होता है। भारत जैसे विशाल धर्मप्राण देश में आस्था और विश्वास के साथ मिल कर यही आनन्द और उल्लास त्योहार और मेलों में फूट पड़ता है। त्योहार और मेले हमारी धार्मिक आस्थाओं, सामाजिक परम्पराओं और आर्थिक आवश्यकताओं की त्रिवेणी है, जिनमें समूचा जनमानस भावविभोर होकर गोते लगाता है। यही कारण है कि जितने त्योहार और मेले भारत में मनाये जाते हैं, विश्व के किसी अन्य देश में नहीं। इस दृष्टि से यदि भारत को त्योहार और मेलों का देश कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हिमाचल से लेकर सुदूर दक्षिण तक और असम से लेकर महाराष्ट्र तक व्रत, पर्वों, त्योहारों और मेलों की अविच्छिन्न परम्परा विद्यमान है, जो पूरे वर्ष अनवरत चलती रहती है।
कृषि
फ़सल/फ़सल समूह | राज्य | उत्पादन (मिलियन टन) | देश के कुल उत्पादन का प्रतिशत |
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कृषि भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाती है। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों एवं प्रयासों से कृषि को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में गरिमापूर्ण दर्जा मिला है। कृषि क्षेत्रों में लगभग 64% श्रमिकों को रोजगार मिला हुआ है। 1950-51 में कुल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा 59.2% था जो घटकर 1982-83 में 36.4% और 1990-91 में 34.9% तथा 2001-2002 में 25% रह गया। यह 2006-07 की अवधि के दौरान औसत आधार पर घटकर 18.5% रह गया। दसवीं योजना (2002-2007) के दौरान समग्र सकल घरेलू उत्पाद की औसत वार्षिक वृद्धि पद 7.6% थी जबकि इस दौरान कृषि तथा सम्बद्ध क्षेत्र की वार्षिक वृद्धि दर 2.3% रही। 2001-02 से प्रारंभ हुई नव सहस्त्राब्दी के प्रथम 6 वर्षों में 3.0% की वार्षिक सामान्य औसत वृद्धि दर 2003-04 में 10% और 2005-06 में 6% की रही।
देश में राष्ट्रीय आय का लगभग 28% कृषि से प्राप्त होता है। लगभग 70% जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। देश से होने वाले निर्यातों का बड़ा हिस्सा भी कृषि से ही आता है। गैर कृषि-क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में उपभोक्ता वस्तुएं एवं बहुतायत उद्योगों को कच्चा माल इसी क्षेत्र द्वारा भेजा जाता है।
भारत में पाँचवें दशक के शुरुआती वर्षों में अनाज की प्रति व्यक्ति दैनिक उपलब्धता 395 ग्राम थी, जो 1990-91 में बढ़कर 468 ग्राम, 1996-97 में 528.77 ग्राम, 1999-2000 में 467 ग्राम, 2000-01 में 455 ग्राम, 2001-02 में 416 ग्राम, 2002-03 में 494 ग्राम और 2003-04 में 436 ग्राम तक पहुँच गई। वर्ष 2005-06 में यह उपलब्धता प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 412 ग्राम हो गई। विश्व में सबसे अधिक क्षेत्रों में दलहनी खेती करने वाला देश भी भारत ही है। इसके बावजूद प्रति व्यक्ति दाल की दैनिक उपलब्धता संतोषजनक नहीं रही है। इसमें सामान्यत: प्रति वर्ष गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 1951 में दाल की प्रति व्यक्ति दैनिक उपलब्धता 60.7 ग्राम थी वही यह 1961 में 69.0 ग्राम, 1971 में 51.2 ग्राम, 1981 में 37.5 ग्राम, 1991 में 41.6 ग्राम और 2001 में 30.0 ग्राम हो गई। वर्ष 2005 में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दाल की निवल उपलब्ध मात्रा 31.5 ग्राम तथा 2005-06 के दौनार 33 ग्राम प्रतिदिन प्रति व्यक्ति हो गई। भारत में ही सर्वप्रथम कपास का संकर (Hybrid) बीज तैयार किया गया है। विभिन्न कृषि क्षेत्रों में आधुनिकतम एवं उपयुक्त प्रौद्योगिकी का विकास करने में भी भारतीय वैज्ञानिकों ने सफलता अर्जित की है।
फसल-चक्र विविधतापूर्ण हो गया है। हरित क्रान्ति के शुरू होने के बाद के समय में 1967-68 से 2005-06 तक कृषि उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर लगभग 2.45% रही। 1964-65 में खाद्यान्न उत्पादन 890 लाख टन से बढ़कर 1999-2000 में 2098 लाख टन, 2000-01 में 1968 लाख टन, 2001-02 में 2119 लाख टन, 2002-03 में 1748 लाख टन, 2003-04 में 2132 लाख टन, 2004-05 में 1984 लाख टन और 2005-06 में 2086 लाख टन हो गया जबकि 2006-07 के दौरान 2173 लाख खाद्यान्न उत्पांदन संभावित है। फसल-चक्र में परिवर्तन के परिणामस्वरूप सूरजमुखी, सोयाबीन तथा गर्मियों में होने वाली मूँगफली जैसी गैर परम्परागत फसलों का महत्व बढ़ता जा रहा है। 1970-71 में कृषि उत्पादन सूचकांक 85.9 था। यह सूचकांक 1980-81 के सूचकांक 102.1 और 1990-91 के सूचकांक 148.4 से बढ़कर 2001-2002 में 178.8, 2002-03 में 150.4, 2003-04 में 182.8, 2004-05 में 177.3 और 2005-06 में यह सूचकांक 191.6 हो गया जबकि 2006-07 में यह सूचकांक 197.1 संभावित है। इसका मुख्य कारण चावल, गेहूँ, दाल, तिलहन, गन्ना तथा अन्य नकदी फसलों की पैदावार में वृद्धि रही है।
भारत में मुख्य रूप से तीन फसलों बोई जाती है- यथा खरीफ, रबी एवं गर्मी (जायद)। खरीफ की फसल में मुख्य रूप से मक्का, ज्वार, बाजरा, धान, मूँगफली, सोयाबीन, अरहर आदि हैं। रबी की मुख्य फसलों में गेहूँ, जौ, चना, मटर, सरसों, तोरिया आदि है। गर्मी की फसलों में मुख्य रूप से सब्जियाँ ही बोई जाती है।। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 3287.3 लाख हेक्टेयर का 93.1% खेती के प्रयोग में लिया जाता है।
कृषि एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें उत्पादन के बहुत से कारक हैं जिन पर कृषक या वैज्ञानिकों का कोई वश नहीं चलता हे। इस तरह के कारकों में जलवायु सबसे महत्वपूर्ण कारक है। विभिन्न स्थानों पर सामान्य मौसम-चक्र के अतिरिक्त भी कब मौसम कैसा हो जाएगा कोई पता नहीं। इसके अलावा फसलें जलवायु के अनुसार बदली जाती हैं न कि फसल के अनुसार जलवायु को। अतएव किसी स्थान पर कौन सी फसल के अनुसार जलवायु को। अतएव किसी स्थान पर कौन सी फसल बोई जाय यह वहाँ की जलवायु, मृदा, ऊँचाई, वर्षा आदि पर निर्भर करती हे।
भारतीय कृषि की विशेषताएँ
भारतीय कृषि की प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार हैं-
- भारतीय कृषि की महत्वपूर्ण विशेषता जोत इकाइयों की अधिकता एवं उनके आकार का कम होना है।
- भारतीय कृषि में जोत के अन्तर्गत कुल क्षेत्रफल खण्डों में विभक्त है तथा सभी खण्ड दूरी पर स्थित हैं।
- भूमि पर प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से जनसंख्या का अधिक भार है।
- कृषि उत्पादन मुख्यतया प्रकृति पर निर्भर रहता है।
- भारतीय कृषक गरीबी के कारण खेती में पूँजी निवेश कम करता है।
- खाद्यान्न उत्पादन को प्राथमिकता दी जाती है।
- कृषि जीविकोपार्जन की साधन मानी जाती हें
- भारतीय कृषि में अधिकांश कृषि कार्य पशुओं पर निर्भर करता है।
- भारत की प्रचलित भूमिकिर प्रणाली भी दोषयुक्त है।
भूमि उपयोग- भारत में भूमि उपयोग में विविधता देखने को मिलती है। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 3287.3 लाख हेक्टेयर में से 1950-51 में 404.8 लाख हेक्टेयर भूमि पर वन थे। 1998-99 में यह क्षेत्र बढ़कर 689.7 लाख हेक्टेयर और 2000-01 में 694-07 लाख हेक्टेयर हो गया। इसी अवधि में बुआई वाली भूमि 1,187.5 लाख हेक्टेयर से बढ़कर क्रमश: 1,426 लाख हेक्टेयर और 1,411.01 लाख हेक्टेयर हो गई। फसलों के प्रकार की दृष्टि से अगर देखा जाये तो कृषि वाले कुल क्षेत्रों में गैर-खाद्यान्न की अपेक्षा खाद्यान्न की कृषि अधिक होती रही है, किन्तु खाद्यान्न की कृषि जो 1950-51 में 76.7% भूमि पर हो रही थी, वह 1998-99 के दौरान घटकर 65.6% रह गई। कृषि गणना के अनुसार बड़ी जोत (10 हेक्टेयर और इससे अधिक) के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र 1985-86 में 20.1% की अपेक्षा 1990-91 में घटकर 17.3% रह गया है। इसी प्रकार सीमांत जोत (1 हेक्टेयर से कम की जोत) के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र 1985-86 में 13.4% से बढ़कर 1990-91 में 15% हो गया है।
भारतीय कृषि के प्रकार
भारतीय कृषि अनेक विविधताओं के युक्त है। जलवायविक भिन्नता, मिट्टी की उर्वरता, परिवर्तनशील मौसम, खेती करने के ढंग आदि से भारतीय कृषि प्रभावित है। उत्पादन की मात्रा तथा कृषि ढंग के आधार पर भारत की कृषि को शुद्ध और संकर कृषि के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। शुद्ध कृषि मूलत: परंपरागत प्रकार की कृषि है जिसके द्वारा कृषकों की केवल मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो पाती है।
सस्य विज्ञान
(AGRONOMY)
सस्य विज्ञान (Agronomy) कृषि की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत फसल उत्पादन तथा भूमि प्रबन्ध के सिद्धान्तों और कृषि क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। फसलों का महत्व- पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीव-जन्तुओं की जीवन परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से वनस्पतियों पर निर्भर करता है। वनस्पति से जीव-जन्तुओं को भोजन तथा आक्सीजन के अलावा जनसंख्या हेतु वस्त्र, आवास एवं दवाओं आदि की पूर्ति भी की जाती है।
फसलों का वर्गीकरण 1 - जीवन चक्र के अनुसार वर्गीकरण
- एक वर्षी (Annuals) - ये फसलें अपना जीवन चक्र एक वर्ष अथवा इससे कम समय में पूरा करती है, जैसे – धान, गेहूँ, जौ, चना, सोयाबीन आदि।
- द्विवर्षी (Biennials)- ऐसे पौधों में पहले वर्ष वानस्पतिक वृद्धि (Vegetative Growth) होती है और दूसरे वर्ष उनमें फूल तथा बीज बनते हैं। यानी वे अपना जीवन चक्र दो वर्षों में पूरा करते हैं। यथा चुकन्दर, गन्ना आदि।
- बहुवर्षी (Perennials)- ऐसे पौधे अनेक वर्षों तक जीवित रहते हैं। परन्तु इनके जीवन चक्र में प्रतिवर्ष या एक वर्ष के अन्तराल पर फूल और फल आते हैं और जीवन चक्र पूरा हो जाता है। जैसे- लूसर्न, नेपियर घास।
2 - ऋतुओं के आधार पर वर्गीकरण
- खरीफ (Kharif Crops) -इन फसलों को बोते समय अधिक तापमान एवं आर्द्रता तथा पकते समय शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती है। उत्तर भारत में इनको जून-जुलाई में बोते हैं। धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, मूँग, मूँगफली, गन्ना आदि इस ऋतु की प्रमुख फसलें हैं। खरीफ की फसलें C3 श्रेणी में आती हैं। इस श्रेणी के पौधे में जल उपयोग क्षमता (WEU) और प्रकाश संश्लेषण पर दोनों ही अधिक होती है जबकि प्रकाश-श्वसन दर कम होती है।
- रबी (Rabi Crops)- इन फसलों को बोआई के सयम कम तापमान तथा पकते समय शुष्क और गर्म वातावरण की आवश्यकता होती है। ये फसलें सामान्यत: अक्टूबर-नवम्बर के महीनों में बोई जाती हैं। गेहूँ, जौ, चना, मसूर, सरसों, बरसीम आदि इस वर्ग की प्रमुख फसलें हैं। रबी फसलें, C4 श्रेणी में आती हैं। इस श्रेणी के पौधे की विशेषता है कि इनमें जल उपयोग क्षमता (WEU) एवं प्रकाश-संश्लेषण दर दोनों ही कम होती है। इस प्रकार, इन पौधों में दिन के प्रकाश में भी श्वसन एवं प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया संपन्न होती है।
- जायद (Zaid Crops)- इस वर्ग की फसलों में तेज गर्मी और शुष्क हवाएं सहन करने की अच्छी क्षमता होती है। उत्तर भारत में ये फसलें मुख्यत: मार्च-अप्रैल में बोई जाती हैं। तरबूज, ककड़ी, खीरा आदि इस वर्ग की प्रमुख फसलें हैं।
टीका टिप्पणी
भारतीय कला
भारतीय कला अपनी प्राचीनता तथा विवधता के लिए विख्यात रही है। आज जिस रूप में 'कला' शब्द अत्यन्त व्यापक और बहुअर्थी हो गया है, प्राचीन काल में उसका एक छोटा हिस्सा भी न था। यदि ऐतिहासिक काल को छोड़ और पीछे प्रागैतिहासिक काल पर दृष्टि डाली जाए तो विभिन्न नदियों की घाटियों में पुरातत्वविदों को खुदाई में मिले असंख्य पाषाण उपकरण भारत के आदि मनुष्यों की कलात्मक प्रवृत्तियों के साक्षात प्रमाण हैं। पत्थर के टुकड़े को विभिन्न तकनीकों से विभिन्न प्रयोजनों के अनुरूप स्वरूप प्रदान किया जाता था। हस्तकुल्हाड़े, खुरचनी, छिद्रक, तक्षिणियाँ तथा बेधक आदि पाषाण-उपकरण सिर्फ़ उपयोगिता की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं थे, बल्कि उनका कलात्मक पक्ष भी ध्यातव्य है। जैसे-जैसे मनुष्य सभ्य होता गया उसकी जीवन शैली के साथ-साथ उसका कला पक्ष भी मजबूत होता गया। जहाँ पर एक ओर मृदभांण्ड, भवन तथा अन्य उपयोगी सामानों के निर्माण में वृद्धि हुई वहीं पर दूसरी ओर आभूषण, मूर्ति कला, सील निर्माण, गुफ़ा चित्रकारी आदि का भी विकास होता गया। भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग में विकसित सैंधव सभ्यता (हड़प्पा सभ्यता) भारत के इतिहास के प्रारम्भिक काल में ही कला की परिपक्वता का साक्षात् प्रमाण है। खुदाई में लगभग 1,000 केन्द्रों से प्राप्त इस सभ्यता के अवशेषों में अनेक ऐसे तथ्य सामने आये हैं, जिनको देखकर बरबर ही मन यह मानने का बाध्य हो जाता है कि हमारे पूर्वज सचमुच उच्च कोटि के कलाकार थे।
ऐतिहासिक काल में भारतीय कला में और भी परिपक्वता आई। मौर्य काल, कुषाण काल और फिर गुप्त काल में भारतीय कला निरन्तर प्रगति करती गई। अशोक के विभिन्न शिलालेख, स्तम्भलेख और स्तम्भ कलात्मक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। सारनाथ स्थित अशोक स्तम्भ और उसके चार सिंह व धर्म चक्र युक्त शीर्ष भारतीय कला का उत्कृष्ट नमूना है। कुषाण काल में विकसित गांधार और मथुरा कलाओं की श्रेष्ठता जगजाहिर है। गुप्त काल सिर्फ़ राजनैतिक और आर्थिक दृष्टि से ही सम्पन्न नहीं था, कलात्मक दृष्टि से भी वह अत्यन्त सम्पन्न था। तभी तो इतिहासकारों ने उसे प्राचीन भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' कहा है। पूर्व मध्ययुग में निर्मित विशालकाय मन्दिर, क़िले तथा मूर्तियाँ तथा उत्तर मध्ययुग के इस्लामिक तथा भारतीय कला के संगम से युक्त अनेक भवन, चित्र तथा अन्य कलात्मक वस्तुएँ भारतीय कला की अमूल्य धरोहर हैं। आधुनिक युग में भारतीय कला पर पाश्चात्य कला का प्रभाव पड़ा। उसकी विषय वस्तु, प्रस्तुतीकरण के तरीक़े तथा भावाभिव्यक्ति में विविधता एवं जटिलता आई। आधुनिक कला अपने कलात्मक पक्ष के साथ-साथ उपयोगिता पक्ष को भी साथ लेकर चल रही है। यद्यपि भारत के दीर्घकालिक इतिहास में कई ऐसे काल भी आये, जबकि कला का ह्रास होने लगा, अथवा वह अपने मार्ग से भटकती प्रतीत हुई, परन्तु सामान्य तौर पर यह देखा गया कि भारतीय जनमानस कला को अपने जीवन का एक अंश मानकर चला है। वह कला का विकास और निर्माण नहीं करता, बल्कि कला को जीता है। उसकी जीवन शैली और जीवन का हर कार्य कला से परिपूर्ण है। यदि एक सामान्य भारतीय की जीवनचर्या का अध्ययन किया जाय तो, स्पष्ट होता है कि उसके जीवन का हर एक पहलू कला से परिपूर्ण है। जीवन के दैनिक क्रिया-कलापों के बीच उसके पूजा-पाठ, उत्सव, पर्व-त्यौहार, शादी-विवाह या अन्य घटनाओं से विविध कलाओं का घनिष्ट सम्बन्ध है। इसीलिए भारत की चर्चा तब तक अपूर्ण मानी जाएगी, जब तक की उसके कला पक्ष को शामिल न किया जाय। प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में 64 कलाओं का उल्लेख मिलता है, जिनका ज्ञान प्रत्येक सुसंस्कृत नागरिक के लिए अनिवार्य समझा जाता था। इसीलिए भर्तृहरि ने तो यहाँ तक कह डाला 'साहित्य, संगीत, कला विहीनः साक्षात् पशुः पुच्छविषाणहीनः।' अर्थात् साहित्य, संगीत और कला से विहीन व्यक्ति पशु के समान है।
'कला' शब्द की उत्पत्ति कल् धातु में अच् तथा टापू प्रत्यय लगाने से हुई है (कल्+अच्+टापू), जिसके कई अर्थ हैं—शोभा, अलंकरण, किसी वस्तु का छोटा अंश या चन्द्रमा का सोलहवां अंश आदि। वर्तमान में कला को अंग्रेज़ी के 'आर्ट' (Art) शब्द का उपयोग समझा जाता है, जिसे पाँच विधाओं—संगीतकला, मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला और काव्यकला में वर्गीकृत किया जाता है। इन पाँचों को सम्मिलित रूप से ललित कलाएँ (Fine Arts) कहा जाता है। वास्वत में कला मानवा मस्तिष्क एवं आत्मा की उच्चतम एवं प्रखरतम कल्पना व भावों की अभिव्यक्ति ही है, इसीलिए कलायुक्त कोई भी वस्तु बरबस ही संसार का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। साथ ही वह उन्हें प्रसन्नचित्त एवं आहलादित भी कर देती है। वास्तव में यह कलाएँ व्यक्ति की आत्मा को झंझोड़ने की क्षमता रखती हैं। यह उक्ति की भारतीय संगीत में वह जादू था कि दीपक राग के गायन से दीपक प्रज्जवलित हो जाता था तथा पशु-पक्षी अपनी सुध-बुध खो बैठते थे, कितना सत्य है, यह कहना तो कठिन है, लेकिन इतना तो सत्य है कि भारतीय संगीत या कला का हर पक्ष इतना सशक्त है कि संवेदनविहीन व्यक्ति में भी वह संवेदना के तीव्र उद्वेग को उत्पन्न कर सकता है।
भारतीय अंतरिक्ष केन्द्र और इकाइयां
क्रम | स्थान | केन्द्र और इकाइयां |
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भारत के सुदूर संवेदी उपग्रह
क्रम | उपग्रह | प्रक्षेपण तिथि | प्रक्षेपक यान | परिणाम | स्थिति |
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भारतीय प्रक्षेपण यानों द्वारा उपग्रह प्रक्षेपण
क्रम | प्रक्षेपक यान | उपग्रह | प्रक्षेपण तिथि | परिणाम |
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भारत के प्रक्षेपास्त्र
क्रम | प्रक्षेपास्त्र | प्रकार | मारक क्षमता | आयुध वजन क्षमता | प्रथम परीक्षण | लागत | विकास स्थिति |
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भारत का मिसाइल भंडार
क्रम | नाम | स्थिति | रेंज (कि.मी.) |
पैलोड (कि.ग्रा.) |
मूल | विशेष |
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धर्म
भारतीय संस्कृति में विभिन्नता उसका दूषण नहीं वरन् भूषण है। यहां हिन्दू धर्म के अगणित रूपों और संप्रदायों के अतिरिक्त, बौद्ध, जैन, सिक्ख, इस्लाम, ईसाई, यहूदी आदि धर्मों की विविधता का भी एक सांस्कृतिक समायोजन देखने को मिलता है। हिन्दू धर्म के विविध सम्प्रदाय एवं मत सारे देश में फैले हुए हैं, जैसे वैदिक धर्म, शैव, वैष्णव, शाक्त आदि पौराणिक धर्म, राधा-बल्लभ संप्रदाय, श्री संप्रदाय, आर्यसमाज, समाज आदि। परन्तु इन सभी मतवादों में सनातन धर्म की एकरसता खण्डित न होकर विविध रूपों में गठित होती है। यहां के निवासियों में भाषा की विविधता भी इस देश की मूलभूत सांस्कृतिक एकता के लिए बाधक ने होकर साधक प्रतीत होती है।
आध्यात्मिकता हमारी संस्कृति का प्राणतत्त्व है। इनमें ऐहिक अथवा भौतिक सुखों की तुलना में आत्मिक अथवा पारलौकिक सुख के प्रति आग्रह देखा जा सकता है। चतुराश्रम-व्यवस्था (अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा संन्यास आश्रम) तथा पुरुषार्थ-चतुष्टम (धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष) का विधान मनुष्य की आध्यात्मिक साधना के ही प्रतीक हैं। इसमें जीवन का मुख्य ध्येय धर्म अर्थात् मूल्यों का अनुरक्षण करते हुए मोक्ष माना गया है। भारतीय आध्यात्मिकता में धर्मान्धता को महत्त्व नहीं दिया गया। इस संस्कृति की मूल विशेषता यह रही है कि व्यक्ति अपनी परिस्थितियों के अनुरूप मूल्यों की रक्षा करते हुए कोई भी मत, विचार अथवा धर्म अपना सकता है यही कारण है कि यहां समय-समय पर विभिन्न धर्मों को उदय तथा साम्प्रदायिक विलय होता रहा है। धार्मिक सहिष्णुता इसमें कूट-कूट कर भरी हुई है। वस्तुत: हमारी संस्कृति में ग्रहण-शीलता की प्रवृत्ति रही है। इसमें प्रतिकूल परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाकर अपने में समाहित कर लेने की अद्भुत शक्ति है। ऐतिहासिक काल से लेकर मध्य काल तक भारत में विभिन्न धर्मों एवं जातियों का भारत पर आक्रमण एवं शासन स्थापित हुआ। परन्तु भारतीय संस्कृति की ग्रहणशील प्रकृति के कारण समयान्तर में वे सब इसमें समाहित हो गये।
भारतीय संस्कृति की महत्वपूर्ण विरासत इसमें अन्तर्निहित सहिष्णुता की भावना मानी जा सकती है। यद्यपि प्राचीन भारत में अनेक धर्म एवं संप्रदाय थे, परन्तु उनमें धर्मान्धता तथा संकुचित मनोवृत्ति का अभाव था। अतीत इस बात का साक्षी है कि हमारे देश में धर्म के नाम पर अत्याचार और रक्तपात नहीं हुआ है। भारतीय मनीत्री ने ईश्वर को एक, सर्वव्यापी, सर्वकल्याणकारी, सर्वशक्तिमान मानते हुए विभिन्न धर्मो, मतों और संप्रदायों को उस परम ईश तक पहुँचने का भिन्न-भिन्न मार्ग प्रतिपादित किया है। (एक सद्विप्रा: बहुधा बदन्ति)। गीता में श्रीकृष्ण भी अर्जुन को यही उपदेश देते हैं कि संसार में सभी लोग अनेक प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। जैनियों का स्याद्वाद, अशोक के शिलालेख आदि भी यही बात दुहराते हैं। इसी भावना को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय एकता जागृत करने के लिए देश के कोने-कोने में गुंजारित किया था- ‘‘ईश्वर अल्ला तेरे नाम। सबको सम्मति दे भगवान।’’ भारतीय विचारकों की सर्वांगीणता तथा सार्वभौमिकता की भावना को सतत् बल प्रदान किया है। इसमें अपनी सुख, शान्ति एवं उन्नति के साथ ही समस्त विश्व के कल्याण की कामना की गई है। हमारे प्रबुद्ध मनीषियों ने सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार मानकर ‘विश्व वन्धुत्व’ एवं ‘वसुधैव कुटुम्भकम्’ की भावना को उजागर किया है-
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वेसन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुखभाग भवेत॥
भारतीय सेना
भारत की रक्षा नीति का प्रमुख उद्देश्यक यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में उसे बढ़ावा दिया जाए एवं स्थायित्व प्रदान किया जाए तथा देश की रक्षा सेनाओं को पर्याप्त रूप से सुसज्जित किया जाए, ताकि वे किसी भी आक्रमण से देश की रक्षा कर सकें।
वर्ष 1946 के पूर्व भारतीय रक्षा का पूरा नियंत्रण अंग्रेजी के हाथों में था। उसी वर्ष केंद्र में अंतरिम सरकार में पहली बार एक भारतीय देश के रक्षा मंत्री बलदेव सिंह बने। हालांकि कमांडर-इन-चीफ एक अंग्रेजी ही रहा । 1947 में देश का विभाजन होने पर भारत को 45 रेजीमेंटें मिलीं, जिनमें 2.5 लाख सैनिक थे। शेष रेजीमेंटं पाकिस्तान चली गयीं। गोरखा फौज की 6 रेजीमेंटं (लगभग 25,000 सैनिक) भी भारत को मिलीं। शेष गोरखा सैनिक ब्रिटिश सेना में सम्मिलित हो गये। ब्रिटिश सेना की अंतिम टुकड़ी सामरसैट लाइट इन्फैंट्री की पहली बटालियन हो गये। ब्रिटिश सेना की अंतिम टुकड़ी सामरसैट लाइट इन्फैंट्री की पहली बटालियन भारतीय भूमि से 28 फरवरी, 1948 को स्वदेश रवाना हुई। कुछ अंग्रेज अफसर परामर्शक के रूप में कुछ समय तक भारत में रहे लेकिन स्वतंत्रता के पहले क्षण से ही भारतीय सेना पूर्णत: भारतीयों के हाथों में आ गयी थी। स्वतंत्रता के तुरंत पश्चात् भारत सरकार ने भारतीय सेना के ढांचे में कतिपय परिवर्तन किये। थल सेना, वायु सेना एवं नौसेना अपने-अपने मुख्य सेनाध्यक्षों के अधीन आयी। भारतीय रियासतों की सेना को भी देश की सैन्य व्यवस्था में शामिल कर लिया गया। 26 जनवरी, 1950 को देश के गणतंत्र बनने पर भारतीय सेनाओं की संरचनाओं में आवश्यक परिवर्तन किये गये।
भारत की रक्षा सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर भारत की राष्ट्रपति है, किन्तु देश रक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी मंत्रिमंडल की है। रक्षा से संबंधित सभी महत्वपूर्ण मामलों का फैसला राजनीतिक कार्यों संबंधी मंत्रिमंडल समिति (कैबिनेट कमेटी आन पॉलिटिकल अफेयर्स) करती है, जिसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है। रक्षा मंत्री सेवाओं से संबंधित सभी विषयों के बारे में संसद के समक्ष उत्तरदायी है।
रक्षा मंत्रालय का प्रमुख रक्षा मंत्री है और सबसे बड़ा वित्तीय अधिकारी रक्षा मंत्रालय का वित्तीय सलाहकर होता है। रक्षा मंत्रालय में चार विभाग है- (1) रक्षा विभाग, (2) रक्षा उत्पादन विभाग, (3) रक्षा आपूर्ति विभाग और (4) रक्षा विज्ञान एवं अनुसंधान विभाग। रक्षा मंत्रालय देश की रक्षा करने और सशस्त्र सेनाओं-स्थल सेना, नौ सेन7 और वायु सेना के साज-सामान जुटाने और उनका प्रशासन चलाने के लिए उत्तरदायी है।
रक्षा मंत्रालय भारत की रक्षा सशस्त्र सेनाओं अर्थात् थल सेना, नौ सेना और वायु सेना के गठन और उनके प्रशासन, सशस्त्र सेनाओं के लिए अस्त्र-शस्त्र, गोला-बारूद, पोत, विमान, वाहन, उपकरण और साज-सामान की व्यवस्था करने, अभी तक आयात होने वाली मदों को देश के भीतर निर्मित करने की क्षमता स्थापित करने और रक्षा के क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास को बढ़ावा देने के लिए सीधे उत्तरदायी है।
इस मंत्रालय की कुछ अन्य जिम्मेदारियाँ हैं- मंत्रालय से संबद्ध असैनिक सेवाओं पर नियंत्रण, कैन्टोनमेंट बनाना, उनके क्षेत्र का निर्धारण करना और रक्षा सेवा कर्मचारियों के लिए आंवास सुविधाओं का विनिमयन करना। भारत की सशस्त्र सेनाओं में तीन मुख्य सेवायें हैं- थल-सेना, नौसेना और वायु सेना। ये तीनों सेवायें एक सेनाध्यक्ष अर्थात् क्रमश: स्थल सेनाध्यक्ष, नौ सेनाध्यक्ष औ वायु सेनाध्यक्ष के अधीन हैं। ये तीनों सेनाध्यक्ष जनरल या इसके बराबर पद वाले होते हैं। इन तीनों सेनाध्यक्षों की एक सेनाध्यक्ष समिति है। इस समिति की अध्यक्षता यही तीनों सेनाध्यक्ष अपनी वरिष्ठता के आधार पर करते हैं। इस समिति की सहायता के लिए उप-समितियां होती हैं जो विशेष समस्याओं जैसे आयोजन, प्रशिक्षण, संचार आदि का काम देखती हैं।
आज भारत की थल सेना विश्व की सबसे बड़ी स्थल सेनाओं में चौथे स्थान पर, वायु सेना पांचवें स्थान पर और नौ सेना सातवें स्थान पर मानी जाती है। सेना के प्रमुख सहायक संगठन हैं- (1)प्रादेशिक सेना (2) तट रक्षक, (3) सहायक वायु सेना और (4) एन. सी. सी. जिसमें स्थल सेना, नौ सेना और वायु सेना तीनों पार्श्व होते हैं।
भारतीय थल सेना
सेना को अधिकतर थल सेना ही समझा जाता है, यह ठीक भी है क्योंकि रक्षा-पक्ति में थल सेना का ही प्रथम तथा प्रधान स्थान है। इस समय लगभग 13 लाख सैनिक-असैनिक थल सेना में भिन्न-भिन्न पदों पर कार्यरत हैं, जबकि 1948 में सेना में लगभग 2,00,000 सैनिक थे। थल सेना का मुख्यालय नई दिल्ली में है। भारतीय थल सेना के प्रशासनिक एवं सामरिक कार्य संचालन का नियंत्रण थल सेनाध्यक्ष करता है।
थल सेनाध्यक्ष की सहायता के लिए थलसेना के वाइस चीफ, तथा चीफ स्टाफ अफसर होते हैं। इनमें डिप्टी चीफ आफ आर्मी स्टाफ, एडजुटेंट-जनरल, क्वार्टर मास्टर-जनरल, मास्टर-जनरल आफ आर्डनेन्स और सेना सचिव तथा इंजीनियर-इन-चीफ सम्मिलित हैं।
थल सेना 6 कमानों में संगठित है- (1) पश्चिमी कमान (मुख्यालय: शिमला) (2) पूर्वी कमान (कोलकाता) (3) उत्तरी कमान (उधमपुर) (4) दक्षिणी कमान (पुणे) (5) मध्य कमान (लखनऊ) एवं (6) दक्षिणी-पश्चिमी कमान (जयपुर)। दक्षिण-पश्चिम कमान का गठन 15 अप्रैल, 2005 को किया गया । इसका मुख्यालय जयपुर में स्थापित किया गया है। यह थल सेना की सबसे बड़ी कमान है।
दर्शन
दर्शन | प्रवर्तक/रचियता |
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भारतीय सगीत
संगीत मानवीय लय एवं तालबद्ध अभिव्यक्ति है। भारतीय संगीत अपनी मधुरता, लयबद्धता तथा विविधता के लिए जाना जाता है। वर्तमान भारतीय संगीत का जो रूप दृष्टिगत होता है, वह आधुनिक युग की प्रस्तुति नहीं है, बल्कि यह भारतीय इतिहास के प्रासम्भ के साथ ही जुड़ा हुआ है। बैदिक काल में ही भारतीय संगीत के बीज पड़ चुके थे। सामवेद उन वैदिक ॠचाओं का संग्रह मात्र है, जो गेय हैं। प्राचीन काल से ही ईश्वर आराधना हेतु भजनों के प्रयोग की परम्परा रही है। यहाँ तक की यज्ञादि के अवसर पर भी समूहगान होते थे।
भारतीय संगीत की उत्पत्ति
भारतीय संगीत की उत्पत्ति वेदों से मानी जाती है। वादों का मूल मंत्र है - 'ऊँ' (ओऽम्) । (ओऽम्) शब्द में तीन अक्षर अ, उ तथा म् सम्मिलित हैं, जो क्रमशः ब्रह्मा अर्थात् सृष्टिकर्ता, विष्णु अर्थात् जगत् पालक और महेश अर्थात् संहारक की शक्तियों के द्योतक हैं। इन तीनों अक्षरों को ॠग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद से लिया गया है। संगीत के सात स्वर षड़ज (सा), ॠषभ (र), गांधार (गा) आदि वास्तव में ऊँ (ओऽम्) या ओंकार के ही अन्तविर्भाग हैं। साथ ही स्वर तथा शब्द की उत्पत्ति भी ऊँ के गर्भ से ही हुई है। मुख से उच्चारित शब्द ही संगीत में नाद का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार 'ऊँ' को ही संगीत का जगत माना जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि जो साधक 'ऊँ' की साधना करने में समर्थ होता है, वही संगीत को यथार्थ रूप में ग्रहण कर सकता है। यदि दार्शनिक दृष्टि से इसका गूढ़ार्थ निकाला जाय, तो इसका तात्पर्थ यही है कि ऊँ अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि का एक अंश हमारी आत्मा में निहित है और संगीत उसी आत्मा की आवाज़ है, अंतः संगीत की उत्पत्ति हृदयगत भावों में ही मानी जाती है।
भारतीय संगीत के रूप
प्राचीन काल में भारतीय संगीत के दो रूप प्रचलित हुए-1. मार्गी तथा 2. देशी। कालातर में मार्गी संगीत लुप्त होता गया। साथ ही देशी संगीत्य दो रूपों में विकसित हुआ- (i) शास्त्रीय संगीत तथा (ii) लोक संगीत। शास्त्रीय संगीत शास्त्रों पर आधारीत तथा विद्वानों व कलाकरों के अध्ययन व साधना का प्रतिफल था। यह अत्यंत नियमबद्ध तथा श्रेष्ठ संगीत था। दूसरी ओर लोक संगीत काल और स्थान के अनुरूप प्रकृति के स्वच्छन्द वातावरण में स्वाभाविक रूप से पलता हुआ विकसित होता रहा, अतः यह अधिक विविधतापूर्ण तथा हल्का-फुल्का व चित्ताकर्षक है।
भारतीय संगीत के विविध अंग
संगीत से सम्बंधित कुछ मूलभूत तथ्यों को जानकर ही संगीत की बारीकियों को समझा जा सकता है। ध्वनि, स्वर, लय, ताल आदि इसके अन्तर्गत आते हैं।
ॠग्वैदिककालीन नदियाँ
प्राचीन नाम | आधुनिक नाम |
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राष्ट्रीय वाद्य यंत्र
वाद्य | वादक |
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जीव जन्तु
क्रम | सामान्य नाम | वैज्ञानिक नाम | देश का क्षेत्र जहाँ वे पाए जाते हैं |
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प्रमुख नहरें
राज्य | नहर | नदी |
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पंजाब | सरहिन्द नहर |
सतलज नदी |
ऊपरी बारी दोआब नहर |
रावी नदी | |
नांगल बाँध नहर |
सतलज नदी | |
बिस्त दोआब नहर |
सतलज नदी | |
भाखड़ा नहर |
सतलज नदी | |
पूर्वी नहर | रावी नदी | |
हरियाणा | पश्चिमी यमुना नहर |
यमुना नदी |
गुड़गाँव नहर |
यमुना नदी | |
उत्तर प्रदेश | पूर्वी यमुना नहर |
यमुना नदी |
आगरा नहर | यमुना नदी | |
ऊपरी गंगा नहर |
गंगा नदी [1] | |
निचली गंगा नहर |
गंगा नदी [2] | |
शारदा नहर |
शारदा नदी | |
बेतवा नहर | बेतवा नदी [3] | |
बिहार | पूर्वी सोन नहर |
सोन नदी |
पश्चिमी सोन नहर |
सोन नदी | |
त्रिवेणी नहर |
गण्डक नदी | |
गण्डक बाँध योजना | तिरहुत नहर, सारन नहर | |
पश्चिम बंगाल | मिदनापुर नहर |
कोसी नदी |
एडन नहर |
दामोदर नदी | |
तिलपाड़ा बाँध की नहरें |
मयूराक्षी नदी (वीरभूम ज़िला) | |
दामोदर नदी की नहरें | दामोदर नदी (दुर्गाप्रुर) | |
राजस्थान | बीकानेर नहर |
सतलज नदी [4] |
कालीसिल परियोजना |
कालीसिल नदी | |
गम्भीरी परियोजना |
गम्भीरी नदी (चित्तौड़गढ़), सूकरी नदी | |
पार्वती परियोजना |
पार्वती नदी | |
गूढ़ा परियोजना |
मेजा नदी | |
मोरेल परियोजना |
मोरेल नदी | |
जग्गर परियोजना |
जग्गर नदी | |
इन्दिरा नहर |
सतलज, व्यास नदी [5] | |
महाराष्ट्र | गोदावरी नहर |
गोदावरी नदी [6] |
मूठा नहर |
फाइफ झील [7] | |
भण्डारदरा बाँध की नहरें |
प्रवरा नदी [8] | |
मूला परियोजना |
मूला नदी | |
वीर परियोजना | नीरा नदी | |
तमिलनाडु | कावेरी डेल्टा नहर |
कोलेरून नदी [9] |
पेरियार परियोजना |
पेरियार नदी | |
मैटूर परियोजना |
कावेरी नदी | |
निचली भवानी नहर |
भवानी नदी [10] | |
केरल | मालमपुजा बाँध की नहरें |
मालमपुजा नदी [11] |
वलायर यलाशल की नहरें |
वलायर नदी [12] | |
मंगलम योजना की नहरें |
मालाबार ज़िला | |
आन्ध्र प्रदेश | गोदावरी डेल्टा की नहरें |
गोमती, गोदावरी तथा विशिष्ट गोदावरी [13] |
कृष्णा डेल्टा की नहरें |
कृष्णा नदी | |
कृष्णा सिंचाई योजना की नहरें |
कृष्णा नदी [14] | |
रामपद सागर परियोजना |
गोदावरी नदी [15] | |
तुंगभद्रा परियोजना |
तुंगभद्रा नदी [16] | |
कृष्णा-पेन्नार परियोजना |
कृष्णा, पेन्नार नदी |
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भारतीय धरोहर
क्रम | धरोहर | घोषणा वर्ष |
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वनों की स्थिति
राज्य[17] | भौगोलिक क्षेत्र[18] | वन क्षेत्र[19] | वास्तविक[20] | अनुपात[21] |
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आन्ध्र प्रदेश | 2,75,069 | 63,821 | 44,419 | 16.15 |
अरुणाचल प्रदेश | 83,743 | 51,540 | 68,019 | 81.22 |
असम | 78,438 | 27,018 | 27,826 | 35.47 |
बिहार | 94,163 | 6,473 | 5,558 | 5.91 |
झारखण्ड | 79,714 | 23,605 | 22,716 | 28.49 |
गोवा | 3,702 | 1,224 | 2,156 | 58.23 |
गुजरात | 1,96,022 | 19,113 | 14,946 | 7.63 |
हरियाणा | 44,212 | 1,558 | 1,517 | 3.43 |
हिमाचल प्रदेश | 55,673 | 37,033 | 14,353 | 25.78 |
जम्मू-कश्मीर | 2,22,235 | 20,230 | 21,267 | 9.57 |
कर्नाटक | 1,91,791 | 43,084 | 36,449 | 19.01 |
केरल | 38,863 | 11,268 | 15,577 | 40.08 |
मध्य प्रदेश | 3,08,245 | 95,221 | 76,429 | 24.79 |
छत्तीसगढ़ | 1,35,191 | 59,772 | 55,998 | 41.42 |
महाराष्ट्र | 3,07,713 | 61,939 | 46,865 | 15.23 |
मणिपुर | 22,327 | 17,418 | 17,219 | 77.12 |
मेघालय | 22,429 | 9,496 | 16,839 | 75.07 |
मिज़ोरम | 21,081 | 16,717 | 18,430 | 87.43 |
नागालैण्ड | 16,579 | 8,629 | 13,609 | 82.08 |
उड़ीसा | 1,55,707 | 58,136 | 48,366 | 31.06 |
पंजाब | 50,362 | 3,084 | 1,580 | 3.14 |
राजस्थान | 3,42,239 | 32,488 | 15,826 | 4.63 |
सिक्किम | 7,096 | 5,841 | 3,262 | 45.97 |
तमिलनाडु | 1,30,058 | 22,877 | 22,643 | 17.41 |
त्रिपुरा | 10,486 | 6,293 | 8,093 | 77.18 |
उत्तर प्रदेश | 2,40,928 | 16,826 | 14,118 | 5.85 |
उत्तराखण्ड | 53,483 | 34,662 | 24,465 | 45.74 |
पश्चिम बंगाल | 88,752 | 11,879 | 12,343 | 13.91 |
अण्डमान एवं निकोबार | 8,249 | 7,171 | 6,964 | 84.42 |
चण्डीगढ़ | 114 | 34 | 15 | 13.15 |
दादरा तथा नगर हवेली | 491 | 204 | 225 | 45.83 |
दमन और दीव | 112 | 1 | 8 | 7.14 |
दिल्ली | 1,483 | 85 | 170 | 11.46 |
लक्षद्वीप | 32 | 23 | 71.87 | |
पुदुचेरी | 480 | 40 | 8.33 |
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- ↑ हरिद्वार के समीप
- ↑ नरौरा, बुलन्दशहर
- ↑ झांसी के समीप परिच्छा नामक स्थान से
- ↑ फ़िरिज़पुर के समीप हुसैनीवाला से
- ↑ सतलज एवं व्यास नदियों के संगम पर स्थित हरी के बैराज़
- ↑ बेल झील के समीप
- ↑ खडकवासला नामक स्थान से
- ↑ पश्चिमी घाट पर्वत
- ↑ कावेरी नदी की शाखा
- ↑ कावेरी की सहायक नदी
- ↑ मालाबार ज़िला
- ↑ पेरियार की सहायक नदी
- ↑ डेल्टा क्षेत्र में गोदावरी की शाखाएँ
- ↑ कृष्णा एनीकट से 18 मील ऊपर
- ↑ पोलवरम नामक स्थान
- ↑ कृष्णा की सहायक नदी
- ↑ राज्य/संघ शासित क्षेत्र
- ↑ वर्ग किमी.
- ↑ कुल वन क्षेत्र
- ↑ वास्तविक वनाच्छादित क्षेत्र
- ↑ कुल भौगोलिक क्षेत्र का वास्तविक वनाच्छादित क्षेत्र