राजपूत चित्रकला
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राजपूत चित्रकला में मेवाड़, बूँदी, मालवा आदि उल्लेखनीय हैं। इन राज्यों में विशिष्ट प्रकार की चित्रकला शैली का विकास हुआ।
- मुग़ल काल के अंतिम दिनों में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक राजपूत राज्यों की उत्पत्ति हो गई।
- इन विभिन्न शैलियों में कुछ विशेषताएँ, उभयनिष्ट दिखाई दीं, जिसके आधार पर उन्हें 'राजपूत' शैली नाम प्रदान किया गया।
- चित्रकला की यह शैली काफ़ी प्राचीन प्रतीत होती है किंतु इसका वास्तविक स्वरूप 15वीं शताब्दी के बाद ही प्राप्त होता है।
- यह वास्तव में राजदरबारों से प्रभावित शैली है जिसके विकास में कन्नौज, बुन्देलखण्ड तथा चन्देल राजाओं का सराहनीय योगदान रहा है।
- राजपूत चित्रकला शैली विशुद्ध हिन्दू परम्पराओं पर आधारित है।
- राजपूत चित्रकला शैली का विकास कई शाखाओं के रूप में हुआ है जिनका विवरण निम्न है।
मेवाड़ शैली
- मेवाड़ शैली राजस्थानी जनजीवन व धर्म का जीता जागता स्वरूप प्रस्तुत करती है। इतिहासवेत्ता तारकनाथ ने 7वीं शताब्दी में मारवाड़ के प्रसिद्ध चित्रकार श्रीरंगधर को इसका संस्थापक माना है लेकिन उनके तत्कालीन चित्र उपलब्ध नहीं है। 'रागमाला' के चित्र 16वीं शताब्दी में महाराणा प्रताप की राजधानी चावण्ड में बनाये गये, जिसमें लोककला का प्रभाव तथा मेवाड़ शैली के स्वरूप चित्रित हैं। रागमाला चित्रावली दिल्ली के संग्रहालय में सुरक्षित है। कुम्भलगढ़ के दुर्ग तथा चित्तौड़गढ़ के भवनों में कुछ भित्ति चित्र भी अस्पष्ट व धुंधले रूप में देखने को मिलते हैं।
- वल्लभ संप्रदाय के राजस्थान में प्रभावी हो जाने के कारण राधा-कृष्ण की लीलाएँ मेवाड़ शैली की मुख्य विषयवस्तु हैं। मेवाड़ शैली के रंगों में पीला, लाल तथा केसरिया प्रमुख हैं। पृष्ठभूमि या तो एक रंग में सपाट है अथवा आकृतियों के विरोधी रंगों का प्रयोग किया गया है। प्रारम्भिक मेवाड़ शैली में जैन व गुजरात की चित्रकलाओं का मिश्रण दृष्टिगोचर होता है तथा लोक कला की रुक्षता, मोटापन, रेखाओं का भारीपन इस की विशेषताएँ रही है।
- 17वीं शताब्दी के मध्य में इस शैली का एक स्वतंत्र स्वरूप रहा। मानवाकृतियों में अण्डकार चेहरे, लम्बी नुकीली नासिका, मीन नयन तथा आकृतियाँ छोटे क़द की हैं। पुरुषों के वस्त्रों में जामा, पटका तथा पगड़ी और स्त्रियों ने चोली, पारदर्शी ओढ़नी, बूटेदार अथवा सादा लहंगा पहना है। बाहों तथा कमर में काले फुंदने अंकित हैं। प्राकृतिक द्दश्य चित्रण अलंकृत हैं। 'रागमाला' के चित्रों में कृष्ण तथा गोपियों की लीलाओं में शृंगार रस का चित्रण अत्यंत सजीव हुआ है।
- मेवाड़ शैली 18 वीं से लेकर 19 वीं सदी तक अस्तित्व में रही, जिसमें अनेक कलाकृतियाँ चित्रित की गई। इन कलाकृतियों में शासक के जीवन और व्यक्तित्व का अधिक चित्रण किया जाने लगा, लेकिन धार्मिक विषय लोकप्रिय बने रहे।
जयपुर शैली
- जयपुर शैली का युग 1600 से 1900 तक माना जाता है। जयपुर शैली के अनेक चित्र शेखावाटी में 18 वीं शताब्दी के मध्य व उत्तरार्द्ध में भित्ति चित्रों के रूप में बने हैं। इसके अतिरिक्त सीकर, नवलगढ़, रामगढ़, मुकुन्दगढ़, झुंझुनू इत्यादि स्थानों पर भी इस शैली के भित्ति चित्र प्राप्त होते हैं।
- जयपुर शैली के चित्रों में भक्ति तथा शृंगार का सुन्दर समंवय मिलता है। कृष्ण लीला, राग-रागिनी, रासलीला के अतिरिक्त शिकार तथा हाथियों की लड़ाई के अद्भुत चित्र बनाये गये हैं। विस्तृत मैदान, वृक्ष, मन्दिर के शिखर, अश्वारोही आदि प्रथानुरूप ही मीनारों व विस्तृत शैलमालाओं का खुलकर चित्रण हुआ है। जयपुर के कलाकार उद्यान चित्रण में भी अत्यंत दक्ष थे। उद्योगों में भांति-भांति के वृक्षों, पक्षियों तथा बन्दरों का सुन्दर चित्रण किया गया है।
- मानवाकृतियों में स्त्रियों के चेहरे गोल बनाये गये हैं। आकृतियाँ मध्यम हैं। मीन नयन, भारी, होंठ, मांसल चिबुक, भरा गठा हुआ शरीर चित्रित किया गया है। नारी पात्रों को चोली, कुर्ती, दुपट्टा, गहरे रंग का घेरादार लहंगा तथा कहीं-कहीं जूती पहने चित्रित किया गया है। पतली कमर, नितम्ब तक झूलती वेणी, पांवों में पायजेब, माथे पर टीका, कानों में बालियाँ, मोती के झुमके, हार, हंसली, बाजुओं में बाजूबन्द, हाथों में चूड़ी आदि आभूषण मुग़ल प्रभाव से युक्त हैं।
- स्त्रियों की भांति पुरुषों को भी वस्त्राभूषणों से सुजज्जित किया गया है। पुरुषों को कलंगी लगी पगड़ी, कुर्ता, जामा, अंगरखा, ढोली मोरी का पायजामा, कमरबन्द, पटका तथा नोकदार जूता पहने चित्रित किया गया है।
- जयपुर शैली के चित्रों में हरा रंग प्रमुख है। हासिये लाल रंग से भरे गये हैं जिनको बेलबूटों से सजाया गया है। लाल, पीला, नीला, तथा सुनहरे रंगों का बाहुल्य है।
बीकानेर शैली
मारवाड़ शैली से सम्बन्धित बीकानेर शैली का सर्वाधिक विकास अनूप सिंह के शासन काल में हुआ। रामलाल, अली रजा, हसन रजा, रूकनुद्दीन आदि इस शैली के उल्लेखनीय कलाकार थे। इस शैली पर पंजाबी शैली का भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है क्योंकि बीकानेर क्षेत्र उत्तर में पंजाब के समीप ही स्थित है। यहाँ के शासको की नियुक्ति दक्षिण में होने के कारण इस शैली पर दक्खिनी शैली का भी प्रभाव पड़ा है। इस शैली की सबसे प्रमुख विशेषता है मुस्लिम कलाकारों द्वारा हिन्दू धर्म से सम्बन्धित एवं पौराणिक विषयों पर चित्रांकन करना।
मालवा शैली
- मालवा शैली की चित्रकला में वास्तुशिल्पीय दृश्यों की ओर झुकाव, सावधानीपूर्वक तैयार की गयी सपाट किंतु सुव्यवस्थित संरचना, श्रेष्ठ प्रारूपण, शोभा हेतु प्राकृतिक दृश्यों का सृजन तथा रूपों को उभारने के लिए एक रंग के धब्बों का सुनियोजित उपयोग दर्शनीय है।
- स्त्री-पुरुष दोनों का चित्रण तंवगी रूप में लघुमुख एवं आयतलोचनमय रूप में किया गया है। माधोदास रचित 'रंगमाला' के दृश्य इस शैली के अनुपम उदाहरण हैं।
किशनगढ़ शैली
- राजस्थान की किशनगढ़ चित्रकला शैली अपने शृंगारिक चित्रों के लिए सम्पूर्ण भारत में जानी जाती है। किशनगढ़ के राजा सामंतसिंह, शृंगारप्रिय व अच्छे साहित्यकार थे, जो नागरीदास के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनकी प्रेमिका 'बनी-ठनी' राधा का सौन्दर्य इनके काव्य पर आधारित है। किशनगढ़ शैली पर मुग़लकला का भी प्रभाव पड़ा था।
- किशनगढ़ कला का भारतीय लघुकला में अद्वितीय स्थान है। नारी चित्रण विशेष रूप से सुन्दर बने हैं। स्त्रियों के चेहरे कोमल हैं। कहीं भी भारीपन नहीं है। शरीर लताओं के समान पतला, लचकदार व छरहरा चित्रित किया गया है। स्त्री-पुरुष अनेकानेक आभूषणों से सज्जित हैं।
- प्रकृति-चित्रण में लता-वृक्ष आदि को प्रेमी-प्रेमिका की मनोदशा के प्रतीकात्मक रूप में चित्रि किया गया है। गोवर्द्धन-धारण चित्र में अनेक आकृतियाँ बनायी गयी हैं। चित्रों में काले, सफ़ेद, नीले तथा हरे रंगों की प्रधानता है। पीला तथा लाल रंग संतुलित रूप में प्रयोग किए गए है।
- किशनगढ़ शैली के चित्रों में भावाभिव्यक्ति की गहराई अद्भुत है इस शैली के प्रमुख कलाकार अमीरचन्द, छोटू, भवानीदास, निहालचन्द, सीताराम आदि हैं। यह शैली दरबार तक सीमित रही फिर भी अनेक विषयों का चित्रण हुआ जैसे- राधा-कृष्ण की प्रणयलीला, नायिका-भेद, गीतगोविन्द, भागवतपुराण, बिहारी चन्द्रिका आदि।
बूँदी शैली
मुख्य लेख : बूँदी चित्रकला
- 17वीं शताब्दी के प्रारम्भ में मेवाड़ शैली की ही एक स्वतंत्र शाखा के रूप में विकसित बूँदी शैली के प्रमुख केंद्र कोटा, बूँदी और झालावाड़ थे। बूँदी राज्य की स्थापना 1341 में राव देवा ने की थी लेकिन चित्रकला का विकास राव सुरजन (1554-85) से प्रारम्भ हुआ। राव रतन (1607-31) सिंह ने दीपक और भैरवी राग पर सुन्दर चित्र बनवाये। शत्रुशाल सिंह (1631-58) ने छत्रमहल का अलिन्द 1644 में बनवाया जिसमें 18वीं शताब्दी में सुन्दर भित्ति चित्रण किया गया। इनके पुत्र राव भाव सिंह (1658-81) के समय में ललित ललाम व रसराज की रचना मतिराम कवि ने की तथा राग-रागिनियों के चित्र बने। चेहरे पर छाया लगाने का प्रचलन इस समय के चित्रों में पाया जाता है।
अलवर शैली
- अलवर शैली की स्थापना 1775 में अलवर के राजा प्रतापसिंह ने की थी। इस शैली के चित्रों में मुग़लकालीन चित्रों जैसा बारीक काम, परदों पर धुएँ के समान छाया तथा रेखाओं की सुदृढ़ता दर्शनीय है।
- अलवर के लघुचित्रों में हरे व नीले रंगों का अधिकता से प्रयोग किया गया है। प्राचीन चित्रों में स्त्री व पुरुष आकृतियाँ मछली जैसी गोल दिखायी गयी हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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