सनातन गोस्वामी का वृन्दावन आगमन

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सनातन गोस्वामी ने दरवेश का भेष बनाया और अपने पुराने सेवक ईशान को साथ ले चल पड़े वृन्दावन की ओर। उन्हें हुसैनशाह के सिपाहियों द्वारा पकड़े जाने का भय था। इसलिये राजपथ से जाना ठीक न था। दूसरा मार्ग था पातड़ा पर्वत होकर, जो बहुत कठिन और विपदग्रस्त था। उसी मार्ग से जाने का उन्होंने निश्चय किया। सनातन को आज मुक्ति मिली है। हुसैनशाह के बन्दीखाने से ही नहीं, माया के जटिल बन्धन से भी। उस मुक्ति के लिये ऐसी कौन सी क़ीमत है, जिसे देने को वे प्रस्तुत नहीं। इसलिये धन-सम्पत्ति, स्वजन-परिजन, राजपद, मान और मर्यादा सभी को तृणवत् त्यागकर आज वे चल पड़े हैं। दीन-हीन दरवेश के छद्मवेश में पातड़ा पर्वत के ऊबड़-खाबड़ कंटकाकीर्ण, निर्जन पथ पर। दिन-रात लगातार चलते-चलते वे पर्वत के निकट एक भुइयाँ की जमींदारी में जा पहुँचे। उसने उनका बड़ा आदर-सत्कार किया और कहा, आप लोग थके हुए हैं। रात्रि में यहीं भोजन और विश्राम करें। सवेरे मेरे आदमी आपकों पर्वत पार करा देंगे।

ईशान की भर्त्सना

दो दिन के उपवासी सनातन ने नदी में स्नान कर रंधन और भोजन किया। पर उन्हें भुइयाँ द्वारा किये गये असाधारण आदर-सत्कार से कुछ संदेह हुआ, उन्होंने सुन रखा था कि उस स्थान के भुइयाँ पर्यटकों का बड़ा आदर-सत्कार करते हैं, उन्हें अपने पास ठहरने को स्थान देते हैं और रात्रि में उनका सब कुछ लूटकर उनकी हत्या कर देते हैं। सनातन के पास तो लूटे जाने के लिये कुछ था नहीं। पर उन्हें ईशान का कुछ पता नहीं था। उन्होंने पूछा उससे, "तेरे पास कुछ है?" मेरे पास सात अशर्फियाँ है। उसने उत्तर दिया, "सात अशरफियाँ! मैंने तुझे साथ लिया था, वैराग्य पथ पर अपना साथी जान। पर तूने मुझे धोखा दिया। धिक्कार है तुझे" कह सनातन ने ईशान की भर्त्सना की। अशरफियाँ उससे लेकर भुइयाँ के सामने रखीं और कहा- "हमारे पास यह अशरफियाँ हैं। इन्हें आप ले लें और हमें निर्विघ्न पहाड़ पार करा दें।" भुइयाँ सनातन की सरलता और सत्यवादिता से प्रभावित हुआ। उसने कहा- "आपने मुझे एक पाप कर्म से बचा लिया।
मुझे मेरे ज्योतिषी ने पहले ही बता दिया था कि आपके साथी के पास आठ अशरफियाँ हैं। रात्रि में आप दोनों की हत्या कर मैं उन्हें ले लेता। पर अब मैं अशरफियाँ नहीं लूंगा। पहाड़ यूं ही पार करा पुण्य का भागी बनूँगा।" सनातन ने आग्रह करते हुए फिर कहा- "यदि आप नहीं लेगें, तो कोई और हमें मार कर ले लेगा। इसलिए आप ही लेकर हमारी प्राण-रक्षा करें।"[1] भुइयाँ ने तब अशरफियाँ ले लीं। दूसरे दिन चार सिपाहियों को साथ कर उन्हें पहाड़ के उस पार पहुँचा दिया। पहाड़ पार कर सनातन ने ईशान से कहा- "भुइयाँ ने आठ अशरफियों की बात कही थी। तेरे पास और भी कोई अशरफी है क्या?" ईशान ने एक अशरफी और छिपा रखने की बात स्वीकार की। तब सनातन ने गम्भीर होकर कहा- "ईशान, तेरी निर्भरता है अर्थ पर, मेरी भगवान् पर। मैंने जिस पथ को अंगीकार किया है, तू उसका अधिकारी अभी नहीं है। इसलिये शेष बची उसी अशरफी को लेकर तू घर लौट जा।" ईशान सनातन को साश्रुनयन प्रणाम कर अनिच्छापूर्वक रामकेलि लौट गया।

भगिनीपति श्रीकान्त से भेंट

सनातन एकाकी आगे बढ़े। चलते-चलते वे हाजीपुर पहुँचे। हाजीपुर में उनकी भेंट हुई अपने भगिनीपति श्रीकान्त से। श्रीकान्त हुसैनशाह के दरबार में किसी बड़े पद पर नियुक्त थे। बादशाह के लिए घोड़े ख़रीदने हाजीपुर आये थे। हाजीपुर पटना के उस पार शोनपुर के पास एक ग्राम है, जहाँ कार्तिक पूर्णिमा से एक महीने तक एक विशाल मेले में देश के विभिन्न स्थानों से हाथी घोड़े बिकने आया करते थे। आज भी इन्हीं दिनों वह मेला वहाँ लगा करता है। श्रीकान्त से राजमन्त्री सनातन का भिक्षुक वेश ने देखा गया। उन्होंने उनसे वस्त्र बदलने का आग्रह किया। पर वह निष्फल रहा। अन्त में उन्होंने एक मोटा कम्बल देते हुए कहा- "इसे तो लेना ही पड़ेगा, क्योंकि पश्चिम में शीत बहुत है। इसके बिना बहुत कष्ट होगा।"

कम्बल कन्धे पर डाल सनातन वृन्दावन की ओर चल दिये, महाप्रभु से मिलने की छटपटी में लम्बे-लम्बे क़दम बढ़ाते हुए; पथ में कभी आहार करते हुए, कभी निराहार रहते हुए; कभी नींद भर सोते हुए कभी रात भर जाग कर महाप्रभु की याद में अश्रु विसर्जन करते हुए। अनशन, अनिद्रा और मार्ग के कष्ट से उनका शरीर शीर्ण हो रहा था। पर उन्हें कष्ट का अनुभव नहीं हो रहा था। उनके पैरों में चलने की शक्ति नहीं रही थी। पर वे चल रहे थे, गौर-प्रेम-मदिरा के नशे में छके से, गिरते, पड़ते और लड़खड़ाते हुए।

वृन्दावन में एकान्त भजन और लुप्त तीर्थोद्धार

ब्रजधाम पहुँचते ही सनातन गोस्वामी ने पहले सुबुद्धिराय से साक्षात् किया, फिर लोकनाथ गोस्वामी और भूगर्भ पण्डित से, जो महाप्रभु के आदेश से पहले ही ब्रज में आ गये थे, तत्पश्चात उन्होंने जमुना-पुलिन पर आदित्य टीला नाम के निर्जन स्थान में रहकर आरम्भ किया। एकान्त भजन-साधन, त्याग और वैराग्य का जीवन। किसी पद कर्ता ने उनके भजनशील जीवन का सजीव चित्र इन शब्दों में खींचा है—

"कभू कान्दे, कभू हासे, कभू प्रेमनान्दे भासे कभू भिक्षा, 'कभु उपवास। छेंड़ा काँथा, नेड़ा माथा, मुखे कृष्ण गुणगाथा परिधान छेंड़ा बहिर्वास

कखनओ बनेर शाक अलवने करि पाक

मुखे देय दुई एक ग्रास।"[2]

उस समय वृन्दावन में बस्ती नाम मात्र की थी। इसलिये साधकों को मधुकरी के लिये मथुरा जाना पड़ता था। सनातन गोस्वामी की तन्मयता जब कुछ कम होती तो वे कंधे पर झोला लटका मथुरा चले जाते। वहाँ जो भी भिक्षा मिलती उससे उदरपूर्ति कर लेते। कुछ दिन बाद उन्होंने महाप्रभु के आदेशानुसार व्रज की लीला-स्थलियों के उद्धार का कार्य प्रारम्भ किया। इसके पूर्व लोकनाथ गोस्वामी ने इस दिशा में कुछ कार्य किया था। उसे आगे बढ़ाते हुए उन्होंने व्रज के वनों, उपवनों और पहाड़ियों में घूमते हुए और कातर स्वर से व्रजेश्वरी की कृपा प्रार्थना करते हुए, शास्त्रों, लोक-गाथाओं और व्रजेश्वरी की कृपा से प्राप्त अपने दिव्य अनुभवों के आधार पर एक-एक लुप्त तीर्थ का उद्धार किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चैतन्य चरित 2।29-31
  2. -वे कृष्ण प्रेमरस में सदा डूबे रहते। कभी रोते, कभी हंसते, कभी भिक्षा करते, कभी उपवासी रहते, कभी बन का साग-पात अलोना पकाकर उसके दो-एक ग्रास मुख में दे लेते। फटा-पुराना बहिर्वास और कथा धारण करते और कृष्ण के नाम-गुण-लीला का गान करते हुए एक अलौकिक आनन्द के नशे में शरीर की सुध-बुध भूले रहते।

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