शशिकला

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शशिकला (अंग्रेज़ी: Shashikala, जन्म- 3 अगस्त, 1933, शोलापुर, महाराष्ट्र) का नाम भारतीय हिन्दी सिनेमा की प्रसिद्ध खलनायिकाओं में से एक के रूप में लिया जाता है। हिंदी सिनेमा की ग्लैमरस खलनायिकाओं का ज़िक़्र होते ही ज़हन में उभरने वाला पहला नाम शशिकला का है। सन 1960 के दशक के हिंदी सिनेमा में अपनी एक ख़ास जगह बनाने वाली ख़ूबसूरत, चुलबुली और खलनायिका शशिकला को उस दौर के दर्शक आज भी भूले नहीं हैं। शशिकला न सिर्फ़ एक उम्दा अभिनेत्री थीं बल्कि मौक़ा मिलने पर उन्होंने ख़ुद को एक बेहतरीन डांसर के तौर पर भी साबित किया।

परिचय

अभिनेत्री शशिकला का जन्म 3 अगस्त, 1933 को शोलापुर, महाराष्ट्र के एक परंपरावादी मराठी ‘जवळकर’ परिवार में हुआ था। उनके पिता कपड़े के कारोबारी थे और तीन भाई और तीन बहनों में वह माता-पिता की 5वीं संतान थीं। शशिकला के अनुसार, "वक़्त बदला, पिता जी ने मेरे चाचा के बेटे को पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेजा, जिसकी वजह से ख़र्चे बेतहाशा बढ़ गए। उधर कारोबार में ज़बर्दस्त घाटा हो गया और हम सड़क पर आ गए। मैं सार्वजनिक गणेशोत्सव के कार्यक्रमों में हिस्सा लेती थी और एक अच्छी अभिनेत्री मानी जाती थी। इसलिए लोगों की सलाह पर हमारा परिवार मुंबई चला आया ताकि मैं फ़िल्मों में काम करके पैसा कमा सकूं।" ये आज़ादी से कुछ साल पहले की बात है। शशिकला की उम्र उस वक़्त क़रीब 11 साल थी।

फ़िल्मी शुरुआत

उस दौर में सिनेमा में उर्दू का बोलबाला था। शशिकला के मुताबिक़ उर्दू तो बहुत दूर की बात, उनकी हिंदी भी साफ़ नहीं थी। और फिर उम्र भी ऐसी कि न छोटों में न बड़ों में। ऐसे में काम मिलना आसान नहीं था। उन दिनों नूरजहां फ़िल्म 'ज़ीनत' में अपनी बेटी के रोल के लिए किसी नई लड़की की तलाश में थीं। शशिकला उनसे मिलीं, इंटरव्यू दिया लेकिन ज़ुबान की वजह से पास नहीं हो पाईं। फ़िल्म 'ज़ीनत' के निर्माता-निर्देशक नूरजहां के शौहर सैयद शौक़त हुसैन रिज़वी थे। उन्होंने शशिकला को फ़िल्म की क़व्वाली 'आहें ना भरीं शिक़वे ना किए' में बैठाने का फ़ैसला किया, जिसमें शशिकला का साथ आगे चलकर श्यामा के नाम से मशहूर हुईं अभिनेत्री बेबी ख़ुर्शीद और एक अन्य लड़की शालिनी ने दिया था।

शशिकला के अनुसार -"उन दिनों स्क्रीन टेस्ट इसी तरह लिया जाता था। शौक़त साहब ने वादा किया था कि हम तीनों में से जो भी लड़की उस टेस्ट में सबसे अच्छा काम करेगी उसे 20 रुपए इनाम मिलेगा, और वो इनाम मैंने जीता। उन 20 रुपयों में हम सभी भाई-बहनों के लिए नए कपड़े ख़रीदे गए, 2 साड़ियाँ मेरे लिए आयीं और बहुत लंबे अरसे बाद घर में दीवाली मनाई गयी। शौक़त साहब ने तीन साल का कांट्रेक्ट किया, जिसमें पहली शर्त उर्दू सीखने की थी। ज़ुबान की वजह से फ़िल्म 'ज़ीनत' में नूरजहां की बेटी का रोल न मिल पाने का दु:ख था, इसलिए मैंने क़सम खाई कि अब मैं अपनी मातृभाषा ‘मराठी’ नहीं बोलूंगी। इसीलिए आज मेरी ज़ुबान इतनी साफ़ है और हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी और गुजराती पर मेरी बराबर की पकड़ है।"

कॅरियर

फ़िल्म 'ज़ीनत' साल 1945 में प्रदर्शित हुई थी। सैयद शौक़त हुसैन रिज़वी की अगली फ़िल्म 'जुगनू' (1947) में शशिकला हीरो दिलीप कुमार की बहन की भूमिका में नज़र आयीं। शशिकला के मुताबिक़ फ़िल्म 'जुगनू' में उनके काम से सैयद शौक़त हुसैन रिज़वी इतने ख़ुश हुए कि उन्होंने अपनी अगली फ़िल्म में शशिकला को हिरोईन बनाने का फ़ैसला कर लिया। लेकिन तभी मुल्क़ का बंटवारा हुआ और शौक़त और नूरजहां पाकिस्तान चले गए। नतीजतन शशिकला के लिए संघर्ष का दौर फिर से लौट आया। 'ऑल इंडिया पिक्चर्स' की 'डोली' (1947) और 'पगड़ी' (1948) और अमेय चक्रवर्ती की 'गर्ल्स स्कूल' (1949) जैसी की कुछ फ़िल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएं करने के बाद शशिकला 'रणजीत मूवीटोन' की फ़िल्म 'नज़ारे' (1949) में पहली बार हिरोईन बनीं। इस फ़िल्म में उनके हीरो आगा थे।

फ़िल्म 'नज़ारे' के बाद शशिकला बतौर हिरोईन केदार शर्मा की फ़िल्म 'ठेस' (1949) में भारत भूषण के साथ और 'कुलदीप पिक्चर्स' की फ़िल्म 'जलतरंग' में रहमान के साथ नजर आयीं। निर्देशक सतीश निगम की फ़िल्म 'राजरानी' (1950) में उन्होंने मीना शोरी की बेटी की भूमिका की तो 'आरज़ू' (1950) में एक बार फिर से उन्हें दिलीप कुमार के साथ काम करने का मौक़ा मिला। और फिर 'अजीब लड़की' (1952), 'तीन बत्ती चार रास्ता', 'जीवन ज्योति', 'चाचा चौधरी' (सभी 1953) और 'शर्त' (1954) जैसी कुछ फ़िल्में करने के बाद उन्होंने शादी कर ली। शशिकला के मुताबिक़ उनके पति ओम सहगल, कुंदनलाल सहगल के परिवार से थे और उनका घी का अच्छा-ख़ासा कारोबार था। शादी के बाद पति को फ़िल्म बनाने का शौक़ चढ़ा। शशिकला के शब्दों में, "मैं हिरोईन, किशोर कुमार हीरो और मोहन सहगल निर्देशक थे। संगीत शंकर जयकिशन का था। 6 सालों में बनी ये फ़िल्म 'करोड़पति' (1961) हमें कंगाल कर गयी।"

खलनायिका के रूप में सफलता

फ़िल्म 'करोड़पति' के निर्माण के दौरान ओम सहगल कर्ज़ में डूबते चले गए थे। नतीजतन पैसा कमाने के लिए शशिकला को जैसी भी फ़िल्में मिलीं, करनी पड़ीं। उस दौरान उन्होंने स्टंट फ़िल्में कीं, साईड और निगेटिव रोल किए, 'कर भला', 'भागमभाग', 'अरब का सौदागर', 'नौ दो ग्यारह', 'लालबत्ती', 'कैप्टेन किशोर', '12 ओ’क्लॉक', 'मैडम एक्स वाय ज़ेड', 'सिंगापुर', 'कानून' 'सुजाता' आदि उनकी उसी दौर की फ़िल्में हैं। शशिकला के मुताबिक़, "संघर्ष था कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। बतौर हिरोईन मैं स्थापित हो नहीं पाई थी, इसलिए कुंठाएं बढ़ती जा रही थीं। और तभी ताराचंद बड़जात्या जी का बुलावा आया जो बतौर निर्माता अपनी पहली फ़िल्म शुरू करने जा रहे थे।" ताराचंद बड़जात्या के बैनर 'राजश्री पिक्चर्स' की वह फ़िल्म थी 'आरती', जो साल 1962 में प्रदर्शित हुई थी। इस फ़िल्म में शशिकला को प्रदीप कुमार की भाभी की भूमिका दी गयी। शशिकला के मुताबिक, "वह भूमिका निगेटिव थी और मैं इतनी कुंठित हो चुकी थी मैंने क़सम खा ली कि इसके बाद मैं अभिनय छोड़ दूंगी। लेकिन फ़िल्म के निर्देशक फणी मजूमदार का कहना था कि इसके बाद तुम्हें फ़ुरसत ही नहीं मिलेगी। और हुआ भी यही। फ़िल्म 'आरती' के लिए मुझे 'फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड' और 'बंगाल जर्नलिस्ट अवार्ड' सहित कई इनाम हासिल हुए और मैं स्टार बन गयी। ये जगह पाने में मुझे अट्ठारह साल लगे थे।"

सन 1960 के दशक में शशिकला ने 'हरियाली और रास्ता', 'गुमराह', 'हमराही', 'फूल और पत्थर', 'दादी मां', 'हिमालय की गोद में', 'छोटी सी मुलाक़ात', 'नीलकमल', 'पैसा या प्यार' जैसी कई फ़िल्मों में बेहतरीन निगेटिव भूमिकाएं कीं। फ़िल्म 'गुमराह' के लिए उन्होंने एक बार फिर से 'फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड' और गुजराती फ़िल्म 'सत्यवान सावित्री' के लिए गुजरात सरकार का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार हासिल किया। शशिकला का कहना है, "व्यस्तताओं ने इतना थका डाला था कि मैंने कुछ समय के लिए काम बंद कर दिया। लेकिन एक बार फिर से इंडस्ट्री से बुलावा आया। इस नए दौर में मुझे 'दुल्हन वोही जो पिया मन भाए', 'सरगम' और 'ख़ूबसूरत' जैसी कुछ अच्छी फ़िल्में करने को मिलीं, लेकिन तब तक माहौल पूरी तरह से बदल चुका था।"

मानसिक दबाव और निराशाएं

दो बेटियों की मां शशिकला के अनुसार, "पति से काफ़ी पहले उनका अलगाव हो चुका था। आम लोगों के बर्ताव में 'बुरी औरत' की अपनी इमेज की वजह से झलकता असर भी उन्हें बेहद खलने लगा था। उधर इंडस्ट्री के बदले हुए माहौल में ख़ुद को ढाल पाना उनके लिए मुश्किल हो चला था। मानसिक दबाव और निराशाएं इतनी बढ़ गयी थीं कि वो विपश्यना के लिए इगतपुरी आश्रम जाने लगीं। उनका झुकाव आध्यात्म की ओर होने लगा।" शशिकला का कहना है, "साल 1988 में बनी फ़िल्म 'घर घर की कहानी' के दौरान घटी कुछ घटनाओं ने मुझे ऐसी चोट पहुंचाई कि मैंने फ़िल्मों से अलग हो जाना ही बेहतर समझा। मैंने मुंबई छोड़ दिया और शांति की तलाश में जगह जगह भटकने लगी। चारधाम यात्रा की, ऋषिकेश के आश्रमों में गयी। लेकिन सिर्फ़ द्वारकापुरी और गणेशपुरी के रमन महर्षि के आश्रम में जाकर मुझे थोड़ी-बहुत शांति मिली वरना बाक़ी सभी जगहों पर धर्म को एक धंधे के रूप में ही पाया।"

शशिकला की छोटी बेटी शैलजा उन दिनों कोलकाता में रहती थीं। एक रोज़ बेटी के एक पारिवारिक मित्र के ज़रिए शशिकला मदर टेरेसा के आश्रम तक जा पहुंचीं। शशिकला का कहना था, "एक तो अभिनेत्री, ऊपर से 'बुरी औरत' की इमेज। पहले तो सभी ने मुझे शक़ की नजर से देखा। कई-कई इंटरव्यू हुए। शिशु भवन और फिर पुणे के आश्रम में मानसिक रोगियों, बीमार बुज़ुर्गों, स्पास्टिक बच्चों और कुष्ठ रोगियों की सेवा में रखकर कुछ दिन मेरा इम्तहान लिया गया। मरीज़ों की गंदगी साफ़ करना, उन्हें नहलाना, उनकी मरहम-पट्टी करना, इस काम में मुझे इतनी शांति मिली कि मैं भूल ही गयी कि मैं कौन हूं। मैं इम्तहान में पास हो गई। और फिर तीन महिने बाद कोलकाता में मदर से जब पहली बार मुलाक़ात हुई तो उनसे लिपटकर देर तक रोती रही। मदर के स्पर्श ने मुझे एक नयी ऊर्जा दी। अब फिर से वो ही दिनचर्या शुरू हुई। शिशु भवन, मुंबई और गोवा के आश्रम, सूरत और आसनसोल के कुष्ठाश्रम, निर्मल हृदय-कालीघाट में मरणासन्न रोगियों की सेवा, लाशें तक उठाईं। उस दौरान मदर के कई चमत्कार देखे। मैं वहां पूरी तरह से रम चुकी थी।"

साल 1993 में शशिकला घर वापस लौटीं तो पता चला उनकी बड़ी बेटी को कैंसर है। बेटी के बच्चे छोटे थे। दो साल बाद बेटी गुज़र गयी। शशिकला के अनुसार- "मदर ने हालात से लड़ने की ताक़त दी। सीरियल 'जुनून' और 'आह' के ज़रिए मैंने फिर से अभिनय की शुरुआत की। 'सोनपरी' और 'किसे अपना कहें' जैसे सीरियलों के अलावा फ़िल्मों में भी मैं काफ़ी व्यस्त हो गयी।" शशिकला के मुताबिक़ पति के साथ भी उनके सम्बंध एक बार फिर से काफ़ी हद तक सामान्य हो चले थे, जो नैनीताल में बस चुके थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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