ब्रजभाषा

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रसखान के दोहे

ब्रजभाषा मूलत: ब्रजक्षेत्र की बोली है। विक्रम की 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक भारत में साहित्यिक भाषा रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने विकास के साथ भाषा नाम प्राप्त किया और ब्रजभाषा नाम से जानी जाने लगी। शुद्ध रूप में यह आज भी मथुरा, आगरा, धौलपुर और अलीगढ़ ज़िलों में बोली जाती है। इसे हम केंद्रीय ब्रजभाषा भी कह सकते हैं। प्रारम्भ में ब्रजभाषा में ही काव्य रचना हुई। भक्तिकाल के कवियों ने अपनी रचनाएँ ब्रजभाषा में ही लिखी हैं, जिनमें सूरदास, रहीम, रसखान, बिहारी लाल, केशव, घनानन्द आदि कवि प्रमुख हैं। हिन्दी फ़िल्मों और फ़िल्मी गीतों में भी ब्रजभाषा के शब्दों का बहुत प्रयोग होता है। आधुनिक ब्रजभाषा 1 करोड़ 23 लाख जनता के द्वारा बोली जाती है और लगभग 38,000 वर्गमील के क्षेत्र में फैली हुई है।

ब्रजभाषा का विस्तार

शुद्ध रूप में ब्रजभाषा आज भी मथुरा, अलीगढ़, आगरा, भरतपुर और धौलपुर ज़िलों में बोली जाती है। ब्रजभाषा का कुछ मिश्रित रूप जयपुर राज्य के पूर्वी भाग तथा बुलंदशहर, मैनपुरी, एटा, बरेली और बदायूँ ज़िलों तक बोला जाता है। ग्रिर्यसन महोदय ने अपने भाषा सर्वे में पीलीभीत, शाहजहाँपुर, फर्रूख़ाबाद, हरदोई, इटावा तथा कानपुर की बोली को कन्नौजी नाम दिया है, किन्तु वास्तव में यहाँ की बोली मैनपुरी, एटा बरेली और बदायूँ की बोली से भिन्न नहीं हैं। अधिक से अधिक हम इन सब ज़िलों की बोली को 'पूर्वी ब्रज' कह सकते हैं। सच तो यह है कि, बुन्देलखंड की बुन्देली बोली भी ब्रजभाषा का ही रुपान्तरण है। बुन्देली 'दक्षिणी ब्रज' कहला सकती है।[1] डॉ. गुलाबराय के अनुसार- "ब्रजभाषा का क्षेत्र निम्न प्रकार है- मथुरा, आगरा, अलीगढ़ ज़िलों को केन्द्र मानकर उत्तर में यह अल्मोड़ा, नैनीताल और बिजनौर ज़िलों तक फैली है। दक्षिण में धौलपुर, ग्वालियर तक, पूर्व में कन्नौज और कानपुर ज़िलों तक, पश्चिम में भरतपुर और गुडगाँव ज़िलों तक इसकी सीमा है।

भाषायी सर्वेक्षण तथा अन्य अनुवेषणों के आधार पर श्रीकृष्णदत्त वाजपेयी ने ब्रजभाषा - भाषी क्षेत्र निम्नलिखित है- मथुरा ज़िला, राजस्थान का भरतपुर ज़िला तथा करौली का उत्तरी अंश जो भरतपुर एंव धौलपुर की सीमाओं से मिला-जुला है। सम्पूर्ण धौलपुर ज़िला, मध्य भारत में मुरैना से भिण्ड ज़िले और गिर्द ग्वालियर का लगभग 26 अक्षांश से ऊपर का उत्तरी भाग (यहाँ की ब्रजबोली में बुंदेली की झलक है), सम्पूर्ण आगरा ज़िला, इटावा ज़िले का पश्चिमी भाग (लगभग इटावा शहर की सीध देशान्तर 79 तक), मैनपुरी ज़िला तथा एटा ज़िला (पूर्व के कुछ अंशों को छोड़कर, जो फर्रूखाबाद ज़िले की सीमा से मिले-जुले है), अलीगढ़ ज़िला (उत्तर पूर्व में गंगा नदी की सीमा तक), बुलंदशहर का दक्षिणी आधा भाग (पूर्व में अनूपशहर की सीध से लेकर), गुड़गाँव ज़िले का दक्षिणी अंश, (पलवल की सीध से) तथा अलवर ज़िले का पूर्वी भाग, जो गुडगाँव ज़िले की दक्षिणी तथा भरतपुर की पश्चिमी सीमा से मिला-जुला है।[2]

भाषायी ब्रज के सम्बंध में भाषाविद् डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा है- अपने विशुद्ध रूप में ब्रजभाषा आज भी आगरा, धौलपुर, मथुरा और अलीगढ़ ज़िलों में बोली जाती है। इसे हम केंद्रीय ब्रजभाषा के नाम से भी पुकार सकते हैं। केंद्रीय ब्रजभाषा क्षेत्र के उत्तर पश्चिम की ओर बुलंदशहर ज़िले की उत्तरी पट्टी से इसमें खड़ी बोली की लटक आने लगती है। उत्तरी-पूर्वी ज़िलों अर्थात् बदायूँ और एटा ज़िलों में इस पर कन्नौजी का प्रभाव प्रारंभ हो जाता है। डा. धीरेंद्र वर्मा, कन्नौजी को ब्रजभाषा का ही एक रूप मानते हैं। दक्षिण की ओर ग्वालियर में पहुँचकर इसमें बुंदेली की झलक आने लगती है। पश्चिम की ओर गुड़गाँव तथा भरतपुर का क्षेत्र राजस्थानी से प्रभावित है। वर्तमान समय में ब्रजभाषा एक ग्रामीण भाषा है, जो मथुरा-आगरा केन्द्रित ब्रजक्षेत्र में बोली जाती है। यह निम्न ज़िलों की प्रधान भाषा है:

गंगा पार बदायूँ, बरेली, नैनीताल की तराई से होते हुए उत्तराखंड में उधमसिंह नगर और राजस्थान के भरतपुर, धौलपुर, करौली और पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा के फरीदाबाद, गुड़गाँव, दिल्ली के कुछ भाग और मेवात ज़िलों के पूर्वी भाग में ब्रजभाषा का प्रभाव है।

साहित्य-यात्रा

बोलचाल की भाषा और साहित्यिक ब्रजभाषा में अन्तर करने की आवश्यकता दो कारणों से पड़ती है, बोलचाल की ब्रजभाषा ब्रज के भौगोलिक क्षेत्र के बाहर उपयोग में नहीं लाई जाती, जबकि साहित्यिक ब्रजभाषा का उपयोग ब्रजक्षेत्र के बाहर के कवियों ने भी उसी कुशलता के साथ किया है, जिस कुशलता के साथ ब्रजक्षेत्र के कवियों ने किया है। दूसरा अन्तर यह है कि बोलचाल की ब्रज और साहित्यिक ब्रज के बीच में एक मानक ब्रज है, जिसमें ब्रजभाषा के उपबोलियों के सभी रूप स्वीकार्य नहीं है, दूसरे शब्दों में ब्रजक्षेत्र के विभिन्न रूप-विकल्पों में से कुछ ही विकल्प मानक रूप में स्वीकृत हैं और इस मानक रूप को ब्रज के किसी क्षेत्र विशेष से पूर्ण रूप से जोड़ना सम्भव नहीं है। अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि, ब्रज प्रदेश के मध्यवर्ती क्षेत्र की भाषा मानक ब्रज का आधार बनती है। जिस तरह मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली बोली (जिसे कौरवी नाम दिया गया है) मानक हिन्दी से भिन्न है, किन्तु उसका व्याकरणिक ढाँचा मानक हिन्दी का आधार है, उसी तरह मध्यवर्ती ब्रज का ढाँचा मानक ब्रज का आधार है। मानक ब्रज और साहित्यिक ब्रज के बीच भी उसी प्रकार का अन्तर है, यह भेद वाक्य-विन्यास, पद-विन्यास और उक्ति-भंगिमा के स्तरों पर भी रेखांकित होता है। यह तो भाषा विज्ञान का माना हुआ सिद्धान्त है कि, साहित्यिक भाषा और सामान्य भाषा में अन्तर प्रयोजनवश आता है और चूँकि साहित्यिक भाषा अपने सन्देश से कम महत्व नहीं रखती और उसमें बार-बार दुहराये जाने की, नया अर्थ उदभावित करने की क्षमता अपेक्षित होती है, उसमें मानक भाषा की यान्त्रिकता अपने आप टूट जाती है, उसमें एक-दिशीयता के स्थान पर बहुदिशीयता आ जाती है और शब्द-चयन, वाक्य-विन्यास, पद-विन्यास सब इस प्रयोजन को चरितार्थ करने के लिए कुछ न कुछ बदल जाते हैं। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि व्याकरण बदल जाता है या शब्द कोश बदल जाता है, केवल व्याकरण और शब्द के कार्य बदल जाते हैं, क्योंकि दोनों अतिरिक्त सोद्देश्यता से विद्युत चालित कर दिये जाते हैं।

ब्रजभाषा का प्रयोग

गुरु गोविन्दसिंह

साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग ब्रज के अतिरिक्त बोली-क्षेत्रों में होने के कारण उन-उन क्षेत्रों की बोलियों के रंग भी जुड़े हैं। आज की साहित्यिक हिन्दी में भी इस प्रकार का प्रभाव दिखाई पड़ता है। वह एक किसी एक मुहावरे एक चाल में बँधी हुई भाषा नहीं है, उसमें क्षेत्रीय रंगतों को अपनाने की और उन्हें अपने रंग में डालने की क्षमता है। ब्रजभाषा में भी भोजपुरी, अवधी, बुन्देली, पंजाबी, पहाड़ी, राजस्थानी प्रभावों की झाँई पड़ी और उससे ब्रजभाषा में दीप्ति और अर्थवत्ता आई। कुछ शब्दकोश भी बढ़ा, मुहावरे तो निश्चित रूप से नये-नये उसमें सन्निविष्ट हुए। बुन्देलखण्ड के कवियों में पद्माकर, ठाकुर बोधा और बख्शी हंसराज का प्रभाव उल्लेखनीय है। भोजपुरी क्षेत्र के कवियों में इतने बड़े नाम तो नहीं लिए जा सकते, लेकिन रंगपाल, छुटकन जैसे कवियों के द्वारा रचे गए फागों में भोजपुरी से भावित ब्रजभाषा की छटा एक अलग ही मिलती है। ग्वाल कवि, गुरु गोविन्दसिंह जैसे पंजाब क्षेत्र के कवियों ने पंजाबी प्रभाव दिया है। दादू, सुन्दरदास और रज्जब जैसे सन्तकवियों की भाषा में (जो प्रमुख रूप से ब्रजभाषा ही है) राजस्थानी का पुट गहरा है।

ब्रजभाषा का स्वरूप

ब्रजभाषा में अपना रूपगत प्रकृति औकारांत है यानि कि इसकी एकवचनीय पुंलिंग संज्ञा और विशेषण प्राय: औकारांत होते हैं; जैसे खुरपौ, यामरौ, माँझौ आदि संज्ञा शब्द औकारांत हैं। इसी प्रकार कारौ, गोरौ, साँवरौ आदि विशेषण पद औकारांत है। क्रिया का सामान्य भूतकाल का एकवचन पुंलिंग रूप भी ब्रजभाषा में प्रमुख रूप से औकारांत ही रहता है। कुछ क्षेत्रों में "य्" श्रुति का आगम भी मिलता है। अलीगढ़ की तहसील कोल की बोली में सामान्य भूतकालीन रूप "य्" श्रुति से रहित मिलता है, लेकिन ज़िला मथुरा तथा दक्षिणी बुलंदशहर की तहसीलों में "य्" श्रुति अवश्य पाई जाती है। कन्नौजी की अपनी प्रकृति ओकारांत है। संज्ञा, विशेषण तथा क्रिया के रूपों में ब्रजभाषा जहाँ औकारांतता लेकर चलती है वहाँ कन्नौजी ओकारांत है। भविष्यत्कालीन क्रिया ब्रजभाषा में कृदंत पाई जाती है। यदि हम "लड़का जाएगा" और "लड़की जाएगी" वाक्यों को कन्नौजी तथा ब्रजभाषा में रूपांतरित करके बोलें तो यह इस प्रकार रहेगी:

  • कन्नौजी में - (1) लरिका जइहै । (2) बिटिया जइहै ।
  • ब्रजभाषा में - (1) छोरा जाइगौ । (2) छोरी जाइगी ।

ब्रजभाषा के सामान्य भविष्यतकाल रूप में क्रिया कर्ता के लिंग के अनुसार परिवर्तित होती है, जब कि कन्नौजी में एक रूप रहती है। इसके अतिरिक्त कन्नौजी में अवधि की भाँति विवृति भी पाई जाती है जिसका ब्रजभाषा में सर्वथा अभाव है। कन्नौजी के संज्ञा, सर्वनाम आदि वाक्य पदों में संधिरहित मिलते हैं, किंतु ब्रजभाषा में वे ही पद संधिगत अवस्था में मिलते हैं। उदाहरण:

  • कन्नौजी - ""बउ गओ"" (उ वह गया)।
  • ब्रजभाषा - ""बो गयौ"" (उ वह गया)।

उपर्युक्त वाक्यों के सर्वनाम पद "बउ" तथा "बो" में संधिराहित्य तथा संधि की अवस्थाएँ दोनों भाषाओं की प्रकृतियों को स्पष्ट करती हैं।

प्रयोग के प्रमाण

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

साहित्यिक ब्रजभाषा के सबसे प्राचीनतम उपयोग का प्रमाण महाराष्ट्र में मिलता है। महानुभाव सम्प्रदाय (तेरहवीं शताब्दी के अन्त) के सन्त कवियों ने एक प्रकार की ब्रजभाषा का उपयोग किया। कालान्तर में साहित्यिक ब्रजभाषा का विस्तार पूरे भारत में हुआ और अठारहवीं, उन्नीसवीं शताब्दी में दूर दक्षिण में तंजौर और केरल में ब्रजभाषा की कविता लिखी गई। सौराष्ट्र (कच्छ) में ब्रजभाषा काव्य की पाठशाला चलायी गई, जो स्वाधीनता की प्राप्ति के कुछ दिनों बाद तक चलती रही। उधर पूरब में यद्यपि साहित्यिक ब्रज में तो नहीं साहित्यिक ब्रज से लगी हुई स्थानीय भाषाओं में पद रचे जाते रहे। बंगाल और असम में इन भाषा को ‘ब्रजबुलि’ नाम दिया गया। इस ‘ब्रजबुली’ का प्रचार कीर्तन पदों में और दूर मणिपुर तक हुआ। साहित्यिक ब्रजभाषा की कविता ही गढ़वाल, कांगड़ा, गुलेर, बूँदी, मेवाड़, किशनगढ़, चित्रकारी कलमों का आधार बनी और कुछ क्षेत्रों में तो चित्रकारों ने कविताएँ लिखीं। गढ़वाल के मोलाराम का नाम उल्लेखनीय है। गुरु गोविन्दसिंह के दरबार में ब्रजभाषा के कवियों का एक बहुत बड़ा जमघट था। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक काव्य-भाषा के रूप में ब्रजभाषा का अक्षुण्ण देशव्यापी वर्चस्व रहा। इस प्रकार लगभग पाँच शताब्दी तक बहुत बड़े व्यापक क्षेत्र में मान्यता प्राप्त करने वाली साहित्यिक भाषा रही। इस देश के साहित्य के इतिहास में ब्रजभाषा ने जो अवदान दिया है, उसे यदि हम काट दें तो देश की रसवत्ता और संस्कारिता का बहुत बड़ा हिस्सा हमसे अलग हो जायेगा। आधुनिक हिन्दी ने साहित्यिक भाषा के रूप में जो ब्रजभाषा का स्थान लिया है, वह स्थान भी ब्रजभाषा की व्यापकता के ही कारण सम्भव हुआ है। इस प्रकार से साहित्यिक ब्रजभाषा आधुनिक हिन्दी की धरती है। शुरू-शुरू में खड़ी बोली की कविता इतिवृत्तात्मकता की ओर अग्रसर हुई तो, ब्रजभाषा की धरती ने ही आधुनिक खड़ी-बोली की कविता को अधिक लचकीला बनाने की शक्ति दी, उसके उक्ति-विधान, सादृश्य-विधान और मुहावरों ने प्रेरणा दी। बहुत सूक्ष्मता से प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी की काव्यधारा का अध्ययन करें तो हमें ब्रजभाषा के प्रभाव से आई हुई लोच नज़र आयेगी।

जनमानस की भाषा

बंसी बजाते हुए कृष्ण

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में ठीक ही कहा है कि, गीतिकाव्य की रचना के लिए ब्रजभाषा का व्यवहार सर्वव्यापी था, जो निर्गुणपंथी सन्त कवि उपदेश की भाषा के लिए खड़ी बोली पर आधारित सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग करते थे, वे ही गेय पदों की रचना करते समय ब्रजभाषा का प्रयोग ही प्राय: करते हैं। इसी तरह प्रबन्धकाव्य लिखते समय भले ही अधिकतर लोगों ने पूर्वी क्षेत्र में अवधी भाषा, पश्चिम क्षेत्र में डिंगल का प्रयोग किया, किन्तु गेय पदों या मुक्तकों की रचना करते समय पूर्व या पश्चिम हर एक प्रदेश के कवि ब्रजभाषा का अध्ययन करते हैं। एक प्रकार से ब्रजभाषा ही मुक्तक काव्य भाषा के रूप में उत्तर भारत के बहुत बड़े हिस्से में एकमात्र मान्य भाषा थी। उसकी विषयवस्तु श्री कृष्ण प्रेम तक ही सीमित नहीं थी, उसमें सगुण-निर्गुण भक्ति की विभिन्न धाराओं की अभिव्यक्ति सहज रूप में हुई और इसी कारण ब्रजभाषा जनसाधारण के कंठ में बस गई। एक अंग्रेज़ी अधिकारी मेजर टॉमस डुएरब्रूटन (1814) ने ‘सलेक्शन फ़्रॉए दि पॉपुलर पोयट्री ऑफ़ दि हिन्दूज’ नामक पुस्तक में निरक्षर सिपाहियों से लोकप्रिय पदों का संग्रह किया और उनका अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। इस संग्रह में संकलित मुक्तकों में अधिकतर दोहे, कवित्त और सवैये हैं, जो ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवियों के द्वारा रचित हैं। सभी सरल हों, ऐसी बात नहीं, केशवदास के भी छन्द इस संकलन में हैं। इससे यह बात स्पष्ट प्रमाणित होती है कि, मौखिक परम्परा से ब्रजभाषा के छन्द दूर-दूर तक फैले और लोगों ने उन्हें रस और चाव से कंठस्थ किया। उनके अर्थ पर विचार किया और उन्हें अपने दैनिक जीवन का एक अंग बनाया। इस मायने में साहित्यिक ब्रजभाषा का भाग्य आज की साहित्यिक हिन्दी की अपेक्षा अधिक स्पृहणीय है।

रसों का प्रयोग

अब्दुर्रहीम रहीम खानखाना

रचना बाहुल्य के आधार पर प्राय: यह मान लिया जाता है कि, ब्रजभाषा काव्य का विषय रूप-वर्णन, शोभा-वर्णन, श्रृंगारी चेष्टा-वर्णन, श्रृंगारी हाव-भाव-वर्णन, प्रकृति के श्रृंगारोद्दीपक रूप का वर्णन विविध प्रकार की कामिनियों की विलासचर्या का वर्णन, ललित कला-विनोदों का वर्णन और नागर-नागरियों के पहिराव, सजाव, सिंगार का वर्णन तक ही सीमित है। इसमें साधारण मनुष्य के दु:ख-दर्द या उनके जीवन-संघर्ष का चित्र नहीं है, न कुछ अपवादों को छोड़कर जीवन में उत्साह वृद्धि जगाने के लिए विशेष चाव है। इसमें जो आलौकिक, आध्यात्मिक भाव है भी, वह भी या तो अलक्षित और सुकुमार भावों की परिधि के भीतर ही समाये हुए हैं या मनुष्य के दैन्य या उदास भाव के अतिरेक से ग्रस्त हैं। ब्रजभाषा काव्य का संसार इस प्रकार बड़ा ही संकुचित संसार है। पर जब हम ब्यौरे में जाते हैं और भक्ति-कालीन काव्य की ज़मीन का सर्वेक्षण करते हैं और उत्तर मध्यकाल की नीति-प्रधान रचनाओं में या आक्षेप प्रधान रचनाओं का पर्यवेक्षण करते हैं, तो यह संसार बहुत विस्तुत दिखाई पड़ता है। इसमें जिन्हें दरबारी कवि कहकर छोटा मानते हैं, उनकी कविता में गाँव के बड़े अनूठे चित्र हैं और लोक-व्यवहार के तो तरह-तरह के आयाम मिलते हैं। ये आयाम श्रृंगारी ही नहीं हैं अदभुत, हास्य, शान्त रसों के सैंकड़ों उदाहरण उस उत्तर मध्यकाल में भी मिलते हैं, जिसे श्रृंगार-काल कहा जाता है। यही नहीं, पद्माकर जैसे कवि की रचना में सूक्ष्म रूप में अंग्रेज़ों के आने के ख़तरे की चिन्ता भी मिलती है। भूषण की बात छोड़ भी दे, तो भी अनेक अनाम कवियों के भीतर धरती का लगाव, जो जन-जन के अराध्य आलंबनों से जुड़े हुए हैं, बहुत सरल ढंग से अंकित मिलता है। देव का एक प्रसिद्ध छन्द है, जिसमें बारात के आकर विदा होने में और उसके बाद की उदासी का चित्र मिलता है।

काम परयौ दुलही अरु दुलह, चाकर यार ते द्वार ही छूटे।
माया के बाजने बाजि गये परभात ही भात खवा उठि बूटे।
आतिसबाजी गई छिन में छूटि देकि अजौ उठिके अँखि फूटे।
‘देव’ दिखैयनु दाग़ बने रहे, बाग़ बने ते बरोठहिं लूटे।

सूरदास, सूर कुटी, सूर सरोवर, आगरा

इसमें हँसी-खुशी वाली जिन्दगी के बाद आने वाले सूनेपन का बड़ा ही मार्मिक चित्र खींचा गया है। तुलसीदास की 'कवितावली' में तो भुखमरी, महामारी, अत्याचार-शोषण, इन सबके बड़े सशक्त और संक्षिप्त चित्र मिलते हैं। 'सूरसागर' में कहीं-कहीं सादृश्य-विधान के रूप में, कहीं सीधे रैयत के ऊपर पटवारी, अमीन, शिकदार, राजा के द्वारा एक के बाद एक पीढ़ी दर पीढ़ी किये जाने वाले अत्याचारों के चित्र हैं। संत कवियों की पदावली में भाँति-भाँति के व्यवसायों के दैनिक प्रयोग की शब्दावली मिलती है। रहीम, ग्वाल, देव की कविता में भिन्न-भिन्न प्रदेशों के रीति-रिवाज और पहिरावों के चित्र मिलते हैं। किसानी और गोपालन से सम्बद्ध शब्द-समृद्धि के बारे में तो कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं है। सूरदास, बिहारी लाल, रसखान, रहीम, वृन्द, गिरिधर, बख्शी हंसराज का काव्य-संसार कृषिजीवी और गोपालन-जीवी वर्ग के दैनिक जीवन के सूक्ष्म चित्रों से भरा हुआ है। इसमें तरह-तरह की फ़सलों, उनके उगाने की प्रक्रियाओं, भाँति-भाँति की गायों की चेष्टाओं और गोदोहन से लेकर मक्खन बनाने की प्रक्रिया के चित्र ऐसे उरेहे गये हैं, जैसे लगता है कि एक ही लघुचित्र में इस प्रकार की जिन्दगी का समूचा सलोनापन बारीकी के साथ अंकित कर दिया गया हो। सूर ने निम्नलिखित पद में गायों के विविध रंगों का चित्र इस प्रकार से खींचा है, जिसमें रंगों की गहराई क्रमश: घनी होती जाती है और सफ़ेद से काले तक की सभी वर्ण छटाएँ आ गई हैं-

धौरी, घूमरी, राती, रौंछी, बोल बुलाइ चिन्हौरी।
पियरी, मौरी, गोरी, गैनी, खैरी, कजरी जेती।।

विद्वानों व कवियों द्वारा प्रयोग

यह बात अनदेखी करने योग्य नहीं है कि, ब्रजभाषा के कवियों ने सामान्य गृहस्थ जीवन को ही केन्द्र में रखा है, चाहे वे कवि संत हो, दरबारी हो, राजा हो या फकीर हो। रहीम के निम्नलिखित शब्द-चित्रों में श्रमजीवी की सहधर्मिता अंकित है-

अमीर ख़ुसरो और ह्ज़रत निज़ामुद्दीन औलिया

लइके सुघर खुरपिया पिय के साथ।
छइबे एक छतरिया बरसत पाथ।।

एक बहुत ही अप्रसिद्ध कवि के कलिवर्णन में शासन की दुर्व्यवस्था का यथार्थ चित्र इस प्रकार दिया गया है-

कानूंगोय चौधरी गुमाश्ता मुसद्दी कोऊ माल मार खाय कोरो काग़ज़ ही दिखायो है।
फौजदार नायब मुसाहब अकोर लैके झूठौ करै सांचो पुनि साँचे को झुठायौ है।
आठौ याम धावै जाके उलटोले लगावै दोष भडुवा और मसखरे को नीके अपनायौ है।
कीजिए सहाय जू कृपाल श्री गोविन्दलाल कठिन कराल कलिकाल चढ़ि आयौ है।

सूमों के चित्र बड़े अतिरंजित होते हुए भी बड़े चुभते हैं। एक चित्र है, जिसमें दीवान जी का दिया हुआ झगा ऐसा तार-तार है, न उसे धोबी लेता है और न ही वह पहना जाता है। कवि झगा के साथ ही सुई तागा भी माँगने के लिए विवश हो जात है-

आदि ही धोबी न धोबे को लेत कि पानी ते बूड़े में पाऊँ न पाऊँ।
जोर रहे खुलि ठौर ही ठौर औ तापर खोपै चली है अगांऊँ।
‘लौकी’ कहै हम जाच्यो दीवान जू और मैं जाय के काहि सताऊँ।
जो पै मया करि दोन्हो झगा तो सूची तगा दोउ साथ ही पाऊँ।

अमीर खुसरो से शुरू करके भारतेन्दु हरिश्चन्द्र तक मुकरी, पहेली जैसी शब्द-क्रीड़ाओं में भी प्रसंग ठेठ गाँव के जीवन के मिलते है। कहीं-कहीं उनमें ग्राम्यता है, पर उक्ति की सहजता में वह ग्राम्यता तिरोहित हो जाती है। उदाहरण के लिए ‘सखि साजन’ वाली मुकरियों में अत्यन्त सामान्य जीवन के सन्दर्भ ही गृहस्थ जीवन के रस-व्यंजक रूप में प्रस्तुत किये गये हैं-

भारतेन्दु हरिश्चंद्र

जब माँगू तब जल भरि लावै। मेरे मन की विपति बुझावै।
मन का भारी तन का छोटा। ए सखि साजन ना सखि लोटा।
बाट चलत मोरा अँचरा गहे। मेरी सुने न अपनी कहे।
ना कुछ मो सों झगड़ा-झंटा। ए सखि साजन ना सखि काँटा।
हाट चलत में पड़ा जो पाया। खोटा जरा न मैं परखाया।
ना जानूं वह हैगा कैसा। ये सखि साजन, ना सखि पैसा।

  भारतेन्दु की इन दो मुकरियों में भी व्यंग रूप में सामान्य व्यक्ति की प्रतिक्रिया, सामान्य-जीवन के बिम्ब पर आधारित प्रस्तुत मिलती है-

सीटी देकर पास बुलावै
रुपया ले तो निकट बिठावै।
लै भागै मोहि खेलहि खेल
क्यों सखि साजन ना सखि रेल।।
भीतर-भीतर सब रस चूसै
हंसि-हंसि तन मन धन मूसै।
जाहिर बातन में अति तेज
क्यों सखि साजन नहिं अंगरेज़।

  इन विविध उदाहरणों से यह बात स्पष्ट है कि, ब्रजभाषा काव्य के बारे में आम धारणा सही नहीं है कि, ब्रजभाषा काव्य एकांगी या सीमित भावभूमि का काव्य है। चाहे सगुण भक्त कवि हों, चाहे निर्गुण भक्त कवि; चाहे, आचार्य कवि हों, चाहे स्वछन्द कवि, चाहे सूक्तिकार हों, सभी लोक व्यवहार के प्रति बहुत सजग हैं और लौकिक जीवन की समझ इन सबकी बहुत गहरी नुकीली है।

सांस्कृतिक एकता की कड़ी

भक्ति की धारा को आलौकिक मानना ही ग़लत है, उसी प्रकार रीतिकालीन कविता को दरबारी कविता या एक रुँधे हुए जीवन की कविता मानना भी ग़लत है। दोनों कविताओं की भूमि लोक है और इसी कारण दोनों में अभिव्यक्ति और वर्ण्य-विषय दोनों ही स्तरों पर सामान्य जीवन को मुख्य आधार माना गया है। इसलिए बिम्ब अधिकतर कुछ एक अपवादों को छोड़कर सामान्य जीवन के ही ब्रजभाषा साहित्य में मिलते हैं और इसीलिए ब्रजभाषा काव्य में तरह-तरह के ठेठ मुहावरे मिलते हैं, जो उस काव्य के सौन्दर्य को विशेष दीप्ति प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए रसखान की यह पंक्ति, ‘वारहि गोरस बेचन जाहु री माइ लें मूड़ चढ़ै जिन मौड़ी’, जहाँ मूड़ चढ़ने का मुहावरा ठेठ ब्रज गाँव से लिया गया मुहावरा है। भिखारीदास की इस पंक्ति में आया मुहावरा ‘वा अमरइया ने राम-राम कही है’ अवधी क्षेत्र के ठेठ प्रयोग के द्वारा एक आत्मीय आमंत्रण का स्वर जगाया गया है या बोधा की इस पंक्ति में ‘कवि बोधा न चाउ सरी कबहूँ नितही हरबा सौ हिरैबौ करै’, जंगल में खो जाने वाले पशुओं की तरह एक असहाय स्थिति का बोध कराया गया है। ब्रजभाषा काव्य की यात्रा जितनी एकांगी मानी जाती है, उतनी एकांगी है नहीं। उसमें एक बिन्दु पर स्वर अवश्य ही मिलता है, वह बिन्दु है, तरह-तरह के भेदों और अलगावों को बिसराकर एक सामान्य भाव-भूमि तैयार करना। इसी कारण ब्रजभाषा कविता हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई तक व्याप्त हुई। केवल छन्द और सवैया लिखने वाले मुसलमान कवियों की संख्या डेढ़ सौ से ऊपर है।

मैथिलीशरण गुप्त

उन्नीसवीं शताब्दी के एक मुसलमान अध्यापक हफ़ीजुल्ला ने विषय वार चयन के एक हज़ार कवित्त-सवैयों का संकलन तैयार करके छपाया। उत्तर भारत के संगीत में चाहे ध्रुपद धमार में, चाहे ख्याल में, चाहे ठुमरी में या दादरे में, सर्वत्र हिन्दू-मुसलमान सभी प्रकार के गायकों के द्वारा ब्रजभाषा का ही प्रयोग होता रहा और आज भी जिसे हिन्दुस्तानी संगीत कहा जाता है, उसके ऊपर ब्रजभाषा ही छायी हुई है। इसका कारण केवल संगीत का वर्ण्य-विषय प्यार ही नहीं है, इसका कारण एक समान भाव-भूमि की तलाश है। मध्ययुग और उत्तर मध्ययुग के चित्रकारों ने भी ब्रजभाषा काव्य से प्रेरणा ली है, जैसा की पहले ही कहा जा चुका है, कुष्ठ ने ब्रजभाषा की कविता भी की। देश की सांस्कृतिक एकता के लिए ब्रजभाषा एक ज़बर्दस्त कड़ी चार शताब्दियों से अधिक समय तक बनी रही और आधुनिक हिन्दी की व्यापक सर्वदेशीय भूमिका इसी साहित्यिक ब्रजभाषा के कारण सम्भव हुई है।

ब्रजभाषा साहित्य का कोई अलग इतिहास नहीं लिखा गया है, इसका कारण यह है कि हिन्दी और ब्रजभाषा दो सत्ताएँ नहीं हैं। यदि दो हैं भी तो, एक-दूसरे की पूरक हैं। परन्तु जिस प्रकार की अल्प परिश्रम से विद्या प्राप्त करने की प्रवृत्ति ज़ोर पकड़ती जा रही है, जिस तरह का संकीर्ण उपयोगितावाद लोगों के मन में घर करता जा रहा है, उसमें एक प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है, कि हिन्दी साहित्य को यदि पढ़ना-पढ़ाना है तो, उसे श्रीधर पाठक या मैथिलीशरण गुप्त से शुरू करना चाहिए। यह कितना बड़ा आत्मघात है, उसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि साहित्य या संस्कृति में इस प्रकार की विच्छिन्नता तभी आती है, जब कोई जाति अपने भाव-स्वभाव को भूलकर पूर्ण रूप से दास हो जाती है। हिन्दुस्तान में ऐसी स्थिति कभी नहीं आयी, आज आ सकती है, यदि इस प्रकार विच्छेद करने का प्रयत्न हो।

ब्रजभाषा साहित्य सर्वेक्षण

साहित्यिक ब्रजभाषा कोश तैयार करने के पीछे उद्देश्य यह नहीं है कि, साहित्यिक ब्रजभाषा को साहित्यिक हिन्दी से अलग करके देखा जाए, बल्कि उद्देश्य यह है कि, इस साहित्यिक ब्रजभाषा को पढ़ने-पढ़ाने में जो कठिनाई हो रही है, विशेष रूप से उन प्रान्तों में, जहाँ क्षेत्रीय भाषाएँ प्रथम भाषा के रूप में स्वीकृत हैं। उसके मार्ग दर्शन के लिए एक ऐसा कोश होना चाहिए, जो ब्रजभाषा साहित्य के अध्ययन-अध्यापन, ठीक रूप से कहें हिन्दी साहित्य के समूचे अध्ययन-अध्यापन को एक आवश्यक अवलम्ब दे सके। साहित्यिक ब्रजभाषा के ऐतिहासिक स्वरूप को समझने के लिए आवश्यक है कि, ब्रजभाषा साहित्य का सर्वेक्षण इस रूप में कराया जाए कि इस साहित्य की प्रकृति सार्वदेशिक सार्वभौमिक एकात्मता लाने वाली रही है।

ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग

पंडित मदनमोहन मालवीय

जब हम ब्रजभाषा साहित्य कहते हैं तो, उसमें गद्य का समावेश नहीं करते। इसका कारण यह नहीं है कि, ब्रजभाषा में गद्य और साहित्यिक गद्य है ही नहीं। वैष्णवों के वार्ता साहित्य में, भक्ति ग्रन्थों के टीका साहित्य में तथा रीतकालीन ग्रन्थों के टीका साहित्य में ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग हुआ है, परन्तु गद्य का प्रसार दो ही स्थितियों में होता है, या तो वह शास्त्र हो या गद्यगन्धी हो, क्योंकि इन्हीं दोनों दिशाओं में उसमें पुनरावर्तमानता होती है। छापाखाने के आगमन के बाद गद्य का महत्व अपने आप बढ़ा, क्योंकि तब कंठगत करने की अपरिहार्यता नहीं रही। लल्लूलाल जी ने अपने प्रेमसागर में ब्रजभाषा से भावित ऐसे गद्य की रचना की और वह गद्य ही आधुनिक गद्य की भूमि बना, किन्तु ब्रजभाषा का स्थान उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त से जो हिन्दी को मिला, उसमें गद्य की नयी भूमिका का महत्व तो था ही, सबसे बड़ा कारण था, अंग्रेज़ों के द्वारा उत्तर भारत में कचहरी भाषा के रूप में उर्दू को मान्यता देना। उर्दू को मान्यता देने के साथ-साथ फ़ारसी लिपि को भी मान्यता देना। देश की एकता और जन-भावना को देखते हुए कचहरी में देवनागरी लिपि की मान्यता के लिए स्वर्गीय मदनमोहन मालवीय द्वारा आन्दोलन चलाया गया और तब पूरी इबारत भले ही फ़ारसी-अरबी बहुल भाषा में हो, परन्तु देवनागरी के प्रयोग के लिए पहली माँग की गई। इस प्रशासनिक और न्यायालयी भाषा के प्रयोग के दबाब में खड़ी बोली हिन्दी का पनपना स्वभाविक ही था।

एक दूसरा कारण यह भी था कि शिक्षा से माध्यम के रूप में भी शिवप्रसाद गुप्त ने, जो एक मध्यम वर्ग को अपनाते हुए फ़ारसी की ओर लचती हुई हिन्दी में पाठ्य पुस्तकें तैयार कीं। भूदेव मुखर्जी और लक्ष्मणसिंह ने उससे अलग जाकर सहज हिन्दी में शिक्षा की पुस्तकें तैयार कीं। इस शिक्षा माध्यम के दबाब में भी खड़ीबोली का साहित्यिक और परिनिष्ठित रूप विकसित हुआ। अन्तिम कारण यह था कि उद्योगीकरण और नये किस्म के राष्ट्रीयता की जागरण में व्यावसायिक संगठनों की विशेष भूमिका हुई तथा उस भूमिका के निर्वाह के लिए बाज़ारी हिन्दी का विकास हुआ। बाज़ारी हिन्दी शुरू-शुरू में एक मिली-जुली भाषा थी। बाद में यह मानक रूप ग्रहण करके आधुनिक हिन्दी बनी, परन्तु यह बाज़ारी हिन्दी ब्रजभाषा नहीं थी, यह व्यापारिक अन्त:प्रान्तीय सम्पर्क की भाषा थी। शासन की भाषा के रूप में छोटी रियासतों में जिस भाषा का प्रयोग किया जाता था, वह मानक ब्रजभाषा नहीं थी, बुन्देलखण्ड में बुन्देली थी, तो अवध में अवधी, ब्रज के क्षेत्र में ब्रज थी। अन्तिम कारण साहित्यिक ब्रजभाषा के न टिकने का यह था, इसका काव्य रूप जो एकमात्र प्रमाणिक भाषा रूप था, बहुत रूढ़िग्रस्त हो गया। इसमें एक प्रकार की जकड़न आ गई और प्रयोगशीलता भी कम हो गई। द्विजदेव जैसे एकाध अपवादों को अगर छोड़ दें तो जानदार भाषा लिखने वाले कवि कम होते गए, जैसे कोई बगीचे में बाहर आये और उतर जाए, ऐसी स्थिति हो गई।

काल विभाजन

दादू दयाल

ब्रजभाषा साहित्य के इतिहास को तीन चरणों में बाँटा जा सकता है। इसका उदयकाल जिसके ऊपर 'नागर' अपभ्रंश काव्य की छाप है। इसी कारण उसमें दिखने वाले हिन्दी के मध्य देश में पैदा हुए अमीर ख़ुसरो से लेकर महाराष्ट्र में पैदा हुए महानुभाव और ज्ञानेश्वर के साथी नामदेव हैं। दूसरी ओर पंजाब से लेकर बिहार तक के सन्त कवि हैं, जो भिन्न-भिन्न प्रयोजनों से भिन्न-भिन्न प्रकार की भाषा का व्यवहार करते हैं, परन्तु गेय प्रयोजन के लिए प्राय: ब्रजभाषा का ही व्यवहार करते हैं। इनकी सूची बड़ी लम्बी है और पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के अधिकांश सन्त-कवि साहित्यिक ब्रजभाषा का ही प्रयोग करते हैं। मुख्य नाम ये हैं-कबीर, रैदास, धर्मदास और गुरु नानक, दादू दयाल और सत्रहवीं शताब्दी के सुन्दरदास, मलूकदास और अक्षरअनन्य हैं।

सूफ़ी काव्य का बीच रूप भी जिस काव्य से मिलता है, वह मुल्लादाउद का चन्दायन नहीं है, वह साधन का ‘मैनासत’ है, जिसकी भाषा ग्वालियरी है और वह कुछ और नहीं ब्रजभाषा ही है। कुछ विद्वान ब्रजभाषा का पुराना नाम 'ग्वालियरी' ही देते हैं। ‘मैनासत’ का रचना काल पन्द्रहवीं शताब्दी है। यह उल्लेखनीय है कि, इस कोटि के कवियों की भाषा बहुत परिमार्जित नहीं है, न उसमें वक्र-भंगिमाओं के लिए कोई विशेष स्थान है। उदाहरण के लिए नामदेव ने इस छन्द में बहुत सीधे-साधे ढंग से लीला का कीर्तन किया है-

अम्बरीष कौ दियौ अभय पद, राज विभीषन अधिक करयो।
नवनिधि ठाकुर दई सुदामहि, ध्रुव जो अटल अजहूँ न टरयो।
भगत हेत मारयो हरिनाकुस, नृसिंह रूप ह्वै देह धरयो।
नामा कहै भगति बस केसव, अजहूँ बलि के द्वार खरौ।

कबीर

इस प्रकार कबीर के इस पद में सूरदास की भाषा का एक प्रागरूप मिलता है, जो उक्ति की नाटकीयता का बड़ा सरस उदाहरण प्रस्तुत करता है-

हौ बलि कब देखौंगी तोहि।
अहनिसि आंतुर दरसन कारनि ऐसी ब्यापी मोहि।
नैन हमारे तुम्हको चाहैं, रती न मानैं हारि।
बिरह अगिनि तन अधिक जरावै ऐसी लेहु विचारि।
सुनहु हमारी दादि गोसाई, अब जनि करहु अधीर।
तुम धीरज मैं आतुर, स्वामी काँचे भाँड़े नीर।
बहुत दिनन के बिछुरे माधी, मन नहि बाँधे धीर।
देह छमा तुम मिलहु कृपा करि आरतिवन्त कबीर।

  रैदास और धर्मदास में भाषा कुछ अधिक संवरी हुई मिलती है, उदाहरण के लिए रैदास का पद लें-

अब कैसे छूटे नाम रट लागी।
प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी। जाकी अंग अंग बास समानी।
प्रभुजी तुम घन बन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहि मिलत सोहागा।
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करी रैदासा।।

या धर्मदास का यह पद जिसमें हल्की सी भोजपुरी छटा है और शब्द योजना में अनुरणात्मक प्रभाव की गूँज है-

झर लागै महलिया गगन महराय।
खन गरजै खन बिजली चमकै, लहरि उठै सोभा बरनि न जाय।
सुन्न महल से अमृत बरसै, प्रेम आनन्द ह्वै साधु नहाय।
खुली केवरिया, मिटी अँधियरिया धनि सतगुरु जिन दिया लखाय।
धरमदास बिनवै कर जोरी, सतगुरु चरन में रहत समाय।

  गुरु नानक और दादू दयाल में ब्रजभाषा का प्राय: तो मिश्रित रूप मिलता है, किन्तु कहीं-कहीं ब्रजभाषा में पूरा का पूरा पद रचा मिलता है, जैसे

गुरु नानक

नानक के इस पद में-
जो नर दुख नहिं माने।
सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै।
नहिं निन्दा नहिं अस्तुति जाकें, लोभ मोह अभिमाना।
हरष सोक तै रहे नियारो, नाहिं मान अपमाना।
आसा मनसा सकल त्यागि कै जगतें रहे निरासा।
काम क्रोध जेहि परसै नाहिन तेहि घट ब्रह्म निवासा।
गुरु किरपा जेहि नर पै कीन्ही तिन्ह यह जुगति पिछानी।
नानक लीन भयो गोविन्द सौ ज्यों पानी सँग पानी।

  और दादू के इस पद में-

अजहूँ न निकसै प्राण कठोर।
दर्सन बिना बहुत दिन बीते, सुन्दर प्रीतम मोर।।
चारि पहर चारयौ जुग बीते, रैनि गँवाइ भोर।
अवधि गई अजहूँ नहि आये, कतहूँ रहे चितचोर।।
कबहूँ नैन निरषि नहिं देषे, मारग चितवत तोर।
दादू ऐसे आतुर विरहिणि, जैसे चंद चकोर।।

  या सुन्दरदास और मलूकदास में जिनका कार्यकाल सोलहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक चला जाता है, ब्रजभाषा का और अधिक निखरा हुआ रूप मिलता है। सुन्दरदास के एक उदाहरण में-

तू ठगि कै धन और कौ ल्यावत, तेरेउ तौ घर औरइ फोरै।
आगि लगै सबही जरि जाइ सु तू, दमरी दमरी करि जोरै।
हाकिम कौ डर नाहिन सूझत, सुन्दर एकहि बार निचोरै।
तू षरचै नहिं आपुन षाइ सु तेरी हि चातुरि तोहि लै बोरे।।

  मलूकदास के पद में-

अबकी लागी खेप हमारी।
लेखा दिया साह अपने को, सहजै चीठी फारी।
सौदा करत बहुत जुग बीते, दिन दिन टूटी आई।
अबकी बार बेबाक भये हम जम की तलब छोड़ाई।
चार पदारथ नफा भया मोहि, बनिजैं कबहूँ न जइहौं।
अब डहकाय बलाय हमारी, घर ही बैठे खइहौं।
वस्तु अमोलक गुप्तै पाई, ताती वायु न लाओं।
हरि हीरा मेरा ज्ञान जौहरी, ताही सों परखाओं।
देव पितर औ राजा रानी, काहू से दीन न भाखौं।
कह मलूक मेरे रामैं पूँजी, जीव बराबर राखौं।।

चित्र:Bihari.jpg
बिहारीलाल

इन दोनों उदाहरणों में मुहावरेदारी और एक उक्ति को दूसरे में पिरोने की कुशलता और रूपक का निर्वाह तीनों के गुण मिलते हैं। जिससे पता चलता है कि साहित्यिक ब्रजभाषा के विकास का रंग इनमें गहरा है और इन्हें रचनाकाल और भाषा-विकास की दृष्टि से ब्रजभाषा साहित्य के दूसरे चरण में रखना उचित होगा। धरनीदास के निम्नलिखित दोहे की बंदिश और बिहारीलाल के दोहे की बंदिश में बहुत कम अन्तर दिखेगा।

धरनी धरकत है हिया करकत आहि करेज।
ढरकत लोचन भरि भरि पीया नाहिन सेज।

  उसी प्रकार सन्त कवि यारी साहब के इस पद और पद्माकर की ध्वनि-चित्रमयी भाषा में अन्तर नहीं के बराबर है-

झिलमिल-झिलमिल बरखै नूरा
नूर जहूर सदा भरपूरा।।
रुनझुन-रुनझुन अनहद बाजै
भवन गुँजार गगन चढ़ि गाजै।।
रिमझिम-रिमझिम बरखै मोती
भयो प्रकास निरन्तर जोती।।
निरमल-निरमल-निरमल नामा
कह यारी तहँ लियो विस्रामा।।

क्षेत्रीय भाषाओं के तत्त्व

यह मान लेना की प्रारम्भ के कवि भाषा के प्रति उदासीन थे और उनका ध्यान भाषा के सँवार पर नहीं था, सही नहीं है। कम से कम बहुत दूर तक नहीं ही सही है। उपदेश की भाषा या फटकार की भाषा में एक जानबूझकर बाज़ार-भाषा का रूप मिलता है, अनेक क्षेत्रीय भाषाओं के तत्त्व मिलते हैं, किन्तु जहाँ रागात्मक संवेदना तीव्र है, वहाँ भाषा परिनिष्ठित है और यह परिनिष्ठित भाषा ब्रज है। ऐसा लगता है, जैसे उस युग में भाषा के प्रयोग की कुछ रूढ़ियाँ उसी तरह से स्वीकृत हो चुकी थीं, जिस तरह संस्कृत के नाटकों में संस्कृत और विभिन्न प्राकृतों के संन्दर्भ में कुछ रूढ़ियाँ बन गई थीं। इसीलिए एक ही कवि भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में भिन्न-भिन्न भाषाओं का प्रयोग करता है। अमीर खुसरो से ही यह बात दृष्टिगोचर होने लगती है। गेय पदों में चूँकि रागात्मकता का सन्निवेश अपरिहार्य है, इसलिए उनकी भाषा में तो ब्रजभाषा प्राय: निरपवाद रूप में है। जिन दोहों, सोरठों, झूलने, सवैयों और कवित्तों में कोरी उपदेशपरकता नहीं है, सुन्दर तरीके से कहने का भाव है या किसी लालित्य की अभिव्यंजना है या कोई गहरी संवेदना व्यक्त करने का भाव है, उनमें प्राय: ब्रजभाषा का ही प्रयोग मिलेगा। इसके विपरीत युद्ध वर्णन में डिंगल या राजस्थानी भाषा का प्रयोग मिलेगा। कहीं-कहीं इस डिंगल में प्राचीन अपभ्रंश के भी अवशेष दिखाई देते हैं। जहाँ कहीं एक ख़ास किस्म का शहरीपन है, वहाँ पर खड़ी बोली का प्रयोग है और जहाँ सधुक्कड़ी ठाठ है, वहाँ पर मिश्रित भाषा का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार से प्रबन्ध योजना में अवधी भाषा का प्रयोग अधिकतर देखने को मिलता है। उसका कारण है कि अवधी ने जिस अपभ्रंश का उत्तराधिकार लिया है, उस अपभ्रंश में प्रबन्ध काव्य बहुत लिये गए थे। स्वयंभू जैसे कवियों ने अनेक प्रबन्ध काव्य लिखे थे।

ब्रजभाषी गेय पद रचना

गीतावली

चण्डीदास, विद्यावति तथा गोविन्दस्वामी को छोड़कर गेय पद रचना पर ब्रजभाषा का अक्षुण्ण अधिकार है। तुलसीदास जी ने स्वयं भिन्न प्रयोजनों से भिन्न-भिन्न प्रकार की भाषा का प्रयोग किया। अवधी में उन्होंने रामचरितमानस लिखा। ब्रजभाषा में विनय-पत्रिका, गीतावली, दोहावली, कृष्ण-गीतावली लिखी, ठेठ अवधी में उन्होंने पार्वती-मंगल, जानकी-मंगल लिखा और यही नहीं साहित्यिक ब्रजभाषा के भी अनेक रूप उन्होंने प्रस्तुत किए। स्तुतियों के लिए तत्सम बहुल भाषा का उपयोग करने में उन्हें यह आकर्षण हुआ कि ये स्तुतियाँ एक विशेष प्रकार की गरिमा का प्रभाव उत्पन्न कर सकेंगी। किन्तु आत्म-निवेदन की भाषा को उन्होंने तदभव बहुल रखा, जिससे उनका आत्म-निवेदन सामान्य जन के आत्म-निवेदन के समीप हो। ब्रजभाषा साहित्य के द्वितीय चरण की यह विशेषता है कि उसमें विभिन्न प्रकार के सम्प्रेषणों, विभिन्न प्रकार की शैली प्रयुक्तियों का आविष्कार और विकास किया गया है। इस दृष्टि से ब्रजभाषा को साहित्य की भाषा बनाने में इस काल के रससिद्ध कवियों की बड़ी ज़बर्दस्त भूमिका है। सबसे अधिक श्रेय इस विषय में सूरदास को दिया जाना चाहिए। सूर ब्रजभाषा के पहले कवि हैं, जिन्होंने इसकी सृजनात्मक सम्भावनाओं की सबसे अधिक सार्थक खोज की और जिन्होंने ब्रजभाषा को गति और लोच देकर इसकी यान्त्रिकता तोड़ी। सूर के बाद ब्रजभाषा में परिष्कार या साज-संवार या निखार के प्रयत्न तो अवश्य हुए और ब्रजभाषा की काव्य धारा एक लम्बे अरसे तक गतिशील और विकासशील काव्य धारा बनी रही, पर सूर की ब्रजभाषा में जो प्राणवत्ता मिलती है, वह उस मात्रा में अन्यत्र नहीं मिलती। इसके दो मुख्य कारण हैं, एक तो यह कि सूर ने लीला के मोहक और दृश्य वितान को श्रव्य से भी अधिक गेय रूप में परिवर्तित करने का प्रयत्न किया, इस कारण उसमें नाटकीय आरोह-अवरोह अपने आप आया। दूसरा कारण यह है कि सूर के लिए भाषा साधन थी। साध्य नहीं और साधन का अभ्यास उन्होंने इतनी लम्बी अवधि तक किया कि वह साधन हो गया और वह भाषा भी सहज हो गई।

तदभव और तत्सम शब्दों का प्रयोग

द्वितीय चरण के ब्रजभाषा साहित्य के पाँच बिन्दु अत्यन्त संलक्ष्य रूप से दिखाई देते पड़ते हैं।
(1) तदभव और तत्सम शब्दों का एक ऐसा सहज सन्तुलन मिलता है, जिसमें तत्सम शब्द भी ब्रजभाषा की प्रकृति में ढले दिखते हैं, अधिकतर तो वे अर्द्ध-तत्सम रूप में। ‘प्रतीत’ के लिए ‘परतीति’ जबकि इसके साथ-साथ तदभव रूप ‘पतियाबो’ भी मिलता है, जैसे तत्सम प्रतिपादकों में नई नाम धातुएँ बनाकर ‘अभिलाष’ से ‘अभिलाखत’ या ‘अनुराग’ से ‘अनुरागत’। इस अवधि में समानान्तर तत्सम और तदभव शब्दों के अर्थक्षेत्र भी कुछ न कुछ स्पष्टत: व्यतिरेकी हो गए हैं। जब नख-शिख की बात करेंगे, तब ‘नह’ का प्रयोग नहीं करेंगे और जब दसों नह का प्रयोग करेंगे, तब ‘नख’ वहाँ प्रयुक्त नहीं होगा।

हिन्दी वर्णमाला

(2)मूलक्रिया और साधित क्रिया रूपों की इस काल में प्रचुरता यह इंगित करती है कि इस काल के साहित्य में व्यापारों की विविधता को सूक्ष्मता से निरखने की कोशिश की गई है। आधुनिक हिन्दी में तो शुद्ध क्रिया रूप या क्रिया-साधित रूप कम हो गये हैं। इसमें विचारत की जगह पर विचार करना ही अधिक ग्राह्य रूप है। इस काल की ब्रजभाषा में समस्त क्रियापद, मिश्र क्रियापद (संज्ञा+होकर) जैसे तो मिलते हैं, ‘कर’ के साथ क्रिया पद नहीं मिलते या बहुत विरल हैं।
(3)इसी काल में हिन्दी का मुहावरा विकसित हुआ, जैसे-

जदपि टेव तुम जानत उनकी तऊ मोहि कहि आवै।
प्रात होत मेरे अलक लडैतहिं माखन रोटी भावै।

गोस्वामी तुलसीदास

‘तऊ मोहि कहि आवै’ में कहने की लाचारी और कहने की आवश्यकता दोनों एक ही उक्ति में व्यक्त करने का उपाय ढूँढ लिया गया है अथवा निम्नलिखित प्रयोग में ‘नैन नचाय कहीं मुसकाय लला फिर अइयो खेलन होरी’, में एक साथ हास-परिहास, चुनौती और उल्लास तीनों की अभिव्यक्ति ‘फिरि आइयो खेलन होरी’ के द्वारा की गई है।
(4)सार्थक शब्द चयन में कुशलता अपने चरम पर पहुँच गई है, जैसे तुलसीदास की इस पंक्ति में-‘कहे राम रस न रहत’ में अनुभव के अनुपात में कहने के फीकेपन की अभिव्यक्ति जितने ‘कहे रस न रहत से हो सकती है’ उतने अन्य किसी उक्ति-खण्ड से नहीं या सूरदास के प्रसिद्ध पद में राधा के सन्देश को जहाँ इस रूप में कहा गया है, ‘तुम्हारी भावती कहीं’ वहाँ ‘भावती’ का चयन प्रिया की अपेक्षा, प्यारी की अपेक्षा अधिक सार्थक है, क्योंकि भावती में दो-दो अभिव्यंजनायें एक साथ हैं-भाव के अनुकूल और ‘भावतिय’ राधा में दोनों सामर्थ्य है। वे श्रीकृष्ण के भाव में ही डूबी हुई हैं और स्त्री रूप न होकर श्रीकृष्ण के भाव का ही विग्रह है।
(5)अन्तिम बिन्दु यह है कि इस काल की भाषा में ब्यौरा प्रस्तुत करते समय बहुत संयम से काम लिया गया है। अर्थात् सावधानी से भाव-बोधक ब्यौरे ही चुनकर रखे गये हैं और कुछ शब्द या अभिधान केन्द्रभूत होकर के स्थापित हो गए हैं। उनसे आशुलिपि की भाषा का काम लिया जाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि पुराने कविसमयों और नये कविसमयों की उदभावना कल्पना के साथ की गई है, जैसे सूरदास की इस पंक्ति में-

‘चलि चकई वह चरन सरोवर जहाँ रैन नहिं होइ’

भाषा के प्रति असजगता

एक प्राचीन कविसमय के अभिप्राय की नई उदभावना की गई है कि, प्रभु के चरणों के नखों में सूर्य की ज्योति का प्रकाश है, वहाँ रात की कोई सम्भावना नहीं, वहाँ समस्त द्वन्द्वों की विश्रान्ति है। भक्ति के द्वारा जहाँ एक ओर सामान्य व्यक्ति की भाषा को असामान्य महत्व दिया गया और सामान्य भाषा का संगीतात्मक उपयोग न केवल भगवद भक्ति का साधन हुआ, वह भगवद भक्ति की सिद्धि भी बना। इस कारण से प्रत्येक भक्त गायक और पद रचनाकार होने लगा। दूसरी ओर जो भक्त कवि कुशल नहीं थे, वे भाषा के प्रति सजग नहीं रहे, वे सम्प्रेषण के प्रति उदासीन रहे, उनके मन में यह भ्रम रहा कि भाव मुख्य है, भाषा नहीं। वे यह समझ नहीं सकते थे कि भाव और भाषा का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। इनके अचेत कवि-कर्म की बहुलता का प्रभाव भाषा पर पड़ा, उसमें कुछ जड़ता आने लगी।

भक्ति आन्दोलन

चैतन्य महाप्रभु

भक्ति आन्दोलन तो चलता रहा और उसका व्यापक प्रभाव भी जनजीवन पर बना रहा, पर कवि-कर्म के प्रति सजग कवियों ने भाषा और भाव के ऐक्य पर ध्यान देना शुरू किया। रीतिकाल भक्तिहीन नहीं है, उस काल में भी सांसारिक प्रपंच में रहते हुए विश्व और विश्वात्मा को उद्वेलित करने वाले प्रेम-व्यापार की चिन्ता थी। वे दरबारों में आश्रय पाते थे, पर दरबारदारी से सभी कवि बँधे नहीं थे, जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि उनका संसार नायक-नायिका तक सीमित नहीं था और न नायक-नायिकाएँ ही उच्च वर्ग या सम्पन्न वर्ग तक ही सीमित थीं, वे साधारण जीवन में अभिव्याप्त राग संवेदना की पहचान कराना चाहते थे। उन्हें श्रीराधा-कृष्ण की प्रेमानुगा-भक्ति का एक चौखटा मिल गया, जिससे उन्हें अपनी बात कहने में थोड़ी आसानी रही। भिखारीदास की पंक्ति में-

आगे के सुकवि रीझि है तो कविताई
न तौ राधिका कन्हाई के सुमिरन को बहानौ है।

  का अर्थ यह नहीं है कि सचमुच में उनके लिए ‘राधिका कन्हाई’ का स्मरण बहाना था। उसका अर्थ केवल यही है कि वे विनम्रतापूर्वक अपने को लौकिक रखना चाहते थे, परन्तु आलौकिक श्रीकृष्ण की लौकिक लीला से वे किसी भी प्रकार अप्रभावित नहीं थे। यदि इन कवियों के समानान्तर दरबारी उर्दू कवियों के साथ तुलना की जाए तो यह बात और अच्छी तरह समझ में आती है कि उर्दू कविता में उक्ति चमत्कार के स्तर पर कवि-कर्म की वैसी ही सजगता है, परन्तु उसके अनुभव का संसार सीमित है। इस कारण उनकी भाषा में एक जड़ाऊपन तो है, विभिन्न प्रकार के जीवन क्षेत्रों से आने वाली ताज़गी नहीं है। उनमें ग्राम्य जीवन के चित्र नहीं के बराबर हैं। रीतिकाल में अभिव्यक्ति को निस्संदेह महत्त्व मिला, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं समझा जाना चाहिए कि उनका काव्य अनुभव उनके भक्त न होने के कारण अपरिहार्य रूप से हेय या भक्त कवियों की अपेक्षा कम उपादेय अनुभव है। अतिरेक प्रत्येक युग में होता है और वह उस युग की प्रवृत्ति नहीं है। उसके आधार पर उस युग की कविता का मूल्यांकन करना समीचीन नहीं है।

ब्रजभाषा की समृद्धता

सूरदास, सूरसरोवर, आगरा

रीतिकाल पुनर्मूल्यांकन की अपेक्षा रखता है। वह व्यक्तित्वों के आधार पर किया जाता रहा है। अथवा उन्नीसवीं शताब्दी की विक्टोरियन, खोखली नैतिकता के मानदण्डों से किया जाता रहा है। यह सही है कि सूरदास या तुलसीदास की ऊँचाई का कवि या उनके व्यापक काव्य संसार जैसा संसार इस युग के कवियों में नहीं प्राप्त है, पर साधारण जन के कंठ में तुलसी, सूर, कबीर की ही तरह रहीम, रसखान, पद्माकर, ठाकुर, देव, बिहारीलाल ही नहीं बहुत अपेक्षाकृत कम विख्यात कवि भी चढ़े। उसका कारण उनकी कविता की सह्रदता और सम्प्रेषणीयता ही थी। इन कवियों से ब्रजभाषा समृद्ध हुई है, उसने एक ऐसे जीवन में प्रवेश किया है, जो सबका हो सकता है। यह उल्लेखनीय है कि इस युग के जो कवि राजदरबारों में हैं, वे भी केवल कसीदा या बधाई लिखकर सन्तोष नहीं पाते थे। वे अपना काव्य राजा को समर्पित कर दें, पर उस काव्य में राजा या राजदरबार का जीवन बहुत कम रहता था। वे प्रकृति के मुक्त वितान के कवि थे, सँकरी और अँधेरी गली के कवि नहीं थे। इसलिए इस युग के उत्कृष्ट काव्य में सेनापति जैसे कवि के स्वच्छ प्रकृति चित्रण मिलते हैं और विभिन्न व्यवसायों, विशेष करके कृषि व्यवसाय के मनोरम चित्र कहीं विम्ब के रूप में, कहीं वर्ण्य विषय के रूप में, कहीं सादृश्य के रूप में मिलते हैं। संस्कृत की मुक्तक काव्य परम्परा और संस्कृत की काव्यशिखा परम्परा का दाय इस काल में प्रसृत दिखता है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उसके पूर्ववर्ती काल में उसकी छाप न हो, अपभ्रंश काव्य में वीर गाथाओं, वैष्णव पदावली साहित्य इन सबमें उसकी छाप है। अत: इसको रीतिकाल का अभिलक्षण बताना उचित नहीं। रीतिकाल के कवियों में देश की चेतना न हो, ऐसी बात भी नहीं है। भूषण, लाल, सूदन, पद्माकर जैसे प्रसिद्ध कवियों के अतिरिक्त भी अनेक कवि हुए, जिनके काव्य में स्वदेश का अनुराग व्यक्त होता है और वह परम्परा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, श्रीधर पाठक और सत्य नारायण कविरत्न तक अक्षुण्ण चली आई है।

सुन्दर व्याकरणीय प्रयोग

ब्रजभाषा के माध्यम से पूरे देश की कविता में एक ऐसी भावभूमी वाली, जिसमें सभी शरीक हो सकते थे और एक ऐसी भाषा पाई, जिसकी गूँज मन को और का और बना सकती थी। इस युग में भाषा में एक ओर घनानन्द जैसे कवियों में लाक्षणिक प्रयोगों का विकास हुआ, जिसमें ‘लगियै रहै आँखिन के उर आरति’ जैसे प्रयोग अमूर्त को मूर्त रूप देने के लिए उदभूत हुए। दूसरी ओर सीधे मुहावरे की अर्थगर्भिता उन्मीलित की गई। जैसे-

  • अब रहियै न रहियै समयो बहती नदी पाँय पखार लै री।...(ठाकुर)

प्रसाद गुण और लयधर्मी प्रवाहशीलता का उत्कर्ष भी इस युग में पहुँचा। जैसे-

चाँदनी के भारन दिखात उनयौ सो चंद
गंध ही के भारन मद-मंद बहत पौन...(द्विजदेव)

राधा-कृष्ण

अथवा

आगे नन्दरानी के तनिक पय पीवे काज
तीन लोक ठाकुर सो ठुनकत ठाड़ौ है...(पद्माकर)

  इस युग की ब्रजभाषा कविता में पुनरुक्ति का उपयोग भी बड़े सटीक ढंग से हुआ और उससे अर्थ में भावैक्य लाने में सफलता मिली। जैसे-

बोल हारे कोकिल बुलाय हारे केकीगन
सिखै हारी सखियाँ सब जुगति नई नई

  इसमें हारने की क्रिया का प्रयोग तीन बार हुआ है। इस पुनरुक्ति से एक असम्भव स्थिति का द्योतन सामर्थ्यपूर्वक हुआ है। सादृश्य विधान की भी नई ऊँचाइयाँ देखने को मिलती हैं। कहीं-कहीं उत्प्रेक्षा की उड़ान के रूप में, कहीं-कहीं कसे हुए रूपक के रूप में, कहीं-कहीं अत्यन्त सीधी पर नुकीली उपमा के रूप में। जैसे-

राधिका के आनन की समता न पावै विधु
टूकि-टूकि तोरै पुनि टूक-टूक जोरै है...(उत्प्रेक्षा)

वरुनी बंघबर औ गूदरी पलक दोऊ
कोए राते बसन भगौहें भेस रखियाँ।
बूड़ी जल ही में दिन जामिन हूँ जागी भौहें
धूम सिर छायौ बिरहानल बिलखियाँ।
अँसुआ फटिक-माल लाल डोरी सेली पैन्हि
भई हैं अकेली तजि सेली संग, सखियाँ।
दीजिए दरस ‘देव’ कीजिए सँजोगिनि, ये
जोगिन है बैठीं वा वियोगिनि की अँखियाँ।...(सांग रूपक)

सुरभि सी सुकवि की सुमति खुलन लागीं
चिरिया सी चिन्ता जागी जनक के हियरे।...(उपमा)

  उलाहनों की भाषा में बाँकपन सूरदास से ही मिलना प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु इस युग की कविता में वह बाँकपन कुछ और विकसित मिलता है। जैसे-

भोरहि नयौति गई ती तुम्हें वह गोकुल गाँव की ग्वारिन गोरी।
आधिक राति लौं बेनी प्रबीन तुम्हें ढिंग राखि करी बरजोरी।
देखि हँसी हमें आवत लालन भाल में दीन्ही महावर घोरी।
एते बड़े ब्रजमण्डल में न मिली कहुँ माँगेहु रंचक रोरी।।

  सूक्ष्म मनोभावों के अंकन के लिए मूर्त अभिव्यंजना का आश्रय बड़ी कुशलता से लिया गया है। जैसे छन्द में-

मान्यौ न मानवती भई भोर सुसोचहि सोय गए मनभावन।
तैस सों सास कही दुलही भई बेर कुमार को जाहु जगावन।।
मान को सोच जगैबे की लाज लगी पग नूपुर पाटी बजावन।
या छवि हेरि हिराय रहे हरि कौन को रूसिबो काको मनावन।।

  इस अनाम कवि के छन्द में मान के निर्वाह की चिन्ता और जगाने की लज्जा के अर्न्तद्वन्द्व का समाधान नूपुरों से पाटी बजाकर, उन पैरों के मन जाने का सूक्ष्म संकेत है, जिन्हें नायक मनाता रहा, नायिका नहीं मनी। इस युग की भाषिक उपलब्धियों का लेखा-जोखा देना यहाँ अभिप्रेत नहीं है। यहाँ केवल इतना संकेत कर देना था कि, ब्रजभाषा की काव्य यात्रा रीति युग में नये उत्कर्ष के शिखरों पर पहुँचती रही और उसके कारण भाषा में निखार आता रहा। शब्दों के चयन के ऊपर बल देने से, उक्ति भंगिमाओं के औचित्य से, लयात्मक प्रवाह से या संक्षिप्तता से। असमर्थ कवियों के द्वारा या समर्थ कवियों के द्वारा भी शब्दक्रीड़ा करते हुए अटपटे प्रयोग भी आये हैं और खिचड़ी भी शब्दों की पकायी गई है। जिसके कारण सम्बद्ध स्थलों में दुरूहता आ गई है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (ब्रजभाषा व्याकरण, (प्रथम संस्करण 1937 ई.) पृ. 13)
  2. (वाजपेयी, के. डी., ब्रज का इतिहास प्रथम खंड, प्रथम संस्करण, 1955 ई., पृ. 3-4)

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