मिथिला

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जब हम कोसलपुरी अयोध्या का नाम लेते हैं, उस समय विदेह-पुरी मिथिला का भी स्मरण हो आता है। ये दोनों ही धार्मिक पुरियाँ हर काल में हमारे लिए प्रेरणा एवं संबल का स्त्रोत रही हैं। यह वर्तमान में उत्तरी बिहार और नेपाल की तराई का इलाक़ा है जिसे मिथिला या मिथिलांचल के नाम से जाना जाता था। मिथिला की लोकश्रुति कई सदियों से चली आ रही है जो अपनी बौद्धिक परंपरा के लिये भारत और भारत के बाहर जाना जाता रहा है। इस इलाके की प्रमुख भाषा मैथिली है। धार्मिक ग्रंथों में सबसे पहले इसका उल्लेख रामायण में मिलता है। बिहार-नेपाल सीमा पर विदेह (तिरहुत) का प्रदेश जो कोसी और गंडकी नदियों के बीच में स्थित है। इस प्रदेश की प्राचीन राजधानी जनकपुर में थी। मिथिला का उल्लेख महाभारत, रामायण, पुराण तथा जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में हुआ है।

रामायण-काल

  • रामायण-काल में यह जनपद बहुत प्रसिद्ध था तथा सीता के पिता जनक का राज्य इसी प्रदेश में था। मिथिला जनकपुर को भी कहते थे।[1] अहिल्याश्रम मिथिला के सन्निकट स्थित था।
  • वाल्मीकि रामायण[2] के अनुसार मिथिला के राज्यवंश का संस्थापक निमि था। मिथि इसके पुत्र थे और मिथि के पुत्र जनक। इन्हीं के नाम राशि वंशज सीता के पिता जनक थे। हमारे साहित्य एवं मौखिक परम्पराओं में मिथिला के राजा जनक उतने ही जीवित हैं, जितना कि अयोध्या के राजा दशरथ। वे अपनी दार्शनिक अभिरूचि तथा अनासक्ति के लिये प्रसिद्ध थे।
  • रामायण के अनुसार मिथिला के नागरिक शिष्ट एवं अतिथिपरायण थे। इस ग्रन्थ के अनुसार महर्षि विश्वामित्र राम एवं लक्ष्मण को साथ लेकर चार दिनों की यात्रा करने के पश्चात मिथिला पहुँचे थे।

पुराण

  • वायु पुराण[3] और विष्णु पुराण[4] में निमि को विदेह का राजा कहा है तथा उसे इक्ष्वाकु वंशी माना है।[5] मिथिला राजा मिथि के नाम पर प्रसिद्ध हुई। विष्णु पुराण में मिथिलावन का उल्लेख है।[6] विष्णु पुराण[7] में मिथिला को विदेह नगरी कहा गया है।
  • मज्झिमनिकाय[8] और निमिजातक में मिथिला का सर्वप्रथम राजा मखादेव बताया गया है। जातक[9] में मिथिला के महाजनक नामक राजा का उल्लेख है।

महाभारत

  • महाभारत में मिथिला के जनक की निम्न दार्शनिक उक्तियों का उल्लेख है।[10] वास्तव में जनक नाम के राजाओं का वंश मिथिला का सर्वप्रसिद्ध राज्य वंश था। महाभारत[11] में भीम सेन द्वारा विदेहराज जनक की पराजय का वर्णन है। महाभारत में मिथिलाधिप जनक का उल्लेख है।[12]
  • महाभारत के सभापर्व में वर्णन मिलता है कि कृष्ण अपने साथ पाण्डवों को लेकर इस नगर में आये थे।
  • महाभारत में एक कथा आती है जिसके अनुसार मिथिला का नगर भयंकर अग्निदाह में खाक होने लगा। इस समय जनक जरा भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने बड़ी ही अनासक्ति के साथ लोगों से कहा कि यह सही है कि मेरी राजधानी आज जल कर खत्म होने जा रही है पर मुझे इस बात की कोई चिन्ता नहीं है, क्योंकि इसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं जल रहा है।

जैन तीर्थ

  • जैन ग्रंथ विविधकल्प सूत्र में इस नगरी का जैन तीर्थ के रूप में वर्णन है। इस ग्रंथ से निम्न सूचना मिलती है, इसका एक अन्य नाम जगती भी था। इसके निकट ही कनकपुर नामक नगर स्थित था। मल्लिनाथ और नेमिनाथ दोनों ही तीर्थंकरों ने जैन धर्म में यहीं दीक्षा ली थी और यहीं उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। यहीं अकंपित का जन्म हुआ था। मिथिला में गंगा और गंडकी का संगम है। महावीर ने यहाँ निवास किया था तथा अपने परिभ्रमण में वहाँ आते-जाते थे। जिस स्थान पर राम और सीता का विवाह हुआ था वह शाकल्य कुण्ड कहलाता था। जैन सूत्र-प्रज्ञापणा में मिथिला को मिलिलवी कहा है।

जातकों के अनुसार

जातकों के अनुसार यह नगरी तीन तरह की खाइयों से घिरी हुई थी:-

  1. उदक-परिखा (जल से भरी खाई),
  2. कर्दम-परिखा (कीचड़ से भरी खाई) तथा
  3. शुष्क-परिखा (सूखी खाई)।

यहाँ उल्लेखनीय है कि इन तीनों कोटि की परिखायें प्राय: उन्हीं नगरों में होती थीं, जिनका विशेष महत्त्व हुआ करता था। इसके पहले निर्देश किया जा चुका है कि वैशाली नगर भी इन तीनों तरह की खाइयों से घिरा हुआ था। ये दोनों ही नगर बुद्ध-काल में वज्जिसंघ के अन्दर आते थे। अतएव बहुत संभव है कि उसी समय इन दोनों ही नगरों में सुरक्षा की दृष्टि से तीनों ही तरह की परिखाएँ खोद दी गईं।

जन जीवन

मिथिला के प्रसंग में इस तरह की और भी मधुर घटनाओं की स्मृतियाँ हमारे प्राचीन साहित्य के पन्नों में सुरक्षित हैं। वहाँ के नागरिक कला और संस्कृति के प्रेमी थे। महिलाएँ बहुमूल्य आभूषण तथा सुगन्धित द्रवों को व्यवहार में लाती थीं। नगर के भीतर ऊँची अट्टालिकाएँ, रम्य चत्वर, मनोरम वाटिकाएँ एवं उद्यान मौजूद थे। मिथिला नाम कैसे पड़ा, इस संबन्ध में पुराणों में एक भारतीय परम्परा उल्लिखित मिलती है। इसके अनुसार इस नगर को मिथि नामक राजा ने बसाया। वे इस पुरी को जन्म देने में समर्थ सिद्ध हुए, अतएव वे जनक नाम से प्रसिद्ध हो गए।

व्यापारिक सम्बन्ध

गंगा-घाटी के नगरों के साथ मिथिला का व्यापारिक सम्बन्ध सदा से ही था। श्रावस्ती एवं काशी के व्यापारी यहाँ आते थे। वहाँ के नागरिक बनारसी सिल्क के बड़े ही शौक़ीन थे। जातक ग्रन्थों के अनुसार मिथिला-नरेशों के दरबारी काशी के सिल्क की धोती, पगड़ी और मिर्जई पहनते थे। मिथिला-नागरिक बड़े ही उत्साही थे। वहाँ के जिज्ञासु नवयुवक अध्ययन के लिये पहले तक्षशिला जाया करते थे, जो इस नगर से सैकड़ों मील की दूरी पर स्थित था। अतएव लगता है कि बहुत प्रारम्भ में मिथिला-पुरी शिक्षा-केन्द्र न थी। पर बाद में वहाँ बौद्धिक विकास बड़ी शीघ्रता के साथ आरंभ हुआ। बाह्य आक्रमणों से सुरक्षित होने के कारण इस नगर का वातावरण शान्तिमय था। फलत: वहाँ शिक्षा एवं उच्च संस्कृति की अभिवृद्धि संभव हुई। यह पुरी पंडितों की खान समझी जाने लगी। मिथिला-मण्डल के विद्वानों में मण्डनमिश्र उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने शंकराचार्य से टक्कर लिया थां जयदेव एवं विद्यापति मिथिला की विभूति थे। इनके गेय पद आज दिन भी रसिकों को अह्लादित करते हैं।

महत्त्व

कुछ दिनों तक यहाँ तीर-भुक्ति (तिरहुत) की भी राजधानी स्थित थी। इसीलिए लोग कभी-कभी इस पुर को तीरभुक्ति भी कहते थे। इस नाम के पड़ने का कारण यह था कि यह प्रदेश बड़ी गंडक और बागमती, इन दोनों नदियों के तीर (तटों) के बीच स्थित था। आज के युग में भी हमारे धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन में मिथिला का एक विशेष स्थान है। इस नगर का प्रतिनिधित्व आधुनिक जनकपुर करता है, जिसके दर्शनार्थ भारतवासी दूर भागों से भी प्रभूत संख्या में वहाँ एकत्र होते हैं।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ’तत: परमसत्कारं सुमते प्राप्य राघवौ, उप्यतत्र निश:मेकां जग्मतु: मिथिला तत:
    तां द्दष्टवा मुनय: सर्वे जनकस्य पुरीं शुभाम् साधुसाध्वतिशंसन्तो मिथिलां संपूजयन्।
    मिथिल पवने तत्र आश्रमं द्दश्य राघव:
    , पुराण निजने रम्यं प्रयच्छ मुनिपुंगवम्’
    , दे. वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड 48-49
  2. वाल्मीकि रामायण, 1,71,3
  3. वायु पुराण 88,7-8
  4. विष्णु पुराण 4, 5, 1
  5. दे. विदेह
  6. ’सा च बडवाशतयोजन प्रमाणमागमतीता पुनरपि वाह्यमाना मिथिलावनोद्देशे प्राणानुत्ससर्ज’, विष्णु पुराण 4, 13, 93
  7. विष्णु पुराण 4, 13, 107
  8. मज्झिमनिकाय 2, 74, 83
  9. जातक सं. 539
  10. मिथिलायां प्रदीप्तयां नमे दह्यति किंच’ महाभारत, शांतिपर्व 219 दक्षिणात्य पाठ
  11. महाभारत, सभापर्व 30, 13
  12. केनवृत्तेन वृतज्ञ जनको मिथिलाधिप:’ शांतिपर्व 218, 1

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