बौद्ध विहार
उच्च शिक्षा में धार्मिक विषयों के अलावा अन्य विषय भी शामिल थे, और इसका केन्द्र बौद्ध विहार ही था। इनमें से सबसे प्रसिद्ध, बिहार का नालन्दा विश्वविद्यालय था। अन्य शिक्षा के प्रमुख केन्द्र विक्रमशिला और उद्दंडपुर थे। ये भी बिहार में ही थे। इन केन्द्रों में दूर-दूर से, यहाँ तक की तिब्बत से भी, विद्यार्थी आते थे। यहाँ शिक्षा नि:शुल्क प्रदान की जाती थी। इन विश्वविद्यालयों का खर्च शासकों द्वारा दी गई मुद्रा और भूमि के दान से चलता था। नालन्दा को दो सौ ग्रामों का अनुदान प्राप्त था। बौद्ध धर्म में बौद्ध भिक्षुओं के ठहरने के स्थान को विहार कहते हैं। यही विहार जो तुर्कों द्वारा दिया गया है। वह बाद में बिहार हो गया। बिहार शब्द विहार का अपभ्रंश रुप है। यह शब्द बौद्ध (मठों) विहारों कि क्षेत्रीय बहुलता के कारण (बिहार) तुर्कों द्वारा दिया हुआ नाम है। बौद्ध विहार एकनाल में वनवाया गया था।
शिक्षा के केंद्र
शिक्षा का एक अन्य प्रमुख केन्द्र कश्मीर था। इस काल में कश्मीर में शैव मत तथा अन्य मतावलंबी शिक्षा केन्द्र थे। दक्षिण भारत में मदुरई तथा श्रृंगेरी में भी कई महत्त्वपूर्ण मठों की स्थापना हुई। इन केन्द्रों में प्रमुख रूप से धर्म तथा दर्शन शास्त्र पर विचार-विमर्श होता था। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित मठों और शिक्षा केन्द्रों के कारण विचार विनिमय आसानी और शीघ्रता से देश के एक भाग से दूसरे भाग तक हो सकते थे। किसी दर्शन शास्त्री की विद्या उस समय तक पूर्ण नहीं मानी जाती थी जब तक वह देश के विभिन्न भागों में जाकर वहाँ के लोगों से शास्त्रार्थ न करता हो। इस तरह देश में विचारों के मुक्त और शीघ्रतापूर्ण आदान-प्रदान से भारत की सांस्कृतिक एकता को बहुत बल मिला, लेकिन इसके बावजूद इस काल में शिक्षित वर्ग का दृष्टिकोण अधिक संकीर्ण होता गया। वे नये विचारों का प्रतिपादन अथवा उसका स्वागत करने के स्थान पर केवल अतीत के ज्ञान पर ही निर्भर करते थे। वे भारत के बाहर पनपने वाले वैज्ञानिक विचारों से भी स्वयं को अलग रखते थे। इस प्रवृत्ति की झलक हमें मध्य एशिया के प्रसिद्ध वैज्ञानिक और विद्वान् अलबेरूनी की रचनाओं में मिलती है। अलबेरूनी ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में क़रीब दस वर्षों तक भारत में रहा। यद्यपि वह भारतीय ज्ञान और विज्ञान का प्रशंसक था, उसने यहाँ के शिक्षित वर्गों और विशेषकर ब्राह्मणों की संकीर्णता की चर्चा भी की हैः- 'ये घमण्डी, गर्वीले, दंभी तथा संकीर्ण प्रवृत्ति के हैं। ये प्रवृत्ति से ही अपने ज्ञान को दूसरों को बाँटने के मामले में कंजूस हैं और इस बात का अधिक से अधिक ख्याल रखते हैं कि कहीं और कोई जात के किसी आदमी, विशेषकर किसी विदेशी को उनका ज्ञान नहीं मिल जाए। उनका विश्वास है कि उनके अलावा और किसी को भी विज्ञान का कोई ज्ञान नहीं है।' ज्ञान को ही कुछ लोगों तक सीमित रखने की उनकी इस प्रवृत्ति तथा घमण्ड के कारण तथा किसी और स्रोत से प्राप्त ज्ञान को तुच्छ समझने के कारण भारतवर्ष इस मामले में पिछड़ गया। कालान्तर में उसे इस प्रवृत्ति का बहुत बड़ा मूल्य चुकाना पड़ा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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