रचनहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ ।
दिल मंदिर मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥1॥
भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग ।
भांडा घड़ि जिनि मुख दिया, सोई पूरण जोग ॥2॥
`कबीर' का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ ।
अणच्यंत्या हरिजी करैं, जो तोहि च्यंत न होइ ॥3॥
संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-लेइ ।
साईं सूँ सनमुख रहै, जहाँ मांगै तहां देइ ॥4॥
मानि महातम प्रेम-रस, गरवातण गुण नेह ।
ए सबहीं अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह ॥5॥
मांगण मरण समान है, बिरला बंचै कोई ।
कहै `कबीर' रघुनाथ सूं, मति रे मंगावै मोहि ॥6॥
`कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बजाइ ॥7॥