कबीर का व्यक्तित्व

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कबीरदास

हिन्दी साहित्य के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है, तुलसीदास। परन्तु तुलसीदास और कबीर के व्यक्तित्व में बड़ा अन्तर था। यद्यपि दोनों ही भक्त थे, परन्तु दोनों स्वभाव, संस्कार और दृष्टिकोण में एकदम भिन्न थे। मस्ती, फ़क्कड़ाना स्वभाव और सबकुछ को झाड़–फटकार कर चल देने वाले तेज़ ने कबीर को हिन्दी–साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है।

आकर्षक वक्ता

कबीर की वाणियों में सबकुछ को छाकर उनका सर्वजयी व्यक्तित्व विराजता रहता है। उसी ने कबीर की वाणियों में अनन्य–असाधारण जीवन रस भर दिया है। कबीर की वाणी का अनुकरण नहीं हो सकता। अनुकरण करने की सभी चेष्टाएँ व्यर्थ सिद्ध हुई हैं। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियाँ श्रोता को बलपूर्वक आकृष्ट करती हैं। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सम्भाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को 'कवि' कहने में संतोष पाता है। ऐसे आकर्षक वक्ता को 'कवि' न कहा जाए तो और क्या कहा जाए? परन्तु यह भूल नहीं जाना चाहिए कि यह कविरूप घलुए में मिली हुई वस्तु है। कबीर ने कविता लिखने की प्रतिज्ञा करके अपनी बातें नहीं कही थीं। उनकी छंदोयोजना, उचित–वैचित्र्य और अलंकार विधान पूर्ण–रूप से स्वाभाविक और अयत्नसाधित हैं। काव्यगत रूढ़ियों के न तो वे जानकार थे और न ही क़ायल। अपने अनन्य–साधारण व्यक्तित्व के कारण ही वे सहृदय को आकृष्ट करते हैं। उनमें एक और बड़ा भारी गुण है, जो उन्हें अन्यान्य संतों से विशेष बना देता है।

सादगी और सहजभाव

यद्यपि कबीरदास एक ऐसे विराट और आनंदमय लोक की बात करते हैं जो साधारण मनुष्यों की पहुँच के बहुत ऊपर है और वे अपने को उस देश का निवासी बताते हैं जहाँ पर बारह महीने बसंत रहता है, निरन्तर अमृत की झड़ी लगी रहती है। फिर भी जैसा की एवेलिन अंडरहिल ने कहा है, वे उस आत्मविस्मृतिकारी परम उल्लासमय साक्षात्कार के समय भी दैनदिन–व्यवहार की दुनिया के साथ धरती पर जमे रहते हैं; उनके महिला–समन्वित और आवेगमय विचार, बराबर धीर और सजीव बुद्ध तथा सहज भाव द्वारा नियंत्रित होते रहते हैं, जो सच्चे मरमी कवियों में ही मिलते हैं। उनकी सर्वाधिक लक्ष्य होने वाली विशेषताएँ हैं—

  • सादगी और सहजभाव पर निरन्तर ज़ोर देते रहना,
  • बाह्य धर्माचारों की निर्मम आलोचना, और
  • सब प्रकार के विरागभाव और हेतु प्रकृतिगत अनुसंधित्सा के द्वारा सहज ही ग़लत दिखने वाली बातों को दुर्बोध्य और महान बना देने की चेष्टा के प्रति वैर–भाव।

इसीलिए वे साधारण मनुष्य के लिए दुर्बोध्य नहीं हो जाते और अपने असाधारण भावों को ग्राह्य बनाने में सदा सफल दिखाई देते हैं। कबीरदास के इस गुण ने सैकड़ों वर्ष से उन्हें साधारण जनता का नेता और साथी बना दिया है। वे केवल श्रद्धा और भक्ति के पात्र ही नहीं, प्रेम और विश्वास के आस्पद भी बन गए हैं। सच पूछा जाए तो जनता कबीरदास पर श्रद्धा करने की अपेक्षा प्रेम अधिक करती है। इसीलिए उनके संत–रूप के साथ ही उनका कवि–रूप भी बराबर चलता रहता है। वे केवल नेता और गुरु ही नहीं हैं, साथी और मित्र भी हैं।

महान समाज सुधारक

कबीर ने ऐसी बहुत सी बातें कही हैं, जिनसे (अगर उपयोग किया जाए तो) समाज–सुधार में सहायता मिल सकती है, पर इसलिए उनको समाज–सुधारक समझना ग़लती है। वस्तुतः वे व्यक्तिगत साधना के प्रचारक थे। समष्टि–वृत्ति उनके चित्त का स्वाभाविक धर्म नहीं था। वे व्यष्टिवादी थे। सर्व–धर्म समन्सय के लिए जिस मज़बूत आधार की ज़रूरत होती है वह वस्तु कबीर के पदों में सर्वत्र पाई जाती है, वह बात है भगवान के प्रति अहैतुक प्रेम और मनुष्यमात्र को उसके निर्विशिष्ट रूप में समान समझना। परन्तु आजकल सर्व–धर्म समन्वय से जिस प्रकार का भाव लिया जाता है, वह कबीर में एकदम नहीं था। सभी धर्मों के बाह्य आचारों और अन्तर संस्कारों में कुछ न कुछ विशेष देखना और सब आचारों, संस्कारों के प्रति सम्मान की दृष्टि उत्पन्न करना ही यह भाव है। कबीर इनके कठोर विरोधी थे। उन्हें अर्थहीन आचार पसन्द नहीं थे, चाहे वे बड़े से बड़े आचार्य या पैगम्बर के ही प्रवर्त्तित हों या उच्च से उच्च समझी जाने वाली धर्म पुस्तक से उपदिष्ट हों। बाह्याचार की निरर्थक और संस्कारों की विचारहीन ग़ुलामी कबीर को पसन्द नहीं थी। वे इनसे मुक्त मनुष्यता को ही प्रेमभक्ति का पात्र मानते थे। धर्मगत विशेषताओं के प्रति सहनशीलता और संभ्रम का भाव भी उनके पदों में नहीं मिलता। परन्तु वे मनुष्यमात्र को समान मर्यादा का अधिकारी मानते थे। जातिगत, कुलगत, आचारगत श्रेष्ठता का उनकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं था। सम्प्रदाय–प्रतिष्ठा के भी वे विरोधी जान पड़ते हैं। परन्तु फिर भी विरोधाभास यह है कि उन्हें हज़ारों की संख्या में लोग सम्प्रदाय विशेष के प्रवर्त्तक मानने में ही गौरव अनुभव करते हैं।

जीवन दर्शन

कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते हैं। वे कहते हैं-
हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया । तो कभी कहते हैं-
हरि जननी मैं बालक तोरा। उस समय हिंदु जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका आदर होता है।

धर्मगुरु

कबीर धर्मगुरु थे। इसलिए उनकी वाणियों का आध्यात्मिक रस ही आस्वाद्य होना चाहिए, परन्तु विद्वानों ने नाना रूप में उन वाणियों का अध्ययन और उपयोग किया है। काव्य–रूप में उसे आस्वादन करने की तो प्रथा ही चल पड़ी है। समाज–सुधारक के रूप में, सर्व–धर्मसमन्वयकारी के रूप में, हिन्दू–मुस्लिम–ऐक्य–विधायक के रूप में भी उनकी चर्चा कम नहीं हुई है। यों तो 'हरि अनंत हरिकथा अनंता, विविध भाँति गावहिं श्रुति–संता' के अनुसार कबीर कथित हरि की कथा का विविध रूप में उपयोग होना स्वाभाविक ही है, पर कभी–कभी उत्साहपरायण विद्वान ग़लती से कबीर को इन्हीं रूपों में से किसी एक का प्रतिनिधि समझकर ऐसी–ऐसी बातें करने लगते हैं जो कि असंगत कही जा सकती हैं।

हिन्दू–मुस्लिम एकता

जो लोग हिन्दू–मुस्लिम एकता के व्रत में दीक्षित हैं, वे भी कबीरदास को अपना मार्गदर्शक मानते हैं। यह उचित भी है। राम–रहीम और केशव–करीम की जो एकता स्वयं सिद्ध है, उसे भी सम्प्रदाय बुद्धि से विकृत मस्तिष्क वाले लोग नहीं समझ पाते। कबीरदास से अधिक ज़ोरदार शब्दों में एकता का प्रतिपादन किसी ने भी नहीं किया है। पर जो लोग उत्साहधिक्यवश कबीर को केवल हिन्दू–मुस्लिम एकता का पैगम्बर मान लेते हैं वे उनके मूल स्वरूप को भूलकर उसके एक देशमात्र की बात करने लगते हैं। ऐसे लोग यदि यह देखकर क्षुब्ध हों कि कबीरदास ने दोनों धर्मों की ऊँची संस्कृति या 'दोनों धर्मों के उच्चतर भावों में सामंजस्य स्थापित करने की कहीं पर कोशिश नहीं की और सिर्फ़ यही नहीं, बल्कि उन सभी धर्मगत विशेषताओं की खिल्ली ही उड़ाई है जिसे मज़हबी नेता बहुत श्रेष्ठ धर्माचार कहकर व्याख्या करते हैं, 'तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि कबीरदास इस बिन्दु से धार्मिक द्वन्द्वों को देखते ही न थे। उन्होंने रोग का ठीक निदान किया या नहीं, इसमें दो मत हो सकते हैं, पर औषध निर्वाचन में और अपथ्य वर्जन के निर्देश में उन्होंने बिल्कुल ग़लती नहीं की। यह औषध है भगवद्विश्वास। दोनों धर्म समान रूप से भगवान में विश्वास करते हैं और यदि सचमुच ही आदमी धार्मिक है तो इस अमोघ औषध का प्रभाव उस पर पड़ेगा ही। अपथ्य है बाह्य आचारों को धर्म समझना, व्यर्थ कुलाभिमान, अकारण ऊँच–नीच का भाव। कबीरदास की इन दोनों व्यवस्थाओं में ग़लती नहीं है और अगर किसी दिन हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता हुई तो इसी रास्ते हो सकती है। इसमें केवल बाह्यचारवर्जन की नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है, भगवद्विश्वस का अविश्लेष्य सीमेंट भी कार्य करेगा।

इसी अर्थ में कबीरदास हिन्दू और मुसलमानों के ऐक्य–विधायक थे। परन्तु जैसा की आरम्भ में ही कहा गया है, कबीरदास को केवल इन्हीं रूपों में देखना सही नहीं है। वे मूलतः भक्त थे। भगवान पर उनका अविचल अखंड विश्वास था। वे कभी सुधार करने के फेर में नहीं पड़े। शायद वे अनुभव कर चुके थे कि जो स्वयं सुधरना ही नहीं चाहता, उसे जबरदस्ती सुधारने का व्रत व्यर्थ का प्रयास ही है। वे अपने उपदेश साधु भाई को देते थे या फिर स्वयं अपने आपको ही सम्बोधित करके कह देते थे। यदि उनकी बात कोई सुनने वाला न मिले तो वे निश्चित होकर स्वयं को ही पुकार कर कह उठतेः 'अपनी राह तू चले कबीरा !' अपनी राह अर्थात् धर्म, सम्प्रदाय, जाति, कुल और शास्त्र की रूढ़ियों से जो बद्ध नहीं है, जो अपने अनुभव के द्वारा प्रत्यक्षीकृत है।

कबीरदास की महिमा

जो लोग इन बातों से ही कबीरदास की महिमा का विचार करते हैं वे केवल सतह पर ही चक्कर काटते हैं। कबीरदास एक जबरदस्त क्रान्तिकारी पुरुष थे। उनके कथन की ज्योति जो इतने क्षेत्रों को उदभासित कर सकी है सो मामूली शक्तिमत्ता की परिचायिका नहीं है। परन्तु यह समझना कि उदभासित पदार्थ ही ज्योति है, बड़ी भारी ग़लती है। उदभासित पदार्थ ज्योति की ओर इशारा करते हैं और ज्योति किधर और कहाँ पर है, इस बात का निर्देश देते हैं। ऊपर–ऊपर, सतह पर चक्कर काटने वाले समुद्र भले ही पार कर जाएँ, पर उसकी गहराई की थाह नहीं पा सकते। इन पंक्तियों का लेखक अपने को सतह का चक्कर काटने वालों से विशेष नहीं समझता। उसका दृढ़ विश्वास है कि कबीरदास के पदों में जो महान प्रकाशपुंज है, वह बौद्धिक आलोचना का विषय नहीं है। वह संग्रहालय की चीज़ नहीं है, बल्कि जीवित प्राणवान वस्तु है। कबीर पर पुस्तकें बहुत लिखी गई हैं, और भी लिखी जाएँगी, पर ऐसे लोग कम ही हैं जो उस साधना कि गहराई तक जाने की चेष्टा करते हों। राम की वानरी सेना समुद्र ज़रूर लाँघ गई थी, पर उसकी गहराई का पता तो मंदर पर्वत को ही था, जिसका विराट शरीर आपाताल–निमग्न हो गया थाः

अब्धिर्लघित एव वानरभटैः किन्त्वस्य गंभीरताम्
आपाताल – निमग्न – पीवरतनुर्जानाति मंद्राचलः।

सो, कबीरदास की सच्ची महिमा तो कोई गहरे में गोता लगाने वाला ही समझ सकता है। कबीरदास ने स्वयं अरूप को रूप देने की चेष्टा की थी। परन्तु वह स्वयं कह गए हैं कि ये सारे प्रयास तभी तक थे, जब तक की परम प्रेम के आधार प्रियतम का मिलन नहीं हुआ था। साखी, पद, शब्द और दोहरे उसी प्राप्ति के साधन हैं, मार्ग हैं। गंतव्य तक पहुँच जाने पर मार्ग का हिसाब करना बेकार होता है। फिर इन साखी, शब्द और दोहरों की व्याख्या के प्रयास को क्या कहा जाए? ये तो साधन को समझाने के साधन—साधन के भी साधन हैं।



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