गोवत्स द्वादशी
गोवत्स द्वादशी कार्तिक माह में कृष्ण पक्ष की द्वादशी को मनाई जाती है। हिन्दू मान्यताओं और धर्म ग्रंथों के अनुसार इसे बड़ा ही महत्त्वपूर्ण माना गया है। इस दिन गाय तथा उनके बछड़ों की सेवा की जाती है। नित्यकर्म से निवृत्त होने के बाद गाय तथा बछडे़ की पूजा करनी चाहिए। यदि किसी के यहाँ गाय नहीं मिलती तो वह किसी दूसरे के घर की गाय का पूजन कर सकता है। घर के आस-पास भी यदि गाय और बछडा़ नहीं मिले, तो गीली मिट्टी से इनकी आकृति बनाकर उनकी पूजा की जा सकती है। इस व्रत में गाय के दूध से बनी खाद्य वस्तुओं का उपयोग नहीं किया जाता है।
विधि
सर्वप्रथम व्रती को सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिए। दूध देने वाली गाय को उसके बछडे़ सहित स्नान कराना चाहिए। बाद में दोनों को नया वस्त्र ओढा़या जाता है। उनके गले में फूलों की माला पहनाई जाती है।[1] माथे पर चंदन का तिलक लगाते हैं। सींगों को भी मढा़ जाता है। एक तांबे के पात्र में सुगंध, अक्षत, तिल, जल तथा फूलों को मिलाकर निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए गौ का प्रक्षालन करना चाहिए-
क्षीरोदार्णवसम्भूते सुरासुरनमस्कृते।
सर्वदेवमये मातर्गृहाणार्घ्य नमो नम:॥
उपर्युक्त मंत्र का तात्पर्य है कि- "समुद्र मंथन के समय क्षीर सागर से उत्पन्न सुर तथा असुरों द्वारा नमस्कार की गई देवस्वरुपिणी माता, आपको बार-बार नमस्कार है। मेरे द्वारा दिए गए इस अर्ध्य को आप स्वीकार करें।"
इसके बाद गाय को उड़द की दाल से बने भोज्य पदार्थ खिलाने चाहिए और निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए प्रार्थना करनी चाहिए-
सुरभि त्वं जगन्मातर्देवी विष्णुपदे स्थिता।
सर्वदेवमये ग्रासं मया दत्तमिमं ग्रस॥
तत: सर्वमये देवि सर्वदेवैरलड्कृते।
मातर्ममाभिलाषितं सफलं कुरु नन्दिनी॥
उपर्युक्त श्लोक का अर्थ है कि- "हे जगदम्बे! हे स्वर्गवासिनी देवी! हे सर्वदेवमयी! आप मेरे द्वारा दिए इस अन्न को ग्रहण करें। सभी देवतओं द्वारा अलंकृत माता नन्दिनी आप मेरा मनोरथ पूर्ण करें।[1]
गाय का पूजन करने के बाद 'गोवत्स की कथा' सुननी चाहिए। सम्पूर्ण दिन व्रत रखकर रात्रि में अपने इष्टदेव तथा गौमाता की आरती करनी चाहिए। तत्पश्चात भोजन ग्रहण किया जाता है।
कथा
प्राचीन समय में भारत में सुवर्णपुर नामक एक नगर था। उस नगर में देवदानी राजा राज्य करता था। उसके पास एक गाय और एक भैंस थी। उस राजा की दो रानियाँ थीं, जिनमें से एक का नाम 'सीता' और दूसरी का नाम 'गीता' था। सीता पाली हुई भैंस से बड़ा ही नम्र व्यवहार करती थी और उसे अपनी सहेली के समान प्यार करती थी। जबकि गीता गाय से सहेली के समान और बछडे़ से पुत्र समान प्यार करती थी। एक दिन भैंस ने सीता से कहा- "गाय, बछडा़ होने पर गीता रानी मुझसे ईर्ष्या करती है।" इस पर सीता ने कहा- "यदि ऐसी बात है, तब मैं सब ठीक कर लूंगी।" सीता उसी दिन गाय के बछडे़ को काटकर गेहूँ की राशि में दबा देती है। इस घटना के बारे में किसी को भी कुछ पता नहीं चलता। जब राजा भोजन करने बैठा तभी मांस और रक्त की वर्षा होने लगी। महल में चारों ओर रक्त तथा मांस दिखाई देने लगा। राजा की भोजन की थाली में भी मल-मूत्र आदि की बास आने लगी। यह सब देखकर राजा को बहुत चिन्ता हुई। इसी समय आकाशवाणी हुई- "हे राजा! तेरी रानी ने गाय के बछडे़ को काटकर गेहूँ की राशि में दबा दिया है। इसी कारण यह सब हो रहा है। कल 'गोवत्स द्वादशी' है। इसलिए आप कल भैंस को नगर से बाहर निकाल दीजिए और गाय तथा बछडे़ की पूजा करें। आप गाय का दूध तथा कटे फलों का भोजन में त्याग करें। इससे पाप नष्ट हो जाएगा और बछडा़ भी जिन्दा हो जाएगा।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 गोवत्स द्वादशी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 27 सितम्बर, 2012।
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