अजंता

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अजंता की गुफ़ाएं, औरंगाबाद

अजंता जलगांव स्टेशन से 37 मील और औरंगाबाद से 55 मील दूर फरदापुर ग्राम के निकट है जहाँ पर संसार-प्रसिद्ध गुफ़ाएं स्थित हैं, जो अपने भित्तिचित्रों तथा मूर्तिकारी के लिए बेजोड़ समझी जाती हैं। इसी के नाम पर ये गुफ़ाएं भी अजंता की गुफ़ाएं कहलाती हैं।

अजंता की गुफ़ाएं

बाघौरा नदी की उपत्यका में अवस्थित ऊंची शैलमाला के बीच, एक विस्तृत पहाड़ी के पार्श्व में, 29 गुफ़ाएं काटकर बनाई गई हैं। इनका समय पहली शती ई. पू. से 7वीं शती ई. तक है। ये गुफ़ाएं शिल्पी बौद्ध भिक्षुओं ने बनाई थीं। इनमें से कुछ तो चैत्य हैं अर्थात् पूजा के निमित्त इनमें चैत्य की आकृति के छोटे-छोटे स्तूप बने हुए हैं और कुछ विहार हैं। ये दोनों प्रकार की गुफ़ाएं और इनमें का सारा मूर्ति-शिल्प एक ही शैल में कटा हुआ है किंतु क्या मजाल कि कहीं पर एक छैनी भी अधिक लगी हो। गुफ़ा सं. 1 जो 120 फुट तक पहाड़ी के अंदर कटी हुई है वास्तुकला कौशल का अद्भुत नमूना है। प्राचीनकाल में प्राय: सभी गुफ़ाओं में भित्ति चित्रकारी थी किंतु कालप्रवाह में अब मुख्यत: केवल सं. 1,2,16,17 में ही चित्रों के अवशेष रह गए हैं। किंतु इन्हीं के आधार पर यहां की कला की उत्कृष्टता की रूपरेखा भली भांति जानी जा सकती है।

विशेषताएँ

यद्यपि अजंता की चित्रकारी मूलत: धार्मिक है और सभी चित्रों के विषय किसी न किसी रूप में गौतमबुद्ध या बोधिसत्वों की जीवन-कथाओं से संबंधित हैं फिर भी इन कथाओं की अभिव्यंजना में चित्रकारों ने जीवन और समाज के सभी अंगों का इस बारीकी, सहृदयता और सहानुभूति से चित्रण किया है कि ये चित्र भारतीय सभ्यता और संस्कृति के उत्कर्षकाल की एक अनोखी परंपरा हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। केवल यही नहीं, विस्तृत दृष्टिकोण से परखने पर इन चित्रों के पीछे कलाकारों के हृदय में चराचर जगत् के प्रति जो सौहार्द्र की भावना छिपी हुई है उसका भी दर्शन सहज रूप में ही हो जाता है। यहां अजंता के केवल कुछ ही चित्रों का निदर्शन किया जा सकता है। गुफ़ा सं. 1 में दालान की लंबी भित्ति पर मारविजय का प्राय: 12 फुट लंबा और 8 फुट चौड़ा चित्र है। इसमें कामदेव के सैनिकों के रूप में मानो मानव-हृदय की दुर्बलताओं के ही मूर्त चित्र उपस्थित किए गए हैं। इनमें विकट-रूप पुरुष तथा मदविह्वला कामिनियों के जीवंत चित्रों के समक्ष आत्मनिरत बुद्ध की सौम्य मुखाकृति उत्कृष्ट रूप से उज्ज्वल एवं प्रभावशाली बन पड़ी है।

चित्रकला

भित्ति चित्रकारी, अजंता की गुफ़ाएं

गुफ़ा सं. 16 में बुद्ध के गृहत्याग का मार्मिक चित्र है। मोहिनी-निद्रा में यशोधरा, शिशु राहुल और परिचारिकाएं सोई हुई हैं। उन पर अंतिम दृष्टि डालते हुए गौतम के मुख पर दृढ़ त्याग और साथ ही सौम्यता से भरपूर जो छाप है उसने इस चित्र को अमर बना दिया है। इसी गुफ़ा में एक अन्य स्थान पर एक म्रियमाण राजकुमारी का दृश्य है जो शायद गौतम के भ्राता परिव्रजितनंद की नव-विवाहिता पत्नी सुंदरी की दशा का चित्रण है। चित्रकला के अनेक मर्मज्ञों ने इस चित्र की गणना संसार के उत्कृष्टतम चित्रों में की है। गुफ़ा सं. 17 में भिक्षुक बुद्ध के मानवाकार चित्र के आगे अपने एकमात्र पुत्र को तथागत के चरणों में भिक्षा के रूप में डालती हुई किसी रमणी- शायद यशोधरा ही- का चित्र है। इस चित्र में निहित भावना का मूर्तस्वरूप इतनी मार्मिकता से दर्शकों के सामने प्रस्फुटित होता है कि वह दो सहस्त्र वर्षों के व्यवधान को क्षणमात्र में चीर कर इस चित्र के कलाकार की महान् आत्मा से मानो साक्षात्कार कर लेता है और उसकी कला के साथ अपने प्राणों की एकरसता का अनुभव करने लगता है। इस गुफ़ा की अन्य उल्लेखनीय कलाकृतियों में बेस्संतरजातक और छदंतजातक की कथाओं पर बने हुए जीवंत चित्र हैं। अजंता में तत्कालीन (विशेष कर गुप्तकालीन) भारत के निवासियों, स्त्री व पुरुषों के रहन-सहन, घर-मकान, वेश-भूषा, अलंकरण, मनोविनोद, तथा दैनिक जीवन के साधारण कृत्यों की मनोरम एवं सच्ची तस्वीरें हैं। वस्त्र, आभूषण, केश-प्रसाधन, गृहालंकरण आदि के इतने प्रकार चित्रित हैं कि उन्हें देखकर उस काल के भरे-पूरे भारतीय जीवन की झांकी आंखों के सामने फिर जाती है। गुप्तकालीन अजंता-चित्रों और महाकवि कालिदास के अनेक काव्यवर्णनों में जो तारतम्य और भावैक्य है वह दोनों के अध्ययन से तुरंत ही प्रतिभासित हो जाता है।

मूर्तिकला के उत्कृष्ट उदाहरण

अजंता में मूर्तिकला के भी उत्कृष्ट उदाहरण मिलते हैं। शैल-कृत्त होने के कारण गुफ़ाओं में जो अद्भुत प्रकार की इंजीनियरी और वास्तुकला विद्यमान है वह भी किसी से छिपी नहीं है। अजंता जिस रमणीक और एकांत गिरिप्रांतर में स्थित है उसका रहस्यात्मक प्रभाव भी दर्शक पर पड़े बिना नहीं रहता। कहा जाता है कि चित्रकारों ने जिन रंगों का अपने चित्रों में प्रयोग किया है वे उन्होंने स्थानीय द्रव्यों से ही तैयार किए थे- जैसे लाल रंग उन्होंने यहीं पहाड़ी पर मिलने वाले लाल रंग के पत्थर और नारंगी रंग इस घाटी में बहुतायत से होने वाले पारिजात के पुष्प-वृंतो से बनाया था। रंगों के भरने में तथा आकृतियों की भाव-भंगिमा प्रदर्शित करने में जिस सूक्ष्म प्राविधिक कुशलता का प्रयोग किया गया है वह सचमुच ही अनिर्वचनीय है। भौंहों की सीधी, वक्र, ऊंची-नीची रेखाएं, मुख की विविध भंगिमाएं और हाथ की अंगुलियों की अनगिनत मुद्राएं, अजंता की चित्रकारी की एक विशिष्ट और सजीव शैली की अभिव्यक्ति के अपरिहार्य साधन हैं। और सर्वोपरि, अजंता के चित्रों में भारतीय नारी का जो सौम्य, ललित एवं पुष्पदल के समान कोमल तथा साथ ही प्रेम और त्याग एवं सांस्कृतिक जीवन की भावनाओं और आदर्शों से अनुप्राणित रूप मिलता है वह हमारी प्राचीन कला-परंपरा की अक्षय निधि है। अजंता की गुफ़ाओं का हमारे प्राचीन साहित्य में निर्देश नहीं मिलता। शायद चीनी यात्री युवानच्वांग ने अपनी भारत-यात्रा के दौरान (615-630 ई0) इन गुहामंदिरों को देखा था। तब से प्राय: 1200 वर्षों तक ये गुफ़ाएं अज्ञात रूप से पहाड़ियों और घने जंगलों में छिपी रहीं। 1819 ई0 में मद्रास सेना के कुछ यूरोपीय सैनिकों ने इनकी अकस्मात् ही खोज की थी। 1824 ई0 में जनरल सर जेम्स अलग्जेंडर ने रायल एशियाटिक सोसाइटी की पत्रिका में पहली बार इनका विवरण छपवा कर इन्हें सभ्य संसार के सामने प्रकट किया था।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • ऐतिहासिक स्थानावली| विजयेन्द्र कुमार माथुर | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार, पृष्ठ संख्या - 12, 13, 14

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