आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते
वरना ये रात आज के संगीन दौर की
डस लेगी जान-ओ-दिल को कुछ ऐसे कि जान-ओ-दिल
ता-उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें[1]
गो हम से भागती रही ये तेज़-गाम उम्र
ख़्वाबों के आसरे पे कटी है तमाम उम्र[2]
ज़ुल्फ़ों के ख़्वाब, होंठों के ख़्वाब, और बदन के ख़्वाब
मेराज-ए-फ़न के ख़्वाब, कमाल-ए-सुख़न के ख़्वाब[3]
तहज़ीब-ए-ज़िन्दगी के, फ़रोग़-ए-वतन के ख़्वाब
ज़िन्दाँ के ख़्वाब, कूचा-ए-दार-ओ-रसन के ख़्वाब[4]
ये ख़्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे
ये ख़्वाब ही तो अपने अमल के असास थे
ये ख़्वाब मर गये हैं तो बे-रंग है हयात
यूँ है कि जैसे दस्त-ए-तह-ए-सन्ग है हयात[5]
आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते
वरना ये रात आज के संगीन दौर की
डस लेगी जान-ओ-दिल को कुछ ऐसे कि जान-ओ-दिल
ता-उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें