व्रज
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वज्र मथुरा, उत्तर प्रदेश तथा उसका परिवर्ती प्रदेश (प्राचीन शूरसेन), जो श्रीकृष्ण की लीला भूमि होने के कारण प्राचीन साहित्य में प्रसिद्ध है। व्रज का विस्तार 84 कोस में कहा जाता है। यहाँ के 12 वनों और 24 उपवनों की यात्रा की जाती है।[1]
- 'व्रज' का अर्थ 'गोचर भूमि' है और यमुना के तट पर प्राचीन समय में इस प्रकार की भूमि की प्रचुरता होने से ही इस क्षेत्र को 'व्रज' कहा जाता था।
- विशेष रूप से भारतीय मध्यकालीन 'भक्ति साहित्य' में व्रज का वर्णन प्रचुरता से मिलता है। वैसे इसका उल्लेख कृष्ण के संबंध में 'श्रीमद्भागवत' तथा 'विष्णुपुराण' आदि प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है-
"जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिराशश्वदत्रहि।[2]
"विना कृष्णेन को व्रज:।"[3]
"तयोर्विहरतोरेवं रामकेशवयोर्वृजे।"[4]
"तत्याज व्रजभूभागं सहरामेण केशवः।"[5]
"प्रीतिः सस्त्री-कुमारस्य व्रजस्य त्वयि केशव।"[6]
- हिन्दी में सूरदास आदि भक्ति कालीन कवियों ने तो व्रज की महिमा के अनंत गीत गाए है-
"ऊधो मोहि व्रज बिसरत नाही।"
- उपरोक्त पद में सूरदास के कृष्ण का ब्रज के प्रति बालपन का प्रेम बड़ी ही मार्मिक रीति से व्यक्त किया गया है।
मुख्य लेख : ब्रज
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 884 |
- ↑ श्रीमद्भागवत 10.31.1
- ↑ विष्णुपुराण 5,7,27
- ↑ विष्णुपुराण 5,10,1
- ↑ विष्णुपुराण 5,18,32
- ↑ विष्णुपुराण 5,13,6