सव्यसाची, एस. एल. वशिष्ठ

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सव्यसाची की स्मृति में मथुरा में एक आयोजित सभा

प्रो. एस. एल. वशिष्ठ जो 'सव्यसाची' के नाम से भी जाने जाते हैं, एक लेखक, समाज सुधारक, शिक्षक एवं युगान्तर प्रकाशन के संस्थापक थे। सव्यसाची का संपूर्ण जीवन एक कथा शिल्पी के लिए उसके उपन्यास की कथावस्तु है, एक इंसान के लिए प्रेरणाप्रद है, एक शिक्षक के लिए अच्छी किताब है तो एक योद्धा के लिए हुंकार है। युग-युग से शोषित भारतीय नारी के लिए संघर्ष पथ है तो बच्चों के लिए ‘वशिष्ठ अंकल’ की अविस्मरणीय स्मृतियां हैं।

असाधारण व्यक्तित्व

साधारण जीवन जीने वाले असाधारण व्यक्ति प्रो. एस. एल. वशिष्ठ को मथुरा ही नहीं वरन् संपूर्ण देश के वामपंथी आंदोलनों से जुड़े राजनैतिक कार्यकर्ता और साहित्यकर्मी बखूबी जानते हैं। मथुरा के बी.एस.ए. कालेज में तीन दशक से अधिक समय तक अध्यापन कर सव्यसाची हजारों छात्रों और शिक्षकों के दिलो-दिमाग पर छा गए थे। हाथ से धुले बिना इस्त्री की हुई धवल कुर्ता-पायजामा और चप्पलों से लैस सव्यसाची दूर से एक साधारण व्यक्ति भले ही नजर आते थे लेकिन उनके असाधारण व्यक्तित्व, सोच, कार्यशैली, ईमानदारी, मानवीयता, कर्मठता, शोषित-पीडि़त जन के प्रति ग़ज़ब की प्रतिबद्धता ने उनके अजर-अमर होने का मार्ग उनके जीवन काल में ही प्रशस्त कर दिया था। उनका खान-पान और रहन-सहन एक संन्यासी का था। उनकी सेहत को देखकर उनकी दीर्घ आयु की कल्पना की जाती थी, लेकिन अचानक 1997 में दिमागी फोड़े ने उनके प्राण ले लिए। सव्यसाची बेशक जल्दी चले गए पर वे जितना जिए, एक-एक पल एक लक्ष्य को केन्द्र में रखकर जिए। सव्यसाची को करीब से जानने वाले लोग उनके विराट व्यक्तित्व को न तो एक भाषण में बखान कर सकते हैं और न ही एक लेख में लिपिबद्ध कर सकते हैं।[1]

'युगान्तर प्रकाशन' की स्थापना

सव्यसाची ने पूंजीपति वर्ग द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं का कभी भी सहारा नहीं लिया। ‘युगान्तर प्रकाशन’ के नाम से स्वयं का प्रकाशन संस्थान स्थापित किया और तीन दर्जन से अधिक पुस्तकों को प्रकाशित कर अपने विचारों की ज्वाला से देश के कोने-कोने को आलोकित किया। उनकी पुस्तकें शोषित-पीड़ित जन का हथियार बनी और यह क्रम आज भी जारी है। आत्मप्रचार से सदैव दूर रहने वाले सव्यसाची को सम्मान देने और प्यार करने वालों की कतार उनके जीवन काल में ही लग गई थी। उनके कम्युनिष्ट चोले से नगर के धनिक वर्ग ने प्रारंभ में नाक-भौं सिकोड़ी लेकिन अपने जादुई व्यवहार से वे लोग भी बाद में कहने लगे थे कि ‘प्रो. वशिष्ठ के विचार कैसे भी हों, वे इंसान ग़ज़ब के हैं।’ उनमें विरोधियों को मित्र बनाने की ग़ज़ब की कला थी। आपातकाल में देशभर के हिंदी भाषी क्षेत्र में सव्यसाची के साहित्य ने सैंकड़ों नौजवानों को अत्याचार से जूझने की ताकत दी। सव्यसाची ने पूंजीपति वर्ग द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं का कभी भी सहारा नहीं लिया। ढाई दशक पूर्व ‘मनोहर कहानियां’ में एक ऐसे ईनामी डकैत का किस्सा छपा था जो पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था। इस डकैत की जब तलाशी ली गई तो उसके झोले में बंदूक की गोलियों के बीच सव्यसाची द्वारा लिखित पुस्तक ‘समाज को बदल डालो’ भी रखी हुई थी। गोवा के जेल में बंद एक कैदी ने सव्यसाची की पत्नी को खत लिखकर सव्यसाची की पुस्तकें भेजने की ख्वाहिश की थी।[1]

'जन सांस्कृतिक मंच’ की स्थापना

सव्यसाची सिर्फ एक शिक्षक व एक लेखक ही नहीं थे। सव्यसाची ने मथुरा में प्रिंटिंग प्रेस, डोरी निवाड़, साड़ी छपाई मजदूरों को संगठित कर उनके आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की। जहां भी समय गुजारा, अपने पद चिन्हों को छोड़ा, लोगों के दिलों में अपनी पहचान बनाई। आज भी हजारों लोग उन्हें ‘मास्साब’ के नाम से याद करते हैं। मथुरा में ‘जन सांस्कृतिक मंच’ की स्थापना 1978 में हुई। सव्यसाची की छत्रछाया में इस संस्था ने साहित्य, संस्कृति और समाज सेवा के क्षेत्र में एक आदर्श प्रस्तुत किया। नगर के जागरूक नौजवानों की टोलियां इस संगठन की बागडोर संभालने को आगे आती रहीं। आज भी यह संगठन सव्यसाची की विरासत को कायम रखे हुए है। ‘जनवादी लेखक संघ’ के प्रादेशिक सचिव बनने के बाद सव्यसाची ने मथुरा में नौजवानों के मध्य नए-नए लेखकों को कलम का सिपाही बनाने का संदेश दिया। सव्यसाची का स्मरण बिलकुल ऐसा लगता है, जैसे तपती धूप में एक वटवृक्ष के नीचे बैठे व्यक्ति को शीतलता का आभास होता है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 बंसल, डॉ. अशोक। व्यक्ति नहीं संस्था थे सव्यसाची (हिन्दी) मोहल्ला लाइव। अभिगमन तिथि: 28 दिसम्बर, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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