ज़रूरत भी क्या है ! -रश्मि प्रभा

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ज़रूरत भी क्या है ! -रश्मि प्रभा
रश्मि प्रभा
रश्मि प्रभा
कवि रश्मि प्रभा
जन्म 13 फ़रवरी, 1958
जन्म स्थान सीतामढ़ी, बिहार
मुख्य रचनाएँ 'शब्दों का रिश्ता' (2010), 'अनुत्तरित' (2011), 'अनमोल संचयन' (2010), 'अनुगूँज' (2011) आदि।
अन्य जानकारी रश्मि प्रभा, स्वर्गीय महाकवि सुमित्रा नंदन पंत की मानस पुत्री श्रीमती सरस्वती प्रसाद की सुपुत्री हैं।
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रश्मि प्रभा की रचनाएँ

सारथी बन तुम साथ रहे 
पर मैं अर्जुन नहीं हो सकी !
जानती थी लक्ष्य भेद की कला 
पर एकलव्य बनी 
द्रोण की मूर्ति बना 
सीखती रही कला 
और दक्षिणा में अपनी पहचान खोती रही ....
कुरुक्षेत्र मेरा मन नहीं था 
पर अभिमन्यु की तरह घिरी रही !
वार करने से बेहतर मैंने हर बार खुद को निहत्था बनाया 
जबकि सर से पाँव तक मैं शस्त्रों से सुसज्जित रही !
तुमने कभी बाल रूप में 
कभी विराट रूप में मुझे ललकारा 
कहा - 'वो रहा जयद्रथ'
पर ............. मैं अर्जुन नहीं हो सकी !
गांडीव रखने का प्रश्न कहाँ था 
लाख प्रयत्न कर 
मैं गांडीव उठा भी नहीं पाई 
तुमने गीता सुनाया 
न्याय का मंत्र छल भी होता है बताया 
पर मैं - मूक-बधिर .... 
सुनकर भी असहाय रही !
तुमने क्रोध किया 
सुदर्शन उठाने का उपक्रम किया 
मैं आंसुओं से सराबोर 
तुम्हारे पैरों पर गिर गई 
सखा माना है तुमने मुझे 
तो .... संहार करो 
पर शरीर नहीं ... मन को बदलो 
मैंने यशोदा की तरह तुम्हें देखा है 
तो ब्रह्माण्ड दिखाओ 
सताओ 
पर यशोदा को दुर्गा मत बनाओ !
चक्रव्यूह के निशाँ 
आज तक शूल बने 
अभिमन्यु की मौत का दंश देते हैं 
पितामह का प्यार याद दिलाते हैं 
..........
वाणों की शय्या पर मैं सोई हूँ - माना 
पर सुलाना !!!
तुम जानते हो - मुझसे सम्भव नहीं ...
..... 
हर वेदना से तुम भी गुजरे हो 
यशोदा,राधा,गोपियाँ,नन्द बाबा से दूर हुए हो  
माँ के साथ हुए अन्याय के विरोध में 
कंस मामा का संहार किया है  ...
पर तुम्हारी सारी तकलीफों को जानकर भी 
तुम्हारे भक्त तुम्हें प्रश्नों में ही उलझाते रहे न 
तो बोलो-
क्या इसी वेदना के लिए तुमने गोवर्धन उठाया ?
....
मैं वेदनाओं के प्रश्नों से उबरना चाहती हूँ 
तुम्हें भी उबारना चाहती हूँ 
तुम मेरे कवच हो 
मुझे ज्ञात है 
पर ........ 
किसी उलटफेर में मैं यह कवच 
किसी इन्द्र को नहीं देना चाहती 
तुम अपनी तरंगित माया की लहरों में 
मुझे सुरक्षित रखते आये हो 
आगे भी रखो 
उन लहरों पर मैं जितना चल सकती थी 
चली हूँ 
चलूंगी भी 
पर ...... अर्जुन नहीं बन पाउंगी 
यूँ ज़रूरत भी क्या है 
जब सुदर्शन मेरे साथ खड़ा है 
और अड़ा है ......'

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