चैतन्य महाप्रभु के सिद्धांत
चैतन्य महाप्रभु अपने मत की शास्त्रीय व्याख्याओं में अधिक नहीं उलझे, फिर भी उनके प्रवचनों के आधार पर उनके अनुयायियों ने उनके सम्प्रदाय की मान्यताओं का जो विश्लेषण किया, उसके अनुसार 'अचिन्य भेदाभेदवाद' में निर्दिष्ट प्रमुख तत्वों का स्वरूप निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है-
ब्रह्म
चैतन्य के अनुसार ब्रह्म का स्वरूप विशुद्ध आनन्दात्मक है। ब्रह्म विशेष है और उसकी अन्य शक्तियाँ विशेषण हैं। शक्तियों से विशिष्ट ब्रह्म को ही भगवान कहा जाता है।[1] ब्रह्म, ईश्वर, भगवान और परमात्मा ये संज्ञाएं एक ही तत्व की हैं। अचिन्त्य भेदाभेदवादी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जिस तत्व को ईश्वर कहा है, वह ब्रह्म ही है। ईश्वर एक और बहुभाव से अभिन्न होने पर भी गुण और गुणों तथा देह और देही भाव से भिन्न भी है। गुण और गुणी का परस्पर अभेद भी माना जाता है, इसलिए ब्रह्म गुणात्मा भी कहलाता है। भेद जल और उसकी तरंगों की भिन्नता के समान है। जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय का आधार भी ब्रह्म ही है। वही जगत का उपादान तथा निमित्त कारण है। ब्रह्म की तीन शक्तियाँ मानी गई हैं। परा, अपरा और अविद्या। परा शक्ति के कारण ब्रह्म जगत का निमित्त कारण है तथा अपरा और अविद्या (माया) शक्ति के कारण ब्रह्म जगत का उपादान कारण माना जाता है। अभिव्यक्ति की दृष्टि से ब्रह्म की शक्ति के तीन रूप हैं- सेवित्, संघिनी और ह्लादिनी। चैतन्य के अनुसार ब्रह्म ऐश्वर्य और माधुर्य दोनों से ही युक्त है। यही कारण है कि 'षट्सन्दर्भ' के लेखक ने कृष्ण के विग्रह को भी ब्रह्म से अभिन्न मानने का प्रयास किया और कृष्ण को ही परमशक्ति बताया। जीव गोस्वामी के कथनानुसार ब्रह्म जगत के स्रष्टा के रूप में भगवान कहलाता है। बलदेव विद्याभूषण सत्ता, महत्ता और स्नेह की अवस्थिति के कारण ब्रह्म को ही 'हरि', 'नारायण' या 'कृष्ण' कहते हैं।
जगत
चैतन्य के अनुसार जगत की सृष्टि ब्रह्म की अविद्या अथवा माया शक्ति के द्वारा होती है। जगत ईश्वर से भिन्न होते हुए भी उसके अधीन होने के कारण अभिन्न है। जगत 'भ्रम' नहीं अपितु 'सत्य' है। प्रकृति और माया को चैतन्य सम्प्रदाय में अभिन्न माना गया है। अत: प्रकृति को ब्रह्म की शक्ति कहा गया है। प्रलय काल में भी प्रकृति की स्थिति सूक्ष्म रूप में बनी रहती है। अत: प्रपंच ब्रह्म से न तो पूर्णतया भिन्न है और न ही अभिन्न। वस्तुत: इनकी भिन्नाभिन्नतात्मकता अचिन्त्य हैं-
- स्वरूपाधभिन्नत्वेन चिन्तयितुमशक्यत्वाद भेद:, भिन्नत्वेन चिन्तयितुमशक्यत्वादभेदश्च प्रतीयते इति शक्तिमतोभेदाभेददांवंर्गीकृतो तौ च अचिन्त्यौ।[2]
चैतन्य जगत को न तो शाश्वत मानते हैं और न ही मिथ्या। यदि जगत नित्य माना जाये तो कार्यकारण सम्बन्धों की अवस्थिति नहीं मानी जा सकती। यदि जगत को मिथ्या माना जाये तो मिथ्या से मिथ्या की उत्पत्ति मानना असंगत ही है। अत: चैतन्य का यह विचार है कि जगत अपने मूल (निमित्त कारण) में अव्यक्त रूप से रहता है, उस अवस्था में वह नित्य है किन्तु व्यक्तावस्था में वह अनित्य है।
जीव
चैतन्य के अनुसार जीव ब्रह्म से पृथक है। यह अणु परिणाम है। जीव में सत्व, रजस् तथा तमस् ये तीनों गुण विद्यमान रहते हैं। ब्रह्म प्रलय के अनन्तर 'एकोऽहं बहुस्याम्' की इच्छा से जीव की पुष्टि करता है। जीव अपने स्वरूप को माया के कारण भूल जाता है। जिस प्रकार सूर्य की किरणें सूर्य से पृथक नहीं हैं, उसी प्रकार जीव भी वास्तव में ब्रह्म से पृथक नहीं है, किन्तु अभिव्यक्ति के समय जीव की पृथक सत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता। चैतन्य के अनुसार जीव ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, आभास नहीं। भक्ति के द्वारा जीव अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। जीव भी अणु चैतन्य है, वह नित्य है। बलदेव विद्याभूषण के अनुसार ईश्वर, जीव, प्रकृति और काल ये चार पदार्थ नित्य हैं और इन चारों में से अन्तिम तीन प्रथम के अधीन हैं। इसी कारण जीव को ईश्वर की 'शक्ति' और ब्रह्म को 'शक्तिमान' भी कहा जा सकता है। चैतन्य ने जीवतत्व को शक्ति और कृष्ण तत्व को शक्तिमान कहा है। जीव दो प्रकार के होते हैं, नित्यमुक्त और नित्य संसारी।
माया
चैतन्य मतानुयायियों ने माया को ब्रह्म की परिणाम शक्ति कहा और उसके दो भेद बताए-
तत्र सा मायाख्या परिणाम शक्तिश्च द्विविधा वर्ण्यते,
निमित्ताशो माया उपादानांश: प्रधानम् इति। तत्र केवला
शक्तिर्निमित्तम्, तद व्यूहमयी तूपादानमिति विवेक:।[3]
ब्रह्म की परिणाम शक्ति के निमित्तांश को निमित्त माया और उपादानांश को उपादार्नामाया भी कहा गया है। निमित्त माया के काल, दैव, कर्म और स्वभाव के चार भेद बताये गए हैं और उपादान भाषा में द्रव्य, क्षेत्र, प्राण, आत्मन् और विकार का समावेश माना गया है।
मोक्ष
चैतन्य के मतानुसार भक्ति ही मुक्ति का साधन है। जीव दो प्रकार के होते हैं, नित्य मुक्त और नित्य संसारी। नित्य मुक्त जीवों पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता और ब्रह्म की स्वरूप शक्ति के अधीन वे सदा मुक्त रहते हैं। नित्य संसारी जीव माया के अधीन रहते हैं। ऐसे जीवों के दो भेद होते हैं, बहिर्मुख और विद्वेषी। बहिर्मुख जीवों के दो भेद हैं- अरुचिग्रस्त और वैकृत्यग्रस्त। माया ग्रस्त जीवों का मोक्ष अनेक योनियों में भ्रमण करने के अनन्तर सत्संग से संभव होता है। ज्योंहि माया ग्रस्त जीव माया के बन्धन से छूटने का उपक्रम करता है, त्यौंहि भगवान भी उस पर अपनी कृपा न्यौछावर कर देते हैं। चैतन्य मतानुयायियों के अनुसार मुक्ति पांच प्रकार होती है-
- सालोक्य
- सार्ष्टि
- सारूप्य
- सामीप्य
- सायुज्य
इन सब मुक्तियों में से सायुज्य को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। अद्वैतवादियों के अनुसार तो यह (सायुज्य मुक्ति) मोक्ष ही है, यानी जीव की पृथक सत्ता का इस अवस्था में अवसान हो जाता है। किन्तु चैतन्य मतानुयायियों के अनुसार जीव का कभी ब्रह्म में विलय नहीं होता, सायुज्य मुक्ति में भी ब्रह्म और जीव का नित्य सहअस्तित्व बना रहता है। यद्यपि गौड़ीय वैष्णव मतानुसार जीव के ब्रह्म में शाश्वत विलय का सर्वथा निषेध नहीं किया गया है, किन्तु वे इस प्रकार के विलय से भी अधिक महत्त्व उस स्थिति को देते हैं, जिसमें जीव ब्रह्म के साथ सहअस्तित्व का आनन्द उठाता रहे। किन्तु उस अवस्था में जीव ब्रह्म से भिन्न रहता है या अभिन्न। यह प्रश्न या इसका उत्तर चैतन्य मतानुयायियों के अनुसार 'अचिन्त्य' है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आनन्दमात्रं विशेष्यं समस्ता: शक्तय: विशेषणानि विशिष्टो भगवान्। षष्टसन्दर्भ, पृष्ठ 50
- ↑ स्वमते अचिन्त्यभेदावेव अचिन्त्यशक्तित्वात्, भागवत्सन्दर्भस्य सर्वसंवादिनी, पृष्ठ 23
- ↑ भागवत संख्या 11, 24, 19 जीव गोस्वामी
बाहरी कड़ियाँ
- चैतन्य महाप्रभु
- गौरांग ने आबाद किया कृष्ण का वृन्दावन
- Gaudiya Vaishnava
- Lord Gauranga (Sri Krishna Chaitanya Mahaprabhu)
- Gaudiya History
- Sri Gaura Purnima Special: Scriptures that Reveal Lord Chaitanya’s Identity as Lord Krishna
- Gaudiya Vaishnavas
- चैतन्य महाप्रभु - जीवन परिचय
- परिचय- चैतन्य महाप्रभु
- जीवनी/आत्मकथा >> चैतन्य महाप्रभु (लेखक- अमृतलाल नागर)
- श्री संत चैतन्य महाप्रभु
- चैतन्य महाप्रभु यदि वृन्दावन न आये होते तो शायद ही कोई पहचान पाता कान्हा की लीला स्थली को
- Shri Chaitanya Mahaprabhu -Hindi movie (youtube)
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