भारत का संवैधानिक विकास

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भारत के संवैधानिक विकास के अंतर्गत कई प्रकार के एक्ट और अधिनियम आदि समय-समय पर पारित किये गए थे।

कम्पनी शासन के अधीन लाये गये अधिनियम

1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट

इस एक्ट का उद्देश्य भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की गतिविधियों को ब्रिटिश सरकार की निगरानी में लाना था। इसके अतिरिक्त कम्पनी की संचालक समिति में आमूल-चूल परिवर्तन करना तथा कम्पनी के राजनीतिक अस्तित्व को स्वीकार कर उसके व्यापारिक ढांचे को राजनीतिक कार्यों के संचालन योग्य बनाना भी इसका उद्देश्य था। इस अधिनियम को 1773 ई. में ब्रिटिश संसद में पास किया गया तथा 1774 ई. में इसे लागू किया गया। इस एक्ट के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे-

  1. 'कोर्ट ऑफ़ डाइरेक्टर्स' का कार्यकाल एक वर्ष के स्थान पर चार वर्ष का हो गया तथा डाइरेक्टरो की संख्या 24 निर्धारित की गयी, जिसमें से 25 अर्थात् छ: सदस्यो द्वारा प्रतिवर्ष अवकाश ग्रहण करना पड़ता था। 1000 पौण्ड के हिस्सेदारों को वोट का अधिकार दिया गया। 3, 6 एवं 10 हज़ार पौण्ड के हिस्सेदारों को क्रमशः 2, 3 एवं 4 मत देने के अधिकार मिले।

1781 का संशोधनात्मक अधिनियम

सरकार को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान किये गये थे-

  1. कम्पनी के पदाधिकारियों को उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया गया।
  2. सर्वोच्च न्यायालय के अधिकतम क्षेत्र को स्पष्ट करते हुए कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के सभी निवासियों पर उसकी अधिकारिता को प्रमाणित किया गया।
  3. गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद द्वारा बनाये गये नियमों तथा विनियमों को उच्चतम न्यायालय में पंजीकृत कराने की बाध्यता समाप्त कर दी गयी।
  4. कोई भी नियम या विनियम बनाते समय भरतीय धार्मिक वा सामाजिक रीति-रिवाजों पर ध्यान देने की आवश्यकता पर बल दिया गया।

पिट एक्ट

रेग्युलेटिंग एक्ट में व्याप्त खामियों को दूर करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने इस एक्ट को पारित किया था। एक्ट के मुख्य प्रावधान इस प्रकार थे-

  1. भारत के गवर्नर-जनरल की कौंसिल के सदस्यों की संख्या तीन कर दी गयी। गवर्नर व गवर्नर जनरल की नियुक्ति का अधिकार संचालको को था, पर उन्हें वापस बुलाने का अधिकार संचालक मण्डल तथा राजा को मिल गया। मद्रास एवं बम्बई की सरकारें पूरी तरह से बंगाल सरकार के आधीन हो गयीं।
  2. छ: कमिश्नरों के एक बोर्ड का गठन हुआ, जिसे भारत में अंग्रेज़ी क्षेत्र पर नियंत्रण का पूरा अधिकार दे दिया गया। संचालकों द्वारा समस्त आदेशों को इसी की अनुमति से भेजा जाना सुनिश्चित किया गया।
  3. संचालक या 'बोर्ड ऑफ़ कन्ट्रोल' की अनुमति के बिना गवर्नर-जनरल को किसी भी भारतीय नरेश के साथ संघर्ष आरम्भ करने या किसी राज्य को अन्य राज्यों के आक्रमण के विरुद्ध सहायता का आश्वासन देने का अधिकार नहीं था। इस अधिनियम द्वारा कंपनी के संविधान में दो मुख्य परिवर्तन हुए। पहला यह कि इस अधिनियम द्वारा द्वैध शासन प्रणाली, एक कम्पनी द्वारा और दूसरी संसदीय बोर्ड द्वारा बना दी गयी, जो 1858 तक चलती रही। दूसरा यह था कि इस अधिनियम से कार्यकारी पार्षदों की संख्या तीन रह गयी, जिनमें से एक मुख्य सेनापति था। परन्तु इस अधिनियम की सबसे महात्त्वपूर्ण धारा यह थी कि इसके द्वारा आक्रमक युद्धों को ही समाप्त नहीं किया गया, अपितु जो प्रत्याभूति सन्धियाँ कर्नाटक एवं अवध से की गई थीं, उन्हें भी समाप्त कर दिया गया, किन्तु व्यावहारिक रूप से इस आदेश का पालन विपरीत दिशा में ही हुआ।

1786 का एक्ट

पिट द्वारा रखे गये इस अधिनियम में गवर्नर-जनरल को विशेष व्यवस्था में अपनी परिषद के निर्णय को रद्द करने तथा अपने निर्णय लागू करने का अधिकार भी दे दिया गया।

1793 का चार्टर एक्ट

कम्पनी का भारत में व्यापार करने का अधिकार 20 वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया। अपनी परिषदों के निर्णय को रद्द करने का अधिकार सभी गवर्नर-जनरलों को दिया गया। गवर्नर-जनरल का बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेंस पर भी अधिकार स्पष्ट हो गया।

1813 का चार्टर एक्ट

1813 ई. में कम्पनी को बीस वर्ष के लिए मिले व्यापारिक अधिकारो का चार्टर लाया गया, जिसके अनुसार कम्पनी का भारतीय व्यापार पर एकाधिकार समाप्त कर दिया गया, परन्तु चीन के साथ व्यापार व चाय के व्यापार का एकाधिकार कम्पनी के पास सुरक्षित रहा। कम्पनी के भागीदारों को भारतीय राजस्व से 10.5 प्रतिशत लाभांश देने का निश्चय किया गया। भारतीयों के लिए एक लाख रुपया वार्षिक शिक्षा के सुधार, साहित्य के सुधार एवं पुनरुथान के लिए और भारतीय प्रदेशों में विज्ञान की प्रगति के लिए खर्च करने का प्रावधान किया गया।

1833 का चार्टर एक्ट

एक अधिनियम द्वारा कम्पनी का चीन के साथ व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया। अब कम्पनी एक राजनीतिक संस्था भर रह गयी। कम्पनी को आने वाले 20 वर्षों के लिए क्राउन व उसके उत्तराधिकारियों के न्यास के रूप में भारत पर प्रशासन का अधिकार दे दिया गया। अधिनियम ने प्रशासन का केन्द्रीयकरण कर दिया, बंगाल के गवर्नर-जनरल को अब भारत का गवर्नर-जनरल बना दिया गया और सपरिषद गवर्नर-जनरल को कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक कार्य का नियंत्रण, निरक्षण तथा निर्देशन सौंपा गया। बम्बई, मद्रास तथा बंगाल व अन्य प्रदेश गवर्नर-जनरल के नियंत्रण में दे दिये गये। गवर्नर-जनरल को अपनी कौंसिल सहित सारे अंग्रेज़ी इलाकों के लिए क़ानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो गया। बम्बई तथा मद्रास की संविधान सभाओं की क़ानून बनाने की शक्ति समाप्त हो गयी। सपरिषद गवर्नर-जनरल सभी विषयों पर सभी स्थानों तथा लोगों के लिए क़ानून बना सकता था और उसके क़ानून सभी न्यायालयों द्वारा लागू किये जाते थे। गवर्नर-जनरल की सहायता के लिए उसकी कौंसिल में एक अतिरिक्त क़ानून सदस्य को चौथे सदस्य के रूप में शामिल किया गया। भारतीय क़ानूनों को संहिताबद्ध करने के लिए एक 'विधि कमीशन' बनाया गया। इस अधिनियम में जाति, वर्ण, लिंग एवं व्यवसाय के अधार पर सरकारी सेवाओं में चयन के लिए भेदभाव अपनाने पर कुछ प्रतिबन्ध लगा। इस अधिनियम में दास प्रथा को खत्म करने के लिए भी व्यवस्था की गई थी।

1853 का चार्टर एक्ट

इस अधिनियम के तहत कम्पनी को ब्रिटिश सरकार की ओर से भारत का क्षेत्र, ट्रस्ट के रूप में तब तक रखने की आज्ञा दी गयी, जब तक कि ब्रिटिश संसद ऐसा चाहे। अधिनियम में दी गयी व्यवस्था के अन्तर्गत नियंत्रण बोर्ड, सचिव एवं अन्य अधिकारियों का वेतन ब्रिटिश सरकार निश्चित करेगी, पर धन कम्पनी उपलब्ध करायेगी। अब डाइरेक्टरों की संख्या में कटौती कर 24 से 18 कर दिया गया, जिसमें 6 की नियुक्ति क्राउन द्वारा होती थी। सरकारी सेवाओं में नियुक्तियाँ अब डाइरेक्टरों के द्वारा ना होकर प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा की जाने लगी। 1854 ई. में 'मैकाले समिति' नियुक्त की गयी, ताकि इस योजना को क्रियान्वित किया जा सके। विधि सदस्य अब गवर्नर-जनरल की काउन्सिल का पूर्ण सदस्य बन गया, परिषद जब नया क़ानून बनायेगी तो 6 अतिरिक्त सदस्य, जिसमें उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, एक अन्य न्यायाधीश, तीनों प्रेसीडेंसियों व उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त का एक-एक असैनिक प्रतिनिधि होना चाहिए। प्रान्तीय असैनिक पदाधिकारी के लिए यह आवश्यक था कि वह लगभग 10 वर्ष तक कम्पनी के आधीन सेवारत रहा हो। इस अधिनियम की सबसे बड़ी त्रुटि यह थी कि भारतीयों को अपने विषय में क़ानून बनाने की अनुमति नहीं दी गयी थी।

क्राउन शासन में विकास

1857 ई. के विद्रोह के शांत होने के बाद भारत का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथों से निकल कर ब्रिटिश क्राउन के हाथों में पहुँच गया।

ब्रिटिश संसद द्वारा पारित अधिनियम

1858 का अधिनियम

इस अधिनियम के पारित होने के कुछ महत्त्वपूर्ण कारण थे। भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम, जो 1857 ई. में हुआ था, ने भारत में कम्पनी शासन के दोषों के प्रति ब्रिटिश जनमानस का ध्यान आकृष्ट किया। इसी समय ब्रिटेन में सम्पन्न हुए आम चुनावों के बाद पामस्टर्न प्रधानमंत्री बने, इन्होंने तत्काल कम्पनी के भारत पर शासन करने के अधिकार को लेकर ब्रिटिश क्राउन के अधीन करने का निर्णय लिया। उस कम्पनी के अध्यक्ष 'रोस मेगल्स' एवं 'जॉन स्टुअर्ट मिले' ने इस निर्णय की आलोचना की।

अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ-
  1. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त कर शासन की ज़िम्मेदारी ब्रिटिश क्राउन को सौंप दी गयी। भारत का गवर्नर-जनरल अब 'भारत का वायसराय' कहा जाने लगा।
  2. 'बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टर्स' एवं 'बोर्ड ऑफ़ कन्ट्रोल' के समस्त अधिकार 'भारत सचिव' को सौंप दिये गये। भारत संचिव ब्रिटिश मंत्रिमण्डल का एक सदस्य होता था, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय 'भारतीय परिषद' का गठन किया गया था, जिसमें 7 सदस्यों की नियुक्ति 'कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स' एवं शेष 8 की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार करती थी। इन सदस्यों में आधे से अधिक के लिए यह शर्त थी कि वे भारत में कम से कम 10 वर्ष तक रह चुके हों।
  3. भारत सचिव व उसकी कौंसिल का खर्च भारतीय राजकोष से दिया जायगा। संभावित जनपद सेवा में नियुक्तियाँ खुली प्रतियोगिता के द्वारा की जाने लगी, जिसके लिए राज्य सचिव ने जनपद आयुक्तों की सहायता से निगम बनाए।

1861 का भारतीय परिषद अधिनियम

1858 ई. का अधिनियम अपनी कसौटी पर पूर्णतः खरा नहीं उतरा, परिणामस्वरूप 3 वर्ष बाद 1861 ई.में ब्रिटिश संसद ने 'भारतीय परिषद अधिनियम' पारित किया। यह पहला ऐसा अधिनियम था, जिसमें 'विभागीय प्रणाली' एवं 'मंत्रिमण्डलीय प्रणाली' की नींव रखी गयी। पहली बार विधि निर्माण कार्य में भारतीयों का सहयोग लेने का प्रयास किया गया।

अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ-
  1. वायसराय की परिषद में एक सदस्य और बढ़ा कर सदस्यों की संख्या 5 कर दी गयी। 5वाँ सदस्य विधि विशेषज्ञ होता था।
  2. क़ानून निर्माण के लिए वायसराय की काउन्सिल में कम से कम 6 एवं अधिकतम 12 अतिरिक्त सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार वायसराय को दिया गया। इन सदस्यों का कार्यकाल 2 वर्ष का होता था। गैर सरकारी सदस्यों में कुछ उच्च श्रेणी के थे, पर भरतीय सदस्यों की नियुक्ति के प्रति वायसराय बाध्य नहीं था, किन्तु व्यवहार में कुछ गैर सरकारी सदस्य 'उच्च श्रेणी के भारतीय' थे। इस परिषद का कार्य क्षेत्र क़ानून निर्माण तक ही सीमित था।
  3. इस अधिनियम की व्यवस्था के अनुसार बम्बई एवं मद्रास प्रान्तों को विधि निर्माण एवं उनमें संशोधन का अधिकार पुनः प्रदान कर दिया गया, किन्तु इनके द्वारा निर्मित क़ानून तभी वैध माने जाते थे, जब उन्हें वायसराय वैध ठहराता था।
  4. वायसराय को प्रान्तों में विधान परिषद की स्थापना का अधिकार तथा लेफ़्टीनेन्ट गवर्नर की नियुक्ति का अधिकार प्राप्त हो गया।

1892 का भारतीय परिषद अधिनियम

1861 का भारतीय परिषद अधिनियम जहाँ एक ओर उत्तरदायी सरकार स्थापित करने में असमर्थ रहा, वहीं दूसरी ओर लिटन की बर्बर नीतियों से जनता में असन्तोष व्याप्त हो गया। ऐसी स्थिति में 1892 का परिषद अधिनियम पारित किया गया।

प्रमुख प्रावधान

1892 के भारतीय परिषद अधिनियम के प्रमुख प्रावधान इस प्रकार थे-

  1. अतिरिक्त सदस्यों की संख्या केन्द्रीय परिषद में बढ़ाकर कम से कम 10 व अधिकतम 16 कर दी गयी। बम्बई तथा मद्रास की कौंसिल में भी 20 अतिरिक्त सदस्य, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत व बंगाल की कौंसिल में भी 20 अतिरिक्त सदस्य नियुक्त किये गये।
  2. परिषद के सदस्यों को कुछ अधिक अधिकार मिले। वार्षिक बजट पर वाद-विवाद व इससे सम्बन्धित प्रश्न पूछे जा सकते थे, परन्तु मत विभाजन का अधिकार नहीं दिया गया था। अतिरिक्त सदस्यों को बजट से सम्बन्धित विशेष अधिकार था, किन्तु वे पूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे।
  3. अतिरिक्त सदस्यों में से 2/5 सदस्य ग़ैर सरकारी होने चाहिए। ये सदस्य भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों, जातियों, व विशिष्ट हितों के आधार पर नियुक्त किये गये। यह परम्परा कालान्तर में भारतीय राष्ट्रीय एकता के विकास में बाधक बनी।

1909 का भारतीय परिषद अधिनियम

इस अधिनियम को मार्ले-मिण्टो सुधार के नाम से भी जाना जाता है। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य कांग्रेस के उदारवादी दल के नेताओ एवं मुसलमानों को पढ़ाना तथा उग्र राष्ट्रवादी तत्वों का दमन करना था।

अधिनियम की मुख्य धारायें इस प्रकार थीं-
  1. केन्द्रीय कौंसिल में विधि से सम्बन्धित कार्यों के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 60 कर दी गयी। इसमें 27 निर्वाचति व 33 मनोनीत सदस्य थे। कार्यकारणी के 6 सदस्य, 1 सेनाध्यक्ष, 1 प्रान्तीय गवर्नर व गवर्नर-जनरल को मिलाकर 69 सदस्यों की 'केन्द्रीय लेजिस्लेटिव काउन्सिल' की सथापना की गयी।
  2. बंगाल, उत्तर प्रदेश, बम्बई और मद्रास आदि में विधान परिषद के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 50 और पंजाब, बर्मा, असम की विधान परिषद के सदस्यों की संख्या 30 निश्चित की गयी।
  3. विधान परिषद के अधिकारों में वृद्धि हुई। उसे सामान्य सार्वजनिक हितों से सम्बन्धित प्रस्तावों पर बहस करने व पूरक प्रश्नों को पूछने का अधिकार मिल गया। वार्षिक बजट पर बहस का अधिकार तो परिषद के पास था ही, परन्तु परिषद इस पर मतदान नहीं करवा सकती थी। विधान परिषद के सदस्य अध्यक्ष की सहमति से सार्वजनिक हितों से सम्बन्धित प्रश्न पूछ सकते थे कुछ ऐसे मामले भी थे, जिनकी विवेचना सदस्य नहीं कर सकते थे। विदेशी सम्बन्धों तथा देशी राजाओं से संबंधों, क़ानून के समक्ष निर्णय के लिये आये प्रश्नों, रेलवे पर व्यय तथा ऋण पर ब्याज आदि प्रश्नों को नहीं उठाया जा सकता था।
  4. केन्द्रीय व प्रान्तीय कार्यकारणी परिषद में एक-एक भारतीय सदस्य नियुक्त हुए।
  5. मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था की गयी। इस अधिनियम की महत्तवपूर्ण बुराई थी- मुसलमानों को पृथक प्रतिनिधित्व प्रदान करना। अधिनियम में ऐसी व्यवस्था कर सरकार ने भारत में साम्प्रदायिक्ता का बीज बो दिया, जो कालान्तर में "भारत विभाजन" का कारण बना।

मदन मोहन मालवीय, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे उदारवादी नेता, जो पहले इस अधिनियम के प्रशंसक थे, इसके सबसे बड़े आलोचक बन गये। रैम्जे मैक्डोनाल्ड ने लिखा कि "मार्ले-मिण्टो सुधार जनतंत्रवाद और नौकरशाही के बीच एक अधूरा ओर अल्पकालीन समझौता था।"

1919 का भारत सरकार अधिनियम

इस अधिनियम को मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार के नाम से भी जाना जाता है। भारतमंत्री लॉर्ड मांटेग्यू ने 20 अगस्त, 1917 को ब्रिटिश संसद में यह घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना है। नवम्बर, 1917 में भारतमंत्री मांटेग्यू ने भारत आकर तत्कालीन वायसराय चेम्सफ़ोर्ड एवं अन्य असैनिक अधिकारियों एवं भारतीय नेताओं से प्रस्ताव के बारे में विचार-विमर्श किया। एक समिति सर विलियम ड्यूक, भूपेन्द्रनाथ बासु, चार्ल्स रॉबर्ट की सदस्यता में बनाई गयी, जिसने भारतमंत्री एवं वायसराय को प्रस्तावों को अन्तिम रूप देने में सहयोग दिया। 1918 ई. में इस प्रस्ताव को प्रकाशित किया गया। यह अधिनियम अन्तिम रूप से 1921 ई. में लागू किया गया। मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट के प्रवर्तनों भारत के रंग बिरंगे इतिहास में "सबसे महत्त्वपूर्ण घोषणा" की संज्ञा दी गयी और इसे एक युग का अन्त और एक नवीन युग का प्रारंभ माना गया। इस घोषणा ने कुछ समय के लिए भारत में तनावपूर्ण वातावरण को समाप्त कर दिया। पहली बार 'उत्तरदायी शासन' शब्दों का प्रयोग इसी घोषणा में किया गया।

1935 का भारत सरकार अधिनियम

'भारत सरकार अधिनियम- 1935' के पारित होने से पूर्व इससें 'साइमन आयोग रिपोर्ट', 'नेहरू समिति की रिपोर्ट', ब्रिटेन में सम्पन्न तीन गोलमेज सम्मेलनों में हुये कुछ विचार-विमर्शों से सहायता ली गयी। तीसरे गोलमेज सम्मेलन के सम्पन्न होने के बाद कुछ प्रस्ताव 'श्वेत पत्र' नाम से प्रकाशित हुए, जिन पर बहस के लिए ब्रिटेन के दोनों सदनों एवं कुछ भारतीय प्रतिनिधियों ने रिपोर्ट प्रस्तुत की। अन्ततः इस रिपोर्ट के आधार पर 1935 ई. का अधिनियम पारित हुआ। 1935 ई. का अधिनियम काफ़ी लम्बा एवं जटिल था। इसे 3 जुलाई, 1936 को आंशिक रूप से लागू किया गया, किन्तु पूर्णरूप से चुनावों के बाद अप्रैल, 1937 में यह लागू हो पाया।

1947 का भारतीय स्वाधीनता अधिनियम

'भारतीय स्वाधीनता अधिनियम- 1947' ब्रिटिश संसद द्वारा भारत को दिया गया एक अभूतपूर्व तोहफा था। स्वतंत्रता का यह महान् ऐतिहासिक तोहफा असंख्य स्वाधीनता सेनानियों एवं क्रांतिकारियो के त्याग का परिणाम था। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड माउन्ट बेटन की योजना पर आधारित यह विधेयक 4 जुलाई, 1947 को ब्रिटिश संसद में पेश किया गया और 18 जुलाई, 1947 को शाही संस्तुति मिलने पर यह विधेयक अधिनियम बना।


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