अहम से बाहर आओ
फिर देखो सब अपने हैं
कोई न ऊँचा है, न नीचा
न अमीर न ग़रीब … !
यदि सुदामा को ग़रीब मान लेते कृष्ण
और स्वयं को राजा
तो मित्रता का स्तम्भ नहीं बनते
यदि रक्त संबंध को ही मानते
तो यशोदा के लाल न कहे जाते
राजपाट तो उनके हिस्से था ही
अर्थ ही प्रमुख होता
तो ताउम्र गोकुल और माखन नहीं सपनाते … !
अहम बंधनरहित प्रेम सोचता है
जबकि हर संबंध में
संस्कारों का बाँध होता है
शारीरिक रास की कल्पना
मनुष्य की संकीर्णता है
रास अर्थात
काम, क्रोध, मद, मोह और भय से मुक्ति
एक चमत्कारिक कल्याणकारी स्थिति .... !
जब तक अहम है
तुम हो ही नहीं - न मैं' में
न हम' में
तुम बस वह दीमक हो
जो अपनी ही आत्मा को खाता है
यह सोचते हुए
कि मैं सर्वोच्च हूँ
वह तुच्छ है … !
अहम से बाहर निकलो
साध्य भी बनो, साधन भी !!!