अर्बुद

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अर्बुद शरीर के किसी भी अंग में उत्पन्न हुई गाँठ है। इसको साधारण बोलचाल में ट्यूमर भी कहा जाता है। विकृतिविज्ञान में अर्बुद की परिभाषा कठिन है, परंतु सरल, यद्यपि अपूर्ण, परिभाषा यह है कि अर्बुद एक स्वतंत्र और नई उत्पत्ति है अथवा अप्राकृतिक ऊतकपिंड है जिसकी वृद्धि प्राकृतिक ऊतकपिंडों की नियमित वृद्धि से भिन्न होती है। छह्म अर्बुद-कुछ अर्बुद केवल देखने में अर्बुद के समान होते हैं; वे वास्तविक अर्बुद नहीं होते, उदाहरणत: चोट लगने से शरीर के किस भाग का सूज आना (उसमें शोथ उत्पन्न होना), टूटी हड्डियों के ठीक-ठीक न जुड़ने पर संधिस्थल पर गांठ बन जाना, फोड़ा (संस्कृत में स्फोटक), निकलना, कौड़ी (इन्फ्लेम्ड लिंफ़ैटिक ग्लैंड) उभड़ आना और क्षय, उपदंश (सिफ़िलिस), कुष्ठ आदि के कारण गांठ बनना अर्बुद नहीं है। अतिश्रम से मांसपेशियों की वद्धि, जैसे नर्तकियों में टांग की पिंडलियों की वृद्धि, गर्भाधान में स्तनों और उदर की वृद्धि आदि सामान्य शारीरिक क्रियाएँ हैं और इनको रोग नहीं कहा जाता। बाहर से शरीर के भीतर विशेष जीवाणुओं या कीटाणुओं के घुस आने पर और चारों ओर से शरीर की कोशिकाओं से उनके घिरे जाने पर जलमय पुटी (सिस्ट) बन जाना भी यथार्थ अर्बुद नहीं है। इसी प्रकार मुंहासे, अंडकोष में जल उतर आने से अंडकोषवृद्धि आदि भी अर्बुद नहीं है। अपस्फीत शिरा (उसे देखें) और उसी प्रकार से शरीर के भीतर द्रव भरे अंगों की भित्तियों का दुर्बलता के कारण फूल आना भी अर्बुद नहीं है। हिस्टीरिया में (उसे देखें), रोगिणी की इस धारणा से कि मैं गर्भवती हूँ, पेट फूल आना भी अर्बुद नहीं है।

वास्तविक अर्बुद - वास्तविक अर्बुद में शरीर की कोशिकाएँ अनियमित रूप से बढ़ने लगती हैं। शरीर की रचना (द. 'शरीर-रचना-विज्ञान) कोशिकामय है। चमड़ी कोशिकाओं से बनी है, मांस भी कोशिकाओं से बना है, परंतु विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं से; हड्डियां, दांत इत्यादि सभी अंग विशेष प्रकार की कोशिकाओं से बने हैं। इन्हीं कोशिकाओं में से किसी जाति की कोशिकाओं के, या उनसे मिलती-जुलती परंतु विकृत कोशिकाओं के अनावश्यक मात्रा में बढ़ना आरंभ करने से अर्बुद उत्पन्न होता है। इस बढ़ने का कारण अभी तक अज्ञात है। यों तो स्वस्थ शरीर में कोशिकाओं की संख्या सदा बढ़ती ही रहती है। परंतु प्रत्येक कोशिका की आयु सीमित होती है; आयु पूरी होने पर उसके बदले में नई कोशिका आ जाती है। नई कोशिकाओं के बनने का ढंग यह है कि कोई स्वस्थ कोशिका दो भागों में विभक्त हो जाती है और प्रत्येक भाग बढ़कर पूरी कोशिका के बराबर हो जाता है। जब शरीर का थोड़ा सा मांस निकल जाता है, जैसे कट जाने से या जल जाने से, तो पड़ोस की कोशिकाएँ बढ़ने लगती हैं और थोड़े समय में क्षति पूर्ति कर देती हैं। क्षतिपूर्ति के बाद कोशिकाओं की वृद्धि अपने आप बंद हो जाती है। हम कोशिकाओं की वृद्धि का उद्देश्य समझ सकते हैं, उनका रुकना भी उचित ही है, यद्यपि अभी तक पता नहीं लग सका है कि उनका बढ़ना किस प्रकार नियंत्रित होता है। अर्बुदों की उत्पत्ति शरीर की कोशिकाओं की अकारण वृद्धि से होती है और वृद्धि रुकती नहीं। नवजात कोशिकाएँ बहुधा कुछ विकृत (साधारण से अधिक सरल) होती हैं। कुछ व्यवसायों में लगे व्यक्तियों में अर्बुद अधिक उत्पन्न होते हैं, संभवत: उस व्यवसाय में प्रयुक्त रासायनिक पदार्थों द्वारा उत्पन्न उत्तेजना के कारण। कुछ परिवारों में अर्बुद अधिक देखे जाते हैं, संभवत: आनुवंशिक (हेरिडिटैरी) शारीरिक लक्षणों के कारण। जीवाणुओं को शरीर में प्रविष्ट कराकर अर्बुद उत्पन्न करने का प्रयोग विफल रहा। चोट से अर्बुद उत्पन्न होने का पक्का प्रमाण नहीं मिल सका है।

वास्तविक अर्बुदों में कोशिकावृद्धि बहुधा तभी रुकती है जब रोगी की मृत्यु हो जाती है। नई कोशिकाओं के बनने का पता साधारणत: शरीर के किसी अंग के फूल आने से चलता है। परंतु अधिक गहराई में बने अर्बुदों का पता शरीर के ऊपरी भाग को टटोलने से नहीं चल पाता। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अर्बुद में बनी नई कोशिकाएँ शरीर की साधारण कोशिकाओं को मारती चलती हैं। ऐसी अवस्था में भी शरीर का कोई अंग नहीं फूलता। साधारण कोशिकाओं के अधिक संख्या में मरने के कारण फूलने के बदले अंग पिचक भी जा सकता है। ऐसा स्तनों और आंत्रों के कर्कट (कैंसर) रोग से हो सकता है। शरीर की नलिकाओं में, जैसे अंतड़ी, पित्तनलिका तथा मूत्रनलिका में, अर्बुद के कारण रुकावट उत्पन्न हो सकती है। वहाँ घाव हो जाने से रक्तवमन और रक्तमिश्रित मूत्र आ सकता है। अर्बुद पक सकता है और तब पीब (मवाद) शरीर के बाहर मूत्र आदि के साथ निकल सकती है। खोपड़ी, छाती आदि हड्डियों से घिरे स्थानों में भीतर अर्बुद बनने से शरीर के अंग (जैसे मस्तिष्क, हृदय आदि) भीतर ही भीतर दबने लगते हैं और तब नवीन उपद्रव उत्पन्न होते हैं। हड्डी के भीतर अर्बुद उत्पन्न होने से हड्डी दुर्बल होकर टूट सकती है। अन्यत्र बने अर्बुद से दृष्टिहीनता इत्यादि उत्पन्न हो सकती है।

मृदु और घातक अर्बुद - अर्बुद में कभी पीड़ा होती है, कभी नहीं। जब अर्बुदों से शरीर के अन्य अंग दबने लगते हैं तब अवश्य पीड़ा होती है। जैसा अंत में बताया गया है, अर्बुदों के वर्गीकरण में कुछ कठिनाई पड़ती है। पुराने लोग मोटे हिसाब से अर्बुदों को दो जातियों में विभक्त करते थे, एक घातक (मैलिग्नैंट) और दूसरा मृदु (बिनाइन)। घातक वे होते हैं जो उचित चिकित्सा न करने पर रोगी की जान ले लेते हैं। मृदु अर्बुदों से साधारणत: जान नहीं जाती, परंतु यदि वे किसी बेढब स्थान पर हुए तो शरीर के किसी अन्य अंग को दबाकर जान ले सकते हैं। घातक अर्बुदों में आरंभ से यह प्रवृत्ति रहती है कि वे शरीर की अन्य कोशिकाओं पर आक्रमण करके उन्हें नष्ट करते रहते हैं। उनमें एक विशेष लक्षण यह भी है कि वे अपने उद्गम स्थान से हटकर शरीर के विभिन्न भागों में विचरण करते रहते हैं और अनेक स्थानों में उनकी बस्ती बढ़ने लगती है। यदि शरीर के सब अंगों से घातक अर्बुद की कोशिकाएँ निकाल न दी जाएँ तो एक स्थान को स्वच्छ करने पर दूसरे स्थान से रोग का आरंभ हो जाता है। मृदु अर्बुर्द अपने उद्गम स्थान पर ही टिके रहते हैं। उन्हें काटकर पूर्णतया निकाल देने पर रोग से छुटकारा मिला जाता है। मृदु अर्बुद कभी-कभी घातक अर्बुद में बदल जाता है, परंतु इस परिवर्तन का कारण अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है।

मृदु अर्बुद - वसा (चरबी) की कोशिकाओं की वृद्धि से बने अर्बुद को लिपोमा कहते हैं। इन कोशिकाओं और स्वस्थ शरीर की वसाकोशिकाओं में कोई भी अंतर सूक्ष्मदर्शी में नहीं दिखाई पड़ता। अर्बुद की वसा एक पतली पारदर्शी झिल्ली के भीतर रहती है। ये अर्बुद साधारणत: वहीं बनते हैं जहाँ स्वस्थ शरीर में वसा रहती है1 अधिकतर वे त्वचा के नीचे बनते हैं और मटर से लेकर फुटबाल तक के बराबर हो सकते हैं। रक्तवाहिनियों और लसीकावाहिनियों के अर्बुद साधारणत: मृदु होते हैं, परंतु कभी-कभी वाहिनी के फट जाने से इतना रक्तस्राव हो सकता है कि रोगी मर जाए। हाथ की हड्डी में उत्पन्न अर्बुद तथा नीचे के अंगुली का मृदु अर्बुद दिखाया गया है।

नरम हड्डियों (उपास्थि, कार्टिलेज) के अर्बुद कभी-कभी नारियल के बराबर तक हो सकते हैं। हड्डियों के अर्बुद या तो भीतरी गूदे के बढ़ने से या बाहरी कड़ी खोल के बढ़ने से उत्पन्न होते हैं। स्त्रियों में गर्भाशय का अर्बुद बहुत बड़े आकार तक पहुँच सकता है और इसमें मृदु से घातक में बदलने की प्रवृत्ति रहती है। बहुधा समूचे गर्भाशय को ही निकालने पर रोग से छुटकारा मिलता है। अंगुलियों में बहुत छोटा अर्बुद हो सकता है, जो छूने से दुखता है। जल भरी पुटिका (सिस्ट) भी किसी अंगुली में निकल सकती है। दांत की कोशिकाएँ कभी-कभी जन्म के समय जबड़े के किसी असाधारण स्थान में पड़ जाती हैं और उनके बढ़ने से भी अर्बुद हो सकता है। तब जबड़े में शोथ और बड़ी पीड़ा होती है। स्तन अर्बुद का नरम अर्बुद फुटबाल के बराबर तक हो जाता है। वहाँ का कड़ा अर्बुद नारंगी से बड़ा नहीं होता।

घातक अर्बुद - जिस प्रकार मृदु तथा घातक अर्बुद की कोशरचना में पृथकता होती है, प्राय: उसी प्रकार इन कोशों के जीवनक्रम में भी पृथक गुण मिलते हैं। प्राय: मृदु अर्बुदकोश में उद्गमकोश की भाँति क्रिया करने की प्रवृत्ति का अधिक अंश पाया जाता है। उदाहरणत:, चुल्लिकाग्रंथि के अर्बुद रोग में इन कोशों द्वारा चुल्लिकारस का कुछ अंश बनता है तथा यकृत अर्बुसद में पित्त बनाने की क्रिया का कुछ अंश मिलता है। इसके विपरीत, घातक अर्बुद का कर्कट में कोशरचना की विभिन्नता के साथ ही क्रिया में भी विभिन्नता होती है, जिससे कोश का पूर्व जीवन क्रम नहीं अथवा अल्प मात्रा में रह जाता है।

घातक वर्ग के कोश में उद्गम या मूल कोष की रचना की तुलना में अनेक रचनात्मक विभिन्नताएँ मिलती हैं, जैसे केंद्रक का आकार, नाप, विशेष रासायनिक रंगों का आकर्षण, कोश के रासायनिक तथा भौतिक गुणों में उद्गमकोश से भिझता, प्रसर, पिव्यसूत्र तथा प्ररंज्यतर्कु की विभिन्नता, सूत्रिविभाजन में विचित्रता, असूत्रिभाजन, कोशविभाजन तथा विभेदन में असंनियमित गुणों आदि विशेषताएँ प्रकट होती हैं, जिनसे उनके घातक वर्ग की पहचान हो जाती है (द्र. 'कर्कट')।

अघातक अर्बुद में अर्बूदकोश केवल उद्गम ऊति के उसी अंग में सीमित रहते हैं जहाँ उनकी उत्पत्ति होती है तथा इनमें अंतस्संचरण शक्ति नहीं होती। घातक अबुर्द की मुख्य विशेषताएँ में वृद्धि की द्रुतगति, अरूपकिता (विपर्ययण, ऐनाप्लेज़िआ), अंतस्सचरण शक्ति (विप्रवेशन, इन्फ़िल्ट्रेशन), दूर के अंगों में शिराओं तथा लसिकातंत्रों द्वारा विस्तारित होने की शक्ति (स्थानांतरणा, मेटास्टैसिस), शल्यक्रिया से काटकर निकालने के बाद स्थानीय पुनरुत्पत्ति (प्रत्यावर्तन, रिकरेंस), व्राण, अंसुलित, असंनियमित कोशिकाभाजन तथा वृद्धि मुख्य हैं।

उत्पत्ति - अर्बुद की उत्पत्ति के कारण के विषय में कई मत हैं। इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत है। आयु, योनि, जाति, अंग, सामाजिक रीति रस्म, जलवायु तथा भौगोलिक परिस्थितियाँ, आनुवंशिकता, चोट, व्यावसायिक विशेषता, कतिपय रासायनिक वस्तुएँ, परजीवी, संक्रमण, वाइरस, हारमोन असंतुलन इत्यादि का अर्बुद उत्पत्ति से संबंध है। (द्र. कर्कट)। घातक अर्बुद के कोश पड़ोसी अंगों में अंतस्संचरण गुण में प्रवेश कर जाते हैं तथा दूर-दूर के अनेक अंगों में शिराओं तथा लसिका तंत्रों से विस्तारित होकर वहाँ भी विकसित होने लगते हैं, जिसके कारण रोग के आरंभ में तो लक्षण उद्गम अंग तक ही सीमित हरते हैं, परंतु शीघ्र ही शरीर के जिन-जिन अंगों में उनका अंतस्संचरण तथा विस्तारण हुआ है उन सभी अंगों की प्राकृतिक क्रियाओं की रुकावट द्वारा उत्पन्न रोग के लक्षण मिलेंगे तथा नित्य बढ़ते जाएँगे। साथ ही दुर्बलता, (चिड़चिड़ापन, अनिद्रा, मासिक चंचलता, पीड़ा, रक्तक्षीणता, धीरे-धीरे शरीर का भार गिरना) आदि दिन प्रति दिन बढ़ते जाएँगे।

निदान - चतुर चिकित्सक बाह्य लक्षणों से अर्बुदों का पता लगा लेता है, परंतु सच्चे रोगनिदान के लिए साधारण परीक्षा के अतिरिक्त आधुनिक विशेष परीक्षणविधियाँ जैसे मल-मूत्र-परीक्षा, एक्स-रे-परीक्षा, ऊतक परीक्षा, रक्तपरीक्षा, समस्थानिक (आइसोटोप) रोगपरीक्षा आदि कई प्रकार की रीतियां हैं। चिकित्सा के लिए शल्य, सक्स-रे तथा समस्थानिक चिकित्साविधियाँ अब उपलब्ध हैं। रोग के आरंभ में ही पारिवारिक चिकित्सक तथा विशेषज्ञ चिकित्सक की राय शीघ्र लेनी चाहिए।[1]

वर्गीकरण - अर्बुदों के वर्गीकरण की पथक रीतियाँ हैं। वर्गीकरण के नामकरण की प्रथा भी समय-समय पर बदलती रहती है। विलियम बॉयड ने अर्बुदों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है :-

अर्बुद की जाति रोग का नाम

1. संयोजी-ऊतक-अर्बुद (कनेक्टिवट्यूमर्स)
क- मुदु (इझोसेंट) फाइब्रोमा लिपोमा मिक्सामा कौंड्रोमा औस्टिओमा ख- घातक (मैलिग्नैंट) सार्कोमा कौर्डोमा
2. पेशी ऊतक अर्बुद (मसल टिशू ट्यूमर) लाइओमिओमा रहैव्डोमिओमा
3. वाहिन्यर्बुद (ऐंजिओमा) हीमैंगिओमा लिंफैंगिओमा
4. अंतश्छदीय अर्बुद (एँडोथेलिओमा)
5. हीमोपोएटिक-ऊतक-अर्बुद (ट्यूमर्स ऑव हीमोपोएटिक टिशू):
क- मृदु लसीकार्बुद (बिनाइन लिंफ़ोमा) लिंफोसार्कोमा ख- घातक लसीकार्बुद (मैलिग्नैंट लिंफ़ोमा) हॉडकिंस डिसीज ल्युकीमिआ मल्टिपुल मिएलोमा
6. मसा (पिग्मेंटेड ट्यूमर्स) नेवसमेलानोमा
7. तंतु-ऊतक-अर्बुद (नर्वटिशू अर्बुद) ग्लाइओमा निउरी ब्लास्टोमा रेटिनो ब्लास्टोमा गैंग्लिओ निउरोमा
8. धारिच्छद अर्बुद (एपिथीलिअस ट्यूमर्स) क- मृदु (इन्नोसेंट) पैपिलोमा ऐडिनोमा ख- घातक (मैलिग्नैंट) कारसिनोमा 9. विशेष प्रकार के धारिच्छद अर्बुद (स्पेशलफॉर्म्स ऑव एपिथीलियम ट्यूमर्स) हाइपनफ्रेोमा कोरिओ एपिथीलिओमा ऐडामैंटिनोमा।

10. टेराटोमा[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 244-46 |
  2. सं.ग्रं.-आर.पी. विलस : पैथॉलोजी ऑव ट्यूमर्स (लंदन, 1948); केटल : पैथॉलोजी ऑव ट्यूमर्स।

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