प्रगाथ काण्व

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
आदित्य चौधरी (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:01, 4 फ़रवरी 2021 का अवतरण (Text replacement - "दृष्टा " to "द्रष्टा")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

प्रगाथ काण्व को प्रगाथ नामक मंत्र विशेष का द्रष्टामाना गया है। ऋग्वेद के आठवें मण्डल के क्रमांक 10, 48, 51 व 54 के सूक्त इनके नाम पर हैं। यज्ञ में शंसन करते समय एक विशिष्ट पद्धति से दो ऋचाओं की तीन ऋचाएँ करते हैं, जिन्हें ‘प्रगाथ’ कहा जाता है। इन प्रगाथों को, सम्बन्धित देवता के अनुसार, ब्रह्मणस्पद प्रगाथ काण्व ने अपने सूक्तों में इन्द्र, अश्वनी व सोम की स्तुति की है।

सोमरस के बारे में इन्होंने काव्यमय भाषा में लिखा है। सोम के पान से उल्लसित होकर वे कहते हैं-

अपास सोममममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान्। किं नूनमस्मान् कृणवदराति: किमु धूर्तिरमृत मर्त्यस्य।।[1]

अर्थ - हमने सोमरस का प्राशन किया, हम अमर हुए, दिव्य प्रकाश को प्राप्त हुए। हमने देवों को पहचाना। अब धर्म विमुख दृष्ट हमारा क्या कर लेंगे। हे अमर देव, मालवों की धूर्तता भी अब हमारा क्या अहित कर सकेगी।

इसके उपरांत प्रगाथ काण्व ने स्वयं को अग्नि के समान उज्ज्वल बनाने तथा सभी प्रकार की समृद्धि प्रदान करने की सोम से प्रार्थना की है।[2]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 511 |

  1. ऋग्वेद, 8.48.3
  2. सं.वा.को. (द्वितीय खण्ड), पृष्ठ 375

संबंधित लेख