तर्पण (श्राद्ध)

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तर्पण (श्राद्ध)
श्राद्ध कर्म में पूजा करते ब्राह्मण
श्राद्ध कर्म में पूजा करते ब्राह्मण
अनुयायी सभी हिन्दू धर्मावलम्बी
उद्देश्य श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है, उसी को 'श्राद्ध' कहते हैं।।
प्रारम्भ वैदिक-पौराणिक
तिथि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से सर्वपितृ अमावस्या अर्थात् आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक
अनुष्ठान श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके जो 'पिण्ड' बनाते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है।
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अन्य जानकारी ब्रह्म पुराण के अनुसार श्राद्ध की परिभाषा- 'जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है', श्राद्ध कहलाता है।

श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है उसी को श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध संस्कार में आवाहन, पूजन, नमस्कार के उपरान्त तर्पण किया जाता है। जल में दूध, जौ, चावल, चन्दन डाल कर तर्पण कार्य में प्रयुक्त करते हैं। मिल सके, तो गंगा जल भी डाल देना चाहिए। तृप्ति के लिए तर्पण किया जाता है। स्वगर्स्थ आत्माओं की तृप्ति किसी पदार्थ से, खाने-पहनने आदि की वस्तु से नहीं होती, क्योंकि स्थूल शरीर के लिए ही भौतिक उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। मरने के बाद स्थूल शरीर समाप्त होकर, केवल सूक्ष्म शरीर ही रह जाता है। सूक्ष्म शरीर को भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि की आवश्यकता नहीं रहती, उसकी तृप्ति का विषय कोई, खाद्य पदार्थ या हाड़-मांस वाले शरीर के लिए उपयुक्त उपकरण नहीं हो सकते। सूक्ष्म शरीर में विचारणा, चेतना और भावना की प्रधानता रहती है, इसलिए उसमें उत्कृष्ट भावनाओं से बना अन्तःकरण या वातावरण ही शान्तिदायक होता है।

दिशा एवं प्रेरणा

इस दृश्य संसार में स्थूल शरीर वाले को जिस प्रकार इन्द्रिय भोग, वासना, तृष्णा एवं अहंकार की पूर्ति में सुख मिलता है, उसी प्रकार पितरों का सूक्ष्म शरीर शुभ कर्म से उत्पन्न सुगन्ध का रसास्वादन करते हुए तृप्ति का अनुभव करता है। उसकी प्रसन्नता तथा आकांक्षा का केन्द्र बिन्दु श्रद्धा है। श्रद्धा भरे वातावरण के सान्निध्य में पितर अपनी अशान्ति खोकर आनन्द का अनुभव करते हैं, श्रद्धा ही इनकी भूख है, इसी से उन्हें तृप्ति होती है। इसलिए पितरों की प्रसन्नता के लिए श्रद्धा एवं तर्पण किये जाते हैं। इन क्रियाओं का विधि-विधान इतना सरल एवं इतने कम खर्च का है कि निर्धन से निर्धन व्यक्ति भी उसे आसानी से सम्पन्न कर सकता है। तर्पण में प्रधानतया जल का ही प्रयोग होता है। उसे थोड़ा सुगंधित एवं परिपुष्ट बनाने के लिए जौ, तिल, चावल, दूध, फूल जैसी दो-चार मांगलिक वस्तुएँ डाली जाती हैं। कुशाओं के सहारे जौ की छोटी-सी अंजलि मन्त्रोच्चारपूवर्क डालने मात्र से पितर तृप्त हो जाते हैं, किन्तु इस क्रिया के साथ आवश्यक श्रद्धा, कृतज्ञता, सद्भावना, प्रेम, शुभकामना का समन्वय अवश्य होना चाहिए। यदि श्रद्धाञ्जलि इन भावनाओं के साथ की गयी है, तो तर्पण का उद्देश्य पूरा हो जायेगा, पितरों को आवश्यक तृप्ति मिलेगी, किन्तु यदि इस प्रकार की कोई श्रद्धा भावना तर्पण करने वाले के मन में नहीं होती और केवल लकीर पीटने के मात्र पानी इधर-उधर फैलाया जाता है, तो इतने भर से कोई विशेष प्रयोजन पूर्ण न होगा, इसलिए इन पितृ-कर्मों के करने वाले यह ध्यान रखें कि इन छोटे-छोटे क्रिया-कृत्यों को करने के साथ-साथ दिवंगत आत्माओं के उपकारों का स्मरण करें, उनके सद्गुणों तथा सत्कर्मो के प्रति श्रद्धा व्यक्त करें। [1] कृतज्ञता तथा सम्मान की भावना उनके प्रति रखें और यह अनुभव करें कि यह जलांजलि जैसे अकिंचन उपकरणों के साथ, अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करते हुए स्वगीर्य आत्माओं के चरणों पर अपनी सद्भावना के पुष्प चढ़ा रहा हूँ। इस प्रकार की भावनाएँ जितनी ही प्रबल होंगी, पितरों को उतनी ही अधिक तृप्ति मिलेगी। जिस पितर का स्वगर्वास हुआ है, उसके किये हुए उपकारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना, उसके अधूरे छोड़े हुए पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा करने में तत्पर होना तथा अपने व्यक्तित्व एवं वातावरण को मंगलमय ढाँचे में ढालना मरणोत्तर संस्कार का प्रधान प्रयोजन है। गृह शुद्धि, सूतक निवृत्ति का उद्देश्य भी इसी के निमित्त की जाती है, किन्तु तर्पण में केवल इन्हीं एक पितर के लिए नहीं, पूर्व काल में गुजरे हुए अपने परिवार, माता के परिवार, दादी के परिवार के तीन-तीन पीढ़ी के पितरों की तृप्ति का भी आयोजन किया जाता है। इतना ही नहीं इस पृथ्वी पर अवतरित हुए सभी महान् पुरुषों की आत्मा के प्रति इस अवसर पर श्रद्धा व्यक्त करते हुए अपनी सद्भावना के द्वारा तृप्त करने का प्रर्यत्न किया जाता है। तर्पण को छह भागों में विभक्त किया गया है-

  1. देव-तर्पण
  2. ऋषि-तर्पण
  3. दिव्य-मानव-तर्पण
  4. दिव्य-पितृ-तर्पण
  5. यम-तर्पण
  6. मनुष्य-पितृ-तर्पण
श्राद्ध संस्कार करते श्रद्धालु

देव तपर्णम्

देव शक्तियाँ ईश्वर की वे महान् विभूतियाँ हैं, जो मानव-कल्याण में सदा निःस्वार्थ भाव से प्रयतनरत हैं। जल, वायु, सूर्य, अग्नि, चन्द्र, विद्युत् तथा अवतारी ईश्वर अंगों की मुक्त आत्माएँ एवं विद्या, बुद्धि, शक्ति, प्रतिभा, करुणा, दया, प्रसन्नता, पवित्रता जैसी सत्प्रवृत्तियाँ सभी देव शक्तियों में आती हैं। यद्यपि ये दिखाई नहीं देतीं, तो भी इनके अनन्त उपकार हैं। यदि इनका लाभ न मिले, तो मनुष्य के लिए जीवित रह सकना भी सम्भव न हो। इनके प्रति कृतज्ञता की भावना व्यक्त करने के लिए यह देव-तर्पण किया जाता है। यजमान दोनों हाथों की अनामिका अँगुलियों में पवित्री धारण करें। ॐ आगच्छन्तु महाभागाः, विश्वेदेवा महाबलाः । ये तपर्णेऽत्र विहिताः, सावधाना भवन्तु ते॥ जल में चावल डालें । कुश-मोटक सीधे ही लें ।। यज्ञोपवीत सव्य (बायें कन्धे पर) सामान्य स्थिति में रखें। तर्पण के समय अंजलि में जल भरकर सभी अँगुलियों के अग्र भाग के सहारे अपिर्त करें। इसे देवतीर्थ मुद्रा कहते हैं। प्रत्येक देवशक्ति के लिए एक-एक अंजलि जल डालें। पूवार्भिमुख होकर देते चलें।

ॐ ब्रह्मादयो देवाः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलीन्।
ॐ ब्रह्म तृप्यताम्।
ॐ विष्णुस्तृप्यताम्।
ॐ रुद्रस्तृप्यताम्।
ॐ प्रजापतितृप्यताम्।
ॐ देवास्तृप्यताम्।
ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम्।
ॐ वेदास्तृप्यन्ताम्।
ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम्।
ॐ पुराणाचायार्स्तृप्यन्ताम्।
ॐ गन्धवार्स्तृप्यन्ताम्।
ॐ इतराचायार्स्तृप्यन्ताम्।
ॐ संवत्सरः सावयवस्तृप्यन्ताम्।
ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम्।
ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम्।
ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम्।
ॐ नागास्तृप्यन्ताम्।
ॐ सागरास्तृप्यन्ताम्।
ॐ पवर्ता स्तृप्यन्ताम्।
ॐ सरितस्तृप्यन्ताम्।
ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम्।
ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम्।
ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम्।
ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम्।
ॐ सुपणार्स्तृप्यन्ताम्।
ॐ भूतानि तृप्यन्ताम्।
ॐ पशवस्तृप्यन्ताम्।
ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम्।
ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम्।
ॐ भूतग्रामः चतुविर्धस्तृप्यन्ताम्।

ऋषि तर्पण

दूसरा तर्पण ऋषियों के लिए है। व्यास, वसिष्ठ, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, नारद, चरक, सुश्रुत, पाणिनी, दधीचि आदि ऋषियों के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति ऋषि तर्पण द्वारा की जाती है। ऋषियों को भी देवताओं की तरह देवतीर्थ से एक-एक अंजलि जल दिया जाता है।

नारद मुनि
Narad Muni

ॐ मरीच्यादि दशऋषयः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान्जलाञ्जलीन्।
ॐ मरीचिस्तृप्याताम्।
ॐ अत्रिस्तृप्यताम्।
ॐ अंगिराः तृप्यताम्।
ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम्।
ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम्।
ॐ क्रतुस्तृप्यताम्।
ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम्।
ॐ प्रचेतास्तृप्यताम्।
ॐ भृगुस्तृप्यताम्।
ॐ नारदस्तृप्यताम्।

दिव्य-मनुष्य तर्पण

तीसरा तर्पण दिव्य मानवों के लिए है। जो पूर्ण रूप से समस्त जीवन को लोक कल्याण के लिए अपिर्त नहीं कर सकें, पर अपना, अपने परिजनों का भरण-पोषण करते हुए लोकमंगल के लिए अधिकाधिक त्याग-बलिदान करते रहे, वे दिव्य मानव हैं। राजा हरिश्चंद्र, रन्तिदेव, शिवि, जनक, पाण्डव, शिवाजी, महाराणा प्रताप, भामाशाह, तिलक जैसे महापुरुष इसी श्रेणी में आते हैं। दिव्य मनुष्य तर्पण उत्तराभिमुख किया जाता है। जल में जौ डालें। जनेऊ कण्ठ की माला की तरह रखें। कुश हाथों में आड़े कर लें। कुशों के मध्य भाग से जल दिया जाता है। अंजलि में जल भरकर कनिष्ठा (छोटी उँगली) की जड़ के पास से जल छोड़ें, इसे प्राजापत्य तीर्थ मुद्रा कहते हैं। प्रत्येक सम्बोधन के साथ दो-दो अंजलि जल दें-

ॐ सनकादयः दिव्यमानवाः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान्जलाञ्जलीन्।
ॐ सनकस्तृप्याताम्॥2॥
ॐ सनन्दनस्तृप्यताम्॥2॥
ॐ सनातनस्तृप्यताम्॥2॥
ॐ कपिलस्तृप्यताम्॥2॥
ॐ आसुरिस्तृप्यताम्॥2॥
ॐ वोढुस्तृप्यताम्॥2॥
ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम्॥2॥

दिव्य-पितृ-तर्पण

चौथा तर्पण दिव्य पितरों के लिए है। जो कोई लोकसेवा एवं तपश्चर्या तो नहीं कर सके, पर अपना चरित्र हर दृष्टि से आदर्श बनाये रहे, उस पर किसी तरह की आँच न आने दी। अनुकरण, परम्परा एवं प्रतिष्ठा की सम्पत्ति पीछे वालों के लिए छोड़ गये। ऐसे लोग भी मानव मात्र के लिए वन्दनीय हैं, उनका तर्पण भी ऋषि एवं दिव्य मानवों की तरह ही श्रद्धापूवर्क करना चाहिए। इसके लिए दक्षिणाभिमुख हों। वामजानु (बायाँ घुटना मोड़कर बैठें) जनेऊ अपसव्य (दाहिने कन्धे पर सामान्य से उल्टी स्थिति में) रखें। कुशा दुहरे कर लें। जल में तिल डालें। अंजलि में जल लेकर दाहिने हाथ के अँगूठे के सहारे जल गिराएँ। इसे पितृ तीर्थ मुद्रा कहते हैं। प्रत्येक पितृ को तीन-तीन अंजलि जल दें।

ॐ कव्यवाडादयो दिव्यपितरः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलिन्।
ॐ कव्यवाडनलस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वाधा नमः॥3॥
ॐ सोमस्तृप्यताम्, इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वाधा नमः॥3॥
ॐ यमस्तृप्यताम्, इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वाधा नमः॥3॥
ॐ अयर्मा स्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वाधा नमः॥3॥
ॐ अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तेभ्यः स्वाधा नमः॥3॥
ॐ सोमपाः पितरस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तेभ्यः स्वाधा नमः॥3॥
ॐ बहिर्षदः पितरस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तेभ्यः स्वाधा नमः॥3॥

यम तर्पण

यम नियन्त्रण-कर्त्ता शक्तियों को कहते हैं। जन्म-मरण की व्यवस्था करने वाली शक्ति को यम कहते हैं। मृत्यु को स्मरण रखें, मरने के समय पश्चात्ताप न करना पड़े, इसका ध्यान रखें और उसी प्रकार की अपनी गतिविधियाँ निधार्रित करें, तो समझना चाहिए कि यम को प्रसन्न करने वाला तर्पण किया जा रहा है। राज्य शासन को भी यम कहते हैं। अपने शासन को परिपुष्ट एवं स्वस्थ बनाने के लिए प्रत्येक नागरिक को, जो कत्तर्व्य पालन करता है, उसका स्मरण भी यम तर्पण द्वारा किया जाता है। अपने इन्द्रिय निग्रहकर्त्ता एवं कुमार्ग पर चलने से रोकने वाले विवेक को यम कहते हैं। इसे भी निरंतर पुष्ट करते चलना हर भावनाशील व्यक्ति का कत्तर्व्य है। इन कत्तर्व्यों की स्मृति यम-तर्पण द्वारा की जाती है। दिव्य पितृ तर्पण की तरह पितृतीथर् से तीन-तीन अंजलि जल यमों को भी दिया जाता है।

ॐ यमादिचतुदर्शदेवाः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलिन्।
ॐ यमाय नमः॥3॥
ॐ धमर्राजाय नमः॥3॥
ॐ मृत्यवे नमः॥3॥
ॐ अन्तकाय नमः॥3॥
ॐ वैवस्वताय ॐ कालाय नमः॥3॥
ॐ सवर्भूतक्षयाय नमः॥3॥
ॐ औदुम्बराय नमः॥3॥
ॐ दध्नाय नमः॥3॥
ॐ नीलाय नमः॥3॥
ॐ परमेष्ठिने नमः॥3॥
ॐ वृकोदराय नमः॥3॥
ॐ चित्राय नमः॥3॥
ॐ चित्रगुपताय नमः॥3॥

तत्पश्चात् निम्न मन्त्रों से यम देवता को नमस्कार करें-

ॐ यमाय धमर्राजाय, मृत्यवे चान्तकाय च।
वैवस्वताय कालाय, सवर्भूतक्षयाय च॥
औदुम्बराय दध्नाय, नीलाय परमेष्ठिने।
वृकोदराय चित्राय, चित्रगुप्ताय वै नमः॥

मनुष्य-पितृ-तर्पण

इसके बाद अपने परिवार से सम्बन्धित दिवंगत नर-नारियों का क्रम आता है।

  1. पिता, बाबा, परबाबा, माता, दादी, परदादी।
  2. नाना, परनाना, बूढ़े नाना, नानी परनानी, बूढ़ीनानी।
  3. पतनी, पुत्र, पुत्री, चाचा, ताऊ, मामा, भाई, बुआ, मौसी, बहिन, सास, ससुर, गुरु, गुरुपतनी, शिष्य, मित्र आदि।

यह तीन वंशावलियाँ तर्पण के लिए है। पहले स्वगोत्र तर्पण किया जाता है-

गोत्रोत्पन्नाः अस्मत् पितरः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलाञ्जलीन्।
अस्मत्पिता (पिता) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मत्पितामह (दादा) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मत्प्रपितामहः (परदादा) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मन्माता (माता) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा गायत्रीरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥
अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा सावित्रीरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥
अस्मत्प्रत्पितामही (परदादी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा लक्ष्मीरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥
अस्मत्सापतनमाता (सौतेली माँ) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥

अन्य तर्पण

द्वितीय गोत्र तर्पण

इसके बाद द्वितीय गोत्र मातामह आदि का तर्पण करें। यहाँ यह भी पहले की भाँति निम्नलिखित वाक्यों को तीन-तीन बार पढ़कर तिल सहित जल की तीन-तीन अंजलियाँ पितृतीर्थ से दें तथा-

अस्मन्मातामहः (नाना) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मत्प्रमातामहः (परनाना) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मद्वृद्धप्रमातामहः (बूढ़े परनाना) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो आदित्यरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मन्मातामही (नानी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा लक्ष्मीरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥
अस्मत्प्रमातामही (परनानी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा रुद्ररूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥
अस्मद्वृद्धप्रमातामही (बूढ़ी परनानी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा आदित्यारूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥

इतर तर्पण

जिनको आवश्यक है, केवल उन्हीं के लिए तर्पण कराया जाए-

अस्मत्पतनी अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥
अस्मत्सुतः (बेटा) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥
सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मत्कन्याः (बेटी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥
अस्मत्पितृव्यः (चाचा) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मन्मातुलः (मामा) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मद्भ्राता (अपना भाई) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मत्सापतनभ्राता (सौतेला भाई) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मत्पितृभगिनी (बुआ) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥
अस्मान्मातृभगिनी (मौसी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥
अस्मदात्मभगिनी (अपनी बहिन) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥
अस्मत्सापतनभगिनी (सौतेली बहिन) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥
अस्मद श्वशुरः (श्वसुर) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मद श्वशुरपतनी (सास) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥
अस्मद्गुरु अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मद् आचायर्पतनी अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥3॥
अस्मत् शिष्यः अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मत्सखा अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मद् आप्तपुरुषः (सम्मानीय पुरुष) अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥
अस्मद् पतिः अमुकशमार् अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥3॥

निम्न मन्त्र से पूवर् विधि से प्राणिमात्र की तुष्टि के लिए जल धार छोड़ें-

ॐ देवासुरास्तथा यक्षा, नागा गन्धवर्राक्षसाः। पिशाचा गुह्यकाः सिद्धाः, कूष्माण्डास्तरवः खगाः॥
जलेचरा भूनिलया, वाय्वाधाराश्च जन्तवः। प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु, मद्दत्तेनाम्बुनाखिलाः॥
नरकेषु समस्तेषु, यातनासुु च ये स्थिताः। तेषामाप्यायनायैतद्, दीयते सलिलं मया॥
ये बान्धवाऽबान्धवा वा, येऽ न्यजन्मनि बान्धवाः। ते सवेर् तृप्तिमायान्तु, ये चास्मत्तोयकांक्षिणः। आब्रह्मस्तम्बपयर्न्तं, देवषिर्पितृमानवाः। तृप्यन्तु पितरः सवेर्, मातृमातामहादयः॥
अतीतकुलकोटीनां, सप्तद्वीपनिवासिनाम्। आब्रह्मभुवनाल्लोकाद्, इदमस्तु तिलोदकम्। ये बान्धवाऽबान्धवा वा, येऽ न्यजन्मनि बान्धवाः। ते सवेर् तृप्तिमायान्तु, मया दत्तेन वारिणा॥

वस्त्र-निष्पीडन

शुद्ध वस्त्र जल में डुबोएँ और बाहर लाकर मन्त्र को पढ़ते हुए अपसव्य भाव से अपने बायें भाग में भूमि पर उस वस्त्र को निचोड़ें।[2]

ॐ ये के चास्मत्कुले जाता, अपुत्रा गोत्रिणो मृताः।
ते गृह्णन्तु मया दत्तं, वस्त्रनिष्पीडनोदकम्॥

भीष्म तर्पण

अन्त में भीष्म तर्पण किया जाता है। ऐसे परमार्थ परायण महामानव, जिन्होंने उच्च उद्देश्यों के लिए अपना वंश चलाने का मोह नहीं किया, भीष्म उनके प्रतिनिधि माने गये हैं, ऐसी सभी श्रेष्ठात्माओं को जलदान दें-

ॐ वैयाघ्रपदगोत्राय, सांकृतिप्रवराय च।
गंगापुत्राय भीष्माय, प्रदास्येऽहं तिलोदकम्॥
अपुत्राय ददाम्येतत्, सलिलं भीष्मवमर्णे॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अखिल विश्व गायत्री परिवार (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल)। । अभिगमन तिथि: 2 अक्टूबर, 2010।
  2. यदि घर में किसी मृत पुरुष का वाषिर्क श्राद्ध कर्म हो, तो वस्त्र-निष्पीड़न नहीं करना चाहिए ।

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