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'''गद्दी पर बैठने के समय''' दौलतराव नवयुवक व महत्वाकांक्षी था। उसका राज्य बहुत बड़ा, उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ था। उसके पास विशाल सेना थी, जिसको फ़्राँसीसी अफ़सर द-ब्वाञ ने प्रशिक्षित किया था और उस समय अन्य फ़्राँसीसी अफ़सर पेरों उसका कमाण्डर था। दौलतराव [[पूना]] के [[पेशवा]] को अपनी मुट्ठी में करना चाहता था, लेकिन [[इंदौर]] का [[जसवंतराव होल्कर]] इस मामले में उसका मुख्य प्रतिद्वन्द्वी था। इसके अलावा पेशवा का मुख्यमंत्री [[नाना फड़नवीस]] भी इसमें बाधक था। लेकिन 1800 ई. में नाना की मृत्यु हो गई। दौलतराव तुरन्त पूना में अपनी धाक जमाने का प्रयास करने लगा। होल्कर ने उसका विरोध किया, फलत: पूना के परकोटे के बाहर ही अक्टूबर 1802 ई. में दोनों के मध्य युद्ध हुआ।
 
'''गद्दी पर बैठने के समय''' दौलतराव नवयुवक व महत्वाकांक्षी था। उसका राज्य बहुत बड़ा, उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ था। उसके पास विशाल सेना थी, जिसको फ़्राँसीसी अफ़सर द-ब्वाञ ने प्रशिक्षित किया था और उस समय अन्य फ़्राँसीसी अफ़सर पेरों उसका कमाण्डर था। दौलतराव [[पूना]] के [[पेशवा]] को अपनी मुट्ठी में करना चाहता था, लेकिन [[इंदौर]] का [[जसवंतराव होल्कर]] इस मामले में उसका मुख्य प्रतिद्वन्द्वी था। इसके अलावा पेशवा का मुख्यमंत्री [[नाना फड़नवीस]] भी इसमें बाधक था। लेकिन 1800 ई. में नाना की मृत्यु हो गई। दौलतराव तुरन्त पूना में अपनी धाक जमाने का प्रयास करने लगा। होल्कर ने उसका विरोध किया, फलत: पूना के परकोटे के बाहर ही अक्टूबर 1802 ई. में दोनों के मध्य युद्ध हुआ।
 
====द्वितीय मराठा युद्ध का जन्म====
 
====द्वितीय मराठा युद्ध का जन्म====
'''पूना के युद्ध में पेशवा''' [[बाजीराव द्वितीय]] डरकर भाग खड़ा हुआ। उसने [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] की शरण लेकर उनसे [[बसई की सन्धि]] की, जिसके अनुसार अंग्रेज़ों ने पेशवा को पूना की गद्दी पर बैठाने का वायदा किया और बदले में पेशवा ने अपने ख़र्च पर पूना में अंग्रेज़ पलटन रखना स्वीकार कर लिया। अंग्रेज़ों ने मई 1803 ई. में पेशवा को पुन: गद्दी पर बैठा दिया। पेशवा बाजीराव द्वितीय की इस सन्धि से शिन्दे, [[रघुजी भोंसले द्वितीय]] और होल्कर का क्रुद्ध होना स्वाभाविक था और शिन्दे ने भोंसले के साथ मिलकर इसको अस्वीकार कर दिया। इसका परिणाम 1803 ई. का द्वितीय मराठा युद्ध हुआ।
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'''पूना के युद्ध में पेशवा''' [[बाजीराव द्वितीय]] डरकर भाग खड़ा हुआ। उसने [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] की शरण लेकर उनसे [[बसई की सन्धि]] की, जिसके अनुसार अंग्रेज़ों ने पेशवा को पूना की गद्दी पर बैठाने का वायदा किया और बदले में पेशवा ने अपने ख़र्च पर पूना में अंग्रेज़ पलटन रखना स्वीकार कर लिया। अंग्रेज़ों ने मई 1803 ई. में पेशवा को पुन: गद्दी पर बैठा दिया। पेशवा बाजीराव द्वितीय की इस सन्धि से शिन्दे, [[रघुजी भोंसले द्वितीय|भोंसले]] और होल्कर का क्रुद्ध होना स्वाभाविक था और शिन्दे ने भोंसले के साथ मिलकर इसको अस्वीकार कर दिया। इसका परिणाम 1803 ई. का द्वितीय मराठा युद्ध हुआ।
  
 
====अंग्रेज़ों से सन्धि====
 
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10:36, 15 जनवरी 2011 का अवतरण

दौलतराव शिन्दे, महादजी शिन्दे के भाई तुकोजी का पौत्र था। 1794 ई. में महादजी के मरने के बाद वह ग्वालियर का अधिपति बना। उसने 1827 ई. में अपनी मृत्यु पर्यन्त शासन किया।

महत्वाकांक्षी युवक

गद्दी पर बैठने के समय दौलतराव नवयुवक व महत्वाकांक्षी था। उसका राज्य बहुत बड़ा, उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ था। उसके पास विशाल सेना थी, जिसको फ़्राँसीसी अफ़सर द-ब्वाञ ने प्रशिक्षित किया था और उस समय अन्य फ़्राँसीसी अफ़सर पेरों उसका कमाण्डर था। दौलतराव पूना के पेशवा को अपनी मुट्ठी में करना चाहता था, लेकिन इंदौर का जसवंतराव होल्कर इस मामले में उसका मुख्य प्रतिद्वन्द्वी था। इसके अलावा पेशवा का मुख्यमंत्री नाना फड़नवीस भी इसमें बाधक था। लेकिन 1800 ई. में नाना की मृत्यु हो गई। दौलतराव तुरन्त पूना में अपनी धाक जमाने का प्रयास करने लगा। होल्कर ने उसका विरोध किया, फलत: पूना के परकोटे के बाहर ही अक्टूबर 1802 ई. में दोनों के मध्य युद्ध हुआ।

द्वितीय मराठा युद्ध का जन्म

पूना के युद्ध में पेशवा बाजीराव द्वितीय डरकर भाग खड़ा हुआ। उसने अंग्रेज़ों की शरण लेकर उनसे बसई की सन्धि की, जिसके अनुसार अंग्रेज़ों ने पेशवा को पूना की गद्दी पर बैठाने का वायदा किया और बदले में पेशवा ने अपने ख़र्च पर पूना में अंग्रेज़ पलटन रखना स्वीकार कर लिया। अंग्रेज़ों ने मई 1803 ई. में पेशवा को पुन: गद्दी पर बैठा दिया। पेशवा बाजीराव द्वितीय की इस सन्धि से शिन्दे, भोंसले और होल्कर का क्रुद्ध होना स्वाभाविक था और शिन्दे ने भोंसले के साथ मिलकर इसको अस्वीकार कर दिया। इसका परिणाम 1803 ई. का द्वितीय मराठा युद्ध हुआ।

अंग्रेज़ों से सन्धि

दौलतराव शिन्दे की सेना यद्यपि यूरोपीय पद्धति से प्रशिक्षित थी, तथापि वह बसई, आरगाँव और लासवाड़ी के युद्धों में बुरी तरह से पराजित हुई। दौलतराव के फ़्राँसीसी सेनापति पेरों ने नौकरी छोड़ दी। विवश होकर शिन्दे को अंग्रेज़ों से 30 दिसम्बर, 1820 ई. को सन्धि करनी पड़ी, जो सुर्जी अर्जुनगाँव की सन्धि के नाम से प्रसिद्ध है, जिसके अनुसार उसे अपना दक्षिण का प्रदेश तथा गंगा-यमुना के बीच का दौआब अंग्रेज़ों को दे देना पड़ा। दौलतराव इस पराजय से बहुत ही क्षुब्ध हुआ। फलत: नवम्बर 1805 ई. में उसने अंग्रेज़ों से फिर युद्ध किया। यद्यपि उसे विजय प्राप्त नहीं हुई, तथापि अंग्रेज़ों ने पहले की सन्धि की शर्तों को ही नरम कर दिया। अंग्रेज़ों ने चम्बल नदी को शिन्दे तथा अंग्रेज़ी राज्य की सीमा स्वीकार कर लिया।

पिढांरियों को सहायता

दौलतराव अब भी अपने खोय हुए प्रदेशों को पाने के लिए लालायित था। उसने अंग्रेज़ी क्षेत्र में लूटपाट करने वाले पिढांरियों को सहायता देना आरम्भ कर दिया। 1817 ई. में लार्ड हेस्टिंग्स ने पिंढारियों के दमन के लिए एक अभियान चलाया और दौलतराव को नई सन्धि करने के लिए विवश कर दिया। जिसके अनुसार दौलतराव ने पिंढारियों को कोई सहायता न देने का वायदा किया तथा अंग्रेज़ों का यह अधिकार भी स्वीकार किया कि वे राजपूत राजाओं से सन्धि कर सकते हैं। इस प्रकार दौलतराव अंग्रेज़ों को कोई भी हानि पहुँचाने में असमर्थ हो गया।

मृत्यु

1827 ई. में दौलतराव शिन्दे की मृत्यु हो गई। उस समय भी उसके अधीन एक विशाल राज्य था, जिसकी राजधानी ग्वालियर थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • (पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-211
  • (पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-448