"कालिदास की रस संयोजना" के अवतरणों में अंतर

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<poem>उपमानमभूद्विलासिनां करणं यत्तव कांतिमत्तया।
 
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तदिद गतमीदृशीं दशां न विदीर्ये कठिना: खलु स्त्रिय:॥<ref>4.5, कुमारसम्भव</ref></poem>
 
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05:38, 9 अगस्त 2012 का अवतरण

  • कालिदास ह्र्दयपक्ष अथवा भावपक्ष के कवि हैं। इसीलिये उनकी कविता द्राक्षापाक है। वे व्यंजनावादी हैं। रसोदबोध में अत्यंत सक्षम हैं। रसों में भी कोमल रसों के संयोजन में वे सिद्धहस्त हैं। यद्यपि उन्होंने वीर, भयानक आदि रसों का भी चित्रण किया है किंतु श्रृंगार, करुण एवं शांत प्रभृत्ति सुकुमार रसों की अनुभूति कराने में वे जितने प्रवीण हैं, उतने प्रौढ़ रसों की अनुभूति में नहीं। श्रृंगार के वर्णन में तो कालिदास अनुपम हैं। वस्तुत: वे श्रृंगार के कवि हैं। उन्होंने श्रृंगार के उभय पक्ष - सम्भोग एवं विप्रलम्भ का चित्रण किया है। किंतु उनका विप्रलम्भ श्रृंगार रस अद्वितीय है। मेघदूत में तो सम्भोग श्रृंगार विप्रलम्भ का पोषक बन गया है।
  • कालिदास के समस्त काव्यों में श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति हुई है। ऋतुसंहार, मेघदूत आदि ग्रंथों में सम्भोग श्रृंगार का भरपूर चित्रण है, किंतु कुमारसम्भव में शिव - पार्वती के सम्भोग वर्णन में सम्भोग श्रृंगार की अभिव्यक्ति अत्युत्कृष्ट है।
  • मेघदूत में भी सम्भोग श्रृंगार का खुलकर चित्रण हुआ है-

नीवीबन्धोच्छ्वसितशिथिलं यत्र बिम्बाधराणां
क्षौमं रागादनिभृतकरेष्वाक्षिपत्सु प्रियेषु
अर्चितस्तुङ्गानभिमुखमपि प्राप्य रत्नप्रदीपान
ह्वीमूढानां भवति विफलप्रेरणा चूर्णमुष्टि:॥[1]

  • अलका नगरी में रागाधिक्यवश प्रेमिकाओं के अधोवस्त्रों के बन्ध ढीले पड़ जाते हैं और प्रेमियों के चंचल हाथ जब उनके रेशमी वस्त्रों को खींच लेते हैं तब लज्जित हुई प्रेमिकायें ऊँचे प्रज्ज्वलित रत्नदीपों को बुझाने के लिये उन पर मुठ्टी भर केसर की धूल फेंकती हैं, किंतु उनका प्रयास विफल ही होता है।
  • मेघदूत विप्रलम्भ श्रृंगार प्रधान काव्य है। यहाँ सम्भोग श्रृंगार भी विप्रलम्भ का पोषक है। कालिदास मेघदूत में विप्रलम्भ की तीव्रतम अनुभूति कराने में सफल हुए हैं। यक्ष प्रिया-मिलन के लिये इतना व्याकुल है कि उत्तर की ओर से आने वाली हवाओं का आलिंगन करता है, सम्भव है ये हवायें उसकी प्रिया के शरीर का स्पर्श कर के आ रही हों-

आलिङ्ग्यंते गुणवति मया ते तुषाराद्रिवाता:।
पूर्वस्पृष्टं यदि किल भवेदङ्गमेभिस्तवेति॥[2]

  • कालिदास ने कुमारसम्भव में रति-विलाप तथा रघुवंश में अज - विलाप के प्रसंग में करुण रस का बड़ा ही सजीव चित्रण किया है। कामदेव के जल जाने पर रति रोती हुई कहती है - प्रिय! आज तक तुम्हारे जिस कांतिमान शरीर से विलासियों के शरीर की उपमा दी जाती थी, उसे इस दशा में देखकर भी मेरी छाती फट नहीं रही है, सचमुच स्त्रियों का ह्रदय कठोर होता है-

उपमानमभूद्विलासिनां करणं यत्तव कांतिमत्तया।
तदिद गतमीदृशीं दशां न विदीर्ये कठिना: खलु स्त्रिय:॥[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2.7, मेघदूत
  2. 2.50, मेघदूत
  3. 4.5, कुमारसम्भव

बाहरी कड़ियाँ

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