"वैशाली की नगरवधू -चतुरसेन शास्त्री" के अवतरणों में अंतर
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+ | '''वैशाली की नगरवधू''' [[चतुरसेन शास्त्री|आचार्य चतुरसेन शास्त्री]] (1891-1960 ई.) की सर्वश्रेष्ठ औपन्यासिक रचना है। यह [[उपन्यास]] दो भागों में हैं, जिसके प्रथम संस्करण [[दिल्ली]] से क्रमश: 1948 तथा 1949 ई. में प्रकाशित हुए। इस उपन्यास का कथात्मक परिवेश ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक है। इसकी कहानी बौद्ध काल से सम्बद्ध है और इसमें तत्कालीन लिच्छिवि संघ की राजधानी [[वैशाली]] की पुरावधू '[[आम्रपाली]]' को प्रधान चरित्र के रूप में अवतरित करते हुए उस [[युग]] के हास-विलासपूर्ण सांस्कृतिक वातावरण को अंकित करने हुए चेष्टा की गयी है। | ||
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*‘वैशाली की नगरवधू’ चतुरसेन शास्त्री की सर्वश्रेष्ठ रचना है। यह बात कोई इन पंक्तियों का लेखक नहीं कह रहा, बल्कि स्वयं आचार्य शास्त्री ने इस पुस्तक के सम्बन्ध में उल्लिखित किया है - | *‘वैशाली की नगरवधू’ चतुरसेन शास्त्री की सर्वश्रेष्ठ रचना है। यह बात कोई इन पंक्तियों का लेखक नहीं कह रहा, बल्कि स्वयं आचार्य शास्त्री ने इस पुस्तक के सम्बन्ध में उल्लिखित किया है - | ||
<blockquote>मैं अब तक की अपनी सारी रचनाओं को रद्द करता हूँ, और वैशाली की नगरवधू को अपनी एकमात्र रचना घोषित करता हूँ।</blockquote> | <blockquote>मैं अब तक की अपनी सारी रचनाओं को रद्द करता हूँ, और वैशाली की नगरवधू को अपनी एकमात्र रचना घोषित करता हूँ।</blockquote> | ||
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− | <blockquote>यह सत्य है कि यह उपन्यास है। परन्तु इससे अधिक सत्य यह है कि यह एक गम्भीर रहस्यपूर्ण संकेत है, जो उस काले पर्दे के प्रति है, जिसकी ओट में आर्यों के धर्म, साहित्य, राजसत्ता और संस्कृति की पराजय, मिश्रित जातियों की प्रगतिशील विजय सहस्राब्दियों से छिपी हुई है, जिसे सम्भवत: किसी इतिहासकार ने आँख उघाड़कर देखा नहीं है।</blockquote> | + | <blockquote>यह सत्य है कि यह उपन्यास है। परन्तु इससे अधिक सत्य यह है कि यह एक गम्भीर रहस्यपूर्ण संकेत है, जो उस काले पर्दे के प्रति है, जिसकी ओट में आर्यों के [[धर्म]], [[साहित्य]], राजसत्ता और [[संस्कृति]] की पराजय, मिश्रित जातियों की प्रगतिशील विजय सहस्राब्दियों से छिपी हुई है, जिसे सम्भवत: किसी इतिहासकार ने आँख उघाड़कर देखा नहीं है।</blockquote> |
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+ | [[उपन्यास]] का कथानक [[शिशुनाग वंश]] के [[बिम्बसार|राजा बिम्बसार]] के समय [[मगध महाजनपद|मगध राज्य]] और वज्जि गणतंत्र की राजधानी [[वैशाली]] के इर्दगिर्द घूमता है। बीच बीच में उस समय के अन्य [[महाजनपद]] जैसे [[कौशाम्बी]], [[श्रावस्ती]], [[विदेह]], [[अंग]], [[कलिंग]], [[गांधार]] आदि का भी उल्लेख होता रहता है। वैशाली की नगरवधू [[आम्रपाली]] को वज्जि गणतंत्र द्वारा जनपदकल्याणी घोषित कर दिया गया है। वैशाली में उस समय यह कानून था कि गणतंत्र की जो सबसे सुन्दर बालिका होगी उस पर पूरे गणतंत्र का समान अधिकार होगा, वह किसी एक व्यक्ति की होकर नहीं रह सकती है। इस कानून को [[आम्रपाली]] ने धिक्कृत कानून कहा था। कथानक [[बुद्ध|भगवान बुद्ध]] और [[महावीर|महावीर जैन]] की तरफ भी जाता है और उन्होंने जो समाजोत्थान के लिए कार्य किया था उसका भी वर्णन है। [[इतिहास]] पढ़ने वाले लोग जानते होंगे कि [[बिम्बसार|मगध सम्राट बिम्बसार]] [[आम्रपाली]] पर आसक्त होकर वैशाली पर आधिपत्य करना चाहता था और जिसके लिए उसने [[वैशाली]] पर आक्रमण किया था। | ||
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+ | इस [[उपन्यास]] में उस समय के नए धार्मिक आंदोलनों का जनमानस पर असर दिखाया गया है। यद्यपि उस समय बुद्ध और महावीर के विचारों को अत्यंत प्रशंसा मिली थी और उन्हें उस समय अलग [[धर्म]] के रूप में नहीं देखा गया था और न ही इतना विरोध हुआ था जैसा कि आज के समय में एक धर्म में दूसरे धर्म के प्रति देखा जाता है। राजाओं के द्वारा तब इन नए धर्मों को संरक्षण भी मिला था जो कि बाद में [[चन्द्रगुप्त मौर्य]] और [[सम्राट अशोक]] के समय में और ज्यादा बढ़ गया था जिससे [[बौद्ध धर्म|बौद्ध]] और [[जैन धर्म|जैन धर्मों]] के अनुयायियों की संख्या बढ़ गयी थी। भगवान बुद्ध की विचारधारा को उस समय के समाज ने अपनाया था क्योंकि उन्होंने जो कहा था वह हर एक मनुष्य के लिए संभव था और उसके लिए महंगे अनुष्ठानों की आवश्यकता भी नहीं थी। आर्यों की धार्मिक प्रगति को भी लेखक ने दर्शाया है कि किस प्रकार उस समय के श्रोत्रीय [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] ने चौथे [[वेद|वेद]] [[अथर्ववेद]] की रचना की थी और उसमें जो नए नियम प्रतिपादित किये गए उनकी संकल्पना कैसे की गई थी और उस पर वाद-विवाद से क्या निष्कर्ष निकला था। याज्ञवल्क्य जैसे विचारकों के नए विचारों से समाज में क्या हलचल हुई थी यह भी दिखाया गया है। | ||
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+ | लेखक ने उस समय के जातीय संघर्ष को भी दिखाया गया है। सही मायने में उसे संघर्ष तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि निचले वर्णक्रम के लोगों के पास कोई अधिकार और कोई शक्ति-संसाधन तो थे नहीं संघर्ष करने के लिए। उपन्यास में दिखाया गया है कि भोग-विलास का जीवन जीने के लिए किस प्रकार [[विवाह]] के नियम बनाये गए थे और किस प्रकार शूद्रों आदि को राजप्रासादों से दूर रखा गया था। [[उपन्यास]] में इसके लिए आर्यों को उत्तरदायी ठहराया गया है। वर्णसंकर अथवा मिश्रित जातियों के लोगों तथा साम्राज्यों को हेयदृष्टि से देखा जाता था। बुद्ध और महावीर ने समाज में इसके विरुद्ध उपदेश दिया तथा उनके समागमों में सब लोग बराबर थे, इसके कारण से समाज में उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ी। | ||
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+ | राजाओं की सत्ता लोलुपता कितने पहले से है इसका अंदाज़ा [[उपन्यास]] पढ़कर ही लगता है। किसानों को अपनी उपज का एक बड़ा भाग राजाओं को देना पड़ता था। राजमहालय हर एक भौतिक सुख-सुविधा से संपन्न थे। [[गंगा नदी]] में बाढ़ के समय जनता की सहायता का बीड़ा भी एक बूढ़े संत ने उठाया था। मगध राज्य और वज्जि गणतंत्र बेफिक्र थे। यद्यपि वैशाली कहने को तो गणतंत्र था लेकिन उसमे भी चुनाव का अधिकार सिर्फ लिच्छवियों को था। अन्य सभी लोग इस अधिकार से वंचित थे। लेखक ने कहानी के पात्रों के माध्यम से दिखाना चाहा है कि गणतंत्र की हालत एक सामान्य राज्य से अधिक भिन्न नहीं थी। वहां भी [[राजधानी]] के [[किला|किलों]] से बाहर की जनता पीड़ित और असहाय थी। ऐसा सोचा जा सकता है कि गणतंत्र में राजाओं की जगह चुने हुए गणपतियों ने ले ली थी। दास-दासियों का क्रय-विक्रय धनी और सामर्थ्यवान लोगों के लिए सामान्य बात थी। | ||
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+ | उपन्यास में 500 ईसा पूर्व के काल, जिसे उत्तर [[वैदिक काल]] भी कहा जाता है, की जीवन शैली का चित्रण किया है। दिखाया गया है कि आर्य जो कि मूलतः कृषक और पशुपालक थे, किस प्रकार राजकाज में उच्चपदों पर आरूढ़ हो रहे थे। व्यापार मार्गों की सुरक्षा किसी भी [[राज्य]] के सुचारू रूप से चलने में उतनी ही महत्वपूर्ण थी जितनी कि आज है। व्यापारी तरह-तरह की वस्तुएं बेंचने के लिए हजारो कोस की यात्रा करके आते थे। राजा लोग अपना साम्राज्य बढ़ने के लिए [[राजसूय यज्ञ]] करते थे। [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] और पंडितों का समाज में सम्मान और भय दोनों ही था। इस [[उपन्यास]] में मूलतया श्रोत्रीय ब्राह्मणों का ज़िक्र किया गया है। राजकुमारों में राजा से राज्य हथियाने की इच्छा रहा करती थी जैसा कि श्रावस्ती में देखा गया था। इस पुस्तक में उस समय के युद्धों का सजीव चित्रण हुआ है और प्रचलित हथियारों जैसे [[खड्ग शस्त्र|खड्ग]], तीर इत्यादि का प्रयोग करते हुए रणनीतियाँ बनाई गई हैं। | ||
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+ | इस उपन्यास में पौराणिक कथाओं और धार्मिक घटनाओं का वर्णन ऐसे हुआ है जैसे वह ऐतिहासिक घटनाएं हों। [[महाभारत]] का उल्लेख दो पात्रों के संवाद के बीच आता है और उसमें उसे पहले की हुई घटना के रूप में दिखाया गया है। [[जरासंध]] का मगध साम्राज्य के पूर्व राजा के रूप में चित्रण है। कहानी के बीच बीच में देवासुर संग्राम का ज़िक्र आता है जिसमें कई बुद्धिमान और निपुण मनुष्यों ने [[देवता|देवों]] की ओर से [[असुर|असुरों]] के विरुद्ध भाग लिया था। इन सब घटनाओं के माध्यम से लेखक ने इस धारणा को बलवती करने का प्रयास किया है कि आज के धार्मिक प्रसंग कभी ऐतिहासिक घटनाएं हुआ करतीं थी, जिन्हें सदियों के अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन ने धार्मिक घटनाओं के रूप में स्थापित कर दिया। ऐसे ही कुछ विचार पुरातत्वविद प्रोफेसर बी. बी. लाल के भी थे जिन्होंने ऐसा ही कुछ [[महाभारत]] के सन्दर्भ में कहा था। | ||
+ | == साहित्यिक शैली == | ||
+ | उपन्यास में जादुई यथार्थवाद का एक साहित्यिक शैली के रूप में प्रयोग कई जगहों पर किया गया है। इस शैली में कोई घटना या पात्र सामान्य रूप में संभव नहीं होता है लेकिन उसे [[साहित्य]] में ऐसे प्रस्तुत किया जाता है जैसे यह एक एकदम सामान्य घटना है। उदाहरण के लिए कुण्डनी का एक विषकन्या होना या असुरों की बस्ती के निकट जादुई नीले प्रकाश से खिंचे चले जाना, आदि उद्धृत किये जा सकते हैं। उपन्यास की शैली सरल और रुचिपूर्ण हैं। इस पुस्तक में तत्सम शब्दों का अत्यधिक इस्तेमाल किया गया है, जिससे उपन्यास का कलेवर संस्कृतनिष्ठ बन पड़ा है। ऐसे शब्दों का अत्यधिक प्रयोग हुआ है जिनका आज बोलचाल की [[हिंदी]] में प्रयोग नहीं होता है। लेकिन यदि यह देखा जाये कि यह एक ऐतिहासिक [[उपन्यास]] है और इसमें उस समय की भाषा का प्रभाव लाने की कोशिश की गई है, तो यह सर्वथा उचित लगता है। कुछ वर्ष पूर्व श्रावस्ती के जैतवन जाने का अवसर प्राप्त हुआ था। इस उपन्यास में उसका उल्लेख देखकर वह स्मृतियाँ ताजा हो आयीं हैं और अनेक जगहों पर, जिनका सम्बन्ध [[बुद्ध|भगवान बुद्ध]] से भी रहा है, जाने की इच्छा हुई। | ||
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वैशाली की नगरवधू -चतुरसेन शास्त्री
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लेखक | आचार्य चतुरसेन शास्त्री |
मूल शीर्षक | वैशाली की नगरवधू |
मुख्य पात्र | आम्रपाली |
प्रकाशक | राजपाल एंड सन्स |
प्रकाशन तिथि | 1948 तथा 1949 ई. |
ISBN | 9788170282822 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 447 |
भाषा | हिंदी |
प्रकार | उपन्यास |
मुखपृष्ठ रचना | सजिल्द |
वैशाली की नगरवधू आचार्य चतुरसेन शास्त्री (1891-1960 ई.) की सर्वश्रेष्ठ औपन्यासिक रचना है। यह उपन्यास दो भागों में हैं, जिसके प्रथम संस्करण दिल्ली से क्रमश: 1948 तथा 1949 ई. में प्रकाशित हुए। इस उपन्यास का कथात्मक परिवेश ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक है। इसकी कहानी बौद्ध काल से सम्बद्ध है और इसमें तत्कालीन लिच्छिवि संघ की राजधानी वैशाली की पुरावधू 'आम्रपाली' को प्रधान चरित्र के रूप में अवतरित करते हुए उस युग के हास-विलासपूर्ण सांस्कृतिक वातावरण को अंकित करने हुए चेष्टा की गयी है।
- घटनाओं की प्रधानता
उपन्यास में घटनाओं की प्रधानता है किंतु उनका संघटन सतर्कतापूर्वक किया गया है और बौद्धकालीन सामग्री के विभिन्न स्रोतों का उपयोग करते हुए उन्हें एक हद तक प्रामाणिक एवं प्रभावोत्पादक बनाने की चेष्टा की गयी है। उपन्यास की भाषा में ऐतिहासिक वातावरण का निर्माण करने के लिए बहुत से पुराकालीन शब्दों का उपयोग किया गया है। कुल मिलाकर चतुरसेन की यह कृति हिन्दी के ऐतिहासिक उपन्यासों में उल्लेखनीय है।
- सर्वश्रेष्ठ रचना
- ‘वैशाली की नगरवधू’ चतुरसेन शास्त्री की सर्वश्रेष्ठ रचना है। यह बात कोई इन पंक्तियों का लेखक नहीं कह रहा, बल्कि स्वयं आचार्य शास्त्री ने इस पुस्तक के सम्बन्ध में उल्लिखित किया है -
मैं अब तक की अपनी सारी रचनाओं को रद्द करता हूँ, और वैशाली की नगरवधू को अपनी एकमात्र रचना घोषित करता हूँ।
- भूमिका में उन्होंने स्वयं ही इस कृति के कथानक पर अपनी सहमति दी है -
यह सत्य है कि यह उपन्यास है। परन्तु इससे अधिक सत्य यह है कि यह एक गम्भीर रहस्यपूर्ण संकेत है, जो उस काले पर्दे के प्रति है, जिसकी ओट में आर्यों के धर्म, साहित्य, राजसत्ता और संस्कृति की पराजय, मिश्रित जातियों की प्रगतिशील विजय सहस्राब्दियों से छिपी हुई है, जिसे सम्भवत: किसी इतिहासकार ने आँख उघाड़कर देखा नहीं है।
कथावस्तु
उपन्यास का कथानक शिशुनाग वंश के राजा बिम्बसार के समय मगध राज्य और वज्जि गणतंत्र की राजधानी वैशाली के इर्दगिर्द घूमता है। बीच बीच में उस समय के अन्य महाजनपद जैसे कौशाम्बी, श्रावस्ती, विदेह, अंग, कलिंग, गांधार आदि का भी उल्लेख होता रहता है। वैशाली की नगरवधू आम्रपाली को वज्जि गणतंत्र द्वारा जनपदकल्याणी घोषित कर दिया गया है। वैशाली में उस समय यह कानून था कि गणतंत्र की जो सबसे सुन्दर बालिका होगी उस पर पूरे गणतंत्र का समान अधिकार होगा, वह किसी एक व्यक्ति की होकर नहीं रह सकती है। इस कानून को आम्रपाली ने धिक्कृत कानून कहा था। कथानक भगवान बुद्ध और महावीर जैन की तरफ भी जाता है और उन्होंने जो समाजोत्थान के लिए कार्य किया था उसका भी वर्णन है। इतिहास पढ़ने वाले लोग जानते होंगे कि मगध सम्राट बिम्बसार आम्रपाली पर आसक्त होकर वैशाली पर आधिपत्य करना चाहता था और जिसके लिए उसने वैशाली पर आक्रमण किया था।
इस उपन्यास में उस समय के नए धार्मिक आंदोलनों का जनमानस पर असर दिखाया गया है। यद्यपि उस समय बुद्ध और महावीर के विचारों को अत्यंत प्रशंसा मिली थी और उन्हें उस समय अलग धर्म के रूप में नहीं देखा गया था और न ही इतना विरोध हुआ था जैसा कि आज के समय में एक धर्म में दूसरे धर्म के प्रति देखा जाता है। राजाओं के द्वारा तब इन नए धर्मों को संरक्षण भी मिला था जो कि बाद में चन्द्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक के समय में और ज्यादा बढ़ गया था जिससे बौद्ध और जैन धर्मों के अनुयायियों की संख्या बढ़ गयी थी। भगवान बुद्ध की विचारधारा को उस समय के समाज ने अपनाया था क्योंकि उन्होंने जो कहा था वह हर एक मनुष्य के लिए संभव था और उसके लिए महंगे अनुष्ठानों की आवश्यकता भी नहीं थी। आर्यों की धार्मिक प्रगति को भी लेखक ने दर्शाया है कि किस प्रकार उस समय के श्रोत्रीय ब्राह्मणों ने चौथे वेद अथर्ववेद की रचना की थी और उसमें जो नए नियम प्रतिपादित किये गए उनकी संकल्पना कैसे की गई थी और उस पर वाद-विवाद से क्या निष्कर्ष निकला था। याज्ञवल्क्य जैसे विचारकों के नए विचारों से समाज में क्या हलचल हुई थी यह भी दिखाया गया है।
लेखक ने उस समय के जातीय संघर्ष को भी दिखाया गया है। सही मायने में उसे संघर्ष तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि निचले वर्णक्रम के लोगों के पास कोई अधिकार और कोई शक्ति-संसाधन तो थे नहीं संघर्ष करने के लिए। उपन्यास में दिखाया गया है कि भोग-विलास का जीवन जीने के लिए किस प्रकार विवाह के नियम बनाये गए थे और किस प्रकार शूद्रों आदि को राजप्रासादों से दूर रखा गया था। उपन्यास में इसके लिए आर्यों को उत्तरदायी ठहराया गया है। वर्णसंकर अथवा मिश्रित जातियों के लोगों तथा साम्राज्यों को हेयदृष्टि से देखा जाता था। बुद्ध और महावीर ने समाज में इसके विरुद्ध उपदेश दिया तथा उनके समागमों में सब लोग बराबर थे, इसके कारण से समाज में उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ी।
राजाओं की सत्ता लोलुपता कितने पहले से है इसका अंदाज़ा उपन्यास पढ़कर ही लगता है। किसानों को अपनी उपज का एक बड़ा भाग राजाओं को देना पड़ता था। राजमहालय हर एक भौतिक सुख-सुविधा से संपन्न थे। गंगा नदी में बाढ़ के समय जनता की सहायता का बीड़ा भी एक बूढ़े संत ने उठाया था। मगध राज्य और वज्जि गणतंत्र बेफिक्र थे। यद्यपि वैशाली कहने को तो गणतंत्र था लेकिन उसमे भी चुनाव का अधिकार सिर्फ लिच्छवियों को था। अन्य सभी लोग इस अधिकार से वंचित थे। लेखक ने कहानी के पात्रों के माध्यम से दिखाना चाहा है कि गणतंत्र की हालत एक सामान्य राज्य से अधिक भिन्न नहीं थी। वहां भी राजधानी के किलों से बाहर की जनता पीड़ित और असहाय थी। ऐसा सोचा जा सकता है कि गणतंत्र में राजाओं की जगह चुने हुए गणपतियों ने ले ली थी। दास-दासियों का क्रय-विक्रय धनी और सामर्थ्यवान लोगों के लिए सामान्य बात थी।
उपन्यास में 500 ईसा पूर्व के काल, जिसे उत्तर वैदिक काल भी कहा जाता है, की जीवन शैली का चित्रण किया है। दिखाया गया है कि आर्य जो कि मूलतः कृषक और पशुपालक थे, किस प्रकार राजकाज में उच्चपदों पर आरूढ़ हो रहे थे। व्यापार मार्गों की सुरक्षा किसी भी राज्य के सुचारू रूप से चलने में उतनी ही महत्वपूर्ण थी जितनी कि आज है। व्यापारी तरह-तरह की वस्तुएं बेंचने के लिए हजारो कोस की यात्रा करके आते थे। राजा लोग अपना साम्राज्य बढ़ने के लिए राजसूय यज्ञ करते थे। ब्राह्मणों और पंडितों का समाज में सम्मान और भय दोनों ही था। इस उपन्यास में मूलतया श्रोत्रीय ब्राह्मणों का ज़िक्र किया गया है। राजकुमारों में राजा से राज्य हथियाने की इच्छा रहा करती थी जैसा कि श्रावस्ती में देखा गया था। इस पुस्तक में उस समय के युद्धों का सजीव चित्रण हुआ है और प्रचलित हथियारों जैसे खड्ग, तीर इत्यादि का प्रयोग करते हुए रणनीतियाँ बनाई गई हैं।
इस उपन्यास में पौराणिक कथाओं और धार्मिक घटनाओं का वर्णन ऐसे हुआ है जैसे वह ऐतिहासिक घटनाएं हों। महाभारत का उल्लेख दो पात्रों के संवाद के बीच आता है और उसमें उसे पहले की हुई घटना के रूप में दिखाया गया है। जरासंध का मगध साम्राज्य के पूर्व राजा के रूप में चित्रण है। कहानी के बीच बीच में देवासुर संग्राम का ज़िक्र आता है जिसमें कई बुद्धिमान और निपुण मनुष्यों ने देवों की ओर से असुरों के विरुद्ध भाग लिया था। इन सब घटनाओं के माध्यम से लेखक ने इस धारणा को बलवती करने का प्रयास किया है कि आज के धार्मिक प्रसंग कभी ऐतिहासिक घटनाएं हुआ करतीं थी, जिन्हें सदियों के अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन ने धार्मिक घटनाओं के रूप में स्थापित कर दिया। ऐसे ही कुछ विचार पुरातत्वविद प्रोफेसर बी. बी. लाल के भी थे जिन्होंने ऐसा ही कुछ महाभारत के सन्दर्भ में कहा था।
साहित्यिक शैली
उपन्यास में जादुई यथार्थवाद का एक साहित्यिक शैली के रूप में प्रयोग कई जगहों पर किया गया है। इस शैली में कोई घटना या पात्र सामान्य रूप में संभव नहीं होता है लेकिन उसे साहित्य में ऐसे प्रस्तुत किया जाता है जैसे यह एक एकदम सामान्य घटना है। उदाहरण के लिए कुण्डनी का एक विषकन्या होना या असुरों की बस्ती के निकट जादुई नीले प्रकाश से खिंचे चले जाना, आदि उद्धृत किये जा सकते हैं। उपन्यास की शैली सरल और रुचिपूर्ण हैं। इस पुस्तक में तत्सम शब्दों का अत्यधिक इस्तेमाल किया गया है, जिससे उपन्यास का कलेवर संस्कृतनिष्ठ बन पड़ा है। ऐसे शब्दों का अत्यधिक प्रयोग हुआ है जिनका आज बोलचाल की हिंदी में प्रयोग नहीं होता है। लेकिन यदि यह देखा जाये कि यह एक ऐतिहासिक उपन्यास है और इसमें उस समय की भाषा का प्रभाव लाने की कोशिश की गई है, तो यह सर्वथा उचित लगता है। कुछ वर्ष पूर्व श्रावस्ती के जैतवन जाने का अवसर प्राप्त हुआ था। इस उपन्यास में उसका उल्लेख देखकर वह स्मृतियाँ ताजा हो आयीं हैं और अनेक जगहों पर, जिनका सम्बन्ध भगवान बुद्ध से भी रहा है, जाने की इच्छा हुई।
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